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सजग होइए!–1999
g99 11/8 पेज 28-29

विश्‍व-दर्शन

छोटे मियाँ सुभानल्लाह!

कुछ समय पहले चीन में एक सर्वे किया गया जिससे पता चला कि “चीन के शादीशुदा लोग मानते हैं कि अपने जीवन-साथी के अलावा दूसरों से संबंध रखना गलत नहीं है, मगर ज़्यादातर किशोर अब भी इसके खिलाफ हैं,” चाइना टुडे पत्रिका ने रिपोर्ट दी। यह बात लगभग ८,००० लोगों से उनकी राय पूछे जाने पर पता चली। सर्वे से यह भी पता चला कि “साठ प्रतिशत किशोर यह मानते हैं कि जो व्यक्‍ति अपने जीवन-साथी के अलावा किसी और के साथ नाजायज़ संबंध रखकर दूसरों की शादीशुदा ज़िंदगी बरबाद कर देता है, उसे या तो जुर्माना भरने की या कोई और सज़ा दी जानी चाहिए। दूसरी तरफ ३७ से ४५ की उम्रवाले ७० प्रतिशत लोगों का यह कहना है कि ऐसे संबंध रखने में कोई गलती नहीं है।”

हमदर्दी दिखाना सिखाएँ

द टोरोन्टो स्टार अखबार कहता है, “आम तौर पर बच्चे ४ की उम्र तक बस अपने बारे में ही सोचते हैं, क्योंकि उस उम्र के बाद उनकी समझ बढ़ने लगती है और वे दूसरों के प्रति हमदर्दी दिखाने के काबिल होने लगते हैं।” माता-पिता को यह सुझाव दिया गया कि वे बच्चों को घर पर ही यह सिखाएँ कि वे दूसरों की परवाह और लिहाज़ कैसे किया करें। शायद परिवार का हर सदस्य किसी चार्ट पर, दिन भर में अपनी खुशी से किए गए कम-से-कम दो नेक काम लिख सकता है। और जब माता-पिता अपने बच्चों को कोई नेक काम करते हुए देखते हैं, तो वे इसे भी उस चार्ट में लिख सकते हैं। इसी तरह कई स्कूलों में भी इस इरादे से चार्ट लगाया जाता है कि स्कूल में बच्चे गुंडागर्दी करना बंद कर दें। स्कूल के बच्चों से कहा जाता है कि अगर वे दूसरे बच्चों को अच्छे काम करते हुए देखें तो इसे उस चार्ट में लिख दें। इस रिपोर्ट के मुताबिक, “इससे बच्चे सीखते हैं कि हमदर्दी क्या होती है, और वे हमदर्दी महसूस भी करते हैं और दूसरों को दिखाते भी हैं।”

कबूतर जा जा जा. . .

दी इंडियन ऎक्सप्रॆस रिपोर्ट करता है कि भारत में, उड़ीसा के पुलिस विभाग के पास आधुनिक संचार माध्यम है। मगर उन्होंने “कबूतरों से संदेश भेजना” बंद नहीं किया। इस काम में कुछ ८०० तगड़े कबूतर लगे हुए हैं। उड़ीसा पुलिस के डायरॆक्टर जनरल, श्री. बी. बी. पान्डा के मुताबिक, पिछले करीब ५० सालों से बाढ़ और आँधी-तूफानों के समय जान बचाने के लिए ये कबूतर ही सब कुछ रहे हैं। और आज भी वायरलैस कम्यूनिकेशन के बिगड़ जाने पर इन्हें ही इस्तेमाल किया जाता है। मिसाल के तौर पर, सन्‌ १९८२ में जब बांगकी शहर बाढ़ की मार से तबाह हो गया था, तब इस शहर और कट्टक के ज़िले हैडक्वार्टर के बीच संदेश पहुँचाने में सिर्फ ये कबूतर ही काम आए। उड़ीसा में डाक पहुँचाने के लिए इन कबूतरों का इस्तेमाल सबसे पहले सन्‌ १९४६ में शुरू हुआ था और इसमें बॆलजियन नसल की होमर कबूतर थे। ये कबूतर बिना रुके, ८० से ९० किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से ८०० किलोमीटर तक उड़ सकते हैं। ये परिंदे १५ से २० साल तक जीते हैं और इन्हें फिलहाल ३४ कॉन्स्टेबलों की निगरानी में तीन केंद्रों में रखा गया है। श्री. पान्डा ने कहा: “आज के मोबाइल फोन के ज़माने में कबूतरों का इस्तेमाल करना, शायद बाबा-आदम के ज़माने का फैशन लगे, मगर हमारे यहाँ ये कबूतर आज भी बहुत काम के हैं और वफादारी से सेवा कर रहे हैं।”

बच्चे, स्कूल से बेगाने

सन्‌ १९४८ में यूनाइटॆड नेशन्स जनरल एसॆम्ब्ली ने दी यूनिवर्सल डिक्लरेशन ऑफ ह्‍यूमन राइट्‌स को अपनाया था, जिसमें यह लिखा गया था कि बुनियादी स्कूली शिक्षा पाना हर बच्चे का हक है। हालाँकि इस मंज़िल को हासिल करने के लिए काफी कोशिशें की गयीं, जिसकी हम सराहना भी करते हैं, मगर अब भी यह मंज़िल कोसों दूर है। जर्मन दैनिक अखबार आल्गेमाइना ट्‌साइटुंग माइन्ट्‌स रिपोर्ट करता है, “इस यूनिवर्सल डिक्लरेशन ऑफ ह्‍यूमन राइट्‌स को अपनाने के लगभग ५० साल बाद भी, करीब १३ करोड़ से भी ज़्यादा बच्चे हैं जिनकी उम्र प्राइमरी स्कूल जाने की है, मगर उन्हें स्कूल जाने का मौका ही नहीं मिला। इसका मतलब यह है कि दुनिया के २० प्रतिशत बच्चों को स्कूल की बुनियादी शिक्षा नहीं मिली है।” जर्मनी के युनाइटॆड नेशन्स चिल्ड्रन्स फंड के अध्यक्ष, राइनहार्ट श्‍लॉगिन्टवाइट के मुताबिक, दुनिया के हर बच्चे को बुनियादी स्कूली शिक्षा दिलाने में करीब २८० अरब रुपए लगेंगे। असल में यह तो बहुत कम रुपए हैं क्योंकि हर साल यूरोप के लोग इससे ज़्यादा रुपए अपनी आइसक्रीम पर और अमरीका के लोग अपने कॉस्मेटिक्स यानी अपने सजने-सँवरने की चीज़ों पर खर्च कर देते हैं। और यह तो दुनिया भर में हथियारों पर किए जानेवाले खर्च की तुलना में कुछ भी नहीं है।

एशिया—नाज़ुक इलाका

साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट अखबार कहता है, “पिछले साल दुनिया में हुई १० सबसे बड़ी विपत्तियों में से छः विपत्तियाँ एशिया में हुईं, जिनमें लगभग २७,००० जानें गयीं और लगभग १,५२० अरब रुपए माल का नुकसान हुआ।” इसमें बंगलादेश और चीन में आयी भयंकर बाढ़ और इंडोनेशिया के जंगल में हुआ अग्निकांड भी शामिल है जिसकी वज़ह से पास-पड़ोस के देशों में भी राख, धुआँ वगैरह फैल गया था। एशिया और पैसॆफिक का यूनाइटॆड नेशन्स इकॉनॉमिक एण्ड सोशियल कमिशन कहता है, “इस तरह की विपत्तियाँ दुनिया के किसी और इलाके में इतनी ज़्यादा नहीं होतीं जितनी कि एशिया में होती हैं। खासकर एशिया में, ऐसी विपत्तियों को कम करना २१वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती होगी।”

आप खुद को क्यों नहीं गुदगुदा सकते?

दी इकॉनॉमिस्ट पत्रिका कहती है, “अगर सही जगह पर गुदगुदी की जाए तो एक बड़ा आदमी भी पिघलकर मोम बन सकता है। मगर सबसे संवेदनशील व्यक्‍ति को भी अब यह जानकर तसल्ली होगी कि वह खुद को गुदगुदा नहीं सकता।” क्यों नहीं? क्योंकि हाल में की गयी एक रिसर्च में इसका जवाब मिला। सेरेबेलुम (cerebellum) कहलानेवाला मस्तिष्क का हिस्सा माँस-पेशियों में होनेवाली हल-चल में मेल बिठाता है। रिसर्च करनेवाले मानते हैं कि यह सेरेबेलुम न केवल हमारी सभी हरकतों में मेल बिठाता है बल्कि यह इन हरकतों से होनेवाले अंजाम भी बताता है। इसलिए, जब हम खुद को गुदगुदाने की कोशिश करते हैं तो सेरेबेलुम की वज़ह से, मस्तिष्क इससे होनेवाले एहसास को पहले ही भाँप लेता है और इस एहसास को दबा देता है जिससे हमें गुदगुदी नहीं होती और इसलिए हमें हँसी नहीं आती। मगर जब कोई दूसरा व्यक्‍ति हमें गुदगुदाता है, तो इससे शारीरिक उत्तेजना और सेरेबेलुम के अंदाज़े में मेल नहीं बैठ पाता और इसकी वज़ह से हम अपनी हँसी रोक नहीं पाते। इसी विषय पर एक लेख द न्यू यॉर्क टाइम्स में छपा था और उसमें यूँ कहा गया था: “हमारा मस्तिष्क यह पहचान सकता है कि कौन-से संवेदन हमारी खुद की हरकतों की वज़ह से होती हैं। सो वह इन पर कम ध्यान देता है। यह बाहर से होनेवाले संवेदनों को ग्रहण करने के लिए हमेशा तैयार रहता है जो शायद ज़्यादा ज़रूरी हों।”

मोर्स कोड की जगह लेनेवाला

द टोरोन्टो स्टार में मोर्स कोड पर एक लेख छपा था। इसमें बताया गया था कि मोर्स कोड को १८३२ में ईजाद किया गया था और इसने “व्यापार की तरक्की में और इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है,” दुनिया भर में जहाज़-सेवा का संचालन करनेवाली यूनाइटॆड नेशन्स एजेन्सी का रॉजर कॉन कहता है। यह मोर्स कोड एक अंतर्राष्ट्रीय मानदंड है जिसे हर जहाज़ मुसीबत के समय इस्तेमाल करता है। इसका इस्तेमाल सन्‌ १९१२ से होता चला आ रहा है। उसी साल टायटैनिक ने SOS यानी संकट-संदेश—तीन बिंदुएँ, तीन छोटी-छोटी लकीरें, तीन बिंदुएँ—भेजा था। मगर फरवरी १, १९९९ से इंटरनैशनल मारिटाइम ऑर्गनाइज़ेशन ने एक नया सैटिलाइट सिस्टम निकाला है। हर शिपबोर्ड सैटिलाइट टर्मिनल में एक “हाट की” यानी एक ऐसा बटन होता है जिसे मुसीबत के समय इस्तेमाल किया जा सकता है। जब इस “हाट की” को दबाया जाता है तब यह नया सैटिलाइट सिस्टम “दुनिया भर के कई जगहों में स्थित बचाव केंद्र या रेस्क्यू कोऑर्डिनेशन सॆंटर” को अपने-आप काफी जानकारी भेज देता है। इस सिस्टम से जहाज़ के नौ-संख्यावाले पहिचान-नंबर के अलावा और कई जानकारी भेजी जा सकती है जैसे “जहाज़ कहाँ पर है, समय क्या है और वह किस तरह के संकट में है—क्या जहाज़ में आग लग गयी है, पानी भर गया है, अपना संतुलन खो बैठा है, या समुद्री लुटेरों ने हमला कर दिया है, या कोई ऐसा खतरा है जिसे वे नहीं जानते। ऐसे किसी भी संकट का संदेश भेजा जा सकता है,” स्टार कहता है। और बीती बातों को याद दिलाते हुए यह आगे कहता है: “इतिहास में सबसे अच्छी खबरें दुनिया को देने के लिए भी मोर्स कोड का इस्तेमाल किया गया था: दोनों विश्‍वयुद्धों के खत्म होने की खुशखबरी प्रसारित करने के लिए भी इसे इस्तेमाल किया गया था।”

सेहत का जूतों से क्या नाता?

द टोरोन्टो स्टार कहता है, “मेडिकल रिपोर्ट के मुताबिक हर छ: में से एक व्यक्‍ति के पैरों में गंभीर समस्या है और अकसर इसकी वज़ह उनके जूतें हैं।” घुटनों में दर्द, कमर दर्द, पीठ दर्द और यहाँ तक कि सरदर्द भी आपसे कह रहे हों कि आप ज़रा अपने जूतों पर नज़र डालिए। स्टार कहता है, “याद रखनेवाली सबसे ज़रूरी बात है कि जूते हमारे पैरों के अनुसार नहीं ढलते हैं, बल्कि हमारे पैर जूतों के अनुसार ढल जाते हैं। जूते खरीदते वक्‍त कभी यह मत सोचिए कि वे आपके पैर के अनुसार ढल जाएँगे। अगर दुकान पर ही, उसे पहनकर चलते वक्‍त आपको अटपटा लगता हो तो उन्हें मत खरीदिए।” जूतों की खरीदारी दोपहर के वक्‍त कीजिए क्योंकि “दोपहर तक हमारे पैर थोड़े-से सूज जाते हैं” और “जूते खरीदते वक्‍त यह भी ध्यान रखें कि सिर्फ आपके पैरों की एड़ियाँ ही नहीं, बल्कि पैर के आगे का चौड़ा भाग भी जूते में पूरी तरह फिट बैठता हो।” पैरों से जुड़ी तकलीफें और पैरों का आकार बिगड़ना ज़्यादातर स्त्रियों में देखा गया है। इसका कारण यह माना जाता है कि ९० प्रतिशत स्त्रियाँ “ऐसे जूते पहनती हैं जो उनके पैरों से काफी छोटे और बहुत कसे हुए होते हैं” साथ ही, “हाई हील पहनने से आगे जाकर अकसर पैरों में गंभीर बीमारियाँ हो जाती हैं।” अखबार आगे कहता है: “यह भी याद रखना बहुत ज़रूरी है कि पैरों को नुकसान हो जाने के बाद ही दर्द शुरू होता है।”

चीन में बाइबल छपाई

शिनह्वा न्यूस एजेन्सी कहती है कि “पिछले बीस सालों में चीन ने पवित्र बाइबल की तकरीबन २ करोड़ से भी ज़्यादा कॉपियाँ प्रकाशित की हैं और १९९० की शुरूआत से बाइबल इस देश की सबसे पसंदीदा किताबों में गिनी जाने लगी है।” चायनीज़ एकाडमी ऑफ सोशियल साइन्सस के तहत, इंस्टिट्यूट ऑफ वर्ल्ड रिलिजियन्स के प्रॉफॆसर फंग जिन्यूइआन के मुताबिक, चीन में हर ईसाई को दो बाइबल खरीदने का हक है। अब तक लगभग २० अलग-अलग संस्करण प्रकाशित किए जा चुके हैं। इन संस्करणों में “अंग्रेज़ी संस्करण के साथ चीनी अनुवाद, पारंपरिक और सरल चीनी लिपि में चीनी संस्करण, वहाँ आकर बसे हुए अल्पसंख्यक लोगों की भाषा में चीनी संस्करण, और छोटे-बड़े साइज़ की भी बाइबलें हैं।” इसके अलावा, और भी कई किताबें प्रकाशित की गयी हैं जिनमें बाइबल की कहानियाँ है और उम्मीद है कि इनकी बिक्री बाइबल की बिक्री से ज़्यादा होंगी। यह लेख कहता है, “१९९० की शुरूआत से अब तक देश की सबसे असरदार किताबों की सूची में बाइबल का नंबर ३२वाँ है, [मगर] आम तौर पर देखा जाए तो पश्‍चिमी लोगों की तुलना में चीनी लोगों पर, धर्म का उतना प्रभाव नहीं पड़ता है।”

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