उन्होंने यहोवा की इच्छा पूरी की
यीशु के अन्तिम शब्दों पर ध्यान देना
निसान १४, सा.यु. ३३ की शाम को, यीशु मसीह और उसके ११ वफ़ादार प्रेरित यरूशलेम में एक अटारी में एक मेज़ के चारों ओर बैठे थे। यह जानते हुए कि उसकी मृत्यु निकट थी, उसने उन्हें बताया: “मैं और थोड़ी देर तुम्हारे पास हूं।” (यूहन्ना १३:३३) वास्तव में, यहूदा इस्करियोती उन दुष्ट लोगों के साथ षड़्यंत्र रचाने के लिए पहले ही चल पड़ा था जो यीशु को मरवाना चाहते थे।
उस अटारी में किसी भी व्यक्ति ने स्थिति की अत्यावश्यकता को इतना महसूस नहीं किया जितना यीशु ने किया। वह अच्छी तरह जानता था कि वह कष्ट भोगने जा रहा था। यीशु यह भी जानता था कि उसके प्रेरित उसी रात उसे अकेला छोड़ देते। (मत्ती २६:३१; जकर्याह १३:७) चूँकि यह यीशु का अपनी मृत्यु से पहले अपने प्रेरितों से बात करने का आख़िरी मौक़ा था, हम निश्चित हो सकते हैं कि उसके विदाई के शब्द परम महत्त्व के मामलों पर केंद्रित थे।
“मेरे स्मरण के लिये यही किया करो”
अपने वफ़ादार प्रेरितों के साथ, यीशु ने एक नए अनुष्ठान को संस्थापित किया जो यहूदी फसह का स्थान लेता। प्रेरित पौलुस ने उसे “प्रभु भोज” कहा। (१ कुरिन्थियों ११:२०) एक अखमीरी रोटी लेकर, यीशु ने एक प्रार्थना की। उसके बाद उसने रोटी तोड़ी और अपने प्रेरितों को दी। “लो, खाओ; यह मेरी देह है,” उसने कहा। उसके बाद उसने दाखमधु का कटोरा लिया, धन्यवाद के लिए प्रार्थना की और यह कहते हुए प्रेरितों को दिया: “तुम सब इस में से पीओ। क्योंकि यह वाचा का मेरा वह लोहू है, जो बहुतों के लिये पापों की क्षमा के निमित्त बहाया जाता है।”—मत्ती २६:२६-२८.
इस घटना का क्या महत्त्व था? जैसा यीशु ने कहा, रोटी ने उसकी पापरहित देह को सूचित किया। (इब्रानियों ७:२६; १ पतरस २:२२, २४) दाखमधु यीशु के बहाए गए लहू का प्रतीक था, जो पापों की क्षमा को संभव बनाता। उसका बलिदान-रूपी लहू, यहोवा परमेश्वर और १,४४,००० मनुष्यों के बीच नई वाचा को भी वैध करता, जो कि अंततः यीशु के साथ स्वर्ग में राज्य करते। (इब्रानियों ९:१४; १२:२२-२४; प्रकाशितवाक्य १४:१) इस भोज में हिस्सा लेने के लिए अपने प्रेरितों को आमंत्रित करने के द्वारा यीशु ने सूचित किया कि वे उसके साथ स्वर्गीय राज्य में सहभागी होते।
इस स्मारकीय भोज के बारे में यीशु ने आज्ञा दी: “मेरे स्मरण के लिये यही किया करो।” (लूका २२:१९) जी हाँ, प्रभु का संध्या भोज एक वार्षिक अवसर होता, ठीक जैसे फसह रहा था। जबकि फसह मिस्र से इस्राएलियों के छुटकारे का स्मारक था, प्रभु का संध्या भोज कहीं बड़े छुटकारे की ओर केंद्रित होता—वह है उद्धार्य मानवजाति का पाप और मृत्यु के दासत्व से छुटकारा। (१ कुरिन्थियों ५:७; इफिसियों १:७) इसके अलावा, जो लोग प्रतीकात्मक रोटी और दाखमधु में हिस्सा लेते हैं उन्हें परमेश्वर के स्वर्गीय राज्य में राजाओं और याजकों के तौर पर उनके भावी विशेषाधिकारों की याद दिलाई जाती।—प्रकाशितवाक्य २०:६.
यीशु मसीह की मृत्यु मानव इतिहास में सचमुच सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी। यीशु ने जो किया उसका मूल्यांकन करनेवाले लोग प्रभु के संध्या भोज के बारे में उसकी आज्ञा को मानते हैं: “मेरे स्मरण के लिये यही किया करो।” यहोवा के साक्षी प्रत्येक वर्ष निसान १४ से मिलती हुई तारीख़ पर यीशु की मृत्यु का स्मारक मनाते हैं। १९९६ में यह तारीख़ अप्रैल २ के दिन, सूर्यास्त के बाद पड़ती है। आप अपने इलाके के एक राज्यगृह में उपस्थित होने के लिए सादर आमंत्रित हैं।
“मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं”
प्रभु का संध्या भोज संस्थापित करने के अलावा यीशु के पास अपने प्रेरितों के लिए कुछ अन्तिम सलाह थी। उनके उत्तम प्रशिक्षण के बावजूद इन पुरुषों को बहुत कुछ सीखना था। यीशु के लिए, अपने लिए, अथवा भविष्य के लिए वे परमेश्वर का उद्देश्य पूरी तरह नहीं समझ पाए थे। लेकिन यीशु ने इन सभी मामलों को उस समय स्पष्ट करने की कोशिश नहीं की। (यूहन्ना १४:२६; १६:१२, १३) इसके बजाय, उसने एक अति महत्वपूर्ण बात के बारे में कुछ कहा। “मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं,” उसने कहा “कि एक दूसरे से प्रेम रखो: जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो।” यीशु ने तब आगे कहा: “यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो।”—यूहन्ना १३:३४, ३५.
किस तरीक़े से यह “एक नई आज्ञा” थी? मूसा की व्यवस्था में आज्ञा दी गयी थी: “एक दूसरे से अपने ही समान प्रेम रखना।” (लैव्यव्यवस्था १९:१८) लेकिन, यीशु ने अपने अनुयायियों को आत्म-बलिदानी प्रेम दिखाने के लिए उकसाया जो कि अपने संगी मसीहियों के पक्ष में अपना जीवन देने की हद तक जाता। निश्चित ही, ‘प्रेम का नियम’ कम कठिन हालातों में भी लागू होता। सभी परिस्थितियों में यीशु मसीह का एक अनुयायी दूसरों को आध्यात्मिक रूप से और अन्यथा मदद देने के द्वारा प्रेम दिखाने में पहल करेगा।—गलतियों ६:१०.
यीशु के पार्थिव जीवन की इस आख़िरी रात में, प्रेम ने यीशु को अपने शिष्यों के पक्ष में यहोवा परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए उकसाया। अंशतः उसने प्रार्थना की: “ये जगत में रहेंगे, और मैं तेरे पास आता हूं; हे पवित्र पिता, अपने उस नाम से जो तू ने मुझे दिया है, उन की रक्षा कर, कि वे हमारी नाईं एक हों।” (यूहन्ना १७:११) यह ध्यान देने योग्य है कि अपने पिता से इस याचना में, यीशु ने अपने अनुयायियों की प्रेममय एकता के लिए प्रार्थना की। (यूहन्ना १७:२०-२३) उन्हें ‘जैसा यीशु ने उनसे प्रेम रखा था, वैसे ही एक दूसरे से प्रेम रखने’ की ज़रूरत थी।—यूहन्ना १५:१२.
वफ़ादार प्रेरितों ने यीशु के अन्तिम शब्दों पर ध्यान दिया था। हमें भी उसकी आज्ञाओं का अनुपालन करना चाहिए। इन कठिन “अन्तिम दिनों” में, सच्चे उपासकों के बीच प्रेम और एकता पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। (२ तीमुथियुस ३:१) वाक़ई, सच्चे मसीही यीशु की आज्ञाओं का पालन करते और भाईचारे का प्रेम दिखाते हैं। इसमें प्रभु के संध्या भोज को मनाने की उसकी आज्ञा का पालन करना शामिल है।