रोम निवासी उत्तम समाचार पाते हैं
एक पापी मनुष्य परमेश्वर की नज़रों में धार्मिक कैसे बन सकता है और इस तरह अनन्त जीवन कैसे पा सकता है? यह प्रश्न हमारे सामान्य युग की पहली सदी में उत्तेजित चर्चाओं का कारण बना। क्या आप इसका उत्तर जानते हैं? आप चाहे जाने या ना जाने, आपका अपने आप से यह कर्त्तव्य बनता है कि आप रोमियों की बाइबल पुस्तक में इस समस्या पर प्रेरित पौलुस की प्रभावशाली चर्चा पढें। ऐसा करना, आपको विश्वास, कार्य, धार्मिकता और जीवन के बीच के महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध समझने में सहायक होगा।
पौलुस और रोम निवासी
रोमियों की पुस्तक एक चिट्ठी है जो पौलुस द्वारा सा.यु. ५६ में रोम के मसीहियों के लिए लिखी गयी थी। उन्होंने यह चिट्ठी क्यों लिखी? यद्यपि सा.यु. ५६ में पौलुस ने रोम की भेंट नहीं की थी, वह प्रत्यक्षतः वहाँ के कई मसीहियों को जानते थे, क्योंकि उनकी चिट्ठी में उन्होंने बहुतों को उनके नाम से सम्बोधित किया। इसके अतिरिक्त, पौलुस रोम जाना बहुत चाहते थे, ताकि वह वहाँ के अपने मसीही भाइयों को प्रोत्साहन दे सके, और ऐसे भी प्रतीत हाता है कि स्पेन की अपनी प्रस्तावित मिशनरी यात्रा के लिए रोम को एक रवानगी स्थान बनाने की उनकी योजना थी।—रोमियों १:११, १२; १५:२२-२४.
किन्तु, इस चिट्ठी लिखने में पौलुस का मुख्य उद्देश्य यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देने के लिए था: लोग जीवन की ओर ले जानेवाली धार्मिकता कैसे पा सकते हैं? इसका उत्तर सबसे उत्तम समाचार साबित होता है। धार्मिकता विश्वास के आधार पर जोड़ी जाती है। पौलुस यह बात स्पष्ट करते हैं और अपनी चिट्ठी का मूल विषय निश्चित करते हैं जब वे लिखते हैं: “क्योंकि मैं सुसमाचार से नहीं लजाता, इसलिए कि वह हर एक विश्वास करनेवाले के लिये, पहिले तो यहूदी, फिर यूनानी के लिये उद्धार के निमित्त परमेश्वर की सामर्थ है। क्योंकि उस में परमेश्वर की धार्मिकता विश्वास से, और विश्वास के लिये प्रगट होती है; जैसा लिखा है कि विश्वास से धर्मी जन जीवित रहेगा।”—रोमियों १:१६, १७.
विश्वास और नियम
पहली सदी में सभी इस बात पर सहमत नहीं थे कि धार्मिकता विश्वास के आधार पर जोड़ी जाती थी। एक मुखरित अल्पसंख्या ने बल दिया कि इससे अधिक की ज़रूरत थी। क्या यहोवा ने मूसा का नियम नहीं दिया था? उस प्रेरित प्रबन्ध के अधीन न होनेवाला कोई व्यक्ति धार्मिक कैसे बन सकता था? (गलतियों ४:९-११, २१; ५:२ देखें) सा.यु. ४९ में नियम के पालन के प्रश्न पर यरूशलेम के शासी निकाय द्वारा चर्चा की गयी, और उन्होंने यह निर्णय लिया कि उन ग़ैर-यहूदीयों को, जिन्होंने सुसमाचार स्वीकार किया था खतना करने और यहूदी नियम के अधीन रहने की ज़रूरत नहीं थी।—प्रेरितों १५:१, २, २८, २९.
क़रीब सात वर्ष पश्चात, पौलुस ने उस युगान्तरकारी निर्णय का समर्थन करते हुए रोमियों को अपनी चिट्ठी लिखी। असल में, उन्होंने इससे अधिक कहा। वह नियम न केवल ग़ैर-यहूदी मसीहियों के लिए अनावश्यक था बल्कि जो यहूदी उसकी ओर आज्ञाकारिता पर निर्भर थे, वे जीवन के लिए धार्मिक घोषित नहीं होते।
विश्वास के द्वारा धार्मिकता
जैसे आप रोमियों की पुस्तक पढेंगे, आप पाएँगे कि कैसे पौलुस ध्यानपूर्वक अपने विषय को विकसित करते हैं, अपनी उक्तियों को इब्रानी शास्त्र के कई उद्धरणों से समर्थन करते हैं। उन यहूदियों से बात करते वक्त जिन्हें उसकी प्रेरित शिक्षाओं को स्वीकार करने में कठिनाई होगी, वह स्नेह और चिन्ता प्रदर्शित करते हैं। (रोमियों ३:१, २; ९:१-३) फिर भी, वह अपना विषय विचारणीय स्पष्टता से और अविवाद्य तर्कसंगति से प्रस्तुत करते हैं।
रोमियों अध्याय १ से अध्याय ४ में, पौलुस इस सच्चाई से शुरू करते हैं कि सभी लोग पाप के दोषी हैं। इसलिए वह एकमात्र मार्ग जिसके द्वारा मानव धार्मिक घोषित किए जाएंगे, विश्वास के आधार पर है। यह सच है, कि यहूदियों ने मूसा के नियम का पालन करने के द्वारा धार्मिक बनने की कोशिश की। लेकिन वे असफ़ल हुए। इसलिए, पौलुस साहसपूर्वक कहते हैं: “यहूदियों और यूनानियों दोनों पर यह दोष लगा चुके हैं कि वे सब के सब पाप के वश में हैं।” वह यह अप्रिय सच्चाई कई शास्त्रीय उद्धरणों के द्वारा सिद्ध करते हैं।—रोमियों ३:९.
चूँकि “व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके साम्हने धर्मी नहीं ठहरेगा,” तो क्या आशा रखी गयी है? परमेश्वर यीशु के छुडौती बलिदान के आधार पर एक मुफ़्त उपहार के रूप में मनुष्यों को धार्मिक घोषित करेंगे। (रोमियों ३:२०, २४) अपने आप के लिए इस से फ़ायदा लेने के लिए, उन्हें इस बलिदान पर विश्वास होना चाहिए। क्या यह शिक्षण कोई नई बात है कि मानव विश्वास के आधार पर धार्मिक घोषित किए जाएंगे? बिल्कुल नहीं। इब्राहिम खुद नियम की शुरुआत से पहले ही उनके अपने विश्वास के कारण धार्मिक घोषित किए गए थे।—रोमियों ४:३.
विश्वास के महत्त्व को स्थापित करने के बाद, अध्याय ५ में पौलुस मसीही विश्वास के आधार की चर्चा करते हैं। यह यीशु है, जिसकी धार्मिकता का मार्ग आदम के पाप के बुरे परिणामों को उन लोगों के लिए मिटा देता है, जो उसमें विश्वास करते हैं। इस तरह, मूसा के नियम के पालन के द्वारा नहीं, बल्कि “दोष मोचन के एक कार्य के द्वारा, सब मनुष्यों के लिये जीवन के निमित्त धर्मी ठहराए जाने का कारण हुआ।”—रोमियों ५:१८.
विरोधी प्रश्नों का उत्तर देना
किन्तु, अगर मसीही लोग नियम के अधीन नहीं हैं, तो उन्हें, परमेश्वर की अनर्जित दया के कारण, धार्मिक घोषित किए जाने पर भरोसा रखते हुए पाप करने से क्या रोकेगा? पौलुस इस प्रश्न का उत्तर रोमियों की पुस्तक अध्याय ६ में देते हैं। मसीही उनके पूर्व के पापी मार्ग के सम्बन्ध में मर चुके हैं। यीशु में उनकी नयी ज़िन्दगी उन्हें उनकी शारीरिक कमज़ोरियों से लड़ने के लिए बाध्य करती है। “इसलिए पाप तुम्हारे मरनहार शरीर में राज्य न करे।”—रोमियों ६:१२.
लेकिन क्या कम से कम यहूदियों को तो मूसा के नियम से लगे नहीं रहना चाहिए? अध्याय ७ में पौलुस ध्यानपूर्वक बताते हैं कि यह बात नहीं है। जैसे कि एक विवाहित स्त्री अपने पति की मृत्यु पर उसके नियम से मुक्ति पाती है, वैसे ही यीशु की मृत्यु विश्वासी यहूदियों को नियम की ओर अधीनता रखने से मुक्त करती है। पौलुस कहते हैं: “तुम भी मसीह की देह के द्वारा व्यवस्था के लिये मरे हुए बन गए।”—रोमियों ७:४.
क्या इसका अर्थ था कि नियम में कोई ग़लती थी? बिल्कुल नहीं। नियम परिपूर्ण था। समस्या यह थी कि अपरिपूर्ण लोग नियम का पालन नहीं कर सकते थे। पौलुस ने लिखा, “हम जानते हैं कि व्यवस्था तो आत्मिक है, परन्तु मैं शारीरिक और पाप के हाथ बिका हुआ हूँ।” एक अपरिपूर्ण मानव परमेश्वर के परिपूर्ण नियम का पालन नहीं कर सकता और इसलिए उसके द्वारा दोषी ठहराया जाता है। इसलिए यह कितना उत्तम है कि जो “मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं” है! अभिषिक्त मसीहियों को परमेश्वर के बेटे बनने के लिए आत्मा के द्वारा गोद लिया गया है। यहोवा की आत्मा उन्हें शरीर की अपूर्णताओं के विरुद्ध लड़ने के लिए मदद देती है। “परमेश्वर के चुने हुओं पर दोष कौन लगाएगा? परमेश्वर वह है जो उनको धर्मी ठहरानेवाला है।” (रोमियों ७:१४; ८:१, ३३) परमेश्वर के प्रेम से उन्हें कुछ भी अलग नहीं कर सकता।
धार्मिकता और शारीरिक यहूदी
अगर नियम अब अनावश्यक बन गया है, तो फिर यह इस्राएल के राष्ट्र को किस स्थिति में छोड़ता है? और उन शास्त्र वचनों का क्या जो इस्राएल के पुनःस्थापन का वादा करते हैं? रोमियों के अध्याय ९ से अध्याय ११ में इन प्रश्नों पर चर्चा की गयी है। इब्रानी शास्त्रों ने भविष्यवाणी की थी कि इस्राएलियों की केवल एक अल्पसंख्या ही बचायी जाएगी और यह कि परमेश्वर अन्य राष्ट्रों की ओर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। इसके अनुरूप, इस्राएल के उद्धार के बारे में दी गयी भविष्यवाणियाँ शारीरिक इस्राएल द्वारा नहीं बल्कि मसीही मण्डली द्वारा पूर्ण की जाएंगी, जो कि विश्वासी शारीरिक यहूदियों के एक केंद्रीय समूह से और बाक़ी निष्कपट ग़ैर-यहूदियों से बनी हुई थी।—रोमियों १०:१९-२१; ११:१, ५, १७-२४.
धार्मिकता के सिद्धान्त
रोमियों के अध्याय १२ से १५ तक पौलुस कुछ व्यावहारिक तरीक़ों का वर्णन करते हैं, जिसके द्वारा अभिषिक्त मसीही उनके धार्मिक ठहराए जाने के अनुरूप जी सकते हैं। उदाहरणार्थ वह कहते हैं: “अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को स्वीकार्य बलिदान करके पेश करो; यही तुम्हारे विवेक समेत एक पवित्र सेवा है। और इस संसार के सदृश्य न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए।” (रोमियों १२:१, २, न्यू.व.) हमें भलाई की शक्ति में भरोसा होना चाहिए और बुराई का विरोध बुराई से नहीं करना है। उस प्रेरित ने लिखा, “बुराई से न हारो परन्तु भलाई से बुराई को जीत लो।”—रोमियों १२:२१.
पौलुस के दिनों में रोम राजनीतिक शक्ति का केंद्र था। इसलिए पौलुस ने मसीहियों को बुद्धिमानी से सलाह दी: “हरेक व्यक्ति प्रधान अधिकारियों के आधीन रहे; क्योंकि कोई अधिकार ऐसा नहीं जो परमेश्वर की ओर से न हो।” (रोमियों १३:१) एक दूसरे से मसीहियों का बर्ताव भी धार्मिकता के अनुरूप जीवन बिताने का भाग है। पौलुस कहते हैं, “आपस के प्रेम को छोड़ और किसी बात में किसी के कर्ज़दार न हो; क्योंकि जो दूसरे से प्रेम रखता है, उसी ने व्यवस्था पूरी की है।”—रोमियों १३:८.
इसके अतिरिक्त, मसीहियों को एक दूसरे के अन्तःकरण का ध्यान रखना है और अलोचनात्मक नहीं बनना है। पौलुस प्रोत्साहित करते हैं: “इसलिए हम उन बातों का प्रयत्न करें जिनसे मेल मिलाप और एक दूसरे की उन्नति हो।” (रोमियों १४:१९, न्यू.व.) एक मसीही के जीवन के हर पहलू में लागू करने की क्या ही उत्तम सलाह! बाद में, अध्याय १६ में पौलुस वैयक्तिक अभिवादन और प्रोत्साहन और सलाह के अन्तिम शब्दों के साथ पत्र समाप्त करते हैं।
अभिषिक्त और अन्य भेड़ों के लिए
रोमियों की पुस्तक में चर्चा की गयी बात पहली सदी में महत्त्वपूर्ण थी और आज भी अत्यावश्यक चिन्ता की बात है। धार्मिकता और अनन्त जीवन यहोवा के सभी दासों के लिए दिलचस्पी की अत्यधिक लुभावनी बात है। यह सच है कि रोमियों की पुस्तक अभिषिक्त मसीहियों की एक मण्डली को लिखी गयी थी, जब कि आज यहोवा के गवाहों की बहुत बड़ी संख्या “बड़ी भीड़” वर्ग के हैं और उन्हें एक पार्थिव आशा है। (प्रकाशितवाक्य ७:९) किन्तु, इस चिट्ठी में इन लोगों के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण संदेश है। वह क्या है?
रोमियों की पुस्तक यह सिद्ध करती है कि मसीही विश्वास के आधार पर धार्मिक घोषित किए जाते हैं। अभिषिक्त व्यक्तियों के लिए यह यीशु के साथ स्वर्गीय राज्य में सह-राजा बनने की दृष्टि से है। किन्तु, बड़ी भीड़ के सदस्य भी धार्मिक घोषित किए जाते हैं, लेकिन ‘परमेश्वर के मित्रों’ के रूप में, जैसे कि कुलपिता इब्राहिम थे। (याकूब २:२१-२३) उनकी धार्मिकता उस भारी क्लेश में से जीवित निकलने की दृष्टि से है, और यह यीशु के खून पर विश्वास करने पर आधारित है, जैसा कि अभिषिक्त व्यक्तियों की स्थिति में भी है। (भजन ३७:११; यूहन्ना १०:१६; प्रकाशितवाक्य ७:९, १४) इसलिए, रोमियों की पुस्तक में पौलुस का तर्क अन्य भेड़ों के लिए और अभिषिक्त व्यक्तियों के लिए भी बड़ी चिन्ता की बात है। और उस पुस्तक की यह उत्तम सलाह कि हमें हमारे धार्मिक घोषित किए जाने के अनुरूप हमारी ज़िन्दगी बितानी है, सभी मसीहियों के लिए अत्यावश्यक है।
डॉक्टर न्यूटन मार्शल हॉल और डॉक्टर अरविंग फ्राँसिस वुड द्वारा सम्पादित पुस्तक द बुक ऑफ लाईफ ऐसे बताती है: “तर्कसंगत और सिद्धान्त-सम्बन्धी पहलू से [रोमियों की पुस्तक] पौलुस की प्रेरित शिक्षा के उच्चतम शिखर पर पहुँचती है। यह सुसभ्य, और कार्यकुशल है, पर फिर भी कम अधिकारपूर्ण नहीं। . . . इस धर्मपत्र का अध्ययन अपना ही अलग मूल्यवान् और प्रचुर पुरस्कार लाता है।” क्यों न आप खुद ही इस पुस्तक को पढ़ें और उस में पाए “सुसमाचार” में आनन्द प्राप्त करें जो कि “उद्धार के निमित्त परमेश्वर की सामर्थ है।”—रोमियों १:१६.
[पेज 26 पर बक्स/तसवीरें]
“कोई [सांसारिक] अधिकार ऐसा नहीं जो परमेश्वर की ओर से न हो।” इसका अर्थ यह नहीं कि परमेश्वर प्रत्येक शासक को उसके स्थान में रखते हैं। बल्कि, सांसारिक शासक केवल परमेश्वर की अनुमति से ही अस्तित्व में रहते हैं। कई उदाहरणों में, परमेश्वर ने मानवी नेताओं का पूर्वज्ञान रखा और उनके बारे में पूर्वबतलाया, और इस तरह “जो अधिकार हैं, वे परमेश्वर के ठहराए हुए हैं।”—रोमियों १३:१.
[चित्र का श्रेय]
Museo della Civiltà Romana, Roma
[पेज 27 पर बक्स/तसवीरें]
मसीहियों से कहा गया है: “प्रभु यीशु मसीह को पहिन लो।” इसका अर्थ है कि उन्हें शारीरिक नहीं बल्कि आत्मिक चिन्ताओं को अपने जीवन में पहला स्थान देते हुए यीशु का अनुकरण करते हुए, उन के पदचिन्हों पर निकट रूप से चलना चाहिए, और इस तरह, “शरीर के अभिलाषों को पूरा करने का उपाय न” करना चाहिए।—रोमियों १३:१४.
[पेज 27 पर बक्स/तसवीरें]
पौलुस ने रोमियों से कहा कि वे एक दूसरे को “पवित्र चुम्बन से नमस्कार करें।” किन्तु, वे यहाँ एक नयी मसीही रिवाज या धार्मिक विधि स्थापित नहीं कर रहे थे। पौलुस के दिनों में, माथे पर, होंठो पर, या हाथ पर चुम्बन करना अभिवादन, स्नेह, या श्रद्धा का एक चिन्ह था। इसलिए, पौलुस केवल उनके दिनों में की एक सामान्य रिवाज का उल्लेख कर रहे थे।—रोमियों १६:१६.