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कठोर बातें, कुचली भावनाएँ

“काहिल कहीं की!”a जापान में एक स्त्री को ये शब्द नहीं भूलते—बचपन में उठते-बैठते उसको यही सुनने को मिलता था। किससे? स्कूल के बच्चों से? भाई-बहनों से? नहीं। अपने माता-पिता से। वह याद करती है: “मैं हताश हो जाती थी क्योंकि ऐसे लांछनों से मेरी भावनाओं को बहुत चोट पहुँचती थी।”

अमरीका में एक पुरुष याद करता है कि बचपन में, जैसे ही उसके पिता घर आते थे वह भयभीत और बेचैन हो उठता था। “मैं आज तक उनकी गाड़ी के पहियों की आवाज़ सुन सकता हूँ,” वह याद करता है, “और मुझमें सिहरन दौड़ जाती है। मेरी छोटी बहन छिप जाती थी। मेरे पिता हर काम में पूर्णता चाहते थे और हमेशा हमें डाँटते रहते थे कि हम काम ठीक से नहीं करते।”

इस पुरुष की बहन आगे कहती है: “मुझे याद नहीं कि हमारे माता-पिता में से एक ने भी कभी हमें गले लगाया हो, चूमा हो, या कुछ ऐसा कहा हो, ‘तुम मुझे प्यारे हो’ या ‘मुझे तुम पर नाज़ है।’ और एक बच्चे के लिए, कभी ‘तुम मुझे प्यारे हो’ न सुनना—अपने जीवन के हर दिन—यह सुनने के बराबर है ‘मुझे तुमसे नफ़रत है।’”

कुछ यह कह सकते हैं कि इन लोगों ने बचपन में जो दुःख सहा वह छोटी-सी बात थी। बच्चों को कठोर, निष्ठुर बातें सुनाना और उनके साथ बुरा व्यवहार करना निश्‍चित ही कोई असाधारण बात नहीं है। यह अख़बारों में रोंगटे खड़े करनेवाली सुर्ख़ियों और सनसनीख़ेज़ छोटे-मोटे टीवी कार्यक्रमों का विषय नहीं है। नुक़सान दिखायी नहीं देता। लेकिन यदि माता-पिता इस तरह से अपने बच्चों के साथ दिन-प्रति-दिन दुर्व्यवहार करते हैं, तो इसके प्रभाव निश्‍चित ही विनाशकारी होंगे—और जीवन भर नहीं जाएँगे।

वर्ष १९५१ में एक अध्ययन किया गया जिसमें पाँच-वर्षीय बच्चों के एक समूह पर माता-पिता द्वारा पालन-पोषण के तरीक़ों की जाँच की गयी और १९९० में इसी अध्ययन को आगे बढ़ाया गया। शोधकर्ताओं ने इनमें से कई बच्चों को ढूँढ़ निकाला, जो अब अधेड़ उम्र के हैं, ताकि उनके पालन-पोषण के दीर्घकालिक प्रभावों पर अंतर्दृष्टि पा सकें। इस नये अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि जिन बच्चों को जीवन में आगे चलकर सबसे अधिक कठिनाई हुई, जिनको भावात्मक समस्याएँ हुईं, और जिनको वैवाहिक जीवन, मित्रता और यहाँ तक कि नौकरी में कठिनाइयाँ हुईं, वे ज़रूरी नहीं कि ग़रीब घर के या अमीर घर के बच्चे थे या यह कि उनके माता-पिता को काफ़ी समस्याएँ थीं। वे ऐसे बच्चे थे जिनके माता-पिता रूखे-से और उखड़े-से थे और स्नेह तो बहुत कम या बिलकुल भी नहीं दिखाते थे।

यह निष्कर्ष उस सत्य की एक धुँधली-सी झलक भर है जो क़रीब २,००० साल पहले लिखा गया था: “हे बच्चेवालो, अपने बालकों को तंग न करो, न हो कि उन का साहस टूट जाए।” (कुलुस्सियों ३:२१) जब माता-पिता मौखिक और भावात्मक दुर्व्यवहार करते हैं तब निश्‍चित ही बच्चे तंग हो जाते हैं और इसके फलस्वरूप उनका साहस सचमुच टूट सकता है।

पुस्तक उदासी में बड़े होना (अंग्रेज़ी) के अनुसार, कुछ ही समय पहले डॉक्टर सोचते थे कि बचपन की हताशा नाम की कोई चीज़ नहीं है। लेकिन समय और अनुभव ने इसका उलटा साबित किया है। आज, लेखक दावा करते हैं कि बचपन की हताशा होती है और यह बहुत आम बात है। माता-पिता द्वारा ठुकराया जाना और दुर्व्यवहार इसके कारणों में से हैं। लेखक समझाते हैं: “कुछ क़िस्सों में जनक ने बच्चे पर आलोचना और अपमान की झड़ी लगा दी है। दूसरे क़िस्सों में जनक-बालक संबंध में एक खाई है: जनक बच्चे के लिए अपना प्रेम कभी व्यक्‍त नहीं करता। . . . ऐसे माता-पिताओं के बच्चों के लिए इसका परिणाम ख़ासकर त्रासद होता है क्योंकि बच्चे के लिए—या इस संबंध में बड़े के लिए भी—प्रेम वह काम करता है जो धूप और पानी एक पौधे के लिए करते हैं।”

यदि साफ़-साफ़ और खुलकर व्यक्‍त किया जाए, तो माता-पिता द्वारा दिखाये गये प्रेम से बच्चे एक महत्त्वपूर्ण सत्य सीखते हैं: वे प्रिय हैं; वे मूल्यवान हैं। अनेक लोग इस धारणा को अक्खड़पन का एक रूप समझते हैं, यह कि व्यक्‍ति दूसरों से अधिक अपने आपसे प्रेम करता है। लेकिन इस संदर्भ में, इसका यह अर्थ नहीं है। इस विषय पर अपनी पुस्तक में एक लेखिका कहती है: “अपने बारे में आपके बच्चे की राय का प्रभाव इस पर पड़ेगा कि वह किस क़िस्म के दोस्त चुनता है, उसकी दूसरों के साथ कैसे पटती है, वह किस क़िस्म के व्यक्‍ति से विवाह करता है और वह कितना सफल होगा।” बाइबल दिखाती है कि अपने बारे में एक संतुलित, अहंकाररहित दृष्टिकोण होना कितना महत्त्वपूर्ण है जब वह दूसरी सबसे बड़ी आज्ञा बताती है: “तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।” (तिरछे टाइप हमारे।)—मत्ती २२:३८, ३९.

इसकी कल्पना करना कठिन है कि कोई सामान्य माता-पिता एक बच्चे के आत्म-सम्मान जैसी महत्त्वपूर्ण और कोमल चीज़ को चूर करना चाहेंगे। तो फिर, प्रायः ऐसा क्यों होता है? और इसे कैसे रोका जा सकता है?

[फुटनोट]

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