परमेश्वर के खिलाफ लड़नेवाले जीत नहीं सकते!
“वे तुझ से लड़ेंगे तो सही, परन्तु तुझ पर प्रबल न होंगे।”—यिर्मयाह 1:19.
1. यिर्मयाह को क्या ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी और वह यह काम कब तक करता रहा?
यिर्मयाह एक लड़का ही था जब यहोवा ने उसे जाति-जाति के लिए अपना नबी चुना। (यिर्मयाह 1:5) तब यहूदा में भले राजा योशियाह का राज था और देश में शांति थी। लेकिन योशियाह के मरने के बाद देश में मुसीबत और संकट के बादल मँडराने लगे। फिर बाबुल ने यरूशलेम पर हमला कर दिया और बाद में बहुत-से यहुदियों को बँधुआ बनाकर बाबुल ले जाया गया। इस भयानक संकट के दौर में भी यिर्मयाह भविष्यवक्ता, यहोवा का वफादार रहा और अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करता रहा।—यिर्मयाह 1:1-3.
2. यहोवा ने यिर्मयाह की हिम्मत कैसे बँधाई और उस भविष्यवक्ता से लड़ने का मतलब क्या था?
2 यिर्मयाह का संदेश यहोवा की तरफ से न्यायदंड का संदेश था। बेशक, ऐसा तीखा और चुभनेवाला संदेश सुनकर लोग आग-बबूला हो उठते और उसकी जान के दुश्मन बन जाते। मगर यहोवा उसके साथ था। (यिर्मयाह 1:8-10) यहोवा ने उसे यकीन दिलाया: “वे तुझ से लड़ेंगे तो सही, परन्तु तुझ पर प्रबल न होंगे, क्योंकि बचाने के लिये मैं तेरे साथ हूं, यहोवा की यही वाणी है।” (यिर्मयाह 1:19) यिर्मयाह से लड़नेवालों को असल में यहोवा से लड़ना पड़ता। आज हमारे ज़माने में भी यहोवा ने लोगों तक अपना संदेश पहुँचाने के लिए अपने दासों को चुना है। वे भी यिर्मयाह की तरह बेधड़क होकर हर जाति और भाषा के लोगों को यहोवा का संदेश सुना रहे हैं। जो इस संदेश को मानता है उसके लिए यह खुशखबरी है, लेकिन जो नहीं मानता उसके लिए न्यायदंड। आज हमारे ज़माने में भी विरोधी, परमेश्वर के सेवकों से लड़ रहे हैं और प्रचार के काम को रोकना चाहते हैं। लेकिन असल में वे हमसे नहीं बल्कि यहोवा से ही लड़ रहे हैं।
यहोवा के लोगों पर निशाना
3. बीसवीं सदी की शुरूआत से यहोवा के सेवकों पर लगातार हमले क्यों हो रहे हैं?
3 दरअसल बीसवीं सदी की शुरूआत से ही यहोवा के सेवकों का विरोध किया गया। परमेश्वर के लोगों का सबसे बड़ा दुश्मन शैतान है और वह “गर्जनेवाले सिंह की नाईं इस खोज में रहता है, कि किस को फाड़ खाए।” (1 पतरस 5:8) उसी के भड़काने में आकर बहुत से देशों में दुष्ट लोगों ने ना सिर्फ प्रचार के काम में बाधा डाली बल्कि इसे मिटा देने की कोशिश की। खासकर सन् 1914 से परमेश्वर के विरोधियों के हमले तेज़ हो गए। क्योंकि सन् 1914 में “अन्य जातियों का समय” पूरा हुआ, और यहोवा ने अपने बेटे को पृथ्वी का नया राजा बनाकर उसे आज्ञा दी: “अपने शत्रुओं के बीच में शासन कर।” (लूका 21:24; भजन 110:2) मसीह ने शैतान को स्वर्ग से नीचे पृथ्वी पर फेंक दिया। शैतान अच्छी तरह जानता है कि अब उसका थोड़ा ही समय बाकी है इसलिए वह अभिषिक्त जनों और उनके साथियों पर अपनी जलजलाहट निकाल रहा है। (प्रकाशितवाक्य 12:9, 17) लेकिन क्या परमेश्वर के दुश्मन जीत पाए?
4. पहले विश्वयुद्ध के समय यहोवा के लोगों पर कौन-कौन-सी परीक्षाएँ आईं मगर फिर 1919 और 1922 में क्या हुआ?
4 पहले विश्वयुद्ध का समय अभिषिक्त मसीहियों के लिए भारी परीक्षा का समय था। लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया, उनके बारे में झूठी अफवाहें फैलाईं, लोगों की भीड़ ने उन्हें खदेड़ा और कितनों को तो बुरी तरह पीटा भी। ठीक जैसे यीशु ने बताया था, ‘सब जातियों के लोगों ने उनसे बैर किया।’ (मत्ती 24:9) परमेश्वर के राज्य के दुश्मनों ने एक झटके में ही उसके संगठन को जड़ से उखाड़ देने की कोशिश की। उन्होंने वही हथकंडा अपनाया जो कभी यीशु मसीह के खिलाफ अपनाया गया था। उन्होंने साक्षियों पर देशद्रोही होने का इलज़ाम लगाया। मई 1918 में, वॉच टावर सोसाइटी के प्रॆसिडेंट, जे. एफ. रदरफर्ड और सात ज़िम्मेदार भाइयों की गिरफ्तारी के वॉरंट निकाले गए और उन्हें लंबी कैद की सज़ा देकर अमरीका में एटलांटा, जॉर्जिया के जेल में भेज दिया गया। मगर नौ महीने बाद ही ये भाई रिहा हो गए। इसके बाद, मई 1919 में सर्किट कोर्ट ऑफ अपील्स ने कहा कि साक्षियों के साथ मुकद्दमे में पक्षपात हुआ है, इसलिए उनकी सज़ा रद्द कर दी गई। मुकद्दमे की फिर से सुनवायी होनी थी, मगर बाद में सरकार ने मुकद्दमा वापस ही ले लिया और भाई रदरफर्ड और उसके साथियों को सभी इलज़ामों से बाइज़्ज़त बरी कर दिया। इसके बाद वे अपने काम में फिर से जुट गए। फिर उसी साल 1919 में और उसके बाद 1922 में सीडर पॉईंट, ओहायो में उन्होंने अधिवेशन आयोजित किए। तब से प्रचार काम में पहले से ज़्यादा जोश और तेज़ी आ गई।
5. नात्ज़ी जर्मनी में यहोवा के साक्षियों के साथ क्या हुआ?
5 सन् 1930 के दशक में जर्मनी, इटली और जापान जैसे शक्तिशाली देशों में तानाशाहों का राज चल रहा था। इसलिए इन देशों में परमेश्वर के लोगों पर बहुत अत्याचार किए गए, खासकर नात्ज़ी जर्मनी में। साक्षियों के काम पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उनके घरों की तलाशी ली गयी, उन्हें गिरफ्तार किया गया। हज़ारों साक्षियों को यातना शिविरों में डाल दिया गया जहाँ कई लोग तड़प-तड़पकर मर गए। साक्षियों पर इतने सारे ज़ुल्म सिर्फ इसलिए किए गए क्योंकि वे अपने विश्वास से मुकरना नहीं चाहते थे। परमेश्वर और उसके साक्षियों के खिलाफ लड़नेवालों का मकसद यही था कि साक्षियों का नामोनिशान मिटा दिया जाए।a उस समय जर्मनी के साक्षियों ने अदालत से यह अपील की कि उन्हें अपना धर्म मानने की आज़ादी दी जाए। मगर हिटलर की सरकार उन्हें किसी भी हाल में आज़ादी नहीं देना चाहती थी। इसलिए जर्मनी के न्याय मंत्रालय ने अदालत को अपनी राय एक लंबी-चौड़ी पत्री में यूँ लिखकर दी: “यहोवा के साक्षी कानून के आधार पर चाहे जो भी दलील पेश करें, अदालत को उनकी बात हरगिज़ नहीं माननी चाहिए। अदालत का पहला फर्ज़ अपनी नात्ज़ी सरकार की तरफ बनता है।” मतलब साफ था, इंसाफ मिलना नामुमकिन था। नात्ज़ी इस बात पर अड़े रहे कि यहोवा के साक्षियों का काम समाज और देश दोनों के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
6. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद हमारे काम को रोकने के लिए क्या-क्या कोशिशें की गईं?
6 दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा साथ ही अफ्रीका और एशिया के कई देशों में, और कैरीबियन और प्रशांत महासागर के कुछ द्वीपों में परमेश्वर के सेवकों के काम पर पाबंदी लगा दी गई थी। अमरीका में दुश्मनों ने “कानून की आड़ में” यहोवा के लोगों को बहुत सताया। (भजन 94:20) उन्होंने कानून का सहारा लेकर साक्षियों को घर-घर प्रचार करने से रोकने की कोशिश की। साक्षियों के कई बच्चों को स्कूल से निकाला गया क्योंकि वे झंडे को सलामी नहीं देते थे। लेकिन साक्षियों ने इन मामलों को लेकर अदालत का दरवाज़ा खटखटाया और उन्होंने कई केस जीत लिए। यहोवा उनके साथ था इसलिए दुश्मन कुछ बिगाड़ नहीं सके। जब साक्षियों ने अमरीका में कई केस जीत लिए, तो उन्हें यहोवा की उपासना करने की पूरी आज़ादी मिल गई। यूरोप में भी दूसरे विश्वयुद्ध के खत्म होते-होते साक्षियों पर से प्रतिबंध हटा दिया गया। यातना शिवरों से हज़ारों साक्षियों को रिहा किया गया। लेकिन यूरोप में साक्षियों को मिली यह आज़ादी बस थोड़े ही दिनों के लिए थी क्योंकि दुश्मनों ने हमला करना अब भी बंद नहीं किया था। दूसरे विश्वयुद्ध के तुरंत बाद पूर्वी यूरोप के सभी देशों में कम्यूनिस्ट सरकार सत्ता में आ गई इसलिए इन देशों में साक्षियों पर ज़ुल्म होते रहे। उनके प्रचार काम को रोकने की कोशिश की गई, बाइबल साहित्यों को बाँटने पर रोक लगाया गया और मीटिंग बंद करवायी गई। कई साक्षियों को जेल में डाल दिया गया और कइयों को लेबर कैम्प भेज दिया गया।
प्रचार काम एक बार फिर ज़ोरों पर!
7. पोलैंड, रूस और दूसरे देशों में स्थिति कैसे बदली?
7 मगर कई दशकों बाद पूर्वी यूरोप में प्रचार का काम फिर से शुरू हो गया। पोलैंड में कम्यूनिस्ट सरकार होने के बावजूद वहाँ 1982 में साक्षियों को एक-दिवसीय अधिवेशनों का आयोजन करने की इज़ाज़त मिली। इसके बाद 1985 में अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन भी आयोजित किए गए। फिर 1989 में जब पोलैंड की सरकार ने साक्षियों के धर्म को कानूनी मान्यता दी, तो उसी साल वहाँ बहुत बड़े अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन हुए जिनमें रूस और यूक्रेन से भी हज़ारों भाई-बहन आए थे। वर्ष 1989 में हंगरी के साक्षियों को भी धार्मिक आज़ादी मिली। और उसी साल के पतझड़ में बर्लिन की दीवार गिरा दी गयी। इसके कुछ ही महीनों बाद, पूर्वी जर्मनी में भी यहोवा के साक्षियों को कानूनी मान्यता दी गयी। फिर जल्द ही बर्लिन के ऑलंपिक स्टेडियम में एक अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया गया। फिर 1990 के दशक की शुरूआत में, रूस में साक्षियों ने एक-दूसरे का पता लगाने की कोशिश की। फिर उन्होंने मॉस्को के कुछ अधिकारियों से भेंट करके 1991 में, अपने संगठन को कानूनी तौर पर रज़िस्टर करवाया। तब से रूस में और उन गणराज्यों में भी जो भूतपूर्व सोवियत संघ का हिस्सा थे, राज्य प्रचार के काम में तेज़ी आ गई।
8. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 45 सालों तक यहोवा के लोगों के साथ क्या हुआ?
8 हालाँकि कुछ देशों में साक्षियों को राहत मिली, मगर कई दूसरे देशों में उन पर अत्याचार बहुत बढ़ गया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 45 सालों तक कई देशों की सरकारों ने यहोवा के साक्षियों को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया। साथ ही, अफ्रीका के 23 देशों, एशिया के 9, यूरोप के 8, लातिन अमरीका के 3 और कुछ 4 द्वीपों में साक्षियों पर कुछ पाबंदियाँ लगाई गईं या उन पर पूरी तरह रोक लगा दी गयी।
9. मलावी में यहोवा के सेवक किन हालतों से गुज़रे?
9 वर्ष 1967 की शुरूआत में मलावी में रहनेवाले साक्षियों को बहुत ही भयानक तरीके से सताया गया। ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे भाई-बहन राजनीति में कोई हिस्सा नहीं लेना चाहते थे और उन्होंने राजनैतिक पार्टी कार्ड खरीदने से इनकार कर दिया था। (यूहन्ना 17:16) और वर्ष 1972 में जब वहाँ काँग्रेस पार्टी की एक मीटिंग हुई, उसके बाद से तो अत्याचार और भी बढ़ गया। भाइयों को घरों से भगाया गया और नौकरी देने से इंकार किया गया। हज़ारों भाई-बहनों को अपनी जान बचाने के लिए तो वह देश छोड़कर ही भागना पड़ा। लेकिन, क्या परमेश्वर और उसके लोगों के खिलाफ लड़नेवाले जीत पाए? हरगिज़ नहीं! क्योंकि जब हालात सुधरे तो 1999 में मलावी में 43,767 प्रकाशकों ने रिपोर्ट दी, जो कि उस देश का एक नया रिकॉर्ड था। और वहाँ ज़िला अधिवेशन भी हुए जिनमें 1,20,000 से भी ज़्यादा लोग हाज़िर हुए। इसके अलावा वहाँ की राजधानी में एक नया ब्रांच ऑफिस भी बनाया गया।
दोष ढूँढ़ने की कोशिश
10. जिस तरह दानिय्येल के साथ हुआ था, उसी तरह आज परमेश्वर के लोगों के विरोधी क्या करते हैं?
10 धर्मत्यागियों, पादरियों और कई दूसरों को परमेश्वर के वचन का संदेश बिलकुल बरदाश्त नहीं होता। साक्षियों का विरोध करनेवाले अपनी लड़ाई को जायज़ ठहराने के लिए कानून की मदद लेने की कोशिश करते हैं और इन्हें उकसानेवाले होते हैं, ईसाईजगत के धर्मगुरू। ये कभी-कभी कौन-से हथकंडे अपनाते हैं? वही हथकंडा जो दानिय्येल के खिलाफ साजिश करनेवालों ने अपनाया था। दानिय्येल 6:4, 5 में यूँ लिखा है: “तब अध्यक्ष और अधिपति राजकार्य के विषय में दानिय्येल के विरुद्ध दोष ढूँढ़ने लगे; परन्तु वह विश्वासयोग्य था, और उसके काम में कोई भूल वा दोष न निकला, और वे ऐसा कोई अपराध वा दोष न पा सके। तब वे लोग कहने लगे, हम उस दानिय्येल के परमेश्वर की व्यवस्था को छोड़, और किसी विषय में उसके विरुद्ध कोई दोष न पा सकेंगे।” आज भी ठीक इसी तरह साक्षियों के विरोधी उनमें गलतियाँ ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं। आज जब दुनिया में बहुत से खतरनाक पंथ उभर आए हैं, तो विरोधी साक्षियों को भी “खतरनाक पंथ” का नाम दे देते हैं। वे हमारे बारे में गलत तस्वीर पेश करते हैं, अफवाहें फैलाते हैं; यहाँ तक कि बिलकुल झूठी बातें कहते हैं। इसके अलावा वे हमारी उपासना और हम जो कड़ाई से बाइबल के मुताबिक चलने की कोशिश करते हैं, उस पर दोष लगाते हैं।
11. कुछ विरोधियों ने यहोवा के साक्षियों पर कैसे-कैसे झूठे इलज़ाम लगाए हैं?
11 कुछ देशों के धर्मगुरू और नेता यह बात मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं कि हम साक्षियों की ‘भक्ति परमेश्वर और पिता के सामने शुद्ध और निर्मल’ है। (याकूब 1:27) हालाँकि आज हम 234 देशों में प्रचार काम कर रहे हैं, मगर फिर भी हमारे विरोधी दावा करते हैं कि हमारा धर्म, “जाना-माना धर्म” नहीं है। जैसे एथेन्स की बात ही लीजिए। यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स ने हमारे पक्ष में यह फैसला किया था कि एथेन्स में हमारा धर्म मान्यता प्राप्त है। इसके बावजूद वर्ष 1998 में “ईश्वरीय जीवन का मार्ग” अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन से कुछ ही दिन पहले, अखबार में ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च के एक पादरी की यह बात छापी गई थी: “[यहोवा के साक्षियों] का ‘धर्म जाना-माना’ नहीं है।” इस खबर को छपे ज़्यादा दिन नहीं हुए थे कि उसी शहर के एक और अखबार में चर्च के एक वक्ता की यह बात छपी: “[यहोवा के साक्षी] ईसाइयों की तरह यीशु मसीह को बिलकुल नहीं मानते, इसलिए उन्हें ‘मसीही मंडली’ कहा ही नहीं जा सकता।” यह तो कितनी हैरानी की बात है! यीशु के बताए रास्ते पर चलने के लिए जितना ज़ोर यहोवा के साक्षी देते हैं, उतना तो कोई और धर्म देता ही नहीं, फिर भी उन पर यह इलज़ाम लगाया गया।
12. आध्यात्मिक लड़ाई लड़ने के लिए हमें क्या करना ज़रूरी है?
12 लोग चाहे कुछ भी कहें मगर हम कानून का सहारा लेकर राज्य के सुसमाचार की हिफाज़त करते रहेंगे। (फिलिप्पियों 1:7, NHT) किसी भी हालत में हम परमेश्वर के धार्मिक सिद्धांतों को नहीं छोड़ेंगे, हम अपने विश्वास से नहीं मुकरेंगे। (तीतुस 2:10, 12) परमेश्वर से लड़नेवाले हमें डराने की चाहे लाख कोशिशें करें, फिर भी हम यिर्मयाह की तरह ‘अपनी कमर कसकर उठेंगे और जो कुछ यहोवा कहने की आज्ञा देगा, वही उनसे कहेंगे।’ (यिर्मयाह 1:17, 18) हमें तो यहोवा का पवित्र वचन बाइबल साफ-साफ बताता है कि सही रास्ता क्या है। हमें निर्बल ‘मनुष्य के सहारे’ की ज़रूरत नहीं, ना ही हमें “मिस्र” या दुनिया की ‘छाया में शरण लेने’ की ज़रूरत है। (2 इतिहास 32:8; यशायाह 30:3; 31:1-3) इस आध्यात्मिक लड़ाई में हमें पूरे मन से यहोवा पर ही भरोसा रखना है कि वही हमें रास्ता दिखाएगा। हमें सिर्फ अपनी समझ का सहारा नहीं लेना चाहिए। (नीतिवचन 3:5-7) अगर यहोवा हमारे साथ नहीं और वह हमारी रक्षा न करे तो हमारे सारे काम “व्यर्थ” साबित होंगे।—भजन 127:1.
सताए गए मगर झुके नहीं
13. हम क्यों कह सकते हैं कि यीशु पर शैतान का हमला नाकाम रहा?
13 यहोवा को पूरी-पूरी भक्ति देने और मरते दम तक अपने विश्वास पर अटल रहने में यीशु मसीह ने सबसे बढ़िया मिसाल रखी। उस पर राजद्रोह और मूसा की व्यवस्था का उल्लंघन करने का इलज़ाम लगाया गया था। जब पीलातुस ने मामले की जाँच की तो उसने यीशु को निर्दोष पाया इसलिए वह उसे छोड़ देना चाहता था। लेकिन धर्म-गुरुओं के बहकावे में आकर भीड़ चिल्लाती रही, ‘चढ़ा दो उसे सूली पर!’ उन्होंने यीशु के बदले बरअब्बा नाम के एक अपराधी को छोड़ देने की माँग की, जिस पर राजद्रोह और हत्या का इलज़ाम था! पीलातुस ने एक बार फिर उन्हें समझाने की कोशिश की, मगर भीड़ अपनी ज़िद पर अड़ी रही इसलिए आखिर में पीलातुस ने हार मान ली। (लूका 23:2, 5, 14, 18-25) परमेश्वर के निर्दोष बेटे को सूली पर चढ़ाया गया। लेकिन शैतान का यह सबसे भयंकर और ज़बरदस्त हमला भी नाकाम रहा क्योंकि यहोवा ने यीशु को फिर से जी उठाया और उसे अपने दाहिने हाथ बिठाकर उसकी महिमा बढ़ायी। इस महिमावान यीशु के ज़रिए, पिन्तेकुस्त के दिन पवित्र आत्मा उँड़ेली गयी और मसीही कलीसिया अर्थात् एक “नई सृष्टि” स्थापित हुई।—2 कुरिन्थियों 5:17; प्रेरितों 2:1-4.
14. जब यहूदी धर्मगुरुओं ने यीशु के प्रेरितों का विरोध किया तो क्या हुआ?
14 इसके कुछ ही समय बाद, धर्मगुरुओं ने प्रेरितों को भी डराया-धमकाया, मगर फिर भी वे उनके सामने झुके नहीं बल्कि जो भी उन्होंने देखा और सुना था, उसके बारे में प्रचार करते रहे। उन्होंने यहोवा से बिनती की: “अब, हे प्रभु, उन की धमकियों को देख; और अपने दासों को यह बरदान दे, कि तेरा वचन बड़े हियाव से सुनाएं।” (प्रेरितों 4:29) यहोवा ने उनकी प्रार्थना सुन ली और उन्हें पवित्र आत्मा से भर दिया जिससे उनका हौसला और भी बढ़ गया और वे बेधड़क होकर उसके वचन का प्रचार करते रहे। मगर थोड़े ही समय बाद प्रेरितों को प्रचार का काम बंद करने की फिर से धमकी दी गई। तब पतरस और बाकी प्रेरितों ने विरोधियों से कहा: “मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना ही [हमारा] कर्तव्य कर्म है।” (प्रेरितों 5:29) उन्हें डराया-धमकाया गया, कैद किया गया और बुरी तरह मारा-पीटा भी गया, इसके बावजूद वे प्रचार का काम करने से कभी पीछे नहीं हटे।
15. गमलीएल कौन था और उसने धर्मगुरुओं को कौन-सी सलाह दी?
15 प्रेरितों की यह हिम्मत देखकर धर्मगुरुओं को कैसा लगा? “वे जल गए, और उन्हें [यानी प्रेरितों को] मार डालना चाहा।” मगर, उनकी महासभा में गमलीएल नामक एक फरीसी और व्यवस्था का शिक्षक भी मौजूद था, जिसकी सब लोग बहुत इज़्ज़त करते थे। उसने प्रेरितों को कुछ समय के लिए महासभा से बाहर जाने को कहा और फिर धर्मगुरुओं को यह सलाह दी: “हे इस्राएलियो, जो कुछ इन मनुष्यों से किया चाहते हो, सोच समझ के करना। . . . अब मैं तुम से कहता हूं, इन मनुष्यों से दूर ही रहो और उन से कुछ काम न रखो; क्योंकि यदि यह धर्म या काम मनुष्यों की ओर से हो तब तो मिट जाएगा। परन्तु यदि परमेश्वर की ओर से है, तो तुम उन्हें कदापि मिटा न सकोगे; कहीं ऐसा न हो, कि तुम परमेश्वर से भी लड़नेवाले ठहरो।”—प्रेरितों 5:33-39.
हम पर कोई हथियार नहीं चलेगा
16. अपने शब्दों में बताइए कि यहोवा ने अपने लोगों को कैसी सांत्वना दी है?
16 गमलीएल की यह बात बिलकुल सच थी और आज भी जब कोई हमारे पक्ष में बात करता है, तो हम उसकी बहुत कदर करते हैं। हम उन सभी जजों के शुक्रगुज़ार हैं, जिन्होंने बिना पक्षपात के फैसले किए जिससे कि आज हमें उपासना करने की आज़ादी मिली है। मगर ईसाईजगत के पादरी और महाबाबुल यानी झूठे धर्म के बाकी सभी गुरू हमसे नफरत करते हैं क्योंकि हम परमेश्वर के वचन के मुताबिक चलते हैं। (प्रकाशितवाक्य 18:1-3) ये धर्मगुरू और उनके बहकावे में आई जनता हम पर चाहे जो भी हमले करे, लेकिन हमें यहोवा के इस वादे पर पूरा भरोसा है: “जितने हथियार तेरी हानि के लिये बनाए जाएं, उन में से कोई सफल न होगा, और, जितने लोग मुद्दई होकर तुझ पर नालिश करें उन सभों से तू जीत जाएगा। यहोवा के दासों का यही भाग होगा, और वे मेरे ही कारण धर्मी ठहरेंगे, यहोवा की यही वाणी है।”—यशायाह 54:17.
17. हालाँकि हमारे दुश्मन हमसे लड़ते हैं, मगर फिर भी हम हिम्मत क्यों नहीं हारते?
17 हम बेकसूर हैं, इसके बावजूद दुश्मन हमसे लड़ते हैं मगर फिर भी हम हिम्मत नहीं हारते। (भजन 109:1-3) वे हम पर चाहे कितने भी हमले क्यों न करें, मगर हम अपने विश्वास से कभी नहीं मुकरेंगे। आगे जाकर तो उनके हमले और भी तेज़ होनेवाले हैं, लेकिन हम इसका अंजाम भी जानते हैं। यिर्मयाह से कही गई यह बात हमारे दिनों में भी सच साबित होगी: “वे तुझ से लड़ेंगे तो सही, परन्तु तुझ पर प्रबल न होंगे, क्योंकि बचाने के लिये मैं तेरे साथ हूं, यहोवा की यही वाणी है।” (यिर्मयाह 1:19) जी हाँ, परमेश्वर के खिलाफ लड़नेवाले कभी नहीं जीतेंगे। कभी नहीं!
[फुटनोट]
a पेज 24-8 पर दिया गया लेख, “नात्ज़ियों के अत्याचार के बावजूद निडर और वफादार” पढ़िए।
आप क्या जवाब देंगे?
• यहोवा के सेवकों का विरोध क्यों किया गया है?
• दुश्मनों ने किस तरह यहोवा के लोगों पर हमले किए हैं?
• हम यकीन के साथ क्यों कह सकते हैं कि परमेश्वर के खिलाफ लड़नेवाले नहीं जीतेंगे?
[पेज 17 पर तसवीर]
यहोवा ने यिर्मयाह को यकीन दिलाया कि वह उसके साथ है
[पेज 18 पर तसवीर]
वे लोग जो यातना शिविरों से बचे
[पेज 18 पर तसवीर]
यहोवा के साक्षियों पर भीड़ का हमला
[पेज 18 पर तसवीर]
जे.एफ.रदरफर्ड और उनके साथी
[पेज 21 पर तसवीर]
परमेश्वर से लड़नेवाले, यीशु का कुछ नहीं बिगाड़ सके