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सजग होइए!–1998
g98 5/8 पेज 3-6

स्त्रियों के साथ भेदभाव

पश्‍चिम अफ्रीका में एक व्यापारी नौ साल का बच्चा खरीदता है। एशिया में एक नवजात शिशु को रेगिस्तान में ज़िंदा गाड़ दिया जाता है। एक पूर्वी देश में, एक बच्चा अनाथालय में भूखों मर जाता है—उसकी ज़रूरत नहीं थी, परवाह नहीं थी। इन तीन त्रासदियों में एक बात सामान्य थी: ये तीनों ही लड़कियाँ थीं। वे लड़कियाँ थीं इसलिए उन्हें ज़रूरी नहीं समझा गया।

ये कोई इक्का-दुक्का घटनाएँ नहीं हैं। अफ्रीका में हज़ारों लड़कियों और युवतियों को दासी बनने के लिए बेच दिया जाता है, किसी-किसी को तो बस १५ डॉलर में। और यह रिपोर्ट किया गया है कि ज़्यादातर एशिया में हर साल लाखों युवतियों को बेचा जाता है या वेश्‍यावृत्ति में ढकेला जाता है। उससे भी बदतर, कई देशों के जनसंख्या आँकड़े दिखाते हैं कि १० करोड़ तक लड़कियाँ “लापता” हैं। प्रत्यक्षतः गर्भपात, शिशु-हत्या, या लड़कियों की बिलकुल भी परवाह न करना इसका कारण है।

लंबे अरसे से—सदियों से—अनेक देशों में स्त्रियों को इसी दृष्टि से देखा गया है। और कुछ स्थानों में आज भी ऐसा ही होता है। क्यों? क्योंकि ऐसे देशों में लड़कों को ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है। वहाँ यह समझा जाता है कि लड़का वंश को आगे बढ़ा सकता है, संपत्ति का वारिस बन सकता है, और बुढ़ापे में माता-पिता की देखभाल कर सकता है, क्योंकि अकसर इन देशों में बूढ़ों के लिए कोई सरकारी पॆंशन नहीं होती। एक एशियाई कहावत है कि “लड़की को पालना पड़ोसी की बगिया में पौधे को पानी देने के बराबर है।” जब वह बड़ी हो जाएगी, शादी करके घर छोड़ जाएगी या हो सकता है कि उसे वेश्‍यावृत्ति के लिए बेच दिया जाए और इस कारण वह बूढ़े माता-पिता के शायद ही किसी काम आए।

छोटा हिस्सा

गरीबी से ग्रस्त देशों में, इस मनोवृत्ति के कारण घर की लड़कियों को कम भोजन, कम स्वास्थ्य चिकित्सा और कम शिक्षा दी जाती है। एक एशियाई देश में शोधकर्ताओं ने पाया कि केवल ५ प्रतिशत लड़कों की तुलना में १४ प्रतिशत लड़कियाँ कुपोषित थीं। कुछ देशों में उनसे दोगुना ज़्यादा लड़कों को स्वास्थ्य केंद्रों में ले जाया जाता है, संयुक्‍त राष्ट्र बाल निधि (UNICEF) की एक रिपोर्ट बताती है। अफ्रीका साथ ही दक्षिणी और पश्‍चिमी एशिया में ४० प्रतिशत से ज़्यादा युवतियाँ अनपढ़ हैं। “विकासशील देशों में भयानक लिंग भेद चल रहा है,” UNICEF की भूतपूर्व राजदूत, दिवंगत ऑडरी हॆपबर्न ने खेद प्रकट किया।

जब लड़कियाँ बड़ी हो जाती हैं तब भी यह “लिंग भेद” खत्म नहीं होता। स्त्री के हिस्से में अकसर गरीबी, हिंसा और अथक परिश्रम ही आता है, बस इसलिए कि वह स्त्री है। वर्ल्ड बैंक के अध्यक्ष ने बताया: “स्त्रियाँ संसार का दो-तिहाई काम करती हैं। . . . फिर भी वे संसार की आमदनी का केवल दसवाँ भाग ही कमाती हैं और संसार की एक प्रतिशत से भी कम संपत्ति की अधिकारी हैं। वे संसार के गरीबों में भी सबसे गरीब हैं।”

संयुक्‍त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, संसार के १.३ अरब ऐसे लोगों में से जो बहुत गरीबी में रहते हैं, ७० प्रतिशत से ज़्यादा स्त्रियाँ हैं। “और यह स्थिति बदतर हो रही है,” रिपोर्ट ने आगे कहा। “एकदम गरीबी में रहनेवाली ग्रामीण स्त्रियों की संख्या पिछले दो दशकों में लगभग ५०% बढ़ गयी। बढ़ती संख्या में स्त्रियाँ ही गरीबी में जी रही हैं।”

असहनीय गरीबी से भी ज़्यादा दुःख पहुँचाती है हिंसा, जिसने इतनी सारी स्त्रियों का जीना दुशवार कर रखा है। मुख्यतः अफ्रीका में लगभग दस करोड़ लड़कियों के जनन अंग-भंग किये गये हैं। बलात्कार जैसा दुर्व्यवहार दूर-दूर तक फैला है और कुछ क्षेत्रों में तो इसका कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता। परंतु अध्ययन दिखाते हैं कि कुछ देशों में स्थिति यह है कि अपने जीवन के दौरान ६ में से १ स्त्री का बलात्कार होता है। युद्ध से स्त्री-पुरुष दोनों ही त्रस्त होते हैं, लेकिन जिन्हें अपना घर छोड़कर भागने पर मजबूर किया जाता है ऐसे अधिकतर शरणार्थी स्त्रियाँ और बच्चे ही होते हैं।

माताएँ और भरण-पोषण करनेवाली

परिवार की देखभाल करने का ज़्यादातर भार अकसर माँ को उठाना पड़ता है। वह शायद ज़्यादा देर तक काम करती है और अकसर वही रोज़ी-रोटी कमाती है। अफ्रीका के कुछ ग्रामीण इलाकों में, लगभग आधे परिवारों की मुखिया स्त्रियाँ हैं। पश्‍चिमी जगत के कुछ क्षेत्रों में, बड़ी संख्या में परिवारों की मुखिया स्त्रियाँ ही हैं।

इसके अलावा, खासकर विकासशील देशों में पारंपरिक रूप से स्त्रियाँ कुछ सबसे ज़्यादा मेहनत के काम करती आयी हैं, जैसे पानी भरना और लकड़ी लाना। वन कटाई और अधिक चराई के कारण ये काम ज़्यादा मुश्‍किल हो गये हैं। कुछ सूखा-ग्रस्त देशों में, स्त्रियाँ हर दिन तीन-चार घंटे लकड़ी बटोरने में बिताती हैं और दिन में चार घंटे पानी भरती हैं। यह थकाऊ काम खत्म होने के बाद ही वे घर का या खेत का वह काम शुरू करती हैं जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है।

स्पष्ट है कि जिन देशों में गरीबी, भूख या संघर्ष हर दिन का रोना है वहाँ स्त्री-पुरुष दोनों ही कष्ट उठाते हैं। लेकिन स्त्रियों को बहुत अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। क्या यह स्थिति कभी बदलेगी? क्या कोई असल आशा है कि एक दिन हर जगह स्त्रियों के साथ आदर और गरिमा से व्यवहार किया जाएगा? क्या अपनी स्थिति सुधारने के लिए स्त्रियाँ आज कुछ कर सकती हैं?

[पेज 5 पर बक्स/तसवीर]

वेश्‍या युवतियाँ—दोष किसका है?

हर साल लगभग दस लाख बच्चों—अधिकतर लड़कियों—को वेश्‍यावृत्ति के लिए मजबूर किया जाता है या बेच दिया जाता है। अरायाa दक्षिणपूर्व एशिया की है। वह बताती है कि उसकी क्लास की कुछ लड़कियों के साथ क्या हुआ। “कुलवाडी १३ साल की कच्ची उम्र में वेश्‍या बन गयी। वह अच्छी लड़की थी, लेकिन उसकी माँ अकसर पीकर धुत्त हो जाती थी और जुआ खेलती थी, इसलिए उसके पास अपनी बेटी की देखभाल करने के लिए समय नहीं था। कुलवाडी की माँ ने उसे आदमियों के साथ बाहर जाकर पैसा कमाने के लिए उकसाया और देखते-ही-देखते वह वेश्‍या का काम करने लगी थी।

“मेरी क्लास की एक और लड़की थी, सीवून। वह देश के उत्तरी भाग से आयी थी। जब वह बस १२ साल की थी उसके माता-पिता ने उसे वेश्‍या का काम करने के लिए राजधानी भेज दिया। उसके माता-पिता ने जो सौदा किया था उसका भुगतान करने के लिए उसे दो साल तक काम करना पड़ा। सीवून और कुलवाडी का किस्सा अनोखा नहीं है—मेरी क्लास की १५ में से ५ लड़कियाँ वेश्‍या बन गयीं।”

सीवून और कुलवाडी जैसी लाखों लड़कियाँ हैं। “सॆक्स उद्योग एक बड़ा बाज़ार है जिसकी अपनी ही रफ्तार है,” UNESCO (संयुक्‍त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक, और सांस्कृतिक संगठन) की वासीला तामसाली शोक व्यक्‍त करती है। “१४ साल की लड़की को बेचना आम बात हो गयी है, यह कोई नयी बात नहीं।” और एक बार जब इन लड़कियों का बदन बेच दिया जाता है, तो उसका जो दाम मिलता है उसे चुकाना मानो असंभव हो जाता है। मंजू के पिता ने उसे १२ साल की उम्र में बेच दिया था, लेकिन सात साल तक वेश्‍यावृत्ति करने के बाद भी उस पर १२,००० रुपये का कर्ज़ था। “मैं कुछ नहीं कर सकती थी—मैं फँस गयी थी,” वह बताती है।

लड़कियों के लिए एड्‌स से बचना शायद उतना ही मुश्‍किल हो जितना कि दलालों के चंगुल से बचना। दक्षिणपूर्व एशिया में किये गये एक सर्वेक्षण ने दिखाया कि इनमें से ३३ प्रतिशत बाल वेश्‍याएँ एड्‌स विषाणु से संक्रमित हैं। जब तक यह पाँच अरब डॉलर का वेश्‍यावृत्ति उद्योग फलता-फूलता रहेगा, तब तक लगता है कि ये लड़कियाँ दुःख भोगती रहेंगी।

इस घिनौने चलन का दोषी कौन है? स्पष्ट है कि जो लड़कियों को वेश्‍यावृत्ति के लिए खरीदते या बेचते हैं उनका बहुत बड़ा दोष है। लेकिन वे नीच पुरुष भी निंदनीय हैं जो इन लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। क्योंकि ऐसे अनैतिक काम करनेवाले न रहें, तो इन लड़कियों के लिए वेश्‍यावृत्ति भी नहीं रहेगी।

[फुटनोट]

a * नाम बदल दिये गये हैं।

हर साल करीब दस लाख युवतियों को वेश्‍यावृत्ति में ढकेला जाता है

[पेज 6 पर बक्स/तसवीर]

केंद्रीय अफ्रीका में एक स्त्री की दिनचर्या

स्त्री सुबह छः बजे उठकर घर में सबके लिए और अपने लिए भी नाश्‍ता बनाती है, जो वे दोपहर को खाएँगे। पास की नदी से पानी लाने के बाद, वह अपने खेत में जाती है—इसके लिए उसे शायद एक घंटा चलना पड़े।

शाम के करीब चार बजे तक वह खेत में जुताई, निराई, या सिंचाई करती रहती है, बीच में वह बस थोड़ी देर के लिए रुकती है और जो भोजन अपने साथ लायी है उसे खाती है। इससे पहले कि दिन ढल जाए वह बाकी बचे दो घंटे घर के लिए लकड़ी काटने और कसावा या दूसरी सब्ज़ियाँ इकट्ठा करने में लगाती है—और यह सब उठाकर घर लौटती है।

आम तौर पर, सूरज के ढलते-ढलते वह घर पहुँच जाती है। अब भोजन तैयार करना है, जिसमें दो-तीन घंटे लग सकते हैं। रविवार का दिन पास की नदी पर कपड़े धोने, सुखाने और फिर उन्हें इस्त्री करने में जाता है।

उसका पति शायद ही कभी उसकी इतनी मेहनत की कदर करता है और उसके सुझावों को सुनता है। पति को पेड़ काटने या जंगल की झाड़ियाँ जलाने में कोई आपत्ति नहीं होती, इसके बाद पत्नी खेती के लिए भूमि तैयार कर सकती है, लेकिन इससे ज़्यादा वह शायद ही कुछ करता हो। कभी-कभार, वह बच्चों को नदी पर नहलाने ले जाता है, और मन हुआ तो थोड़ा-बहुत शिकार या मछुवाही करता है। लेकिन अपना ज़्यादातर समय वह गाँव के दूसरे आदमियों के साथ बात करने में बिताता है।

पति की औकात हो तो कुछ सालों के बाद वह एक नयी, जवान पत्नी घर ले आएगा और उस पर अपना सारा प्रेम न्योछावर करेगा। लेकिन उसकी पहली पत्नी से अब भी यह अपेक्षा की जाएगी कि वह हमेशा की तरह काम करती रहे, जब तक कि उसके हाथ-पैर जवाब नहीं दे जाते या वह मर नहीं जाती।

अफ्रीकी स्त्रियाँ बहुत काम करती हैं

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