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a नात्ज़ी यातना शिविरों के बारे में बताते हुए, डॉ. विकटोर ई. फ्रांगल इस नतीजे पर पहुँचा: “इंसान ज़िंदगी में जो कुछ करता है उसमें वह अपनी ज़िंदगी के मकसद की खोज करता है। वह [उन जानवरों की तरह] नहीं है जो बिना सोचे-समझे अपने सारे काम यूँ ही करते जाते हैं।” उसने बताया कि दूसरे विश्‍वयुद्ध के कई सालों बाद भी फ्रांस में लिए गए सर्वे ने दिखाया कि “८९% लोगों ने यह माना कि इंसान को ज़िंदगी में ‘कुछ’ तो चाहिए जिससे उसकी ज़िंदगी को एक मकसद मिले।”

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