‘काश, हर कोई उनके जैसा होता!’
ये शब्द लक्समबर्ग के समाचार-पत्र लॆटसबूरगर ज़ूरनाल के एक स्तंभ-लेखक के थे। वह किसके बारे में बात कर रहा था?
वह आउश्विट्स् की स्वतंत्रता की ५०वीं वर्षगाँठ के समारोह में उपस्थित होने के लिए पोलैंड गया था और उसने नोट किया कि एक समूह, जिसने वहाँ बहुत पीड़ा सही थी, का कोई ज़िक्र नहीं किया गया। फरवरी २, १९९५ के अपने स्तंभ में, उसने इस समूह की पहचान यहोवा के साक्षियों के तौर पर करायी और लिखा: “न तो सबसे कड़ी क़ैद या नज़रबन्दी शिविर, ना ही भुखमरी बैरकों या आरी अथवा गिलोटिन द्वारा ख़त्म किए जाने का ख़तरा उन्हें अपने विश्वास को त्यागने के लिए मजबूर कर सका।” उसने आगे कहा: “निर्दयी SS पहरेदार भी उस साहस से चकित हुए जिससे यहोवा के साक्षियों ने अपनी मौत का सामना किया।”
यहोवा के साक्षी शहीद होना नहीं चाहते थे। लेकिन, प्रथम-शताब्दी में मसीहियों के जैसे, उन में से हज़ारों ने मसीही सिद्धान्तों पर समझौता करने के बजाय मौत को चुना। ऐसे विश्वास ने उन्हें नात्ज़ी शासन के अन्धकारपूर्ण दिनों में विशिष्ट रूप से भिन्न दिखाया।
उस स्तंभ-लेखक ने आख़िर में कहा: “काश, सभी लोग यहोवा के साक्षियों जैसे होते!” अगर वे होते, तो दूसरा विश्वयुद्ध कभी न हुआ होता।