वृद्धजनों के लिए कठिन समय
अम्मा ओनीयन की उम्र ६८ साल है। वह पश्चिम अफ्रीका के एक बड़े शहर में रहती हैं। कुछ साल पहले, वह सपने देखा करती थीं कि अपने बच्चों और नाती-पोतों से घिरी, चैन से बुढ़ापे का मज़ा लेंगी। इसके बजाय वह उष्णकटिबंधी धूप में पीने का ठंडा पानी बेचकर अपने दिन काटती हैं। जो थोड़ी-बहुत कमाई होती है उसी से गुज़ारा करती हैं। उनके दो बेटे किसी दूर देश में रहते हैं। बहुत समय से उन्होंने कोई पैसा नहीं भेजा।
पहले के समय में, अफ्रीका में वृद्धजनों को बहुत सम्मान मिलता था। उनका आदर किया जाता था क्योंकि उनके पास अनुभव और ज्ञान होता है, जिसके साथ प्रायः बुद्धि और समझ भी आती है। वे नाती-पोतों के लालन-पालन में मदद किया करते थे। युवा उनकी सलाह और स्वीकृति चाहते थे। लोग बाइबल की सलाह के अनुसार जीते थे: “पक्के बालवाले के साम्हने उठ खड़े होना, और बूढ़े [या, बूढ़ी] का आदरमान करना।”—लैव्यव्यवस्था १९:३२.
समय बदल गया है। ग़रीबी, महँगाई, बेरोज़गारी, और बड़ी संख्या में लोगों के शहरों में जा बसने के कारण बहुत-से वृद्धजन अकेले जीने पर मजबूर हुए हैं। हॆल्पएज कीन्या का निदेशक, कामिलस वर कहता है: “वृद्धजनों को सहारा देने और उनकी सेवा करने की परंपरा कमज़ोर होती जा रही है।”
निःसंदेह, पारिवारिक बंधन अफ्रीकी देशों में ही कमज़ोर नहीं पड़ रहे। जापान के बारे में, गार्डियन वीकली रिपोर्ट करती है: “संतानवत् श्रद्धा जापानी जीवन-मूल्य तंत्र का आधार हुआ करती थी जो कन्फ़्यूशीवाद की देन थी, लेकिन यह शहरीकरण और कमज़ोर पड़ते पारिवारिक बंधनों के आगे टिक नहीं पायी है: आज, ८५ प्रतिशत जापानी अस्पतालों में या वृद्धाश्रमों में मरते हैं।”
स्थिति जो भी हो, जो सचमुच परमेश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं वे अपने माता-पिता का सम्मान करने के लिए मेहनत करते हैं। वे बाइबल की सलाह मानते हैं: “अपनी माता और पिता का आदर कर . . . कि तेरा भला हो, और तू धरती पर बहुत दिन जीवित रहे।” (इफिसियों ६:२, ३) जबकि वृद्ध माता-पिता का सम्मान करना और उनकी सेवा करना हमेशा आसान नहीं होता, फिर भी यह बड़े प्रतिफल ला सकता है।