इतनी ज़्यादा निराशा क्यों?
एक बेहतर जीवन की आशा—आख़िरकार साकार हो गयी! जब नवम्बर १९८९ में बर्लिन दीवार गिरा दी गयी, तब उस समय की पूर्वी जर्मनी के बहुत से लोगों ने इस बात पर विश्वास कर लिया। फिर भी, एक साल से कुछ ही ज़्यादा समय बाद, वे यह शिकायत करने लगे कि उन्हें “पूँजीपति लोकतंत्र के कठोर संसार का सामना करना, बर्लिन की दीवार द्वारा सुरक्षित जीवन से ज़्यादा कठिन लग रहा था।” इसका परिणाम? भ्रम-भंग और बढ़ती निराशा।
घरेलू और सामुदायिक हिंसा लोगों को सुरक्षा की तलाश में अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर सकती है, लेकिन यह थोड़ों को ही मिलती है। कुछ अपने आपको बेघरों के बीच पा सकते हैं, जो शहर की सड़कों पर डेरा करते हैं। कुछ देशों में ये अन्त में अपने आप को लाल फ़ीते में उलझा पाते हैं। नौकरी न होने के कारण वे एक घर लेने में असमर्थ हैं, और उन्हें नौकरी नहीं मिल सकती क्योंकि उनके पास घर का पता नहीं है। सरकारी कल्याण-अभिकरण मदद करने की कोशिश करते हैं, लेकिन समस्याओं को सुलझाने में समय लगता है। अतः हतोत्साह और निराशा जड़ पकड़ लेती है।
निराशा से परेशान होकर बहुत सी औरतें निराशोन्मत्त क़दम उठा लेती हैं। विमेन एन्ड क्राइम इन द १९९०-स् (Women and Crime in the 1990s) रिपोर्ट में, क़ानून व्याख्यात्री डॉ. सूज़न एडवर्डस् व्याख्या करती हैं: “जवान औरतों का [वेश्याकर्म में] फंसना आर्थिक ज़रूरतों का सीधा परिणाम है, न कि स्वानुशासन की कमी या पारिवारिक इतिहास।” इसी प्रकार, जवान आदमी जो काम की तलाश में घर छोड़ते हैं अकसर कुछ नहीं पाते। कुछ, हताश होकर, ‘किराये के लड़के’ बन जाते हैं, जो भोजन और सिर रखने की जगह के बदले अपने शरीर का प्रयोग समलिंगकामियों द्वारा होने देते हैं, और भ्रष्ट अपराधी गिरोहों के हाथों मुहरे बनकर रह जाते हैं।
कटु राजनीतिक वास्तविकताएँ, हिंसा, आर्थिक समस्याएँ, सभी अलग-अलग हद तक निराशा उत्पन्न कर सकती हैं। पेशेवर लोग भी इस से मुक्त नहीं हैं जैसे वे बढ़ती आर्थिक समस्याओं का सामना करते हुए भी दौलतमंद जीवन-शैली को बनाये रखना चाहते हैं। इसका परिणाम? पुराने समय के राजा सुलैमान ने कहा: “बुद्धिमान मनुष्य को अत्याचार पागल बना देता है।”a (सभोपदेशक ७:७, NW) वस्तुतः, निराशा के कारण बढ़ती हुई संख्या में लोग सबसे आत्यंतिक उपाय ढूंढते हैं—आत्महत्या।
सबसे आत्यंतिक उपाय
जवानों के बीच आत्महत्या की घटनाएँ यह दिखाती हैं कि वे भी निराशा की महामारी से प्रभावित हैं। ब्रिटेन के एक अख़बार की स्तम्भ-लेखिका ने पूछा: “हमारे समय में कौनसी ऐसी बात है जो जवानों में इतनी निराशा उत्पन्न कर रही है?” अपने आपको ज़हर देकर मारने की कोशिश में, अस्पतालों में भर्ती ८ और १६ साल के बीच के बच्चों के एक परिशीलन में लन्डनस् इन्सटिट्यूट ऑफ साइकिएट्री के डॉ. एरिक टेलर रिपोर्ट देते हैं: “एक विशिष्ट बात यह थी कि कितने सारे बच्चे चीज़ों के बारे में हताश और निराश थे।” ब्रिटेन में हर साल अनुमानित १,००,००० अघातक लेकिन जानबूझकर ज़हर लेने के हादसे दर्ज होते हैं, जो सहायता के लिए निराशोन्मत्त पुकार के बराबर हैं।
ब्रिटेन की एक ख़ैराती संस्था ने निराश जनों को सहानुभूति से सुनने का एक अभियान चलाया। इस ढंग से उसके सलाहकारों ने “मृत्यु के विकल्प” पेश करने का दावा किया। फिर भी, वे यह स्वीकार करते हैं कि वे उन समस्याओं को हल करने में असमर्थ हैं जो लोगों में निराशा उत्पन्न करती हैं।
द सन्डे कौरेस्पोन्डेन्ट (The Sunday Correspondent) अख़बार टिप्पणी करता है कि आत्महत्या का दर “अन्यसंक्रमण के स्तर और समाज में सामाजिक सम्बद्धता की कमी को प्रतिबिम्बित करता है। आज आत्महत्या का दर इतना ऊँचा क्यों है? अख़बार ने “गृहहीनता, ज़्यादा शराब पीना, एडस् का ख़तरा और मानसिक रोगियों के अस्पतालों के बंद होने” का हवाला उन कारणों के रूप में दिया जो लोगों को इतनी गहराई तक निराश होने के लिये मजबूर कर देते हैं कि वे स्वयं अपनी जान लेना ही अपनी समस्याओं का एकमात्र समाधान समझते हैं।
निराशा को मिटाने के लिये क्या कोई आशा है? जी हाँ! “सीधे होकर अपने सिर ऊपर उठाना” यीशु का नारा है! (लूका २१:२८) उसका क्या अर्थ था? कौनसी आशा है?
[फुटनोट]
a हैरिस, आर्चर, और वॉल्टकी द्वारा संपादित थियोलॉजिकल वर्डबुक ऑफ दी ओल्ड टेस्टामेन्ट (Theological Wordbook of the Old Testament) के अनुसार, जिस शब्द का अनुवाद “अत्याचार” किया गया है, उस के मौलिक भाषा का मूल शब्द “छोटे लोगों पर बोझ डालने, उन्हें रौंदने और कुचलने” से सम्बद्ध है।