“परमेश्वर के मंदिर” और यूनान की मूर्तियों में समझौता?
इस बहुत ज़्यादा गर्मी के दिन, धूप चमकते हुए पत्थरों पर पड़ती है। लेकिन, लगता है कि यह अत्यधिक गर्मी, उन ग्रीक ऑर्थोडॉक्स तीर्थ-यात्रियों के जोश और दृढ़ निश्चय को कम नहीं कर पा रही है जो पहाड़ी के शिखर पर एक गिरजे की ओर जा रहे हैं।
आप एक पस्त बूढ़ी स्त्री को देखते हैं, जिसने देश के दूसरे कोने से यात्रा की, और जो अपने थके हुए पैरों को चलाते रहने के लिए संघर्ष कर रही है। उससे थोड़ी दूर ऊपर, एक उत्सुक आदमी धक्का-मुक्की करती भीड़ के बीच अपने लिए जगह बनाने की उत्सुकता से कोशिश करते वक़्त पसीने से लतपत हो रहा है। और एक छोटी लड़की, ज़ाहिर है दर्द में और चेहरे पर निराशा के भाव के साथ, अपने लहूलुहान घुटनों पर चलती है। उनका लक्ष्य? समय पर पहुँचना, प्रतिमा के सामने प्रार्थना करना, और यदि संभव हो तो उस प्रसिद्ध “सन्त” की प्रतिमा को छूना और चूमना।
इस तरह के दृश्य संसार-भर में “सन्तों” की उपासना के लिए समर्पित स्थानों में दोहराए जाते हैं। प्रत्यक्षतः, ये सभी तीर्थ-यात्री इस बात से आश्वस्त हैं कि इस प्रकार अपनी भक्ति और विश्वास व्यक्त करते हुए वे परमेश्वर के पास पहुँचने के उसके मार्ग पर चल रहे हैं। पुस्तक हमारा ऑर्थोडॉक्स मसीही विश्वास (अंग्रेज़ी) कहती है: “हम [“सन्तों” को] मानते हैं और उनके पवित्र व्यक्तित्व को महिमा और आदर देते हैं . . . , और हम उनसे परमेश्वर के सामने हमारे लिए प्रार्थना और बिनती और हमारे जीवन की अनेक ज़रूरतों के लिए सहायता माँगते हैं। . . . अपनी आध्यात्मिक और शारीरिक ज़रूरतों के लिए हम . . . उन चमत्कार करनेवाले सन्तों से मदद माँगते हैं।” साथ ही, रोमन कैथोलिक चर्च की धर्मसभा की आज्ञाओं के अनुसार, “सन्तों” से परमेश्वर के माध्यम के रूप में बिनती की जानी है, और “सन्तों” के प्रतीकों और प्रतिमाओं दोनों की उपासना की जानी है।
एक असली मसीही की पहली चिन्ता “आत्मा और सच्चाई” से परमेश्वर की उपासना करना होनी चाहिए। (यूहन्ना ४:२४) इस कारण आइए हम उस तरीक़े के बारे में कुछ तथ्यों पर ध्यान दें जिस तरीक़े से मसीहीजगत के धार्मिक अभ्यासों के एक भाग के तौर पर “सन्तों” की उपासना करना शुरू किया गया। ऐसी एक जाँच उन सभी के लिए ज्ञानप्रद होनी चाहिए जो परमेश्वर के पास उसके द्वारा स्वीकृत मार्ग से पहुँचने की इच्छा रखते हैं।
“सन्तों” को कब शामिल किया गया
मसीही यूनानी शास्त्र उन सभी प्रारंभिक मसीहियों को “पवित्र लोग” या “सन्तों” के तौर पर बताता है जो मसीह के लहू से शुद्ध किए गए थे और जिन्हें मसीह के साथ भावी वारिसों के रूप में परमेश्वर की सेवा के लिए अलग किया गया था। (प्रेरितों ९:३२; २ कुरिन्थियों १:१; १३:१३)a कलीसिया में पुरुष और स्त्रियाँ, बड़े और छोटे, सभी का पृथ्वी पर रहते वक़्त “पवित्र जनों” के तौर पर वर्णन किया गया है। सन्त होने की उनकी मान्यता शास्त्रीय रूप से उनकी मृत्यु के समय तक समाप्त नहीं हुई थी।
लेकिन, सा.यु. दूसरी शताब्दी के बाद, जब धर्मत्यागी मसीहियत जड़ पकड़ रही थी, तो मसीहियत को प्रसिद्ध करने की कोशिश करने की प्रवृत्ति थी, एक ऐसा धर्म जो विधर्मी लोगों को आकर्षित करे और उन्हें आसानी से स्वीकार्य हो। ये विधर्मी अनेक ईश्वरों के उपासक थे, और यह नया धर्म कट्टर रूप से एकेश्वरवादी था। सो “सन्तों,” को शामिल करने से एक समझौता संभव होता जो प्राचीन देवताओं, मानव-देवों, और काल्पनिक नायकों की जगह लेते। इस पर टिप्पणी करते हुए, पुस्तक इकलीसीआसटीकी ईसटारीया (सभोपदेशीय इतिहास) (यूनानी), कहती है: “उन लोगों के लिए जो विधर्मीवाद से धर्मपरिवर्तित होकर मसीहियत को अपनाते थे, अपने त्यागे हुए नायकों को इन शहीदों के व्यक्तित्व में पहचानना और जो आदर उन्होंने अपने नायकों को दिया था उसे देना शुरू करना आसान था। . . . फिर भी, अकसर इन सन्तों को दिया गया ऐसा आदर कोरी मूर्तिपूजा बन गया।”
एक अन्य संदर्भ कार्य समझाता है कि मसीहीजगत में कैसे “सन्तों” की शुरूआत हुई थी: “ग्रीक ऑर्थोडॉक्स गिरजे के सन्तों को आदर दिखाने में, हम उस दृढ़ प्रभाव के प्रत्यक्ष निशान पाते हैं जो विधर्मी धर्म का था। [लोगों] द्वारा मसीहियत अपनाए जाने से पहले जिन गुणों का प्रतीक यूनानी देवताओं को समझा जाता था अब उनका श्रेय सन्तों को दिया जाता था। . . . नए धर्म के आरम्भिक वर्षों से हम देखते हैं कि उसके अनुयायी सूर्य-देवता (फोएबस अपोलो) का स्थान भविष्यवक्ता एलिय्याह को देते हैं, इस देवता के प्राचीन मंदिरों या उपासना स्थलों के खण्डहरों पर या उनके पास ही गिरजे बनाते हैं, ज़्यादातर पहाड़ियों और पर्वतों पर, और ऐसे हर स्थान पर जहाँ प्रचीन यूनानी प्रकाश-दाता फोएबस अपोलो का आदर करते थे। . . . यहाँ तक कि उन्होंने कुँवारी-देवी एथेना को ख़ुद कुँवारी मरियम के समान माना। अतः, एथेना की मूर्ति को गिराने पर धर्म परिवर्तक मूर्तिपूजकों के दिल में जो अभाव पैदा हो गया था वह भर गया।”—नेओटॆरोन ऐंगिक्लोपैडीकोन लेक्सीकोन (न्यू एनसाइक्लोपीडिया डिक्शनरी), खण्ड १, पृष्ठ २७०-१.
उदाहरण के लिए, एथेन्स में मौजूद उस परिस्थिति की जाँच कीजिए जो सा.यु. चौथी शताब्दी के अन्तिम भाग में थी। उस शहर के अधिकांश लोग अभी-भी विधर्मी थे। उनकी एक सबसे पवित्र धर्मविधि इल्यूसीनियन रहस्यनुष्ठान थी, दो चरणों की एक घटना,b जो उत्तर-पश्चिमी एथेन्स से २३ किलोमीटर दूर, इल्यूसीस के शहर में फरवरी में वार्षिक तौर पर आयोजित की जाती थी। इन रहस्यनुष्ठानों में उपस्थित होने के लिए, विधर्मी एथेनवासियों को पवित्र मार्ग (हीएरा होडोस) का पालन करना था। उपासना के एक वैकल्पिक स्थान का प्रबन्ध करने की कोशिश में, उस शहर के अगुए काफ़ी प्रवीण साबित हुए। उसी सड़क पर, एथेन्स से लगभग १० किलोमीटर दूर, विधर्मियों को आकर्षित करने और रहस्यनुष्ठानों में उपस्थित होने से रोकने के लिए डेफ़्नी मठ का निर्माण किया गया। मठ का गिरजा यूनानी देवता डेफ़्नेओस, या पीथीओस अपोलो को समर्पित था।
विधर्मी देवी-देवताओं का “सन्तों” की उपासना में एकीकरण कीथीरा द्वीप, यूनान में भी पाया जा सकता है। द्वीप की पहाड़ियों पर, दो छोटे बाइज़ेनटाइन गिरजे हैं—उनमें से एक “सन्त” जॉर्ज को समर्पित है, और दूसरा कुँवारी मरियम को। खुदाई ने प्रकट किया कि यह मिनोअन पहाड़ी मठ का स्थान थी जिसने क़रीब ३,५०० वर्षों पहले उपासना के एक स्थल के रूप में कार्य किया। सा.यु. छठी या सातवीं शताब्दी के दौरान “मसीहियों” ने “सन्त” जॉर्ज के लिए अपने गिरजे का निर्माण ठीक शिखर मठ के स्थल पर किया। यह चेष्ठा गहरा अर्थ रखती थी; अर्थात् वह मिनोअन धर्म का विकसित केन्द्र इजिअन समुद्र के समुद्री मार्गों पर अधिकार रखता था। वहाँ दो गिरजों का निर्माण माता मरियम और “सन्त” जॉर्ज का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए किया गया था, “सन्त” जॉर्ज का उसी दिन “समुद्री यात्रियों के रक्षक,” “सन्त” निकोलस के रूप में अनुष्ठान किया जाता था। इस खोज पर रिपोर्ट करनेवाले एक समाचार-पत्र ने कहा: धार्मिक सेवाओं को करने के लिए “आज [ग्रीक ऑर्थोडॉक्स] पादरी पहाड़ पर चढ़ेगा, ठीक वैसे ही जैसे प्राचीन समय में मिनोअन पुजारी चढ़ता!”
जिस हद तक धर्मत्यागी मसीहियत विधर्मी यूनानी धर्म से प्रभावित हुई थी उसका सार देते हुए, एक ऐतिहासिक खोजकर्ता सूचित करती है: “और इस प्रकार यह परम्परा के टिके रहने के गुण का प्रमाण देती है, मसीही धर्म की विधर्मी बुनियाद प्रमुख विश्वासों में अकसर अपरिवर्तनीय रहती है।”
‘हम जिसे जानते हैं उसकी आराधना करना’
यीशु ने सामरी स्त्री को कहा: “हम उसकी आराधना करते हैं जिसे हम जानते हैं, . . . सच्चे आराधक पिता की आराधना आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिए ऐसे ही आराधक चाहता है।” (यूहन्ना ४:२२, २३, NHT) ध्यान दीजिए कि सच्चाई के साथ आराधना अनिवार्य है! इसलिए यथार्थ ज्ञान और सच्चाई के लिए एक गहरे प्रेम के बिना परमेश्वर की स्वीकार्य रूप से उपासना करना असंभव है। सच्चे मसीही धर्म को सच्चाई पर आधारित होना चाहिए न कि विधर्मवाद से उधार ली गईं परम्पराओं और रीतियों पर। हम जानते हैं कि यहोवा को कैसा महसूस होता है जब लोग ग़लत तरीक़े से उसकी आराधना करने की कोशिश करते हैं। प्रेरित पौलुस ने प्राचीन यूनानी शहर कुरिन्थियों के मसीहियों को लिखा: “मसीह का बलियाल के साथ क्या लगाव? . . . मूरतों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध?” (२ कुरिन्थियों ६:१५, १६) परमेश्वर के मन्दिर का मूर्तियों के साथ सम्बन्ध जोड़ने की किसी भी कोशिश से उसे घृणा है।
इसके अलावा, एक स्पष्ट तरीक़े से, शास्त्र परमेश्वर के माध्यमों के तौर पर कार्य करने के लिए “सन्तों” से प्रार्थना करने के विचार को वर्जित ठहराता है। अपनी आदर्श प्रार्थना में, यीशु ने सिखाया कि प्रार्थनाएँ केवल पिता को सम्बोधित होनी चाहिए, चूँकि उसने अपने चेलों को निर्देशन दिया: “सो तुम इस रीति से प्रार्थना किया करो; ‘हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए।’” (मत्ती ६:९) यीशु ने आगे कहा: “मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता। यदि तुम मुझ से मेरे नाम से कुछ मांगोगे, तो मैं उसे करूंगा।” और प्रेरित पौलुस ने कहा: “परमेश्वर एक ही है: और परमेश्वर और मनुष्यों के बीच में भी एक ही बिचवई है, अर्थात् मसीह यीशु जो मनुष्य है।”—यूहन्ना १४:६, १४; १ तीमुथियुस २:५.
यदि हम वाक़ई चाहते हैं कि परमेश्वर हमारी प्रार्थनाएँ सुने, तो यह अनिवार्य है कि हम उस तरीक़े से उसके सामाने जाएँ जिस तरीक़े से उसका वचन निर्देश देता है। एकमात्र वैध तरीक़ा जिसके द्वारा यहोवा के सामने जाया जा सकता है, उस पर ज़ोर देते हुए पौलुस ने भी लिखा: “मसीह वह है जो मर गया बरन मुर्दों में से जी उठा, और परमेश्वर की दहिनी ओर है, और हमारे लिये निवेदन भी करता है।” “जो उसके द्वारा परमेश्वर के पास आते हैं, वह उन का पूरा पूरा उद्धार कर सकता है, क्योंकि वह उन के लिये बिनती करने को सर्वदा जीवित है।”—रोमियों ८:३४; इब्रानियों ७:२५.
‘आत्मा और सच्चाई से आराधना करना’
धर्मत्यागी मसीहियत के पास विधर्मियों को उनकी झूठी उपासना को त्यागने और यीशु मसीह की सच्ची शिक्षाओं पर चलने को उन्हें प्रेरित करने के लिए न तो आध्यात्मिक शक्ति ही थी न ही परमेश्वर की पवित्र आत्मा का समर्थन। इसने धर्मपरिवर्तन करने, शक्ति, और प्रसिद्धि की अपनी खोज में विधर्मी विश्वासों और अभ्यासों का समावेश कर लिया। इस वजह से इसने स्थिर मसीही उत्पन्न नहीं किए, जो परमेश्वर और मसीह को स्वीकार्य हों, बल्कि राज्य के लिए अनुपयुक्त, नक़ली विश्वासी “जंगली बीज” पैदा किए।—मत्ती १३:२४-३०.
लेकिन, अन्त के इस समय के दौरान, यहोवा के निर्देशन के अधीन सच्ची उपासना को पुनःस्थापित करने के लिए एक महान अभियान चलाया जा रहा है। उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक, या धार्मिक पृष्ठभूमि चाहे जो भी हो, संसार-भर में यहोवा के लोग अपने जीवन को और विश्वासों को बाइबल स्तरों के अनुरूप चलाने की कोशिश करते हैं। यदि आप इसके बारे में अधिक जानना चाहते हैं कि परमेश्वर की उपासना “आत्मा और सच्चाई” से कैसे करें, तो जहाँ आप रहते हैं वहाँ कृपया यहोवा के साक्षियों से सम्पर्क कीजिए। वे आपकी तर्क-शक्ति और परमेश्वर के वचन के यथार्थ ज्ञान पर आधारित, परमेश्वर को स्वीकार्य पवित्र सेवा करने में आपकी मदद करने में बहुत ख़ुश होंगे। पौलुस ने लिखा: “इसलिये हे भाइयो, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो।” और कुलुस्से के लोगों से उसने कहा: “जिस दिन से यह सुना है, हम भी तुम्हारे लिये यह प्रार्थना करने और बिनती करने से नहीं चूकते कि तुम सारे आत्मिक ज्ञान और समझ सहित परमेश्वर की इच्छा की पहिचान में परिपूर्ण हो जाओ।”—रोमियों १२:१, २; कुलुस्सियों १:९, १०.
[फुटनोट]
a कुछ बाइबल अनुवाद यूनानी शब्द हागियोस को “पवित्र जन,” बाक़ियों को “सन्तों” के तौर पर अनुवादित करते हैं।
b बड़ा इल्यूसीनिया प्रत्येक वर्ष सितम्बर में एथेन्स और इल्यूसीस में आयोजित किया जाता था।
[पेज 28 पर बक्स/तसवीर]
पारथेनन का निराशाजनक इस्तेमाल
“मसीही” सम्राट थियोडोसियस द्वितीय, (सा.यु. ४३८) में एथेन्स शहर के लिए आदेशपत्रों के साथ, विधर्मी धर्म-विधियों और रहस्यनुष्ठानों का अन्त किया, विधर्मी मन्दिरों को बन्द किया। उन्हें बाद में मसीही गिरजों में बदला जा सकता था। एक मन्दिर को सफलतापूर्वक बदलने की एकमात्र माँग थी उसमें एक क्रूस लगाकर उसे शुद्ध करना!
जिन मन्दिरों को बदला गया उनमें से एक था पारथेनन का मन्दिर। पारथेनन को एक “मसीही” मन्दिर के रूप में इस्तेमाल के लिए उचित रूप से योग्य बनाने लिए बड़ी मरम्मत का काम हुआ। सा.यु. ८६९ से, इसने एथेन्स के गिरजे के रूप में कार्य किया। आरम्भ में इसे “पवित्र बुद्धि” के गिरजे के रूप में आदर दिखाया गया। यह इस बात की सच्चाई का उद्देश्यपूर्ण स्मारक था कि इस मन्दिर की असली “मालकिन” एथेना, अर्थात् बुद्धि की देवी थी। बाद में इसे “एथेनी माता मरियम” को समर्पित किया गया। ऑर्थोडॉक्स इस्तेमाल की आठ शताब्दियों बाद, मन्दिर को सॆंट मेरी आफ़ एथेन्स के कैथोलिक गिरजे में बदल दिया गया। पारथेनन का ऐसा धार्मिक “पुनःप्रयोग” जारी रहा, जब १५वीं शताब्दी में ओटोमन तुर्कों ने इसे एक मसजिद में तबदील कर दिया।
आज पारथेनन, एथेना पारथेनोस (“कुँवारी”), बुद्धि की यूनानी देवी, के प्राचीन डोरिक मन्दिर को हज़ारों पर्यटक मात्र एक यूनानी वास्तुकला की एक श्रेष्ठ-कृति के रूप में भेंट करते हैं।
[पेज 26 पर तसवीर]
डेफ़्नी मठ—एथेन्स के विधर्मियों के लिए उपासना का एक वैकल्पिक स्थान