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  • क्या आत्महत्या उत्तर है?

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  • क्या आत्महत्या उत्तर है?
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सजग होइए!–1994
g94 4/8 पेज 17-19

युवा लोग पूछते हैं . . .

क्या आत्महत्या उत्तर है?

“मैं हर सुबह जागने से थक गया हूँ। मैं खो गया हूँ। मैं गुस्सा हूँ। मेरा हृदय दुःखी है। . . . इसलिए मैं जाने की सोचता हूँ। . . . मैं जाना नहीं चाहता, लेकिन मुझे लगता है कि मुझे जाना होगा। . . . मैं भविष्य में देखता हूँ, मैं सिर्फ़ अन्धकार और पीड़ा ही देखता हूँ।”—२१-वर्षीय पीटर का आत्महत्या नोट.a

विशेषज्ञ दावा करते हैं कि अमरीका में लगभग २० लाख युवाओं ने आत्महत्या करने की कोशिश की है। त्रासदी है कि वर्ष में लगभग ५,००० ऐसा करने में सफल हो जाते हैं। लेकिन युवाओं के मध्य आत्महत्या सिर्फ़ अमरीका की ही समस्या नहीं है। भारत में १९९० के दौरान कुछ ३०,००० युवाओं ने आत्महत्या की। इस्राएल, कनाडा, थाइलैंड, न्यू ज़ीलैंड, नीदरलैंडस्‌, फिनलैंड, फ्रांस, स्पेन, और स्विट्‌ज़रलैंड जैसे देशों में युवाओं के मध्य आत्महत्या की दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

तब क्या यदि कोई अत्यधिक उदास है—या तीव्र भावात्मक व्यथा में उलझा हुआ है और उसे निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता? आत्महत्या प्रलोभक प्रतीत हो सकती है, लेकिन असल में वह एक त्रासिक बरबादी से ज़्यादा कुछ नहीं। वह मित्रों और परिवार के लिए सिर्फ़ दुःख और पीड़ा ही छोड़ती है। चाहे भविष्य कितना ही अन्धकारपूर्ण क्यों न प्रतीत हो और चाहे समस्याएँ कितनी ही भयंकर क्यों न लगें, अपनी हत्या करना उत्तर नहीं है।

कुछ लोग ऐसा क्यों महसूस करते हैं

धर्मी पुरुष अय्यूब निराशा का अर्थ जानता था। अपना परिवार, अपनी सम्पत्ति, और अपना अच्छा स्वास्थ्य खो देने पर उसने कहा: “मेरा जी फांसी को, और जीवन से मृत्यु को अधिक चाहता है।” (अय्यूब ७:१५) आज भी कुछ युवाओं ने ऐसा ही महसूस किया है। एक लेखक ने इस प्रकार कहा: “तनाव . . . पीड़ा (चोट और डर की भावनाओं) की ओर ले जाता है [जो] बचाव (पीड़ा से बचने के प्रयासों) की ओर ले जाता है।” अतः आत्महत्या प्रतीयमान असहनीय पीड़ा से बचने का एक पथभ्रष्ट प्रयास है।

कौनसी बात ऐसी पीड़ा उत्पन्‍न करती है? यह एक घटना से उत्पन्‍न हो सकती है, जैसे कि अपने माता-पिता, प्रेमी, या प्रेमिका से अतिक्रुद्ध बहस। अपनी प्रेमिका से सम्बन्ध तोड़ने के बाद, १६-वर्षीय ब्रैड निराशा में डूब गया। हालाँकि उसने अपनी भावनाओं के बारे में कभी बात नहीं की। उसने ख़ुद को फांसी लगाकर सब कुछ समाप्त कर दिया।

उन्‍नीस-वर्षीया सुनीता हताशा में धँस गयी जब उसके माता-पिता को पता चल गया कि अपने प्रेमी के साथ उसके अनैतिक सम्बन्ध थे। वह याद करती है, “मैं जानती थी कि मैं उसी अवस्था में नहीं जीना चाहती थी। और इसलिए मैं एक रात घर आयी और ऐसप्रिन की गोलियाँ घोंटना शुरू कर दीं। अगली सुबह मुझे ख़ून की उलटियाँ हो रही थीं। मैं अपना जीवन नहीं बल्कि अपनी जीवन-शैली समाप्त करना चाहती थी।”

स्कूल भी अत्यधिक दबाव का स्रोत हो सकता है। आशीष के माता-पिता ने (जो स्वयं डॉक्टर हैं) उस पर डॉक्टर बनने के लिए ज़ोर दिया, इस कारण युवा आशीष को अनिद्रा की बीमारी हो गयी और वह लोगों से दूर-दूर रहने लगा। अपने माता-पिता की शैक्षिक प्रत्याशाओं को पूरा न कर पाने के कारण आशीष ने अधिक मात्रा में नींद की गोलियाँ खा लीं। यह बाइबल में नीतिवचन १५:१३ की याद दिलाता है: “मन के दुःख से आत्मा निराश होती है।”

पारिवारिक व्यथा

पारिवारिक अशांति—जैसे कि माता-पिता का तलाक़ या अलगाव, एक परिवार सदस्य की मृत्यु, या नयी जगह घर बदलना—कुछ युवाओं के आत्महत्या करने में एक और तत्त्व है। उदाहरण के लिए, ब्रैड, जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है, ने अपने दो घनिष्ठ मित्रों और एक रिश्‍तेदार को एक कार दुर्घटना में खो दिया। फिर उसके परिवार पर आर्थिक कठिनाइयाँ आने लगीं। ब्रैड अभिभूत हो गया। शायद उसने भजनहार की तरह महसूस किया जिसने पुकारा: “मेरा प्राण क्लेश से भरा हुआ है . . . वह मेरे चारों ओर दिखाई देता है।”—भजन ८८:३, १७.

भयप्रद संख्या में युवा एक और क़िस्म के तनाव में डाले जा रहे हैं: शारीरिक, भावात्मक, और लैंगिक दुर्व्यवहार। युवा आत्महत्या की एक सबसे ऊँची दर भारत के केरल राज्य में है। वहाँ अनेक किशोरियों ने अपने पिताओं द्वारा दुर्व्यवहार के कारण अपनी हत्या करने की कोशिश की है। संसार-भर में भिन्‍न प्रकार के बाल-दुर्व्यवहार महामारी के समान फैल गए हैं, और इसके निर्दोष शिकारों के लिए व्यथा अत्यधिक हो सकती है।

व्यथा के अन्य कारण

लेकिन सभी आत्मघातक भावनाएँ बाहरी तत्त्वों द्वारा नहीं उत्पन्‍न होतीं। अविवाहित किशोरों के बारे में एक अनुसंधान रिपोर्ट कहती है: “वे पुरुष और स्त्रियाँ जो मैथुन में भाग लेते और शराब पीते थे [आत्महत्या के] ज़्यादा ख़तरे में थे बजाय उनके जो इन बातों से दूर रहते थे।” सुनीता के स्वच्छंद संभोग के कारण वह गर्भवती हो गयी—लेकिन उसने गर्भपात करवा लिया। (१ कुरिन्थियों ६:१८ से तुलना कीजिए.) दोष से पीड़ित होकर वह मर जाना चाहती थी। उसी प्रकार, ब्रैड १४ वर्ष की उम्र से शराब से खेल रहा था, काफ़ी नियमित रूप से रंगरलियों में भाग ले रहा था। जी हाँ, यदि दुष्प्रयोग किया जाए तो शराब “सर्प की नाईं डस” सकती है।—नीतिवचन २३:३२.

आत्मघातक भावनाएँ एक व्यक्‍ति की अपनी ‘चिन्ताओं’ से भी उत्पन्‍न हो सकती हैं। (भजन ९४:१९) डॉक्टर कहते हैं कि हताश करनेवाले सोच-विचार कभी-कभी विभिन्‍न जैविक तत्त्वों के कारण आ सकते हैं। उदाहरण के लिए, पीटर को, जिसका ज़िक्र शुरूआत में किया गया था, उसकी आत्महत्या से पहले डॉक्टरों ने बताया था कि उसके मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन है। हताशा की भावनाओं को यदि यूँ ही छोड़ दिया जाए, तो वे तीव्र हो सकती हैं; आत्महत्या एक विकल्प के रूप में दिखना शुरू हो सकती है।

मदद लेना

लेकिन, आत्महत्या को एक विकल्प नहीं समझा जाना चाहिए। चाहे हम महसूस करें या न करें, हम सब में कुछ है जिसे मानसिक-स्वास्थ्य विशेषज्ञ ऐलन एल. बरमन और डेविड ए. जोबज़्‌ ‘तनाव और द्वंद्व का सफलतापूर्वक सामना करने के लिए आन्तरिक और बाहरी स्रोत’ कहते हैं। एक स्रोत हो सकता है परिवार और मित्र। नीतिवचन १२:२५ कहता है: “उदास मन दब जाता है, परन्तु भली बात से वह आनन्दित होता है।” जी हाँ, एक समझदार व्यक्‍ति द्वारा कही एक भली बात स्थिति को काफ़ी हद तक बदल सकती है!

सो यदि कोई हताश या चिन्तित महसूस कर रहा है, तो यह उचित है कि वह अकेला न सहे। (नीतिवचन १८:१) भुक्‍तभोगी अपने भरोसे के व्यक्‍ति के सामने खुलकर अपनी भावनाएँ व्यक्‍त कर सकता है। किसी के साथ बात करना एक व्यक्‍ति की भावनाओं की तीव्रता को कम करने में मदद करता है, और यह उसे समस्याओं पर एक नया दृष्टिकोण दे सकता है। एक मित्र या प्रिय जन को मृत्यु में खोने के कारण यदि कोई अत्यन्त दुःखी है, तो उसे एक विश्‍वासपात्र से इस विषय में बात करनी चाहिए। जब ऐसी क्षति की पीड़ा को स्वीकार किया जाता है और शोक महसूस किया जाता है, तो व्यक्‍ति को सांत्वना मिलती है। (सभोपदेशक ७:१-३) यदि एक व्यक्‍ति को आत्मघातक आवेग दुबारा आएँ तो एक विश्‍वासपात्र के पास लौटने की प्रतिज्ञा करना शायद उस व्यक्‍ति की मदद करे।

यह सच है कि किसी पर भरोसा करना शायद मुश्‍किल हो। लेकिन क्योंकि जीवन ख़तरे में है, क्या यह इतने जोख़िम के योग्य नहीं? यदि विषय पर बात कर ली जाए तो संभवतः स्वयं को चोट पहुँचाने का आवेग दूर हो जाएगा। कुछ लोग पूछ सकते हैं, ‘किसके साथ?’ यदि एक व्यक्‍ति के माता-पिता परमेश्‍वर का भय माननेवाले लोग हैं, तो क्यों न ‘अपने मन’ की बात उनसे कहने की कोशिश करें? (नीतिवचन २३:२६) वे शायद स्थिति को उससे बेहतर समझ सकें जितना कि कई लोग सोचते हैं और शायद मदद करने में भी समर्थ हों। यदि ऐसा प्रतीत होता है कि अतिरिक्‍त सहायता की ज़रूरत है—जैसे कि डॉक्टरी जाँच—तो माता-पिता उसका प्रबन्ध कर सकते हैं।

मसीही कलीसिया के सदस्य मदद का एक और स्रोत हैं। कलीसिया में आध्यात्मिक रूप से प्राचीन पुरुष व्यथित लोगों को सहारा दे सकते हैं और उनकी मदद कर सकते हैं। (यशायाह ३२:१, २; याकूब ५:१४, १५) अपने आत्महत्या प्रयास के बाद, सुनीता को एक पूर्ण-समय की सुसमाचारक (पायनियर) से मदद मिली। सुनीता कहती है: “हर स्थिति में उसने मेरा साथ दिया। यदि वह न होती, तो मैं तो सचमुच पागल हो जाती।”

निपटना

आन्तरिक स्रोतों से भी मदद ली जा सकती है। उदाहरण के लिए, क्या दोष की भावनाओं से हुई पीड़ा कोई ग़लत कार्य करने के कारण है? (भजन ३१:१० से तुलना कीजिए.) ऐसी भावनाओं को बढ़ने देने के बजाय, मामले को सही करने की ओर व्यक्‍ति को कार्य करना चाहिए। (यशायाह १:१८; साथ ही २ कुरिन्थियों ७:११ से तुलना कीजिए.) अपने माता-पिता के सामने ग़लती स्वीकार करना एक सकारात्मक क़दम होगा। माना कि शुरू में वे शायद परेशान हों। लेकिन संभवतः वे मदद देने पर ध्यान केंद्रित करेंगे। हमें यह भी आश्‍वासन दिया गया है कि यहोवा उन्हें ‘पूरी रीति से क्षमा करता है’ जो वास्तव में पश्‍चातापी हैं। (यशायाह ५५:७) यीशु का छुड़ौती बलिदान पश्‍चातापी व्यक्‍तियों का पाप ढाँपता है।—रोमियों ३:२३, २४.

मसीहियों के पास विश्‍वास, शास्त्रों का ज्ञान, और यहोवा परमेश्‍वर के साथ उनका सम्बन्ध भी है जिससे वह मदद ले सकते हैं। विभिन्‍न अवसरों पर भजनहार दाऊद इतना व्यथित था कि उसने कहा: “शत्रु . . . ने मुझे चूर करके मिट्टी में मिलाया है।” वह निराशा में नहीं डूब गया। उसने लिखा: “मैं यहोवा को दोहाई देता, मैं यहोवा से गिड़गिड़ाता हूं।” “मैं तेरे सब अद्‌भुत कामों पर ध्यान करता हूं, और तेरे काम को सोचता हूं।”—भजन १४२:१; १४३:३-५.

यदि स्वयं को चोट पहुँचाने की इच्छा तीव्र हो जाती है, तो व्यक्‍ति को प्रार्थना में यहोवा को पुकारना चाहिए। वह पीड़ा को समझता है और चाहता है कि भुक्‍तभोगी जीए! (भजन ५६:८) वह पीड़ा से निपटने में मदद करने के लिए “असीम सामर्थ” प्रदान कर सकता है। (२ कुरिन्थियों ४:७) व्यक्‍ति को आत्म-पीड़ित मृत्यु द्वारा परिवार, मित्रों, और स्वयं यहोवा को पहुँचने वाली पीड़ा के बारे में भी सोचना चाहिए। ऐसी बातों पर विचार करना एक व्यक्‍ति को जीवित रहने के लिए मदद कर सकता है।

जबकि शायद कुछ लोगों को ऐसा प्रतीत हो कि चोट कभी नहीं भरेगी, वे विश्‍वस्त हो सकते हैं कि अन्य लोग भी हैं जो इसी क़िस्म की पीड़ा को सहकर बचे हैं। वे अनुभव से बता सकते हैं कि स्थिति बदल सकती है और बदलती है। अन्य लोग ऐसे पीड़ादायक समय से निकलने में मदद दे सकते हैं। हताश व्यक्‍तियों को ज़रूरी मदद माँगनी चाहिए, वे इसके योग्य हैं—और जीवित रहना चाहिए!

[फुटनोट]

a कुछ नाम बदल दिए गए हैं।

[पेज 18 पर तसवीर]

किसी के साथ पीड़ादायक भावनाओं के बारे में बात कर लेना बेहतर है

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