अध्याय 45
सिखाने में मददगार दृष्टांत/मिसालें
दृष्टांत और मिसालें, सिखाने के बहुत ज़बरदस्त औज़ार हैं। ये दृष्टांत लोगों का ध्यान खींचने और उनकी दिलचस्पी को बनाए रखने में बहुत ही असरदार होते हैं। ये लोगों की सोचने की शक्ति को जगाते हैं। दृष्टांत और मिसालें, लोगों की भावनाएँ जगाते हैं और इसलिए उनके विवेक और दिल पर असर कर सकते हैं। कभी-कभी दृष्टांतों का इस्तेमाल करके गलत धारणाओं को भी दूर किया जा सकता है। दृष्टांत की मदद से बहुत-सी बातें याद रखना भी आसान हो जाता है। क्या आप सिखाते वक्त दृष्टांतों का इस्तेमाल करते हैं?
अलंकार, ऐसे दृष्टांत हैं जो अकसर चंद शब्दों में बताए जाते हैं; मगर उनसे सुननेवालों के दिमाग में जीती-जागती तसवीर उभारी जा सकती है। अगर सोच-समझकर अलंकार बताए जाएँ, तो काफी हद तक उनका मतलब अपने आप समझ आ जाता है। लेकिन एक शिक्षक, चाहे तो उनके बारे में थोड़ा-बहुत समझाकर उनकी अहमियत पर और ज़ोर दे सकता है। बाइबल में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जिनसे आप सीख सकते हैं।
उपमा और रूपक से शुरू कीजिए। उपमा, सबसे आसान किस्म का अलंकार है। अगर आप दृष्टांतों का इस्तेमाल करना सीख ही रहे हैं, तो उपमा से शुरू करना बेहतर रहेगा। उपमा बताने के लिए अकसर “जैसे,” “के समान” या “की तरह,” शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। उपमा में ऐसी दो चीज़ों की आपस में तुलना की जाती है जो एक-दूसरे से बिलकुल अलग होती हैं, मगर यह बताया जाता है कि उनमें क्या समानता है। बाइबल, ऐसे अलंकारों से भरी पड़ी है जिनमें सृष्टि की चीज़ों जैसे पौधों, जानवरों और आकाश के चाँद-तारों के बारे में बताया गया है, साथ ही इंसानों की आपबीती भी दर्ज़ है। भजन 1:3 में हमें बताया गया है कि जो इंसान परमेश्वर के वचन को रोज़ पढ़ता है, वह “उस वृक्ष के समान है, जो बहती नालियों के किनारे लगाया गया है,” जो फल लाता है और कभी नहीं मुरझाता। जबकि दुष्ट उस ‘सिंह जैसा’ होता है जो शिकार पर हमला करने के लिए घात लगाए रहता है। (भज. 10:9) यहोवा ने इब्राहीम से वादा किया था कि उसका वंश, “आकाश के तारागण” और “समुद्र के तीर की बाल के किनकों के समान” हो जाएगा। (उत्प. 22:17) यहोवा ने अपने और इस्राएल जाति के बीच जो नज़दीकी रिश्ता कायम किया, उसके बारे में उसने कहा: “जिस प्रकार से पेटी मनुष्य की कमर में कसी जाती है,” उसी तरह उसने इस्राएल और यहूदा को अपने साथ बाँध लिया था।—यिर्म. 13:11.
रूपकों में भी ऐसी दो चीज़ों के बीच समानता बतायी जाती है जो एक-दूसरे से बिलकुल अलग होती हैं। लेकिन रूपक, उपमा से ज़्यादा ज़ोरदार होते हैं। रूपक में ऐसे कहा जाता है जैसे मानो एक चीज़ दूसरी चीज़ हो और इस तरह दिखाया जाता है कि एक चीज़ का कोई गुण दूसरी में हो। यीशु ने अपने चेलों से कहा था: “तुम जगत की ज्योति हो।” (मत्ती 5:14) ज़बान पर लगाम न लगाने पर कैसा नुकसान हो सकता है, इसे समझाने के लिए शिष्य याकूब ने लिखा: ‘जीभ एक आग है।’ (याकू. 3:6) दाऊद ने यहोवा के लिए यह गीत गाया: “तू मेरे लिये चट्टान और मेरा गढ़ है।” (भज. 31:3) अगर सोच-समझकर रूपक चुना जाए, तो उसके बारे में बहुत कम या बिलकुल भी समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। रूपक, छोटा होने की वजह से ज़्यादा ज़ोरदार होता है। रूपक की मदद से सुननेवालों को आपकी बात याद रखने में आसानी होगी, जबकि वही बात सरल वाक्य से कही जाए, तो याद नहीं रहती।
अतिशयोक्ति का मतलब, किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर बोलना है। इस अलंकार का काफी सोच-समझकर इस्तेमाल करना चाहिए, नहीं तो सुननेवाले बात का गलत मतलब निकाल सकते हैं। यीशु ने इस अलंकार का इस्तेमाल करके ऐसी तसवीर खींची जो कभी भुलायी नहीं जा सकती। उसने पूछा: “तू क्यों अपने भाई की आंख के तिनके को देखता है, और अपनी आंख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता?” (मत्ती 7:3) अतिशयोक्ति या दूसरे अलंकार इस्तेमाल करने से पहले, उपमा और रूपक का अच्छा इस्तेमाल करना सीखिए।
मिसालें इस्तेमाल कीजिए। आप सिखाने के लिए चाहें तो अलंकारों के बजाय, मिसाल बता सकते हैं। ये मिसालें, या तो काल्पनिक कहानियाँ या फिर ज़िंदगी की सच्ची घटनाएँ हो सकती हैं। अकसर ऐसा होता है कि ये हद-से-ज़्यादा लंबी-चौड़ी हो जाती हैं, इसलिए इन्हें सँभलकर इस्तेमाल करना चाहिए। मिसालों का इस्तेमाल सिर्फ खास मुद्दे बताने के लिए होना चाहिए। आपको मिसाल इस तरह बतानी चाहिए कि लोगों को न सिर्फ वह कहानी बल्कि उसके ज़रिए सिखाया गया मुद्दा भी याद रह पाए।
हालाँकि यह ज़रूरी नहीं कि हम हमेशा सच्ची घटनाओं की ही मिसाल दें, मगर इनमें असल ज़िंदगी के हालात या लोगों का रवैया ज़ाहिर होना चाहिए। इसलिए, यीशु ने यह सिखाते वक्त कि पश्चाताप करनेवाले पापियों को हमें किस नज़र से देखना चाहिए, एक मिसाल बतायी कि जब कोई आदमी अपनी खोयी हुई भेड़ को पाता है, तो वह कैसे खुशी से फूला नहीं समाता। (लूका 15:1-7) और जब एक आदमी व्यवस्था की यह आज्ञा नहीं समझ पाया कि अपने पड़ोसी से प्रेम करने का असल मतलब क्या है, तो यीशु ने एक सामरी की कहानी बतायी जिसने एक घायल आदमी की मदद की, जबकि एक याजक और एक लेवी ने ऐसा नहीं किया। (लूका 10:30-37) अगर आप रोज़मर्रा ज़िंदगी में लोगों का रवैया और उनका व्यवहार गौर से देखेंगे, तो आप सिखाने के इस तरीके का बढ़िया इस्तेमाल कर सकते हैं।
भविष्यवक्ता नातान ने राजा दाऊद को ताड़ना देने के लिए एक काल्पनिक कहानी बतायी। इस कहानी का अच्छा असर हुआ क्योंकि इससे ऐसे हालात पैदा नहीं हुए जिनमें शायद दाऊद खुद को सही ठहराने की कोशिश करता। यह कहानी दो आदमियों के बारे में थी, एक बहुत धनी था जिसके पास बहुत-सी भेड़ें थीं जबकि दूसरा गरीब था और उसके पास सिर्फ एक ही भेड़ की बच्ची थी जिसे वह बहुत प्यार से पालता था। दाऊद भी पहले चरवाहा रह चुका था, इसलिए वह उस भेड़ की बच्ची के मालिक की भावनाएँ अच्छी तरह समझ सकता था। जब नातान ने बताया कि अमीर आदमी ने गरीब से वह भेड़ की बच्ची छीन ली, तो उस अमीर आदमी के खिलाफ दाऊद का गुस्सा भड़क उठा और यह गुस्सा जायज़ था। तब नातान ने दाऊद से सीधा कहा: “तू ही वह मनुष्य है”! बात दाऊद के दिल तक पहुँची और उसने सच्चे मन से पश्चाताप किया। (2 शमू. 12:1-14) जैसे-जैसे आप इसमें माहिर होंगे, जज़्बाती मामलों पर भी आप बढ़िया तरीके से मिसाल दे पाएँगे।
बाइबल में दर्ज़ घटनाओं से भी ऐसी बहुत-सी मिसालें बतायी जा सकती हैं जो सिखाने में बहुत मददगार होंगी। यीशु ने चंद शब्दों से ऐसा ही किया। उसने कहा: “लूत की पत्नी को स्मरण रखो।” (लूका 17:32) अपनी उपस्थिति के चिन्ह का ब्यौरा देते वक्त यीशु ने ‘नूह के दिनों’ का ज़िक्र किया। (मत्ती 24:37-39) इब्रानियों के 11वें अध्याय में, प्रेरित पौलुस ने 16 स्त्री-पुरुषों के नाम बताकर उनके विश्वास की मिसाल दी। जैसे-जैसे आप बाइबल से अच्छी तरह वाकिफ होंगे, आप बाइबल में बतायी घटनाओं और लोगों के बारे में बढ़िया-से-बढ़िया मिसाल दे सकेंगे।—रोमि. 15:4; 1 कुरि. 10:11.
कभी-कभी किसी हिदायत पर ज़ोर देने के लिए, हमारे समय का कोई सच्चा अनुभव बताना फायदेमंद होगा। लेकिन, ध्यान रखें कि आप सिर्फ ऐसे अनुभव ही बताएँ जिनके सच होने के सबूत मौजूद हैं। और ऐसे अनुभव न बताएँ जिनसे आपके सुननेवालों में से किसी को शर्मिंदा होना पड़े या जिनसे किसी ऐसे पेचीदा विषय पर विवाद खड़ा हो जाए जिसका आपके विषय से कोई ताल्लुक नहीं है। यह भी याद रखें कि अनुभव बताने का एक मकसद होना चाहिए। ऐसी गैर-ज़रूरी, छोटी-मोटी जानकारी मत दीजिए जो आपके भाषण या बात करने के मकसद से हटकर हो।
क्या लोग समझ पाएँगे? आप चाहें जो भी दृष्टांत या मिसाल बताएँ, उससे कोई मकसद ज़रूर पूरा होना चाहिए। अगर आप एक दृष्टांत बताकर यह नहीं समझाएँगे कि वह चर्चा किए जा रहे विषय पर कैसे लागू होता है, तो क्या दृष्टांत बताने का मकसद पूरा होगा?
यीशु ने अपने चेलों को “जगत की ज्योति” कहा, फिर उसके बाद चंद शब्दों में बताया कि दीया कैसे इस्तेमाल किया जाता है और इससे उन पर क्या ज़िम्मेदारी आती है। (मत्ती 5:15, 16) उसने खोयी हुई भेड़ का दृष्टांत बताने के बाद बताया कि जब कोई पापी, पश्चाताप करता है, तो स्वर्ग में कितना आनंद मनाया जाता है। (लूका 15:7) और भले सामरी के बारे में कहानी बताने के बाद, यीशु ने सुननेवाले से एक सीधा सवाल पूछा और फिर उसे स्पष्ट सलाह दी। (लूका 10:36, 37) दूसरी तरफ, जब उसने अलग-अलग किस्म की भूमि और खेत के जंगली दानों का दृष्टांत बताया, तो उसने उनका मतलब पूरी भीड़ को नहीं बल्कि सिर्फ उन्हीं को बताया जिन्होंने नम्र होकर उससे मतलब पूछा। (मत्ती 13:1-30, 36-43) यीशु ने अपनी मौत से तीन दिन पहले, दाख की बारी के हत्यारे किसानों के बारे में एक दृष्टांत बताया। मगर उसने यह नहीं बताया कि वह दृष्टांत किन पर लागू होता है; बताने की ज़रूरत भी नहीं थी। क्योंकि “महायाजक और फरीसी . . . समझ गए, कि वह हमारे विषय में कहता है।” (मत्ती 21:33-45) तो आप किस तरह का दृष्टांत बताते हैं, आपके सुननेवालों का रवैया कैसा है और दृष्टांत बताने का आपका मकसद क्या है, इन सारी बातों को ध्यान में रखकर आपको तय करना है कि क्या आपको दृष्टांत लागू करने की ज़रूरत है या नहीं, और अगर है तो किस हद तक।
दृष्टांतों और मिसालों का बढ़िया इस्तेमाल करने की काबिलीयत बढ़ाने में वक्त लगता है, मगर आपकी मेहनत ज़रूर रंग लाएगी। सोच-समझकर चुने गए दृष्टांत न सिर्फ हमारे दिल और दिमाग को भा जाते हैं बल्कि उन पर गहरी छाप छोड़ जाते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि आपका संदेश बड़े ही ज़ोरदार तरीके से दूसरों तक पहुँचता है जबकि ऐसा असर अकसर सरल शब्दों में सच्चाई बयान करने से नहीं होता।