क्या एक दिन सब लोगों के बीच प्रेम हो सकता है?
एक व्यवस्थापक ने अभी-अभी कहा था कि “अनन्त जीवन” का आनंद लेने के लिए हमें संपूर्ण हृदय से परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करना चाहिए। यीशु ने उस व्यवस्थापक को शाबाशी दी और उससे कहा: “तू ने ठीक उत्तर दिया, यही कर: तो तू जीवित रहेगा।” (लूका १०:२५-२८; लैव्यव्यवस्था १९:१८; व्यवस्थाविवरण ६:५) लेकिन अपने को धर्मी ठहराने की इच्छा से उस पुरुष ने पूछा: “मेरा पड़ोसी कौन है?”
इसमें संदेह नहीं कि वह व्यवस्थापक सोच रहा था कि यीशु कहेगा, “तेरे संगी यहूदी।” लेकिन यीशु ने एक दयालु सामरी की कहानी सुनायी, जिसने दिखाया कि हमारी जाति के अलावा दूसरी जातियों के लोग भी हमारे पड़ोसी हैं। (लूका १०:२९-३७; यूहन्ना ४:७-९) अपनी सेवकाई के दौरान यीशु ने इस पर ज़ोर दिया कि परमेश्वर से प्रेम करना और अपने पड़ोसी से प्रेम करना हमारे सृष्टिकर्ता की सबसे महत्त्वपूर्ण आज्ञाएँ हैं।—मत्ती २२:३४-४०.
लेकिन क्या कभी किसी समूह के लोगों ने सचमुच अपने पड़ोसियों से प्रेम किया है? क्या यह सचमुच संभव है कि सब लोगों के बीच प्रेम हो?
पहली सदी में चमत्कार
यीशु ने अपने अनुयायियों से कहा कि वे उस प्रेम से जाने जाएँगे जो जातीय, राष्ट्रीय और दूसरी सभी सीमाओं को पार करता है। उसने कहा: “मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं, कि एक दूसरे से प्रेम रखो: जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो।” फिर उसने आगे कहा: “यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो।”—यूहन्ना १३:३४, ३५; १५:१२, १३.
प्रेम के बारे में यीशु की शिक्षाओं, साथ ही उसके उदाहरण ने पहली सदी में एक चमत्कार कर दिखाया। उसके अनुयायियों ने अपने गुरु की नकल की और एक दूसरे से इस तरह प्रेम करना सीखा कि दूर-दूर तक लोगों का ध्यान उनकी तरफ खिंचा और उनकी प्रशंसा हुई। गैर-मसीहियों ने यीशु के अनुयायियों की सराहना की। सामान्य युग दूसरी और तीसरी सदी के लेखक, टर्टुलियन ने मसीहियों के बारे में इन गैर-मसीहियों की टिप्पणी को उद्धृत किया: ‘देखो वे कैसे एक दूसरे से प्रेम करते हैं और कैसे वे एक दूसरे के लिए मरने को तैयार हैं।’
और प्रेरित यूहन्ना ने लिखा: “हमें . . . भाइयों के लिये प्राण देना चाहिए।” (१ यूहन्ना ३:१६) यीशु ने अपने अनुयायियों को यहाँ तक सिखाया कि अपने बैरियों से प्रेम रखें। (मत्ती ५:४३-४५) जब लोग दूसरों से सचमुच वैसे ही प्रेम करते हैं जैसे यीशु ने उन्हें सिखाया है तो क्या परिणाम होता है?
लगता है कि राजनीतिक विज्ञान के एक प्रोफॆसर ने इसी प्रश्न पर विचार किया होगा। सो उसने पूछा, जैसा द क्रिस्टिअन सॆंचुरी में लिखा गया है: “क्या कोई सचमुच यह कल्पना कर सकता है कि यीशु अपने दुश्मनों पर हथगोले फेंकता, मशीन गन चलाता, शोलाफेंक चलाता, न्यूक्लियर बम गिराता या ICBM छोड़ता जो हज़ारों माताओं और बच्चों की जान ले लेता या उन्हें अपंग बना देता?”
इसके उत्तर में उस प्रोफॆसर ने कहा: “यह प्रश्न इतना बेतुका है कि इस योग्य भी नहीं कि उसका उत्तर दिया जाए।” सो उसने यह प्रश्न उठाया: “यदि यीशु ऐसा करता तो वह अपने व्यक्तित्व के विरुद्ध जाता इसलिए क्या हम ऐसा करेंगे तो हम उसके विरुद्ध नहीं जाएँगे?” इसलिए हमें यह जानकर चकित नहीं होना चाहिए कि यीशु के आरंभिक अनुयायियों ने तटस्थ स्थिति अपनायी, जो इतिहास की अनेक पुस्तकों में मोटे अक्षरों में दर्ज़ है। सिर्फ दो उदाहरणों पर विचार कीजिए।
एन. प्लैट और एम. जे. ड्रमंड की पुस्तक युगों के दौरान हमारा संसार (अंग्रेज़ी) कहती है: “मसीहियों का व्यवहार रोमियों के व्यवहार से बहुत भिन्न था। . . . क्योंकि मसीह ने शांति का प्रचार किया था, सो उन्होंने सैनिक बनने से इनकार कर दिया।” और ऎडवर्ड गिबन की पुस्तक रोमी साम्राज्य का गिराव और पतन (अंग्रेज़ी) कहती है: “[आरंभिक मसीहियों] ने साम्राज्य के सरकारी प्रशासन या सैन्य रक्षा में कोई सक्रिय हिस्सा लेने से इनकार कर दिया। . . . मसीहियों के लिए अपने ज़्यादा पवित्र कर्त्तव्य को ठुकराये बिना सैनिक बनना असंभव था।”
आज क्या स्थिति है?
क्या आज कोई मसीह-समान प्रेम को व्यवहार में लाता है? एनसाइक्लोपीडिया कनेडियाना कहती है: “यहोवा के साक्षियों का कार्य आरंभिक मसीहियत का पुनःजागरण और पुनःस्थापना है। यह वही कार्य है जो यीशु और उसके शिष्यों ने किया। . . . सभी भाई हैं।”
इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि यहोवा के साक्षी किसी कारण अपने पड़ोसियों से घृणा नहीं करते। वे न जाति, न राष्ट्रीयता, न ही नृजातीय पृष्ठभूमि को घृणा का कारण बनने देते हैं। न ही वे किसी की हत्या करते हैं क्योंकि उन्होंने लाक्षणिक रूप से अपनी तलवारों को पीटकर हल के फाल और अपने भालों को हंसिया बनाया है, जैसा बाइबल ने परमेश्वर के सच्चे सेवकों के बारे में पूर्वबताया था।—यशायाह २:४.
इसमें हैरानी की बात नहीं कि कैलिफॉर्निया के सैक्रामॆंटो यूनियन के एक संपादकीय लेख में कहा गया: “यह कहना सही होगा कि यदि सारा संसार यहोवा के साक्षियों के सिद्धांतों पर चले तो खून-खराबे और घृणा का अंत हो जाएगा और प्रेम का राज होगा”!
उसी तरह, हंगरी की रिंग पत्रिका में एक लेखक ने टिप्पणी की: “मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यदि पृथ्वी पर सिर्फ यहोवा के साक्षी रह रहे होते, तो युद्ध न होते और पुलिसवालों का काम सिर्फ इतना होता कि यातायात को नियंत्रित करें और पासपोर्ट जारी करें।”
इटैलियन चर्च पत्रिका आनडारे आले जॆन्टी में एक रोमन कैथोलिक नन ने भी साक्षियों की प्रशंसा में लिखा: “वे हर तरह की हिंसा से दूर रहते हैं और विद्रोह किये बिना अनेक तकलीफें सहते हैं जो उनके विश्वास के कारण उनको दी जाती हैं . . . संसार कितना फर्क होगा यदि एक सुबह हम सब यह दृढ़निश्चय करके उठें कि फिर कभी हथियार नहीं उठाएँगे, चाहे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े या चाहे कोई भी कारण क्यों न हो, ठीक यहोवा के साक्षियों की तरह!”
साक्षी पहल करके अपने पड़ोसियों की मदद करने के लिए जाने जाते हैं। (गलतियों ६:१०) अपनी पुस्तक सोवियत कैदखानों में स्त्रियाँ (अंग्रेज़ी) में एक लैटवियन स्त्री ने कहा कि १९६० के मध्य दशक में पॉटमा यातना शिविर में काम करते समय वह बहुत बीमार हो गयी। “मेरी पूरी बीमारी के दौरान [साक्षियों] ने मेरी बड़ी सेवा की। मैं उससे अच्छी सेवा की आशा नहीं कर सकती थी, शिविर की परिस्थितियों में तो बिलकुल भी नहीं।” उसने आगे कहा: “यहोवा के साक्षी धर्म अथवा राष्ट्रीयता की परवाह किये बिना सबकी मदद करना अपना कर्त्तव्य समझते हैं।”
हाल ही में चॆक गणराज्य में समाचार माध्यम ने यातना शिविरों में साक्षियों के ऐसे व्यवहार पर ध्यान दिया। बर्नो में बने वृत्तचित्र “द लॉस्ट होम” पर टिप्पणी करते हुए समाचार-पत्र सॆवरोचॆस्की डॆनीक ने कहा: “यह उल्लेखनीय है कि इन विश्वसनीय लोगों [अर्थात् चॆक और स्लोवाक यहूदी उत्तरजीवियों] ने भी यहोवा के साक्षियों की, जो उन्हीं के साथ कैदी थे, बड़ी प्रशंसा करते हुए उनके पक्ष में प्रमाण दिया। ‘वे बहुत साहसी लोग थे, उनसे जितना भी हो सकता था वे हमेशा हमारी मदद करते थे, जबकि उन्हें भी मौत का जोखिम था,’ बहुतों ने कहा। ‘वे हमारे लिए प्रार्थना करते थे, मानो हम उनके परिवार के हों; उन्होंने हमें प्रोत्साहन दिया कि हिम्मत न हारें।’”
लेकिन उनसे प्रेम करने के बारे में क्या जो असल में आपसे घृणा करते हैं? क्या यह संभव है?
घृणा पर प्रेम की जीत
बैरियों से प्रेम करने के बारे में यीशु की शिक्षा बाइबल के इस नीतिवचन के सामंजस्य में है: “यदि तेरा बैरी भूखा हो तो उसको रोटी खिलाना; और यदि वह प्यासा हो तो उसे पानी पिलाना।” (नीतिवचन २५:२१; मत्ती ५:४४) जिन्हें हम कभी बैरी समझते थे जब वे प्रेम से व्यवहार करते हैं तो उसका सकारात्मक प्रभाव होता है। इस बारे में एक अश्वेत स्त्री ने, जो हाल ही में यहोवा की साक्षी बनी थी, यह कहा: “कई बार जब मैंने श्वेत साक्षियों का सच्चा प्रेम अनुभव किया है तो मेरा हृदय इतना उमड़ गया है कि मेरे आँसू रोके नहीं रुके। जबकि कुछ समय पहले मैं एक क्रांति को बढ़ाने के लिए इन्हीं लोगों को मार डालने से भी नहीं झिझकती।”
एक फ्राँसीसी साक्षी ने कहा कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उसकी पड़ोसिन ने उसकी माँ के बारे में गॆस्टापो को रिपोर्ट दे दी। “उसके फलस्वरूप, मेरी माँ ने जर्मन यातना शिविरों में दो साल काटे, जहाँ वह मरते-मरते बचीं,” इस पुत्री ने बताया। “युद्ध के बाद, फ्राँसीसी पुलिस चाहती थी कि माँ उस स्त्री पर जर्मन समर्थक होने का आरोप लगाते हुए एक कागज़ पर हस्ताक्षर कर दें। लेकिन मेरी माँ ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।” बाद में, उस पड़ोसिन को जानलेवा कैंसर हो गया। इस पुत्री ने कहा: “माँ ने उसके जीवन के आखिरी महीनों को ज़्यादा-से-ज़्यादा आरामदेह बनाने में घंटों बिताए। मैं घृणा पर प्रेम की इस जीत को कभी नहीं भूल सकती।”
इसमें कोई संदेह नहीं कि लोग एक दूसरे से प्रेम करना सीख सकते हैं। पुराने बैरी—टूटसी और हूटू, यहूदी और अरबी, अर्मेनियन और तुर्की, जापानी और अमरीकी, जर्मन और रूसी, प्रोटॆस्टॆंट और कैथोलिक—सभी बाइबल सच्चाई द्वारा संयुक्त हुए हैं!
क्योंकि ऐसे लाखों लोग हैं जो पहले घृणा करते थे और अब एक दूसरे से प्रेम करते हैं, तो निश्चित ही संसार-भर के लोग ऐसा कर सकते हैं। लेकिन यह सही है कि यदि सब लोगों को एक दूसरे से प्रेम करना है तो एक बड़े विश्वव्यापी परिवर्तन की ज़रूरत होगी। वह परिवर्तन कैसे आएगा?
[पेज 7 पर तसवीर]
दक्षिण अफ्रीका में श्वेत और अश्वेत
यहूदी और अरबी
हूटू और टूटसी
लाक्षणिक रूप से, साक्षियों ने अपनी तलवारों को पीटकर हल के फाल बना लिया है