यीशु का जीवन और सेवकाई
जीवन की ओर का मार्ग
यीशु की शिक्षाओं के अनुसार चलना ही जीवन की ओर का मार्ग है। लेकिन यह करना आसान नहीं। उदाहरणार्थ, फ़रीसी दूसरों को कठोरता से आँकते हैं, और संभवतः कई उनका अनुकरण करते हैं। इसलिए, जैसे यीशु अपना पहाड़ी उपदेश दे रहा है, वह यह चेतावनी देता है: “दोष मत लगाओं, कि तुम पर भी दोष न लगाया जाए; क्योंकि जिस प्रकार तुम दोष लगाते हो, उसी प्रकार तुम पर भी दोष लगाया जाएगा।”
कुछ अधिक छिद्रान्वेषी फ़रीसियों का अनुसरण करना ख़तरनाक है। लूका के विवरण के अनुसार, यीशु इस ख़तरे को यह कहते हुए चित्रित करता है: “क्या अन्धा, अन्धे को मार्ग बता सकता है? क्या दोनों गड़हे में नहीं गिरेंगे?”
दूसरों के बारे में बहुत छिद्रान्वेषी होना, उनके दोषों को बढ़ा-चढ़ाना और उन की ग़लतियाँ निकालते रहना एक गम्भीर अपराध है। इसलिए यीशु पूछता है: “तू क्यों अपने भाई की आँख के तिनके को देखता है, और अपनी आँख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता? और जब तेरी ही आँख में लट्ठा है, तो तू अपने भाई से क्योंकर कह सकता है, कि ला मैं तेरी आँख से तिनका निकाल दूँ। हे कपटी, पहले अपनी आँख में से लट्ठा निकाल ले, तब तू अपने भाई की आँख का तिनका भली भांति देखकर निकाल सकेगा।
इसका अर्थ यह नहीं कि यीशु के चेलों को दूसरे लोगों के सम्बन्ध में कुछ भी बुद्धि नहीं इस्तेमाल करना है, क्योंकि वह कहता है: “पवित्र वस्तु कुत्तों को न दो, और अपने मोती सुअरों के आगे मत डालो।” परमेश्वर के वचन के सत्य पवित्र है। वे प्रतीकात्मक मोतियों के समान है। लेकिन अगर कुछ लोग, कुत्तों और सुअरों की तरह, इन बहुमूल्य सच्चाईयों की ओर मूल्यांकन नहीं दिखाते, तो यीशु के चेलों को इस तरह के लोगों को छोड़कर ऐसों की खोज करना चाहिए जो अधिक ग्रहणशील है।
हालाँकि यीशु ने अपने उपदेश में पहले प्रार्थना के बारे चर्चा की है, वह अब उस में लगे रहने की आवश्यकता पर बल देता है। “माँगते रहो” वह प्रेरित करता है, “तो तुम्हें दिया जाएगा।” प्रार्थनाओं का उत्तर देने में परमेश्वर की तैयारी को चित्रित करने के लिए यीशु पूछता है: “तुम में से ऐसा कौन मनुष्य है, कि यदि उसका पुत्र उस से रोटी माँगे, तो उसे पत्थर दे? . . . सो जब तुम बुरे होकर, अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने माँगनेवालों को अच्छी वस्तुएं क्यों न देगा?”
फिर यीशु वह बात बताता है जो कि अब आचरण का एक सुप्रसिद्ध नियम बना है जिसे सामान्यतः सुवर्ण नियम कहा जाता है। वह कहता है: “जो कुछ तुम चाहते हो, कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उन के साथ वैसा ही करो।” इस नियम के अनुसार जीने में दूसरों के प्रति अच्छाई करने के सकारात्मक कार्य सम्बद्ध हैं, उनके साथ वैसे व्यवहार करना जैसे आप चाहते हैं कि वे आप के साथ करें।
यीशु के इस उपदेश से यह प्रकट है कि जीवन की ओर का मार्ग आसान नहीं: “सकेत फाटक से प्रवेश करो, क्योंकि चौड़ा है वह फाटक और चाकल है वह मार्ग जो विनाश को पहुंचाता है, और बहुतेरे हैं, जो उससे प्रवेश करते है, क्योंकि सकेत है वह फाटक और सकरा है वह मार्ग जो जीवन को पहुँचाता है, और थोडे हैं, जो उसे पाते हैं।”
पथभ्रष्ट होने का ख़तरा बहुत बड़ा है, इसलिए यीशु चिताता है: “झूठे भविष्यद्वक्ताओं से सावधान रहो, जो भेड़ों के भेष में तुम्हारे पास आते हैं, परन्तु अन्तर में फाड़नेवाले भेड़िए हैं।” यीशु दिखाता है कि जैसे अच्छे वृक्ष और बुरे वृक्ष उनके फलों के द्वारा पहचाने जा सकते हैं वैसे ही बुरे भविष्यद्वक्ता उनके आचरण और शिक्षाओं से पहचाने जा सकते हैं।
आगे कहते हुए, यीशु स्पष्ट करता है कि जो कुछ कोई व्यक्ति कहता है, सिर्फ़ उसी से वह यीशु का चेला नहीं बनता, बल्कि जो कुछ वह करता है, उसी से वह उसका चेला बनता है। कुछ लोग दावा करते हैं कि यीशु उनका प्रभु है, लेकिन अगर वे उसके पिता की इच्छा नहीं करते, वह कहता है: “मैं उन से खुलकर कह दूंगा कि मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।”
अन्त में यीशु अपने उपदेश को वह स्मरणीय समाप्ति देता है। वह कहता है: “जो कोई मेरी ये बातें सुनकर उन्हें मानता है वह उस बुद्धिमान मनुष्य की नाईं ठहरेगा जिस ने अपना घर चटान पर बनाया। और मेंह बरसा और बाढ़ें आईं और आन्धियां चलीं, और उस घर पर टक्करें लगीं, परन्तु वह नहीं गिरा, क्योंकि उस की नेव चटान पर डाली गई थी।”
दूसरी ओर, यीशु घोषणा करता है: “जो कोई मेरी ये बातें सुनता है और उन पर नहीं चलता वह उस निर्बुद्धि मनुष्य की नाईं ठहरेगा जिस ने अपना घर बालू पर बनाया। और मेंह बरसा, और बाढ़ें आईं, और आन्धियां चलीं, और उस घर पर टक्करें लगीं और वह गिरकर सत्यानाश हो गया।”
जब यीशु अपना उपदेश ख़त्म करता है, तब भीड़ उसके सिखाने के तरीक़े पर दंग रह जाती है क्योंकि वह उनके धार्मिक अगुओं की नाईं नहीं बल्कि अधिकारी की नाईं उपदेश देता है। मत्ती ७:१-२९; लूका ६:२७-४९; न्यू.व.
◆ दूसरों को न्याय करने के बारे में यीशु क्या कहता है, फिर भी वह किस तरह दिखाता है कि उसके शिष्यों को लोगों के सम्बन्ध में समझदारी उपयोग करने की आवश्यकता है?
◆ प्रार्थना के बारे में यीशु आगे क्या कहता है, और वह आचरण का कौनसा नियम देता है?
◆ यीशु कैसे दिखाता है कि जीवन का मार्ग आसान नहीं होगा और कि पथभ्रष्ट होने का ख़तरा है?
◆ यीशु अपना उपदेश किस तरह समाप्त करता है, और उसका क्या प्रभाव होता है?