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lfb पाठ 13 पेज 36-पेज 37 पैरा. 2
याकूब झुककर प्रणाम करता है और एसाव उसकी तरफ दौड़कर आता है

पाठ 13

याकूब और एसाव ने सुलह कर ली

यहोवा ने याकूब से वादा किया कि वह उसे खतरों से बचाएगा, जैसे उसने अब्राहम और इसहाक को बचाया था। याकूब हारान नाम की जगह बस गया। वहाँ उसने शादी की और उसका एक बड़ा परिवार बना और वह बहुत अमीर हो गया।

बाद में यहोवा ने याकूब से कहा, ‘तू अपने देश लौट जा।’ इसलिए याकूब और उसका परिवार एक लंबे सफर पर निकल पड़ा। रास्ते में याकूब के कुछ सेवकों ने उसे बताया, ‘तेरा भाई एसाव आ रहा है और उसके साथ 400 आदमी हैं!’ याकूब डर गया क्योंकि उसे लगा कि एसाव उसे और उसके परिवार को चोट पहुँचाएगा। उसने यहोवा से प्रार्थना की, ‘दया करके मुझे मेरे भाई से बचा ले।’ अगले दिन याकूब ने एसाव को तोहफे में बहुत-सी भेड़-बकरियाँ, गाय, ऊँट और गधे भेजे।

उसी दिन रात को जब याकूब अकेला था तो उसने एक स्वर्गदूत को देखा! वह स्वर्गदूत उससे कुश्‍ती लड़ने लगा। वे सुबह तक कुश्‍ती लड़ते रहे। याकूब को चोट लग गयी, फिर भी उसने हार नहीं मानी। स्वर्गदूत ने उससे कहा, “मुझे जाने दे।” मगर याकूब ने कहा, “मैं तुझे तब तक नहीं छोड़ूँगा जब तक तू मुझे आशीर्वाद नहीं देगा।”

आखिर में स्वर्गदूत ने याकूब को आशीर्वाद दिया। अब याकूब को यकीन हो गया कि यहोवा उसे एसाव से ज़रूर बचाएगा।

कुछ समय बाद, याकूब ने देखा कि दूर से एसाव और उसके 400 आदमी आ रहे हैं। याकूब अपने परिवार के आगे-आगे चलकर गया और उसने अपने भाई को सात बार झुककर प्रणाम किया। तब एसाव दौड़कर याकूब के पास आया और उसे गले लगा लिया। दोनों भाई फूट-फूटकर रोने लगे और उन्होंने सुलह कर ली। आपको क्या लगता है, एसाव से सुलह करने के लिए याकूब ने जो कदम उठाया उसे देखकर यहोवा को कैसा लगा होगा?

बाद में एसाव अपने घर लौट गया और याकूब अपने सफर पर आगे चलता गया। याकूब के 12 बेटे थे। उनके नाम थे रूबेन, शिमोन, लेवी, यहूदा, दान, नप्ताली, गाद, आशेर, इस्साकार, जबूलून, यूसुफ और बिन्यामीन। याकूब के एक बेटे यूसुफ के ज़रिए यहोवा ने अपने लोगों को बचाया। कैसे? आइए देखें।

“अपने दुश्‍मनों से प्यार करते रहो और जो तुम्हें सताते हैं, उनके लिए प्रार्थना करते रहो। इस तरह तुम साबित करो कि तुम स्वर्ग में रहनेवाले अपने पिता के बेटे हो।”—मत्ती 5:44, 45

सवाल: याकूब को क्यों आशीर्वाद मिला? उसने अपने भाई से सुलह कैसे की?

उत्पत्ति 28:13-15; 31:3, 17, 18; 32:1-29; 33:1-18; 35:23-26

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