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  • एक दूसरे को प्रोत्साहित करते रहिए

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  • एक दूसरे को प्रोत्साहित करते रहिए
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1992
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1992
w92 11/1 पेज 19-24

एक दूसरे को प्रोत्साहित करते रहिए

“कोई गन्दी बात तुम्हारे मुंह से न निकले, पर आवश्‍यकता के अनुसार वही जो उन्‍नति के लिये उत्तम हो।”—इफिसियों ४:२९.

१, २. (क) क्यों यह कहना सही है कि वाणी एक अजूबा है? (ख) ज़बान के उपयोग के विषय में क्या चेतावनी उचित है?

“वाणी वह जादुई धागा है जो दोस्त, परिवार, और समाज को एक साथ बाँधता है। . . . मानवी मन और [ज़बान] की पेशियों के समन्वित संकुचन से हम ऐसी आवाज़ करते हैं जो प्रेम, ईर्ष्या, आदर—वास्तव में किसी भी मानवी भावना को प्रेरित करती है।”—हिअरिंग, टेस्ट एण्ड स्मॅल (Hearing, Taste and Smell).

२ हमारी ज़बान निगलने और चखने का एक अंग होने से कहीं ज़्यादा अहम है; यह हमारे सोच-विचार और भावनाओं को बाँटने की हमारी क्षमता का एक हिस्सा है। “जीभ एक छोटा सा अंग है,” याकूब ने लिखा। “इसी से हम प्रभु और पिता की स्तुति करते हैं, और इसी से मनुष्यों को जो परमेश्‍वर के स्वरूप में उत्पन्‍न हुए हैं स्राप देते हैं।” (याकूब ३:५, ९) हाँ, हम अपनी ज़बान को अच्छे ढंग से इस्तेमाल कर सकते हैं, जैसे यहोवा की स्तुति करना। लेकिन अपरिपूर्ण होने के नाते, हम आसानी से अपनी ज़बानों को हानिकर और नकारात्मक बातें बोलने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। याकूब ने लिखा: “हे मेरे भाइयों, ऐसा नहीं होना चाहिए।”—याकूब ३:११.

३. अपनी बोली के कौनसे दो पहलुओं पर हमें ध्यान देना चाहिए?

३ जबकि कोई भी इंसान अपनी ज़बान को पूरी तरह से काबू में नहीं रख सकता, हमें निश्‍चय ही सुधरने की कोशिश करनी चाहिए। प्रेरित पौलुस हमें सलाह देता है: “कोई गन्दी बात तुम्हारे मुंह से न निकले, पर आवश्‍यकता के अनुसार वही जो उन्‍नति के लिये उत्तम हो, ताकि उस से सुननेवालों पर अनुग्रह हो।” (इफिसियों ४:२९) ग़ौर करें कि इस आदेश के दो पहलू हैं: हमें किससे दूर रहने की कोशिश करनी चाहिए और हमें क्या करने का प्रयास करना चाहिए। आइए इन दोनों पहलुओं पर ग़ौर करें।

गन्दी बातों से दूर रहना

४, ५. (क) गन्दी बातों के विषय में मसीहियों को कौनसी लड़ाई करनी है? (ख) कौनसी कल्पना “गन्दी बात” वाक्यांश के लिए सही है?

४ इफिसियों ४:२९ पहले हम से आग्रह करता है: “कोई गन्दी बात तुम्हारे मुंह से न निकले।” शायद यह आसान न हो। एक कारण यह है कि हमारे चारों ओर की दुनिया में गन्दी बातें सामान्य हैं। अनेक मसीही जवान हर दिन गाली सुनते हैं, चूँकि उनके सहपाठी शायद यह सोचते हैं कि ये बातों पर ज़ोर देती है और ख़ुद उन्हें ज़्यादा मज़बूत बना देती है। हम इन गन्दे शब्दों को सुनने से पूरी तरह दूर तो नहीं रह सकते, पर हम इन्हें नहीं अपनाने के लिए जानकार प्रयास कर सकते हैं और करना चाहिए। हमारे मन और मुँह में इनकी कोई जगह नहीं।

५ पौलुस की चेतावनी के मूल में एक यूनानी शब्द है जो सड़ी हुई मछली या फल से सम्बन्धित है। कल्पना कीजिए: आप एक आदमी को अधीर होते हुए और फिर बहुत ही क्रोधित होते हुए देखते हैं। आख़िरकार वह अपना क्रोध एकाएक अभिव्यक्‍त करता है, और आप उसके मुँह से एक सड़ी हुई मछली निकलते देखते हैं। फिर आप बदबूदार, सड़ा हुआ फल बाहर गिरकर आसपास छितरते हुए देखते हैं। वह कौन है? कितना भयानक होता अगर वह हम में से एक होता! फिर भी, ऐसी एक समानता सही बैठेगी अगर हम ‘गन्दी बातों को हमारे मुँह से निकलने’ देते हैं।

६. किस तरह इफिसियों ४:२९ आलोचनात्मक, नकारात्मक बातों को लागू होता है?

६ हमारे लिए इफिसियों ४:२९ की एक और प्रयुक्‍ति यह है कि हम हमेशा आलोचनात्मक होने से बचें। मान लिया कि हम सब के पास नापसंद या नामंज़ूर बातों के बारे में अपनी राय और पसंद हैं, लेकिन क्या आप एक ऐसे व्यक्‍ति के पास रहे हैं जो ज़िक्र किए गए हर व्यक्‍ति, जगह, या वस्तु पर एक (या अनेक) नकारात्मक टिप्पणी करते रहता है? (रोमियों १२:९; इब्रानियों १:९ से तुलना करें.) उसकी बातें ढा देती हैं, निराश या नाश कर देती हैं। (भजन १०:७; ६४:२-४; नीतिवचन १६:२७; याकूब ४:११, १२) शायद उसे यह एहसास न हो कि वह मलाकी द्वारा वर्णित आलोचनात्मक व्यक्‍तियों के कितने तुल्य है। (मलाकी ३:१३-१५) उसे कैसा सदमा पहुँचेगा अगर एक राहगीर उसे बताए कि उसके मुँह से एक सड़ी हुई मछली या सड़ता हुआ फल निकल रहा है!

७. हर व्यक्‍ति को क्या आत्म-परिक्षण करना चाहिए?

७ जबकि यह पहचानना आसान है जब कोई दूसरा व्यक्‍ति लगातार नकारात्मक या आलोचनात्मक टिप्पणी करता है, अपने आप से पूछिए, ‘क्या मेरी ऐसी प्रवृत्ति है? असल में, ऐसी है?’ कभी-कभी अपने शब्दों की विचारधारा पर मनन करना बुद्धिमत्ता की बात होगी। क्या वे मुख्यतः नकारात्मक, आलोचनात्मक हैं? क्या हम अय्यूब के तीन नकली सांत्वना देनेवालों की तरह सुनाई देते हैं? (अय्यूब २:११; १३:४, ५; १६:२; १९:२) बात करने के लिए क्यों न एक सकारात्मक पहलू चुनें? अगर एक वार्तालाप मुख्यतः आलोचनात्मक है, क्यों ना इसे प्रोत्साहक विषयों की तरफ़ ले जाएँ?

८. बोली के विषय में मलाकी ३:१६ क्या सबक़ देता है, और हम कैसे दिखा सकते हैं कि हम यह सबक़ अमल में ला रहे हैं?

८ मलाकी ने यह विषमता प्रस्तुत की: “तब यहोवा का भय माननेवालों ने आपस में बातें की, और यहोवा ध्यान धरकर उनकी सुनता था; और जो यहोवा का भय मानते और उसके नाम का सम्मान करते थे, उनके स्मरण के निमित्त उसके साम्हने एक पुस्तक लिखी जाती थी।” (मलाकी ३:१६) क्या आपने ग़ौर किया कि परमेश्‍वर ने प्रोत्साहक बातों की तरफ़ कैसी प्रतिक्रिया दिखाई? ऐसे वार्तालाप का साथियों पर संभावित प्रभाव क्या होता? हमारी दैनिक बातों के विषय में हम वैयक्‍तिक रूप से एक सबक़ सीख सकते हैं। हमारे लिए और दूसरों के लिए कितना ज़्यादा भला होता अगर हमारा सामान्य वार्तालाप परमेश्‍वर को हमारा ‘स्तुतिरूपी बलिदान’ प्रतिबिम्बित करता।—इब्रानियों १३:१५.

दूसरों को प्रोत्साहित करने के लिए कार्य कीजिए

९. मसीही सभाएँ दूसरों को प्रोत्साहित करने के लिए क्यों उचित अवसर हैं?

९ कलीसिया की सभाएँ ‘आवश्‍यकता के अनुसार उन्‍नति के लिये उत्तम’ बातों को बोलने के लिए बढ़िया अवसर हैं, “ताकि उस से सुननेवालों पर अनुग्रह हो।” (इफिसियों ४:२९) बाइबल-आधारित जानकारी पर एक वार्ता देते समय, एक निदर्शन में भाग लेते समय, या सवाल और जवाब के दौरान टिप्पणी करते समय हम ऐसा कर सकते हैं। इस प्रकार हम नीतिवचन २०:१५ को प्रमाणित करते हैं: “ज्ञान की बातें अनमोल मणि ठहरी हैं।” कौन जानता है कि हम कितने हृदय छूते हैं या प्रोत्साहित करते हैं?

१०. हम किनके साथ अक़सर बात किया करते थे, इस बात पर मनन करने के बाद, क्या तबदीली उचित है? (२ कुरिन्थियों ६:१२, १३)

१० सभाओं से पहले और बाद का समय दूसरों को ऐसे वार्तालाप से प्रोत्साहित करने का उचित समय है जो सुननेवालों के लिए अनुकूल है। रिश्‍तेदारों और कुछ ही दोस्तों के साथ, जिनके साथ हम आसानी से बात कर सकते हैं, सुखद बातें करने में यह समय बिता देना, आसान होगा। (यूहन्‍ना १३:२३; १९:२६) बहरहाल, इफिसियों ४:२९ के अनुसार, क्यों न दूसरों के साथ बात करने की कोशिश करें? (लूका १४:१२-१४ से तुलना करें.) हम पहले से तै कर सकते हैं कि कुछेक नए व्यक्‍तियों, बुज़ुर्गों, या जवानों के साथ सिर्फ़ एक औपचारिक या आकस्मिक नमस्ते कहने से ज़्यादा बोलेंगे, यहाँ तक कि बच्चों के साथ बैठना ताकि उनके स्तर के क़रीब हों। हमारी सच्ची दिलचस्पी और समय-समय पर प्रोत्साहक बातें दूसरों को भजन १२२:१ में दाऊद के इन विचारों को दोहराने के लिए और ज़्यादा समर्थ करेगी।

११. (क) बैठने की जगह के विषय में अनेकों ने कौनसी आदत विकसित की है? (ख) अनेक जन जानबूझकर अपनी जगह क्यों बदलते हैं?

११ प्रोत्साहक वार्तालाप के लिए एक और सहायक सभाओं में हमारे बैठने की जगह बदलना है। एक दूध पिलानेवाली माता को विश्राम-कक्ष के पास बैठने की आवश्‍यकता होगी, या एक अशक्‍त व्यक्‍ति को पार्श्‍व-सीट पर बैठने की आवश्‍यकता होगी, पर दूसरों के बारे में क्या? मात्र आदत की वजह से हम एक ही सीट पर या एक ही जगह में दोबारा जाना पसंद करेंगे; जिस तरह एक पक्षी मूल प्रवृत्ति के कारण अपने ही बसेरे में जाता है। (यशायाह १:३; मत्ती ८:२०) वास्तव में, चूँकि हम कहीं भी बैठ सकते हैं, क्यों न हम अपनी जगह बदलें—दाहिनी ओर, बाईं ओर, आगे, इत्यादि—और इस प्रकार भिन्‍न-भिन्‍न व्यक्‍तियों से और अच्छी तरह परिचित हों? जबकि ऐसा कोई नियम नहीं कि हम ऐसा करें, लेकिन जो प्राचीन और अन्य परिपक्व जन, अपनी जगह बदलते हैं, उन्होंने पाया है कि कुछ ही घनिष्ठ मित्रों के बजाय उन्हें अनेक व्यक्‍तियों को अनुकूल बातें बताने में आसानी होती है।

ईश्‍वरीय तरीक़े से प्रोत्साहित करें

१२. पूरे इतिहास में कौनसी अनचाही प्रवृत्ति प्रकट हुई है?

१२ बड़ी तादाद में नियम बनाने की मानवी प्रवृत्ति का अनुकरण करने के बजाय दूसरों को प्रोत्साहित करने की मसीही की इच्छा को उसे इस संदर्भ में परमेश्‍वर का अनुकरण करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।a अपने चारों ओर के लोगों पर शासन चलाना सदियों से अपरिपूर्ण व्यक्‍तियों की प्रवृत्ति रही है, और परमेश्‍वर के कई सेवक भी इस प्रवृत्ति के शिकार हो गए हैं। (उत्पत्ति ३:१६; सभोपदेशक ८:९) यीशु के समय में यहूदी अगुए ‘मनुष्यों के कन्धों पर भारी बोझ बान्धकर रखते थे, पर स्वयं उन्हें सरकाना तक नहीं चाहते थे।’ (मत्ती २३:४) उन्होंने अहानिकर दस्तूरों को आदेशात्मक परम्पराओं में बदल दिया। मानवी नियम के बारे में उनकी अत्याधिक चिंता के कारण, उन्होंने उन बातों को नज़रंदाज किया जिसे परमेश्‍वर अधिक महत्त्व देता है। उनके अनेक शास्त्रवचन-विरुद्ध नियम बनाने से किसी को प्रोत्साहन नहीं मिला; उनका तरीक़ा परमेश्‍वर जैसा था ही नहीं।—मत्ती २३:२३, २४; मरकुस ७:१-१३.

१३. संगी मसीहियों के लिए अनेक नियम बनाना क्यों अनुपयुक्‍त है?

१३ मसीही सचमुच दैवी नियम का पालन करना चाहते हैं। हालाँकि हम भी बहुत से बोझिल नियम बनाने की प्रवृत्ति का शिकार बन सकते हैं। क्यों? एक बात तो यह है कि सबकी पसंद असमान होती हैं, इसलिए दूसरों द्वारा नापसंद या वर्जित बातें अन्य लोगों को स्वीकार्य लग सकती हैं। आध्यात्मिक परिपक्वता की ओर अपनी तरक़्क़ी में भी मसीही असमान हैं। पर क्या अनेक नियम बनाना किसी अन्य व्यक्‍ति को परिपक्वता तक तरक़्क़ी करने मे मदद का ईश्‍वरीय तरीक़ा है? (फिलिप्पियों ३:१५; १ तीमुथियुस १:१९; इब्रानियों ५:१४) जब कोई व्यक्‍ति वास्तव में एक ऐसा मार्ग अपना रहा है जो तीव्र या ख़तरनाक दिखाई देता है, तब क्या एक निषेधात्मक नियम इसका उत्तम हल है? परमेश्‍वर का तरीक़ा है कि योग्य व्यक्‍ति ग़लती करनेवाले को नरमी से समझाने के द्वारा उसे सुधारने की कोशिश करें।—गलतियों ६:१.

१४. इस्राएल को दिए गए नियमों ने कौनसे उद्देश्‍यों को पूरा किया?

१४ यह सच है कि इस्राएल को अपने लोगों के तौर पर प्रयोग करते समय, परमेश्‍वर ने मंदिर उपासना, बलिदान, यहाँ तक कि स्वच्छता के बारे में भी सौ से अधिक नियम बनाए थे। एक विशिष्ट राष्ट्र के लिए यह उचित था, और अनेक नियमों का भविष्यसूचक महत्त्व था और उन्होंने यहूदियों को मसीह की ओर ले जाने में मदद दी। पौलुस ने लिखा: “इसलिये व्यवस्था मसीह तक पहुंचाने को हमारा शिक्षक हुई है, कि हम विश्‍वास से धर्मी ठहरें। परन्तु जब विश्‍वास आ चुका, तो हम अब शिक्षक के आधीन न रहे।” (गलतियों ३:१९, २३-२५) यातना स्तंभ पर नियम को रद्द किए जाने के बाद, जीवन के अधिकांश पहलुओं पर परमेश्‍वर ने मसीहियों को विस्तृत नियमों की सूची नहीं दी, मानो उन्हें विश्‍वास में बनाए रखने के लिए यही सही तरीक़ा था।

१५. मसीही उपासकों के लिए परमेश्‍वर ने क्या मार्गदर्शन दिया है?

१५ अवश्‍य ही, हम नियम के बिना नहीं हैं। परमेश्‍वर हमें मूर्तिपूजा, व्यभिचार और परगमन, और लहू के दुरुपयोग से परे रहने की आज्ञा देता है। वह ख़ास तौर से हत्या, झूठ बोलना, प्रेतात्मावाद, और अन्य दूसरे पाप करने से मना करता है। (प्रेरितों १५:२८, २९; १ कुरिन्थियों ६:९, १०; प्रकाशितवाक्य २१:८) और अन्य मामलों के विषय में वह हमें अपने वचन में साफ़ सलाह देता है। फिर भी, इस्राएलियों से कहीं ज़्यादा, हम बाइबल के सिद्धांतों को सीखने और अमल में लाने के लिए ज़िम्मेदार हैं। केवल नियम ढूँढ़ने या बनाने के बजाय प्राचीन दूसरों को ऐसे सिद्धांत पाने और उस पर विचार करने के लिए मदद करने से प्रोत्साहित कर सकते हैं।

प्राचीन जो प्रोत्साहित करते हैं

१६, १७. संगी उपासकों के लिए नियम बनाने के प्रति प्रेरितों ने क्या बढ़िया नमूना रखा?

१६ पौलुस ने लिखा: “जिस हद तक हम ने उन्‍नति की है, उसी के अनुसार चलते रहें।” (फिलिप्पियों ३:१६, NW) इस ईश्‍वरीय दृष्टिकोण के अनुसार, प्रेरित दूसरों से प्रोत्साहित करने के ढंग से पेश आया। उदाहरण के लिए, यह सवाल उठा कि क्या मूर्तियाँ रखी गयी मंदिर से आया माँस खाया जा सकता है या नहीं। तो क्या इस प्राचीन ने, शायद संगति या सरलता के वास्ते, प्रारंभिक कलीसियाओं के लिए एक नियम बनाया? नहीं। उसने माना कि ज्ञान और परिपक्वता की ओर तरक़्क़ी में फ़र्क मसीहियों को विभिन्‍न निर्णय लेने के लिए ले जाएँगे। वह ख़ुद एक अच्छा मिसाल रखना चाहता था।—रोमियों १४:१-४; १ कुरिन्थियों ८:४-१३.

१७ मसीही यूनानी शास्त्र दिखाते हैं कि प्रेरितों ने कुछ निजी मामले, जैसे वस्त्र और बनाव-श्रृंगार, पर सहायक सलाह दी थी, लेकिन उन्होंने व्यापक नियम बनाने की सहायता नहीं ली। आज यह मसीही अध्यक्षों के लिए एक बढ़िया मिसाल है, जो अपने झुंड की उन्‍नति में दिलचस्पी लेते हैं। और असल में यह एक ऐसा बुनियादी व्यवहार बढ़ाता है जिसका पालन परमेश्‍वर ने प्राचीन इस्राएल के लिए भी किया था।

१८. वस्त्र के बारे में यहोवा ने इस्राएल को कौनसे नियम दिए?

१८ परमेश्‍वर ने इस्राएलियों को पहनावे के बारे में विस्तृत नियम नहीं दिये थे। प्रत्यक्षतः पुरुष और स्त्रियों के लिए समान दगले, या बाहरी वस्त्र, होते थे, हालाँकि एक स्त्री के वस्त्र शायद कढ़े हुए या ज़्यादा रंगीन थे। दोनों पुरुष और स्त्री एक स·धीन, या अन्दर का कपड़ा, पहनते थे। (न्यायियों १४:१२; नीतिवचन ३१:२४; यशायाह ३:२३) वस्त्रों के बारे में परमेश्‍वर ने क्या नियम दिए? दोनों पुरुष और स्त्री, प्रत्यक्षतः समलिंगी इरादे से, ऐसे कपड़े नहीं पहन सकते थे जो विपरीत-लिंग पहना करते थे। (व्यवस्थाविवरण २२:५) यह दिखाने के लिए कि वे आसपास के राष्ट्रों से अलग हैं, इस्राएलियों को अपने वस्त्र के कोर पर झालर लगाना था, कोर की झालर पर एक नीले फीते से, और शायद अपने दगले के कोने पर फुंदना लगाना था। (गिनती १५:३८-४१) वस्त्र की शैली पर व्यवस्था ने बुनियादी तौर पर इतना ही निर्देशन दिया।

१९, २०. (क) वस्त्र और बनाव-श्रृंगार पर बाइबल मसीहियों को क्या निदेशन देती है? (ख) निजी रूप के विषय में नियम बनाने के बारे में प्राचीनों की क्या दृष्टि होनी चाहिए?

१९ जबकि मसीही व्यवस्था के अधीन नहीं हैं, क्या बाइबल में हमारे लिए वस्त्र या श्रृंगार के बारे में अन्य विस्तृत नियम हैं? वास्तव में नहीं। परमेश्‍वर ने संतुलित सिद्धांत प्रदान किए हैं जिसे हम लागू कर सकते हैं। पौलुस ने लिखा: “स्त्रियां भी संकोच और संयम के साथ सुहावने वस्त्रों से अपने आप को संवारे; न कि बाल गूंथने, और सोने, और मोतियों, और बहुमोल कपड़ों से।” (१ तीमुथियुस २:९) पतरस ने आग्रह किया कि शारीरिक श्रृंगार पर ध्यान देने के बजाय, मसीही औरतों को “छिपा हुआ और गुप्त मनुष्यत्व, नम्रता और मन की दीनता की अविनाशी सजावट से सुसज्जित” रहने पर ध्यान देना चाहिए। (१ पतरस ३:३, ४) इस सलाह की लिखाई इस बात को सूझाती है कि पहली-सदी के कुछ मसीहियों को अपने वस्त्र और बनाव-श्रृंगार में ज़्यादा संकोची और संयमी बनने की आवश्‍यकता थी। फिर भी, ख़ास पहनावे की माँग करने—या मना करने—के बजाय, प्रेरितों ने केवल प्रोत्साहक सलाह प्रदान की।

२० यहोवा के गवाहों के मर्यादित रूप के लिए उनका आदर किया जाना चाहिए और आम तौर पर किया जाता है। फिर भी, देश-देश के पहनावे और यहाँ तक कि एक क्षेत्र या कलीसिया में भी पहनावे भिन्‍न होते हैं। अवश्‍य ही, एक प्राचीन जो दृढ़ राय रखता है या ख़ास प्रकार के वस्त्र या बनाव-श्रृंगार पसंद करता है तदनुसार अपने और अपने परिवार के लिए निर्णय ले सकता है। लेकिन झुंड के विषय में, उसे पौलुस के इस मुद्दे को ध्यान में रखने की आवश्‍यकता है: “यह नहीं, कि हम विश्‍वास के विषय में तुम पर प्रभुता जताना चाहते हैं; परन्तु तुम्हारे आनन्द में सहायक हैं क्योंकि तुम विश्‍वास ही से स्थिर रहते हो।” (२ कुरिन्थियों १:२४) हाँ, कलीसिया के लिए नियम बनाने के किसी भी आवेग को रोकने के द्वारा, प्राचीन दूसरों का विश्‍वास बढ़ाने के लिए कार्य करते हैं।

२१. अगर कोई व्यक्‍ति असामान्य वस्त्र पहनता है, तो कैसे प्राचीन उसे प्रोत्साहक मदद दे सकते हैं?

२१ जैसे पहले शताब्दी में था, कभी-कभी एक नया या आध्यात्मिक रूप से कमज़ोर व्यक्‍ति शायद वस्त्र या श्रृंगार के उपयोग या गहनों के विषय में एक विवाद्य या मूर्ख तरीक़े का पालन कर सकता है। तब क्या? फिर से, गलतियों ६:१ मसीही प्राचीनों के लिए मार्गदर्शन देता है जो निष्कपटता से मदद करना चाहते हैं। सलाह देने का निर्णय लेने से पहले, प्राचीन बुद्धिमानी से शायद एक संगी प्राचीन से परामर्श लेगा, बेहतर यह होगा कि वह एक ऐसे प्राचीन के पास नहीं जाए जिसकी पसंद और विचारधारा उसी के समान है। अगर वस्त्र या बनाव-श्रृंगार में एक सांसारिक फैशन कलीसिया में अनेकों को प्रभावित कर रहा है, तो प्राचीनों का समूह इस बात पर विचार-विमर्श कर सकता है कि किस तरह उचित मदद दी जा सकती है, शायद सभा में एक स्नेही, प्रोत्साहक भाग के द्वारा या निजी सहायता के द्वारा। (नीतिवचन २४:६; २७:१७) २ कुरिन्थियों ६:३ में प्रतिबिम्बित दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करना उनका लक्ष्य होगा: “हम किसी बात में ठोकर खाने का कोई भी अवसर नहीं देते, कि हमारी सेवा पर कोई दोष न आए।”

२२. (क) अगर नज़रिये में मामूली मतभेद हो, तो क्यों यह अशांत करनेवाली बात नहीं होनी चाहिये? (ख) पौलुस ने कौनसी बढ़िया मिसाल रखी?

२२ ‘परमेश्‍वर के झुंड की रखवाली करने’ में मसीही प्राचीन वैसा ही करना चाहते हैं जैसा पतरस ने कहा था, यानी, ‘सौंपे गए पर अधिकार न जताना।’ (१ पतरस ५:२, ३) उनके प्रेममय कार्य के दौरान, ऐसे मामलों पर सवाल उठ सकते हैं जिन पर असमान पसंद हों। शायद एक प्रहरीदुर्ग अध्ययन के दौरान परिच्छेद पढ़ने के लिए खड़ा रहना स्थानीय दस्तूर है। क्षेत्र सेवा के लिए समूह प्रबन्ध और स्वयं सेवकाई के बारे में अनेक अन्य तफ़सीलें उस क्षेत्र के रिवाजों के अनुसार संभाली जा सकती हैं। फिर भी, क्या अनर्थ होगा अगर किसी का तरीक़ा थोड़ा अलग हो? प्रेममय अध्यक्ष चाहते हैं कि “सारी बातें सभ्यता और क्रमानुसार की जाएं,” जिसकी अभिव्यक्‍ति पौलुस ने चमत्कारिक वरदानों के सम्बन्ध में इस्तेमाल की। पर संदर्भ बताता है कि पौलुस की प्रमुख दिलचस्पी “कलीसिया की उन्‍नति” थी। (१ कुरिन्थियों १४:१२, ४०) अनगिनत नियम बनाने की तरफ़ उसने कोई प्रवृत्ति नहीं दिखायी, मानो अबाध समानता या सम्पूर्ण दक्षता ही उसका मुख्य उद्देश्‍य था। उसने लिखा: “प्रभु ने [वह अधिकार] तुम्हारे बिगाड़ने के लिये नहीं पर बनाने के लिये हमें दिया है।”—२ कुरिन्थियों १०:८.

२३. कौनसे तरीक़े हैं जिन से हम दूसरों को प्रोत्साहित करने में पौलुस का अनुकरण कर सकते हैं?

२३ दूसरों को सकारात्मक और प्रोत्साहनदायक बातों से प्रोत्साहित करने के लिए पौलुस ने अविवाद्य रूप से कार्य किया है। दोस्तों के छोटे दायरे में ही संगति करने के बजाय, उसने अनेक भाई-बहनों को मिलने का अतिरिक्‍त प्रयास किया। दोनों, आध्यात्मिक रूप से प्रबल और जिन्हें ख़ास तौर पर प्रोत्साहन की आवश्‍यकता थी, इन में शामिल थे। और उसने प्रेम पर ज़ोर दिया—नियमों के बजाय—क्योंकि “प्रेम से उन्‍नति होती है।”—१ कुरिन्थियों ८:१.

[फुटनोट]

a एक परिवार में, हालात पर निर्भर होते हुए, अनेक नियम शायद उचित प्रतीत हो सकते हैं। बाइबल माता-पिता को अपने अवयस्क बच्चों के लिए निर्णय लेने का अधिकार देती है।—निर्गमन २०:१२; नीतिवचन ६:२०; इफिसियों ६:१-३.

पूनर्विचार के लिए मुद्दे

▫ अगर हमारी बोली नकारात्मक और आलोचनात्मक है, तो परिवर्तन क्यों उचित है?

▫ कलीसिया में दूसरों के प्रोत्साहन के लिए हम क्या कर सकते हैं?

▫ दूसरों के लिए अनेक नियम बनाने के बारे में ईश्‍वरीय नमूना क्या है?

▫ झुंड के लिए मानवी नियम बनाने से बचे रहने के लिए प्राचीनों को क्या मददगार होगी?

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