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  • रत्न मत्ती के सुसमाचार से
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1989
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  • यीशु एक प्रभावशाली शिक्षक
  • परमेश्‍वर के पुत्र से सहाला ग्रहण करें
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    यीशु—राह, सच्चाई, जीवन
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    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1990
प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1989
w89 9/1 पेज 31-32

रत्न मत्ती के सुसमाचार से

यहोवा परमेश्‍वर ने, महसूल लेनेवाले मत्ती को यीशु के जन्म, जीवन, मृत्यु और पुनरुत्थान का रोमांचक वर्णन लिखने की प्रेरणा दी। दसवीं शताब्दी के बाद प्राप्त हुई अनेक हस्तलिपियाँ बताती हैं कि यह सुसमाचार यीशु के स्वर्गारोहरण के करीब आठवें वर्ष लिखा गया। (करीब, सा.यु. ४१) यह आंतरिक प्रमाणों का प्रतिरोध भी नहीं करता क्योंकि यह वर्णन, (सा.यु. ३३ में) यीशु के चेला बनाने वाले शब्दों से समाप्त होता है और उसमें सा.यु. ७० में यरूशलेम का रोम द्वारा नाश होने के बारे में कुछ नहीं कहा है।

अपनी पुस्तक हिस्टोरिया इक्लीसियास्टीया (सभोपदेशक-इतिहास) में चौथी शताब्दी के इतिहासकार इसूबियस ने, दूसरी शताब्दी का पपायास, इरेनायास और तीसरी शताब्दी का ओरिज़न को उद्धृत किया जो मत्ती के सुसमाचार की व्याख्या करते हैं और बताते हैं कि उसने इसे इब्रानी में लिखा। क्या वह सचमुच अरामिक में था? यूनीवर्सीटी ऑफ जॉजिर्या के धर्म के व्याख्याता जार्ज हाखर्ड के दस्तावेजों के अनुसार नहीं। उसने लिखा: “इस धारणा का आधार इस विश्‍वास में था कि इब्रानी भाषा यीशु के दिनों में पलिश्‍तियों द्वारा उपयोग नहीं की जाती थी लेकिन उसका स्थान अरामिक भाषा ने ले लिया था। इसके पश्‍चात्‌ डेड सी स्क्रोल मिलने पर, जिसमें से बहुत से इब्रानी भाषा में थे तथा अन्य इब्रानी दस्तावेज जो पलीश्‍ती भाषा में थे यह प्रकट हुआ है कि इब्रानी भाषा पहली शताब्दी में भी प्रचलित थी। निःसन्देह मत्ती ने यह सुसमाचार इब्रानी मसीहियों के लाभ के लिये लिखा होगा परन्तु उसे सामान्य यूनानी भाषा में भी अनुवाद किया होगा।

हम आपसे अनुरोध करते हैं कि मत्ती रचित सुसमाचार पढ़ें। और जैसे हम इसके कुछ रत्नों पर दृष्टि डालेंगे, इस लेख को स्पष्ट करने वाली पृष्ठभूमि पर ध्यान दें।

जन्म और प्रारम्भिक सेवकाई

मत्ती का सुसमाचार यीशु की वंशावली और जन्म से प्रारम्भ होता है। जब मरियम के गर्भवती होने का पता चलता है, उसका मंगेतर यूसुफ उसे चुपचाप छोड़ना चाहता है। (१:१९) परन्तु वह ऐसा कैसे कर सकता था, क्योंकि अभी उसकी केवल सगाई ही हुई थी? जी हाँ, यहूदियों के लिये सगाई की गई स्त्री पर विवाहित स्त्री के समान जिम्मेदारी थी। यदि वह किसी के साथ लैंगिक सम्बन्ध रखती तब उसे भी व्यभिचारी स्त्री के समान की पत्थरवाह किया जाता। (व्यवस्थाविवरण २२:२३-२९) मंगनी के नियमों से बंधे होने के कारण यूसुफ ने उसे त्यागने की योजना की थी क्योंकि उनका विवाह अभी तक सम्पन्‍न नहीं हुआ था।

मत्ती के सुसमाचार के प्रारम्भिक अध्यायों में यीशु के पहाड़ी उपदेश हैं। इसमें यीशु ने उन्हें चेतावनी दी है जो अपने भाई पर क्रोध करेगा वह “सर्वोच्च न्यायालय” में दण्ड के योग्य होगा। (५:२२) ऐसी भाषा अपने भाई के निर्बुद्धि निकम्मा कहे जाने के बराबर थी।

लेकिन यह “सर्वोच्च न्यायालय” क्या था? यह यरूशलेम का ७१ सदस्योंवाली महासभा थी। इसकी सदस्यता की योग्यता के लिये किस पृष्ठभूमि की आवश्‍यकता थी? मेक्लिंगटॉक एण्ड स्ट्राँग सायक्लोपीडिया कहती है, “आवेदक को शारीरिक एवं नैतिक रूप से निष्कलंक होना था। उसे मध्य वर्गीय, लम्बा, मनोहर, धनवान व शिक्षित होना था . . . उसे कई भाषाओं का जानकार होना था . . . बहुत बूढ़े, नवदिक्षित, नपुंसक और नतीन अपनी प्राकृतिक विशिष्टता के कारण इसके लिये अयोग्य थे; निःसन्तानों को भी चुना नहीं जाता था क्योंकि वे घरेलू मामलों में सह्रदयता नहीं बरत सकते थे . . . न ही वे जो स्वयं को याजक, लैवी या इस्राएली की वैद्य संतान प्रामाणिक नहीं कर सकते थे . . . महासभा का उम्मीदवार होने के लिये यह आवश्‍यक था कि वह पहले अपने नगर में न्यायाधीश रहा हो, वहाँ से उप महासभा में स्थानान्तरित हुआ हो . . . उसके बाद फिर वह एक और महासभा में रहा हो . . . उसके बाद ही वह ७१ में का एक सदस्य बन सकता था।

अतः यीशु का यह अर्थ था कि जो अपने भाई पर अनावश्‍यक दोषारोपण करेगा वह यहूदियों के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मृत्यु दण्ड पाये हुए व्यक्‍ति के समान दोषी ठहरेगा। हमारे भाइयों के लिये अनिष्टकर बनने के विरुद्ध कैसी चेतावनी! आइये अपनी जीभ को वश में करें ताकी “सारी पृथ्वी के न्यायी’ यहोवा की महा सभा में दण्डन पायें।​—उत्पति १८:२५; याकूब ३:२-१२.

यीशु एक प्रभावशाली शिक्षक

यह सुसमाचार यीशु का एक प्रभावशाली शिक्षक के रूप में चित्रण करता है जो प्रश्‍नों का उत्तर देने में माहीर है। उदाहरण के लिये एक प्रश्‍न के उत्तर में वह व्याख्या करता है कि क्यों उसके चेलों को उपवास नहीं रखना चाहिये। (९:१४-१७) जबकि वह जीवित था उनके पास उपवास करने का कोई कारण न था। लेकिन जैसा उसने पहले ही कहा था उसकी मृत्यु पर उन्होंने शोक किया व उपवास रखा क्योंकि वे नहीं जानते थे कि उसकी मृत्यु क्यों हुई थी। पिन्तेकुस्त के दिन पवित्र आत्मा पाने के बाद उनमें जागृति आयी और फिर उन्होंने दुःख से उपवास नहीं किया।

इसी विषय पर चर्चा करते हुये यीशु ने आगे बताया कि पुराने वस्त्रों पर कोरे कपड़े का पैवन्द कोई नहीं लगाता क्योंकि उससे पुराना वस्त्र खिंचकर फट जाता है उसने यह भी कहा कि नया दाखरस पुरानी मशक में नहीं भरा जाता। दाखरस की मशक का चमडे की थैली पशु के शोधित चमड़े, शायद पाँव के चमड़े को खुले स्थान से सिलकर बनाया जाता था। नया दाखरस किण्वित होकर कार्बन डाईऑक्साइड बनाता है जो दबाव के साथ निकलकर पुरानी मशक को फोड़ सकती है तुलनात्मक रूप से यीशु जिस सच्चाई को सिखा रहा था व पुराने कठोर यहूदीवाद के लिये अत्यन्त प्रबल थी। इसके अतिरिक्‍त वह धार्मिक रीतियों, उसके उपवास की प्रभाओं और अन्य अधिकारों पर पैबन्ध भी नहीं लगा रहा था। इसके बजाय परमेश्‍वर ने यीशु का उपयोग कर उपासना की नई विधी स्थापित की। निश्‍चित रूप से हमें भी अन्तविश्‍वासी गतिविधियाँ या झूठे स्थापित धर्मों को सहारा देनेवाला कोई काम नहीं करना चाहिये।

परमेश्‍वर के पुत्र से सहाला ग्रहण करें

मत्ती द्वारा रूपान्तरण के वर्णन में परमेश्‍वर अपने स्वीकृत पुत्र यीशु को पुकारकर कहता है कि हमें उसकी सुनना चाहिये। (१७:५) अतः हमें यीशु की समस्त सलाहों को ग्रहण करना चाहिये, जैसे कि उसकी चेतावनी पर कि जो कोई उस पर विश्‍वास करनेवाले को ठोकर खिलाये तो उसके लिये यह भला होगा कि बड़ी चक्की का पाट उसके गले में लटकाया जाये और उसे गहरे समुद्र में डुबा दिया जाये। (१८:६) यह किस प्रकार का पत्थर था? कोई छोटा-मोटा नहीं क्योंकि यीशु का अर्थ था कि चक्की का ऊपरवाला पत्थर जो चार से पाँच फीट के घेरे में होता है जिसे निचले बड़े पत्थर पर रखने के लिये किसी पशु की शक्‍ति की आवश्‍यकता होती थी। समुद्र में अपनी गर्दन पर इतना भार लेकर कोई बच नहीं सकता। वास्तव में तब यीशु अपने किसी भी अनुयायी को ठोकर न खिलाने के बारे में सलाह दे रहा था। इसी धारणा से प्रेरित होकर पौलुस ने लिखा: “भला तो यह है कि तू न मांस खाये और न दाखरस पीये और न कुछ ऐसा करे जिस से तेरा भाई ठोकर खाये।”​—रोमियों १४:२१.

परमेश्‍वर के पुत्र ने अप्रत्यक्ष रूप से ताड़ना दी जब उसने शास्त्रियों व फरीसियों के लिये हाय कहा तथा उन्हें चूना-पुती कबरें कहा। (२३:२७, २८) कबरों एवं स्मारकों पर चूना पोतना वहाँ की परम्परा थी ताकी लोग दुर्घनावश ही उन्हें छू कर अशुद्ध न हो जायें। इस प्रथा की ओर संकेत करने के द्वारा यीशु ने बताया कि शास्त्री एवं फरीसी बाहर से तो धार्मिक प्रीती होते थे परन्तु “धूर्तता और अधर्म वे भरे थे।” इस परामर्श को ग्रहण करने से हम दिखाता छोड़ कर बिना धूर्तता के विश्‍वास के कार्य करेंगे।​—१ तीमुथियुस १:५; नीतिवचन ३:३२; २ तीमुथियुस १:५.

हमारा आदर्श पुरुष एक खराई रखनेवाला

“अपने आने के चिन्हों” के बारे में यीशु की भविष्यवाणी को लेखबद्ध करने के बाद मत्ती ने यीशु का सताया जाना, उसे पकड़ना, परीक्षा, मृत्यु और पुनरुत्थान के बारे में लिखा। सूली पर यीशु ने पित्त मिला दाखमधु पीने से इंकार किया। (२७:३४) स्त्रियाँ परम्परागत रीति से ऐसा दाखरस अपराधियों को देती थीं ताकि सूली की पीड़ा कम हो सके। मरकुस १५:२३ कहता है कि “दाखमधु में मुर्र” मिला था जिससे उसकी महक बढ़ जाती थी। स्पष्टतया दाखमधु में पित्त और मुर्र दोनों या और यीशु ने पीने से इंकार किया। क्योंकि जब अपने पार्थिव जीवन के चरमोत्कर्ष पर हो यीशु अचेत या संवेदन शून्य नहीं होना चाहता था। मृत्यु तक वफादार रहने के लिये यीशु अपने पूरे होशोहवास में रहना चाहता था। हमारे इस आदर्श के समान हम भी यहोवा परमेश्‍वर के प्रति हमारी खराई बनाये रखने के प्रति सदैव चिन्तित रहना चाहिये।​—भजन संहिता २६:१, ११.

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