-
“मैं . . . दिल से दीन हूँ”मेरा चेला बन जा और मेरे पीछे हो ले
-
-
अध्याय 3
“मैं . . . दिल से दीन हूँ”
“तेरा राजा तेरे पास आएगा””
1-3. यीशु किस तरह यरूशलेम आता है? उसे देखकर कुछ लोग क्यों हक्के-बक्के रह जाते हैं?
यरूशलेम में चारों तरफ काफी चहल-पहल है। थोड़ी ही देर में वहाँ एक महान व्यक्ति आनेवाला है! शहर के बाहर, सड़क के किनारे लोगों का ताँता लगा है। सबकी आँखें उस आदमी को देखने के लिए तरस रही हैं! कुछ लोगों का कहना है कि वह राजा दाविद के वंश का है और इसराएल पर हुकूमत करने का असली हकदार है। उसका स्वागत करने के लिए बहुत-से लोग हाथों में खजूर की डालियाँ लिए खड़े हैं, तो दूसरे अपने ओढ़ने और पेड़ की डालियाँ सड़क पर बिछा रहे हैं और उसके लिए रास्ता तैयार कर रहे हैं। (मत्ती 21:7, 8; यूहन्ना 12:12, 13) रह-रहकर लोगों के मन में यही सवाल घूम रहा है कि न जाने वह महान व्यक्ति किस तरह शहर में दाखिल होगा।
2 कुछ लोग सोच रहे हैं कि वह व्यक्ति पूरी ठाठ-बाट से आएगा। उन्हें ऐसे कितने ही नामी लोगों के बारे में मालूम है जो बड़ी धूमधाम से आए थे। उदाहरण के लिए, जब दाविद के बेटे अबशालोम ने खुद को राजा घोषित किया, तो उसने अपने रथ के आगे-आगे दौड़ने के लिए 50 आदमियों को ठहराया। (2 शमूएल 15:1, 10) रोमी सम्राट जूलियस सीज़र ने इससे भी बढ़कर शानो-शौकत दिखायी। एक बार अपनी जीत की खुशी में उसने रोम में जूपिटर के मंदिर तक शानदार जुलूस निकाला। उसके दायीं और बायीं तरफ 40 हाथी जलते हुए लैंप लिए चल रहे थे। लेकिन अब यरूशलेम के लोग, इनसे कहीं ज़्यादा महान व्यक्ति की राह देख रहे हैं। चाहे भीड़ को मालूम हो या न हो, मगर यही मसीहा है, धरती पर जीनेवाला सबसे महान पुरुष। लेकिन भविष्य में बननेवाला यह राजा जब शहर में दाखिल होता है, तो कुछ लोग हक्के-बक्के रह जाते हैं।
3 उन्हें न तो कोई रथ नज़र आता है, न दौड़नेवाले, न घोड़े और न ही हाथी। यीशु एक मामूली बोझ ढोनेवाले जानवर, एक गधी के बच्चे पर सवार है।a न तो यीशु की पोशाक से और न ही उसकी सवारी से राजसी ठाठ-बाट झलक रहा है। महँगी काठी की जगह यीशु के करीबी चेलों ने गधी के बच्चे पर कुछ ओढ़ने डाले हैं। यीशु ने इस तरह यरूशलेम आने का फैसला क्यों किया जबकि उससे कम महान पुरुष कहीं ज़्यादा धूम-धड़क्के के साथ आए थे?
4. मसीहाई राजा जिस तरह यरूशलेम आएगा, उस बारे में बाइबल की भविष्यवाणी क्या बताती है?
4 दरअसल यीशु एक भविष्यवाणी पूरी कर रहा था: “बहुत ही मगन हो! हे यरूशलेम जयजयकार कर! क्योंकि तेरा राजा तेरे पास आएगा; वह धर्मी और उद्धार पाया हुआ है, वह दीन है, और गदहे पर वरन गदही के बच्चे पर चढ़ा हुआ आएगा।” (जकर्याह 9:9) यह भविष्यवाणी दिखाती है कि परमेश्वर का अभिषिक्त जन यानी मसीहा, एक दिन परमेश्वर के चुने हुए राजा की हैसियत से यरूशलेम के लोगों के सामने आएगा। इतना ही नहीं, वह किस तरह आएगा और अपने लिए कौन-सी सवारी चुनेगा, उससे उसके एक बेहतरीन गुण का पता चलेगा। वह है नम्रता का गुण।
5. यीशु की नम्रता पर मनन करने से यह हमारे दिल को क्यों छू जाती है? यीशु की तरह नम्र बनना क्यों ज़रूरी है?
5 यीशु की नम्रता उसके मनभावने गुणों में से एक है। जब हम उसके इस गुण पर मनन करते हैं, तो यह हमारे दिल को छू जाता है। हमने पिछले अध्याय में चर्चा की थी कि यीशु ही “वह राह, सच्चाई और जीवन” है। (यूहन्ना 14:6) इसमें कोई शक नहीं कि परमेश्वर का यह बेटा धरती पर जीनेवाले अरबों लोगों से कहीं ज़्यादा महान है। फिर भी यीशु में दूर-दूर तक कोई घमंड नहीं था जबकि असिद्ध इंसानों में यह अकसर देखा जाता है। मसीह के चेले बनने के लिए हमें घमंड करने की फितरत से लड़ना होगा। (याकूब 4:6) याद रखिए, यहोवा को घमंड से सख्त नफरत है। इसलिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि हम यीशु की तरह नम्र कैसे बन सकते हैं।
उसने सदियों से नम्रता दिखायी
6. नम्रता का क्या मतलब है? यहोवा को कैसे मालूम था कि मसीहा नम्र होगा?
6 नम्रता का मतलब है मन की दीनता, जिसमें अहंकार की कोई जगह नहीं। नम्रता की शुरूआत एक इंसान के दिल से होती है और उसकी बोली, चालचलन और दूसरों के साथ उसके व्यवहार में यह साफ झलकती है। यहोवा को कैसे मालूम था कि मसीहा नम्र होगा? क्योंकि यहोवा नम्र है और वह जानता है कि उसका बेटा बिलकुल उसके जैसा है। (यूहन्ना 10:15) यही नहीं, उसने अपने बेटे को नम्रता का गुण ज़ाहिर भी करते देखा था।
7-9. (क) शैतान के साथ बहस करते वक्त मीकाएल ने किस तरह नम्रता दिखायी? (ख) नम्रता दिखाने में मसीही कैसे मीकाएल के जैसा बन सकते हैं?
7 इसकी एक दिलचस्प मिसाल यहूदा की किताब में दी गयी है। वहाँ हम पढ़ते हैं: “जब प्रधान स्वर्गदूत मीकाएल की मूसा की लाश के मामले में शैतान के साथ बहस हुई, तो उसने शैतान के खिलाफ बेइज़्ज़ती करनेवाले शब्दों का इस्तेमाल कर उसे दोषी ठहराने की जुर्रत नहीं की बल्कि यह कहा: ‘यहोवा तुझे डाँटे।’” (यहूदा 9) धरती पर आने से पहले यीशु का नाम मीकाएल था और स्वर्ग लौटने के बाद भी उसका यही नाम रहा। उसे यह नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि वह यहोवा के स्वर्गदूतों की सेना का प्रधान स्वर्गदूत है।b (1 थिस्सलुनीकियों 4:16) गौर फरमाइए कि मीकाएल ने शैतान के साथ हुए झगड़े का सामना कैसे किया।
8 यहूदा किताब में दर्ज़ ब्यौरा यह तो नहीं बताता कि शैतान, मूसा की लाश का क्या करना चाहता था। मगर हम इतना ज़रूर जानते हैं कि उसके इरादे नेक नहीं थे। शायद वह मूसा की लाश का इस्तेमाल झूठी उपासना को बढ़ावा देने के लिए करना चाहता था। हालाँकि मीकाएल ने शैतान की इस घिनौनी चाल का विरोध किया, मगर उसने खुद पर गज़ब का काबू भी रखा। वह कैसे? शैतान ने जो काम किया था, उसके लिए वह फटकारे जाने के लायक था। लेकिन उस वक्त तक मीकाएल को “न्याय करने की सारी ज़िम्मेदारी” नहीं दी गयी थी। इसलिए उसे लगा कि शैतान को सज़ा देने का अधिकार सिर्फ यहोवा को है। (यूहन्ना 5:22) प्रधान स्वर्गदूत की हैसियत से मीकाएल के पास बहुत अधिकार था। फिर भी जो अधिकार उसे नहीं दिया गया, उसे हथियाने की उसने कोशिश नहीं की। बल्कि मामला यहोवा पर छोड़कर नम्रता दिखायी। नम्रता के साथ-साथ उसने यह भी दिखाया कि वह अपनी हद पहचानता है।
9 यहूदा ने परमेश्वर की प्रेरणा से यह वाकया दर्ज़ किया था और इसकी एक खास वजह थी। उसके दिनों में बहुत-से मसीहियों में नम्रता नहीं थी। वे घमंड से भरे हुए थे और “जिन बातों की समझ नहीं रखते उन सबके बारे में बुरी-बुरी बातें कहते” थे। (यहूदा 10) हम असिद्ध इंसान बड़ी आसानी से घमंड से फूल उठते हैं। मान लीजिए, मसीही मंडली में प्राचीनों का निकाय कोई फैसला लेता है और हम उनके फैसले को समझ नहीं पाते। ऐसे में हम क्या करेंगे? अगर हम पूरी बात न जानते हुए प्राचीनों की बुराई करें और उनमें मीनमेख निकालें, तो क्या हम नम्रता दिखा रहे होंगे? आइए हम भी मीकाएल यानी यीशु की तरह उन मामलों में न्याय करने से दूर रहें, जिनमें परमेश्वर से हमें कोई अधिकार नहीं मिला है।
10, 11. (क) परमेश्वर का बेटा खुशी-खुशी धरती पर सेवा करने आया, यह बात क्यों गौरतलब है? (ख) हम यीशु की तरह नम्रता कैसे दिखा सकते हैं?
10 परमेश्वर के बेटे ने एक और तरीके से नम्रता दिखायी। उसने खुशी-खुशी धरती पर आने की ज़िम्मेदारी कबूल की। ध्यान दीजिए कि धरती पर आने से पहले वह प्रधान स्वर्गदूत और “वचन” था यानी यहोवा का प्रवक्ता। (यूहन्ना 1:1-3) वह स्वर्ग में रहता था जो यहोवा का “पवित्र और महिमापूर्ण वासस्थान” है। (यशायाह 63:15) मगर “उसने अपना सबकुछ त्याग दिया और एक दास का स्वरूप ले लिया और इंसान बन गया।” (फिलिप्पियों 2:7) ज़रा सोचिए, यीशु के लिए धरती पर अपनी सेवा पूरी करने में क्या-क्या शामिल था। उसका जीवन भ्रूण के रूप में एक यहूदी कुँवारी के गर्भ में डाला गया, जहाँ वह नौ महीने तक पला। फिर उसका जन्म एक लाचार शिशु की तरह एक गरीब बढ़ई के घर में हुआ। धीरे-धीरे वह बड़ा होता गया और जवान बन गया। यीशु सिद्ध था, फिर भी बचपन से लेकर जवानी तक वह अपने असिद्ध इंसानी माता-पिता के अधीन रहा। (लूका 2:40, 51, 52) यीशु ने कमाल की नम्रता दिखायी।
11 क्या हम यीशु के जैसी नम्रता दिखा सकते हैं? और क्या हम भी सेवा के ऐसे काम खुशी-खुशी कबूल कर सकते हैं जो मामूली और कमतर लगें? मिसाल के लिए, प्रचार में जब लोग हमारे संदेश में दिलचस्पी नहीं लेते, हमारा मज़ाक उड़ाते या विरोध करते हैं, तो शायद हम इस काम को छोटा समझने लगें। (मत्ती 28:19, 20) लेकिन अगर हम प्रचार में लगे रहें तो बहुतों की ज़िंदगी बचा सकते हैं। चाहे हम ऐसा करने में कामयाब हों या न हों, एक बात तो पक्की है। हम नम्रता का गुण सीख सकेंगे और अपने मालिक, यीशु मसीह के नक्शे-कदम पर चल सकेंगे।
धरती पर यीशु की नम्रता
12-14. (क) जब लोग यीशु की वाह-वाही करते, तब वह किस तरह नम्रता दिखाता था? (ख) यीशु किन तरीकों से दूसरों के साथ नम्रता से पेश आया? (ग) क्या दिखाता है कि यीशु की नम्रता दिखावटी नहीं थी, न ही यह सिर्फ अदब-कायदे से पेश आने की निशानी थी?
12 धरती पर अपनी सेवा के शुरू से लेकर आखिर तक यीशु अपनी नम्रता के लिए जाना गया। उसने सारी स्तुति और महिमा अपने पिता को देकर नम्रता दिखायी। ऐसा कई बार हुआ जब लोगों ने यीशु की बुद्धि-भरी बातें सुनकर, उसके चमत्कार करने की शक्ति और उसकी अच्छाई देखकर उसकी तारीफ की। लेकिन यीशु ने वाह-वाही लूटने के बजाय हर बार सारी महिमा यहोवा को दी।—मरकुस 10:17, 18; यूहन्ना 7:15, 16.
13 यीशु ने लोगों के साथ अपने व्यवहार में भी नम्रता दिखायी। दरअसल उसने साफ कहा था कि वह सेवा करवाने नहीं, बल्कि सेवा करने आया है। (मत्ती 20:28) वह लोगों के साथ कोमलता से पेश आता और उनसे हद-से-ज़्यादा की उम्मीद नहीं करता था। एक मौके पर जब उसके चेलों ने उसे निराश किया, तब वह उन पर बरस नहीं पड़ा, बल्कि उन्हें प्यार से समझाने की कोशिश की। (मत्ती 26:39-41) एक बार यीशु आराम करने के लिए एकांत और शांत जगह ढूँढ़ रहा था। भीड़ वहाँ भी उसके पीछे-पीछे चली आयी। ऐसे में यीशु ने उन्हें भगा नहीं दिया, बल्कि अपना आराम त्यागकर वह उन्हें “बहुत-सी बातें” सिखाने लगा। (मरकुस 6:30-34) जब एक गैर-इसराएली स्त्री उसके आगे गिड़गिड़ायी कि वह उसकी बेटी को चंगा कर दे, तब उसने गुस्से से इनकार तो नहीं किया पर यह जताया कि वह ऐसा नहीं करना चाहता। मगर फिर उस स्त्री का अनोखा विश्वास देखकर, यीशु ने उसकी बात मान ली। इस बारे में हम अध्याय 14 में और चर्चा करेंगे।—मत्ती 15:22-28.
14 यीशु बेहिसाब तरीकों से अपने इन शब्दों पर खरा उतरा: “मैं कोमल-स्वभाव का, और दिल से दीन हूँ।” (मत्ती 11:29) उसकी नम्रता दिखावटी नहीं थी, न ही यह सिर्फ अदब-कायदे से पेश आने की निशानी थी। यीशु के शब्द दिखाते हैं कि वह दिल से नम्र था। इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि उसने अपने चेलों को बार-बार सिखाया कि नम्र होना कितना ज़रूरी है।
चेलों को सिखाया नम्र बनना
15, 16. दुनिया के अधिकारियों का जो रवैया है और यीशु के चेलों में जो रवैया होना चाहिए, इस बारे में यीशु ने क्या कहा?
15 नम्रता का गुण बढ़ाने में यीशु के प्रेषितों को वक्त लगा। यीशु ने भी उन्हें नम्रता सिखाने में हार नहीं मानी। मिसाल के लिए, एक मौके पर याकूब और यूहन्ना ने अपनी माँ के ज़रिए यीशु से दरख्वास्त की कि वह उन्हें परमेश्वर के राज में ऊँचा पद देने का वादा करे। यीशु ने अपनी हद पहचानते हुए जवाब दिया: “मेरी दायीं या बायीं तरफ बैठने की इजाज़त देना मेरे अधिकार में नहीं, लेकिन ये जगह उनके लिए हैं, जिनके लिए मेरे पिता ने इन्हें तैयार किया है।” जब बाकी दस प्रेषितों को इस बारे में पता चला तो वे याकूब और यूहन्ना पर बहुत “नाराज़” हुए। (मत्ती 20:20-24) यीशु ने इस समस्या को कैसे सुलझाया?
16 उसने प्यार से सभी प्रेषितों को ताड़ना दी: “तुम जानते हो कि दुनिया के अधिकारी उन पर हुक्म चलाते हैं और उनके बड़े लोग उन पर अधिकार जताते हैं। मगर तुम्हारे बीच ऐसा नहीं है; बल्कि तुममें जो बड़ा बनना चाहता है, उसे तुम्हारा सेवक होना चाहिए, और जो कोई तुममें पहला होना चाहता है, उसे तुम्हारा दास होना चाहिए।” (मत्ती 20:25-27) प्रेषित देख सकते थे कि “दुनिया के अधिकारी” कितने मगरूर और लालची हैं और किस कदर उन पर ताकत हासिल करने का जुनून सवार है। यीशु ने समझाया कि उसके चेलों को ताकत के भूखे इन ज़ालिम शासकों के जैसा नहीं बनना था। उन्हें नम्र बनना था। क्या यीशु की बातों से प्रेषितों ने नम्रता का सबक सीखा?
17-19. (क) अपनी ज़िंदगी की आखिरी रात, यीशु ने किस तरह अपने चेलों को नम्रता का एक यादगार सबक सिखाया? (ख) धरती पर रहते वक्त यीशु ने नम्रता का कौन-सा सबसे ज़बरदस्त सबक सिखाया?
17 प्रेषितों ने नम्रता का सबक तुरंत नहीं सीखा। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि यीशु यह बात उन्हें न तो पहली दफा समझा रहा था और न ही आखिरी बार। इससे पहले भी जब वे आपस में झगड़ रहे थे कि उनमें सबसे बड़ा कौन है, तो यीशु ने उनके बीच एक बच्चे को खड़ा किया और कहा कि उन्हें छोटे बच्चों के जैसा बनना चाहिए। बच्चों में घमंड, बड़ा बनने की चाहत और यह फिक्र नहीं होती कि दूसरे उनके बारे में क्या सोचेंगे, जबकि बड़ों में यह कूट-कूट कर भरी होती है। (मत्ती 18:1-4) इतना सब समझाने के बावजूद, यीशु ने अपनी ज़िंदगी की आखिरी रात देखा कि उसके प्रेषितों में अब भी घमंड है। तब उसने उन्हें एक यादगार सबक सिखाया। उसने अपनी कमर पर एक तौलिया बाँधा और वह काम किया जो उस ज़माने में नौकर, घर आए महमानों के लिए करते थे। यीशु ने अपने हरेक प्रेषित के पैर धोए, यहूदा के भी, जो थोड़ी ही देर में उसे धोखे से पकड़वानेवाला था।—यूहन्ना 13:1-11.
18 उनके पैर धोने के बाद यीशु ने कहा: “मैंने तुम्हारे लिए नमूना छोड़ा है।” (यूहन्ना 13:15) क्या आखिरकार प्रेषितों ने नम्रता का सबक सीखा? उसी रात उनमें फिर झगड़ा हो गया कि सबसे बड़ा कौन है! (लूका 22:24-27) यीशु ने तब भी सब्र से काम लिया और उन्हें बड़ी नम्रता से समझाया। इसके बाद उसने नम्रता का सबसे ज़बरदस्त सबक सिखाया: “उसने खुद को नम्र किया और इस हद तक आज्ञा माननेवाला बना कि उसने मौत भी, हाँ, यातना की सूली पर मौत भी सह ली।” (फिलिप्पियों 2:8) यीशु पर एक अपराधी होने और परमेश्वर की तौहीन करने का झूठा आरोप लगाया गया। मगर उसने खुशी-खुशी एक शर्मनाक मौत मरने के लिए खुद को दे दिया। इस तरह, परमेश्वर का यह बेटा पूरी तरह नम्रता दिखाने में स्वर्गदूतों और इंसानों में सबसे बेजोड़ साबित हुआ।
19 नम्रता का यह आखिरी सबक जो यीशु ने धरती पर रहते वक्त सिखाया था, शायद इसी सबक ने वफादार प्रेषितों के दिल पर गहरी छाप छोड़ दी। बाइबल बताती है कि ये लोग सालों तक नम्रता से यहोवा की सेवा करते रहे। आज हमारे बारे में क्या?
क्या आप यीशु के नमूने पर चलेंगे?
20. हम कैसे जान सकते हैं कि हम दिल से दीन हैं?
20 पौलुस हम सबको उकसाता है: “तुम मन का वैसा स्वभाव पैदा करो जैसा मसीह यीशु का था।” (फिलिप्पियों 2:5) यीशु की तरह हमें भी दिल से दीन होने की ज़रूरत है। हम कैसे जान सकते हैं कि हम वाकई दिल से नम्र हैं? गौर कीजिए, पौलुस ने कहा कि हमें ‘झगड़ालूपन या अहंकार की वजह से कुछ नहीं करना चाहिए, मगर मन की दीनता के साथ दूसरों को खुद से बेहतर समझना चाहिए।’ (फिलिप्पियों 2:3) तो फिर, ऊपर दिए सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि हम दूसरों को अपने आगे क्या समझते हैं। हमें उन्हें खुद से बेहतर समझना चाहिए। क्या आप यह सलाह मानेंगे?
21, 22. (क) मसीही निगरानों को नम्र क्यों होना चाहिए? (ख) हम कैसे दिखा सकते हैं कि हमने नम्रता धारण की है?
21 यीशु की मौत के कई साल बाद भी, प्रेषित पतरस नम्रता की अहमियत नहीं भूला था। उसने मसीही निगरानों को सिखाया कि वे अपनी ज़िम्मेदारियाँ नम्रता से निभाएँ और कभी-भी यहोवा की भेड़ों पर अधिकार जतानेवाले न बनें। (1 पतरस 5:2, 3) ज़िम्मेदारी मिलना हमें घमंड करने की छूट नहीं देता। उलटा, ज़िम्मेदारी आने से सच्ची नम्रता दिखाना और भी ज़रूरी हो जाता है। (लूका 12:48) लेकिन यह गुण सिर्फ निगरानों के लिए नहीं, हर मसीही के लिए ज़रूरी है।
22 पतरस उस रात को कभी नहीं भुला पाया होगा जब उसके मना करने पर भी यीशु ने उसके पैर धोए थे। (यूहन्ना 13:6-10) पतरस ने मसीहियों को लिखा: “तुम सभी एक-दूसरे से पेश आते वक्त मन की दीनता धारण करो।” (1 पतरस 5:5) जिस मूल यूनानी शब्द का अनुवाद “धारण करो” किया गया है, उससे इस बात का इशारा मिलता है कि एक नौकर क्या करता है। वह कमर पर अंगोछा बाँधकर छोटे-से-छोटा काम करने में जुट जाता है। इन शब्दों से शायद हमें वह घटना याद आए, जब यीशु ने अपनी कमर पर तौलिया बाँधा और झुककर प्रेषितों के पैर धोए। अगर हम यीशु की मिसाल पर चलें, तो परमेश्वर से मिला भला कौन-सा काम करने से हम छोटे हो जाएँगे? लोगों को साफ नज़र आना चाहिए कि हम दिल से नम्र हैं मानो हमने दीनता को धारण किया हुआ है।
23, 24. (क) हमें घमंड करने की फितरत से क्यों दूर रहना चाहिए? (ख) अगले अध्याय में नम्रता के बारे में किस सोच को गलत साबित किया जाएगा?
23 घमंड, ज़हर की तरह है। इसके अंजाम बहुत भयानक हो सकते हैं। घमंड काबिल-से-काबिल और गुणी इंसान को भी परमेश्वर की नज़र में निकम्मा बना देता है। वहीं दूसरी तरफ, नम्रता का गुण होने से ऐसा इंसान भी यहोवा के बहुत काम आ सकता है जिसमें कोई खास हुनर न हो। अगर हम नम्रता से मसीह के नक्शे-कदम पर चलकर इस अनमोल गुण को हर दिन बढ़ाएँ, तो इनाम वाकई बढ़िया होगा। इस बारे में सोचकर ही हम सिहर उठते हैं! पतरस ने लिखा: “परमेश्वर के शक्तिशाली हाथ के नीचे खुद को नम्र करो, ताकि वह सही वक्त पर तुम्हें ऊँचा करे।” (1 पतरस 5:6) इसमें कोई शक नहीं कि यहोवा ने यीशु को ऊँचा किया क्योंकि उसने खुद को पूरी तरह नम्र कर दिया था। उसी तरह, नम्रता दिखाने के लिए परमेश्वर आपको भी खुशी-खुशी इनाम देगा।
24 लेकिन दुख की बात है कि कुछ लोग सोचते हैं कि नम्रता कमज़ोरी की निशानी है। यीशु की मिसाल हमें समझने में मदद देती है कि यह सरासर गलत है। क्योंकि यीशु सबसे नम्र होने के साथ-साथ सबसे साहसी भी था। अगले अध्याय में हम उसके साहस के बारे में सीखेंगे।
a इस घटना का ब्यौरा देते हुए, एक किताब कहती है कि ये जानवर “बहुत मामूली होते हैं। इनकी चाल धीमी होती है और ये ढीठ किस्म के होते हैं। ये आम तौर पर गरीबों के लिए बोझ ढोने का काम करते हैं और दिखने में कुछ खास नहीं होते।”
b मीकाएल ही यीशु है, इस बारे में और सबूत जानने के लिए बाइबल असल में क्या सिखाती है? किताब के पेज 218-19 देखिए। इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।
-
-
“देख! यह यहूदा के गोत्र का . . . शेर है”मेरा चेला बन जा और मेरे पीछे हो ले
-
-
अध्याय 4
“देख! यह यहूदा के गोत्र का . . . शेर है”
“मैं वही हूँ”
1-3. यीशु ने किस खतरे का सामना किया? ऐसे में उसने क्या किया?
यीशु को ढूँढ़ने के लिए एक भीड़ निकल पड़ी है। इनमें कई सैनिक भी हैं, जो हाथों में तलवारें और सोंटे लिए हुए चले आ रहे हैं। उनका एक ही मकसद है, यीशु को गिरफ्तार करना। वे यरूशलेम की अँधेरी सड़कों से गुज़रते हैं और किद्रोन घाटी पार कर जैतून पहाड़ की तरफ जाते हैं। पूर्णिमा की रात है, फिर भी ये लोग मशालें और दीपक लिए हुए हैं। क्या इसलिए कि चाँद बादलों से घिरा हुआ है? या क्या इसलिए कि उन्हें लगता है कि यीशु कहीं छिपा होगा? वजह चाहे जो भी हो, लेकिन एक बात पक्की है: अगर यीशु को कोई डरपोक समझ रहा है तो वह उसे अच्छी तरह नहीं जानता।
2 यीशु आनेवाले खतरे को पहले ही भाँप चुका है। मगर डर के मारे भाग जाने के बजाय, वह वहीं भीड़ का इंतज़ार करता है। तभी भीड़ यीशु को आ घेरती है। भीड़ को यीशु के पास लानेवाला कोई और नहीं बल्कि यहूदा है, जो एक समय पर उसका भरोसेमंद दोस्त था। वह यीशु के पास आता है और नमस्कार कह उसे चूमता है, जिससे सैनिकों को पता चल जाए कि यही यीशु है। कितनी गिरी हुई हरकत! लेकिन यीशु के चेहरे पर शिकन तक नहीं आती। वह भीड़ के सामने आता है और पूछता है: “तुम किसे ढूँढ़ रहे हो?” भीड़ जवाब देती है: “यीशु नासरी को।”
3 हथियारों से लैस इतनी बड़ी भीड़ के सामने ज़्यादातर लोगों की तो हवाइयाँ उड़ जाएँगी। शायद भीड़ को भी लगा हो कि यीशु उन्हें देखकर थर-थर काँपने लगेगा। लेकिन यीशु डरा नहीं। वह वहाँ से न तो भागता है, न ही उतावली में कोई झूठ बोल बैठता है। इसके बजाय, वह उनके मुँह पर कहता है: “मैं वही हूँ।” वह इतना शांत और बेखौफ है कि लोग हक्के-बक्के रह जाते हैं। वे पीछे हट जाते हैं और ज़मीन पर गिर पड़ते हैं।—यूहन्ना 18:1-6; मत्ती 26:45-50; मरकुस 14:41-46.
4-6. (क) परमेश्वर के बेटे की तुलना किससे की गयी है? और क्यों? (ख) यीशु ने किन तीन तरीकों में हिम्मत दिखायी?
4 इतना बड़ा खतरा आने पर यीशु ज़रा-भी नहीं घबराया और न ही उसने अपना आपा खोया। क्यों? क्योंकि उसमें साहस था। यह वह गुण है जो एक अगुवे में होना निहायत ज़रूरी है और जिस अगुवे में यह गुण है वह लोगों का दिल जीत लेता है। यह गुण दिखाने में आज तक यीशु की टक्कर का कोई नहीं आया, उससे बढ़कर साहस दिखाना तो दूर की बात है। पिछले अध्याय में हमने सीखा कि यीशु कितना नम्र और दीन है। इसलिए उसे “मेम्ना” कहा गया है। (यूहन्ना 1:29) लेकिन यीशु की हिम्मत की वजह से उसका वर्णन एक और तरीके से किया गया है जो मेम्ने से बिलकुल अलग है। परमेश्वर के इस बेटे के बारे में बाइबल कहती है: “देख! यह यहूदा के गोत्र का . . . शेर है।”—प्रकाशितवाक्य 5:5.
5 शेर को अकसर साहस का प्रतीक माना जाता है। क्या आपका कभी किसी शेर से आमना-सामना हुआ है? अगर हुआ भी होगा तो शायद चिड़ियाघर में, जहाँ वह पिंजरे में बंद होता है। फिर भी, जब आपने इस विशाल और ताकतवर जानवर को देखा और उसने भी आपको घूरकर देखा, तो ज़रूर आपके रोंगटे खड़े हो गए होंगे। आप सोच भी नहीं सकते कि इस जानवर को किसी बात का डर हो सकता है। बाइबल बताती है कि “सिंह . . . सब पशुओं में पराक्रमी है, और किसी के डर से नहीं हटता।” (नीतिवचन 30:30) मसीह में ऐसा ही साहस और हिम्मत है।
6 आइए अब हम चर्चा करें कि कैसे यीशु ने इन तीन तरीकों में शेर जैसा साहस दिखाया: सच्चाई की पैरवी करने, न्याय का साथ देने और विरोध का सामना करने में। हम यह भी देखेंगे कि हम यीशु की तरह हिम्मत कैसे दिखा सकते हैं, फिर चाहे हम स्वभाव से साहसी हों या न हों।
उसने हिम्मत के साथ सच्चाई की पैरवी की
7-9. (क) यीशु जब 12 साल का था तो क्या हुआ? वह जिस माहौल में था, उसमें अगर आप होते, तो सहमा हुआ महसूस क्यों करते? (ख) मंदिर में शिक्षकों से बात करते वक्त, यीशु ने किस तरह साहस दिखाया?
7 दुनिया पर शैतान यानी ‘झूठ के पिता’ की हुकूमत है। इसलिए सच्चाई के पक्ष में खड़े होने के लिए अकसर साहस की ज़रूरत होती है। (यूहन्ना 8:44; 14:30) यीशु जब छोटा था तब से उसने सच्चाई की पैरवी की। उस घटना को लीजिए जब वह 12 साल का था और यरूशलेम में अपने माता-पिता के साथ फसह का त्योहार मनाने आया था। त्योहार के बाद वह यरूशलेम में ही रह गया। यूसुफ और मरियम ने तीन दिन तक उसे कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा। आखिरकार, यीशु उन्हें मंदिर में मिला। वह वहाँ क्या कर रहा था? “वह शिक्षकों के बीच बैठा उनकी सुन रहा था और उनसे सवाल कर रहा था।” (लूका 2:41-50) ज़रा उस माहौल पर गौर कीजिए जिसमें यह बातचीत चल रही थी।
8 इतिहासकारों का कहना है कि उस ज़माने के कुछ जाने-माने धर्मगुरुओं का दस्तूर था कि वे त्योहारों के बाद मंदिर के एक बड़े आँगन में बैठकर शिक्षा देते थे। लोग आकर उनके पैरों के पास बैठते थे और उनसे सवाल पूछते थे। ये शिक्षक बड़े विद्वान थे। उन्हें मूसा के कानून का बहुत ज्ञान था। साथ ही, इंसान के बनाए ढेरों पेचीदा कानून और परंपराओं से भी वे अच्छी तरह वाकिफ थे। अगर आप उन बड़े-बड़े विद्वानों के बीच बैठे होते तो कैसा महसूस करते? सहमे हुए से? ऐसा महसूस करना लाज़िमी है। और अगर आप सिर्फ 12 साल के होते तब कैसा महसूस करते? अकसर देखा जाता है कि कई जवान शर्मीले होते हैं। (यिर्मयाह 1:6) कुछ जवान तो पूरी-पूरी कोशिश करते हैं कि स्कूल में टीचरों का ध्यान उन पर न जाए। वे डरते हैं कि कहीं टीचर उन्हें कुछ कहने या करने के लिए न बुला ले और उन्हें सबके सामने शर्मिंदा होना पड़े। या वे टीचरों के चहेते न बन जाएँ जिससे उनका अच्छा-खासा मज़ाक उड़ाया जाए।
9 लेकिन ज़रा यीशु को देखिए। वह उन विद्वानों के बीच बैठा है और बेखौफ उनसे गहरे सवाल पूछ रहा है। मगर वह सिर्फ सवाल ही नहीं कर रहा है। बाइबल बताती है कि “जितने लोग उसकी सुन रहे थे, वे सभी उसकी समझ और उसके जवाबों से रह-रहकर दंग हो रहे थे।” (लूका 2:47) बाइबल यह तो नहीं बताती कि उस मौके पर यीशु ने क्या कहा। लेकिन हम यकीन रख सकते हैं कि उसने उन झूठी शिक्षाओं को नहीं दोहराया होगा जो धर्मगुरुओं को बेहद पसंद थीं। (1 पतरस 2:22) इसके बजाय, उसने परमेश्वर के वचन से सच्चाइयाँ बतायीं। और सुननेवाले यह देखकर दंग रह गए कि एक 12 साल का लड़का भी इतनी समझ और हिम्मत के साथ बोल सकता है।
कई मसीही जवान हिम्मत से अपने विश्वास के बारे में दूसरों को बताते हैं
10. आज जवान मसीही, यीशु के जैसा साहस कैसे दिखाते हैं?
10 आज बहुत-से जवान मसीही, यीशु के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं। माना कि वे यीशु के जैसे सिद्ध नहीं हैं। लेकिन उसकी तरह वे भी छोटी उम्र से ही सच्चाई के पक्ष में खड़े होते हैं। स्कूल में या अपने मुहल्ले में, वे सोच-समझकर लोगों से सवाल पूछते, उनकी सुनते और फिर आदर के साथ उन्हें गवाही देते हैं। (1 पतरस 3:15) इन जवानों की मेहनत की वजह से इनकी क्लास के बच्चों, टीचरों और पड़ोसियों को मसीह का चेला बनने में मदद मिली है। उनकी दिलेरी देख यहोवा का दिल गद्गद् हो उठता है! उसके वचन में ऐसे जवानों को ओस की बूँदें कहा गया है जो न सिर्फ बड़ी तादाद में होती हैं बल्कि खुशियाँ और ताज़गी भी बिखेरती हैं।—भजन 110:3.
11, 12. बड़े होने पर, यीशु ने सच्चाई की पैरवी करने में हिम्मत कैसे दिखायी?
11 जब यीशु बड़ा हुआ तब उसने सच्चाई की पैरवी करने में कई बार हिम्मत दिखायी। दरअसल उसकी सेवा की शुरूआत में ही एक ऐसी घटना घटी जो कई लोगों को दिल दहलानेवाली लग सकती है। यहोवा के सबसे ताकतवर और खतरनाक दुश्मन शैतान के साथ उसका आमना-सामना हुआ। उस वक्त यीशु शक्तिशाली प्रधान स्वर्गदूत नहीं बल्कि एक मामूली इंसान था। मगर उसने डटकर शैतान का विरोध किया और शास्त्र का गलत अर्थ निकालने के लिए शैतान को मुँहतोड़ जवाब दिया। आखिर में यीशु ने बड़ी निडरता से कहा: “दूर हो जा शैतान!”—मत्ती 4:2-11.
12 इस तरह यीशु ने दिखाया कि जो उसके पिता के वचन को तोड़-मरोड़कर पेश करेगा या उसका गलत अर्थ निकालेगा, यीशु उसका बेधड़क विरोध करेगा। आज की तरह उसके ज़माने में धर्म के नाम पर पाखंड होना बहुत आम था। उसने अपने दिनों के धर्मगुरुओं से कहा: “तुम अपनी ठहरायी हुई परंपरा की वजह से परमेश्वर के वचन को रद्द कर देते हो।” (मरकुस 7:13) लोग इन धर्मगुरुओं को सिर आँखों पर बिठाते थे, मगर यीशु ने पूरी दिलेरी से उन्हें धिक्कारते हुए अंधे अगुवे और कपटी कहा।a (मत्ती 23:13, 16) यीशु ने अपनी सेवा में साहस का जो नमूना रखा, उस पर हम कैसे चल सकते हैं?
13. यीशु के नक्शे-कदम पर चलते वक्त हमें क्या याद रखना चाहिए? फिर भी हमें क्या सम्मान मिला है?
13 बेशक हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारे पास न तो यीशु की तरह लोगों का दिल पढ़ने की काबिलीयत है, न ही उन्हें धिक्कारने का अधिकार। लेकिन हम उसकी तरह निडरता से सच्चाई की पैरवी ज़रूर कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, शैतान ने झूठी शिक्षाओं से इस दुनिया को अंधकार में रखा है। वह परमेश्वर, उसके मकसदों और उसके वचन के बारे में झूठ फैलाता है। जब हम इन झूठी शिक्षाओं का परदाफाश करते हैं तो हम मानो अंधकार में रौशनी चमकाते हैं। (मत्ती 5:14; प्रकाशितवाक्य 12:9, 10) हम लोगों को उन झूठी शिक्षाओं से आज़ाद होने में मदद देते हैं जो उनके दिल में दहशत बिठातीं और उन्हें परमेश्वर से दूर ले जाती हैं। वाकई, यीशु के इस वादे को सच होते देखने का हमें क्या ही सम्मान मिला है: “सच्चाई तुम्हें आज़ाद करेगी।”—यूहन्ना 8:32.
उसने निडरता से न्याय का साथ दिया
14, 15. (क) एक तरीका बताइए जिससे यीशु ने साफ-साफ दिखाया कि “सच्चा न्याय क्या होता है।” (ख) सामरी स्त्री से बात करते वक्त यीशु ने किस भेदभाव को नहीं माना?
14 बाइबल में भविष्यवाणी की गयी है कि मसीहा राष्ट्रों को साफ-साफ दिखाएगा कि “सच्चा न्याय क्या होता है।” (मत्ती 12:18; यशायाह 42:1) धरती पर रहते वक्त यीशु ने यह भविष्यवाणी पूरी की। वह लोगों के साथ हमेशा न्याय से और बिना किसी पक्षपात के पेश आया। इस तरह उसने बड़ी हिम्मत दिखायी। मिसाल के लिए, उसके ज़माने में नफरत और भेदभाव का बोलबाला था। मगर यीशु ने इस गलत रवैए को नहीं अपनाया।
15 जब यीशु सूखार शहर के कुँए के पास एक सामरी स्त्री से बात कर रहा था तो उसके चेले हैरान रह गए। क्यों? क्योंकि उन दिनों, सामरी यहूदियों को फूटी आँख नहीं सुहाते थे। नफरत का यह सिलसिला यीशु के धरती पर आने से बहुत पहले शुरू हुआ था। (एज्रा 4:4) इसके अलावा कुछ रब्बी, औरतों को पैरों की जूती समझते थे। रब्बियों के बनाए नियम-कानून, आगे चलकर पोथियों में लिखे गए। उनमें से एक नियम के तहत आदमियों का औरतों से बात करना सख्त मना था। उनके नियमों में इस बात का भी इशारा मिलता है कि एक स्त्री इस लायक नहीं कि उसे परमेश्वर का कानून सिखाया जाए। स्त्रियों को, खासकर सामरी स्त्रियों को अशुद्ध माना जाता था। लेकिन यीशु ने इस तरह के भेदभाव को नहीं माना। उसने खुलेआम उस सामरी स्त्री को सिखाया (जो उस वक्त एक अनैतिक ज़िंदगी जी रही थी) और यह भी बताया कि वह वादा किया गया मसीहा है।—यूहन्ना 4:5-27.
16. भेदभाव के मामले में लोगों से अलग नज़रिया रखने के लिए मसीहियों को हिम्मत की ज़रूरत क्यों है?
16 क्या आपने कभी खुद को ऐसे लोगों के बीच पाया है जो कुछ इसी तरह का भेदभाव करते हैं? शायद वे किसी दूसरी जाति या राष्ट्र के लोगों के बारे में बेहूदा मज़ाक करें, विपरीत लिंग के लोगों के बारे में इज़्ज़त से बात न करें और उन लोगों को तुच्छ समझें जो गरीब हैं या जिनकी समाज में कोई हैसियत नहीं। मसीह के चेले इस तरह के नज़रिए को धिक्कारते हैं और अगर उनके मन में ज़रा-भी भेदभाव है, तो वे उसे उखाड़ फेंकने की पूरी कोशिश करते हैं। (प्रेषितों 10:34) वाकई, भेदभाव न करने के लिए हमारे अंदर हिम्मत होना ज़रूरी है।
17. यीशु ने मंदिर में क्या किया? और क्यों?
17 साहस ने यीशु को उकसाया कि वह परमेश्वर की उपासना और उसके लोगों की शुद्धता को बनाए रखे। अपनी सेवा की शुरूआत में जब यीशु यरूशलेम के मंदिर गया, तो यह देखकर दंग रह गया कि सौदागरों और पैसा बदलनेवालों ने परमेश्वर के घर को बाज़ार बना दिया है। उसका खून खौल उठा और उसने उन लालची लोगों को उनके सामान समेत वहाँ से खदेड़ डाला। (यूहन्ना 2:13-17) कुछ ऐसा ही काम उसने अपनी सेवा के आखिर में भी किया। (मरकुस 11:15-18) हालाँकि ऐसा कर कुछ लोग उसके जानी दुश्मन बन बैठे, मगर यीशु उनके डर से पीछे नहीं हटा। क्यों? क्योंकि बचपन से ही उसने मंदिर को अपने पिता का घर कहा और वह दिल से यह मानता भी था। (लूका 2:49) मंदिर में की जानेवाली शुद्ध उपासना को अशुद्ध करना सरासर अन्याय था और यीशु यह अन्याय होता देख चुप नहीं बैठ सका। उसके जोश ने उसे सही काम करने की हिम्मत दी।
18. मंडली की शुद्धता बनाए रखने में आज मसीही किस तरह साहस दिखा सकते हैं?
18 उसी तरह आज भी, मसीह के चेलों को सच्ची उपासना और परमेश्वर के लोगों की शुद्धता की गहरी चिंता है। अगर वे देखते हैं कि कोई संगी मसीही गंभीर पाप कर रहा है, तो वे आँख नहीं फेर लेते। वे हिम्मत के साथ या तो उस मसीही से या प्राचीनों से बात करते हैं। (1 कुरिंथियों 1:11) प्राचीन उन लोगों की मदद कर सकते हैं जिनका रिश्ता परमेश्वर के साथ कमज़ोर पड़ गया है। इतना ही नहीं, वे यहोवा की मंडली को शुद्ध बनाए रखने के लिए ज़रूरी कदम भी उठा सकते हैं।—याकूब 5:14, 15.
19, 20. (क) यीशु के दिनों में चारों तरफ कैसा अन्याय हो रहा था? यीशु पर क्या दबाव आया? (ख) मसीह के चेले क्यों राजनीति में हिस्सा नहीं लेते और हिंसा से दूर रहते हैं? ऐसा करने का उन्हें क्या इनाम मिला है?
19 तो क्या हम यह मान लें कि यीशु दुनिया में होनेवाली हर नाइंसाफी के खिलाफ लड़ता रहा? इसमें कोई शक नहीं कि उसके चारों तरफ अन्याय हो रहा था। उसके अपने देश पर पराए देश का कब्ज़ा था। रोमी अपनी शक्तिशाली सेना तैनात कर यहूदियों पर ज़ुल्म ढाते, उन पर भारी कर लगाते और उनके धार्मिक रिवाज़ों में भी दखलअंदाज़ी करते। तभी इसमें कोई हैरत नहीं कि बहुत-से यहूदी चाहते थे कि यीशु सत्ता में आ जाए। (यूहन्ना 6:14, 15) इस मामले में भी यीशु को अपने साहस का सबूत देना पड़ा।
20 यीशु ने समझाया कि उसका राज इस दुनिया का नहीं है। अपने उदाहरण से उसने चेलों को सिखाया कि उन्हें राजनीतिक झगड़ों में नहीं उलझना चाहिए। बल्कि अपना पूरा ध्यान परमेश्वर के राज की खुशखबरी सुनाने में लगा देना चाहिए। (यूहन्ना 17:16; 18:36) निष्पक्ष रहने के मामले में यीशु ने एक ज़बरदस्त सबक तब सिखाया जब भीड़ उसे गिरफ्तार करने आयी। उस वक्त पतरस ने आव देखा न ताव, अपनी तलवार चला दी और एक आदमी को घायल कर दिया। शायद हमें पतरस का ऐसा करना सही लगे। अगर कभी हिंसा को जायज़ माना जाता, तो उस रात माना जाता जब परमेश्वर के निर्दोष बेटे को पकड़वाया जा रहा था। लेकिन यीशु ने जो सबक दिया वह आज भी उसके चेलों पर लागू होता है। उसने कहा: “अपनी तलवार म्यान में डाल ले, इसलिए कि वे सभी जो तलवार उठाते हैं, तलवार ही से नाश होंगे।” (मत्ती 26:51-54) मसीह के चेलों को ऐसी शांति बनाए रखने के लिए, उस वक्त भी हिम्मत की ज़रूरत थी और आज भी है। अपनी निष्पक्षता की बदौलत उन्होंने युद्धों, हत्याकांड, दंगे-फसादों वगैरह में हिस्सा न लेकर एक बेदाग रिकॉर्ड कायम किया है। यह बढ़िया रिकॉर्ड उनके साहस का इनाम है।
उसने साहस के साथ विरोध का सामना किया
21, 22. (क) अपनी ज़िंदगी की सबसे कठिन परीक्षा का सामना करने से पहले यीशु को क्या मदद मिली? (ख) यीशु ने मरते दम तक साहस कैसे दिखाया?
21 यहोवा के बेटे को पहले से पता था कि धरती पर उसे कड़े-से-कड़े विरोध का सामना करना पड़ेगा। (यशायाह 50:4-7) उसे कई बार जान से मार डालने की कोशिश की गयी। ऐसी ही एक कोशिश आखिरकार तब कामयाब हुई जब उसे गिरफ्तार किया गया, जिसके बारे में हमने इस अध्याय की शुरूआत में देखा था। इन खतरों का सामना करते वक्त यीशु ने अपना साहस कैसे बरकरार रखा? इसके लिए हमें जानना होगा कि भीड़ के आने से पहले वह क्या कर रहा था। वह सच्चे दिल से यहोवा से प्रार्थना कर रहा था। यहोवा ने क्या किया? बाइबल बताती है कि यीशु की “सुनी गयी।” (इब्रानियों 5:7) जी हाँ, यहोवा ने एक स्वर्गदूत भेजा ताकि वह उसके बहादुर बेटे की हिम्मत बँधा सके।—लूका 22:42, 43.
22 हिम्मत पाने के थोड़े ही समय बाद, यीशु ने अपने प्रेषितों से कहा: “उठो, आओ चलें।” (मत्ती 26:46) ज़रा इन शब्दों में उसकी जाँबाज़ी तो देखिए! उसे पता था कि वह भीड़ से गुज़ारिश करेगा कि उसके दोस्तों को जाने दे, उसके दोस्त उसे छोड़ वहाँ से भाग निकलेंगे और उसे अपनी ज़िंदगी की सबसे कठिन परीक्षा का सामना अकेले ही करना होगा। फिर भी उसने कहा, “आओ चलें।” उसे अकेले क्या-क्या नहीं सहना पड़ा। बेकसूर होते हुए भी उस पर गैर-कानूनी मुकदमा चलाया गया, उसकी खिल्ली उड़ायी गयी, उसे तड़पाया गया और एक दर्दनाक मौत दी गयी। इन सबके बावजूद उसका साहस नहीं टूटा।
23. यीशु ने जिस तरह खतरों और मौत का सामना किया, उसका यह मतलब नहीं कि उसे अपनी जान की परवाह नहीं थी। समझाइए क्यों?
23 क्या इसका मतलब यीशु को अपनी जान की कोई परवाह नहीं थी? ऐसी बात नहीं है। अपनी जान खाहमखाह जोखिम में डालने का सच्ची हिम्मत दिखाने से कोई नाता नहीं है। दरअसल, यीशु ने अपने चेलों को सतर्क रहना और खतरे को आते देख उससे बचना सिखाया ताकि वे परमेश्वर की मरज़ी पूरी करते रहें। (मत्ती 4:12; 10:16) लेकिन यीशु जानता था कि उसके मामले में खतरे को टाला नहीं जा सकता क्योंकि परमेश्वर की यही मरज़ी है कि वह अपनी जान दे दे। यीशु हर हाल में अपनी वफादारी बनाए रखना चाहता था। और ऐसा करने का सिर्फ एक ही रास्ता था कि वह आगे बढ़कर हिम्मत के साथ आज़माइश का सामना करे।
यहोवा के साक्षियों ने ज़ुल्म सहने पर भी हिम्मत दिखायी
24. हम क्यों यकीन रख सकते हैं कि चाहे कोई भी आज़माइश आए, हम हिम्मत से काम ले सकेंगे?
24 यीशु के चेलों ने न जाने कितनी बार अपने गुरू के नक्शे-कदम पर चलते हुए साहस दिखाया है। ठट्ठा, ज़ुल्म, गिरफ्तारी, कैद, यातनाएँ, यहाँ तक कि मौत भी उनमें से कइयों को अपने विश्वास से हिला न सकी। असिद्ध इंसानों को इतना साहस कहाँ से मिलता है? यह अपने आप तो नहीं आ सकता! जैसे यीशु को परमेश्वर से मदद मिली थी वैसे ही उसके चेलों को भी मदद देनेवाला परमेश्वर है। (फिलिप्पियों 4:13) इसलिए इस बात से कभी मत डरिए कि भविष्य में क्या होगा। ठान लीजिए कि आप अपनी खराई बनाए रखेंगे और यहोवा आपको वह हिम्मत देगा जिसकी आपको ज़रूरत है। हमारे अगुवे यीशु की मिसाल से हौसला पाते रहिए, जिसने कहा: “हिम्मत रखो! मैंने इस दुनिया पर जीत हासिल की है।”—यूहन्ना 16:33.
a इतिहासकारों ने गौर किया कि रब्बियों की कब्रों को उतना ही आदर और सम्मान दिया जाता था, जितना कि भविष्यवक्ताओं और कुलपिताओं की कब्रों को दिया जाता था।
-
-
“बुद्धि . . . का सारा खज़ाना”मेरा चेला बन जा और मेरे पीछे हो ले
-
-
अध्याय 5
“बुद्धि . . . का सारा खज़ाना”
1-3. यीशु ने किन हालात में पहाड़ी उपदेश दिया? उसके सुननेवाले क्यों दंग रह गए?
ईसवी सन् 31 का समय है। यीशु मसीह कफरनहूम शहर के पास है। चहल-पहल से भरा यह शहर गलील झील के उत्तर-पश्चिम की तरफ बसा है। पास के एक पहाड़ पर यीशु अकेले सारी रात प्रार्थना में बिताता है। दिन चढ़ते ही वह चेलों को अपने पास बुलाता है और उनमें से 12 को चुनकर, उन्हें प्रेषित नाम देता है। इस बीच लोगों की एक बड़ी भीड़ यीशु का पीछा करती हुई वहाँ आ पहुँचती है। उनमें से कई लोग तो दूर-दूर से आए हैं। वे सब पहाड़ की समतल जगह पर जमा हो जाते हैं। वे यीशु को सुनने और अपनी बीमारियों से ठीक होने के लिए तरस रहे हैं। यीशु उन्हें निराश नहीं करता।—लूका 6:12-19.
2 वह भीड़ के पास आता है और जितने भी बीमार हैं उन्हें चंगा कर देता है। अब उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो गंभीर बीमार से पीड़ित हो। फिर यीशु बैठकर भीड़ को सिखाने लगता है।a उसकी बातों से लोग ज़रूर हैरान हो उठे होंगे। आखिरकार, उन्होंने कभी किसी को यीशु की तरह सिखाते नहीं सुना था। यीशु अपनी शिक्षाओं को दमदार बनाने के लिए न तो इंसानी परंपराओं का और न ही जाने-माने यहूदी रब्बियों की बातों का हवाला देता है। बल्कि वह बार-बार परमेश्वर की प्रेरणा से लिखे इब्रानी शास्त्र का हवाला देता है। उसका संदेश एकदम सीधा है, उसके शब्द समझने में आसान हैं और उनका मतलब बिलकुल साफ है। जब वह बोलना खत्म करता है तो भीड़ दंग रह जाती है। उन्हें होना भी चाहिए, क्योंकि उन्होंने धरती पर जीनेवाले सबसे बुद्धिमान इंसान की बातें जो सुनी हैं।—मत्ती 7:28, 29.
“भीड़ उसका सिखाने का तरीका देखकर दंग रह गयी”
3 परमेश्वर के वचन में इस उपदेश के साथ-साथ यीशु की और भी बातें और काम दर्ज़ हैं। यह जाँचना हमारे लिए बेहद ज़रूरी है कि बाइबल यीशु के बारे में क्या बताती है, क्योंकि उसी में “बुद्धि . . . का सारा खज़ाना” पाया जाता है। (कुलुस्सियों 2:3) यीशु को यह बुद्धि, यानी ज्ञान और समझ को काम में लाने की काबिलीयत, कहाँ से मिली? उसने यह बुद्धि किस तरह ज़ाहिर की? और हम उसकी मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
“इस आदमी को ऐसी बुद्धि . . . कहाँ से मिली?”
4. नासरत में यीशु के सुननेवालों ने क्या सवाल किया? और क्यों?
4 प्रचार के अपने एक दौरे में यीशु नासरत पहुँचा जहाँ वह पला-बढ़ा था और सभा-घर में सिखाने लगा। उसकी बातें सुनकर कई लोगों ने दाँतों तले उँगली दबा ली और हैरानी जतायी: “इस आदमी को ऐसी बुद्धि . . . कहाँ से मिली?” वे उसके माँ-बाप और भाई-बहनों को अच्छी तरह जानते थे। उन्हें पता था कि वह एक गरीब परिवार से है। (मत्ती 13:54-56; मरकुस 6:1-3) बेशक वे यह भी जानते थे कि इस बढ़ई ने रब्बियों के जाने-माने स्कूलों में शिक्षा नहीं हासिल की है। (यूहन्ना 7:15) इसलिए उनका पूछना वाजिब था कि इस आदमी को ऐसी बुद्धि कहाँ से मिली।
5. यीशु को बुद्धि देनेवाला कौन है, इस बारे में उसने क्या बताया?
5 यीशु ने जो बुद्धि ज़ाहिर की वह सिर्फ उसके परिपूर्ण दिमाग की उपज नहीं थी। अपनी सेवा के दौरान जब वह मंदिर में खुलेआम सिखा रहा था तब उसने कहा: “जो मैं सिखाता हूँ वह मेरी तरफ से नहीं बल्कि उसकी तरफ से है जिसने मुझे भेजा है।” (यूहन्ना 7:16) जी हाँ, यीशु को बुद्धि देनेवाला उसका पिता यहोवा परमेश्वर है जिसने उसे धरती पर भेजा था। (यूहन्ना 12:49) लेकिन यीशु ने यहोवा से बुद्धि कैसे पायी?
6, 7. यीशु ने किन तरीकों से अपने पिता से बुद्धि पायी?
6 यहोवा की पवित्र शक्ति यीशु के दिलो-दिमाग पर काम कर रही थी। वादा किए गए मसीहा यानी यीशु के बारे में यशायाह ने भविष्यवाणी की: “यहोवा की आत्मा, बुद्धि और समझ की आत्मा, युक्ति और पराक्रम की आत्मा, और ज्ञान और यहोवा के भय की आत्मा उस पर ठहरी रहेगी।” (यशायाह 11:2) यहोवा की शक्ति यीशु पर ठहरी रही और उसके विचारों और फैसलों को सही राह दिखाती रही। तो क्या इसमें कोई ताज्जुब है कि यीशु ने अपनी बातों और कामों से सर्वोत्तम बुद्धि का सबूत दिया?
7 यीशु ने अपने पिता से एक और बेहतरीन तरीके से बुद्धि पायी। जैसा कि हमने अध्याय 2 में देखा था, धरती पर आने से पहले वह अनगिनत युगों तक अपने पिता के साथ था। इस दौरान यीशु के पास अच्छा मौका था कि वह अपने पिता के विचारों को अपने ज़हन में उतार सके। हम यह अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कि बेटे ने अपने पिता से कितनी गहरी बुद्धि पायी होगी। उसने एक “कुशल कारीगर” (NHT) की तरह सभी जीवित और निर्जीव चीज़ों की सृष्टि करने में अपने पिता का हाथ बँटाया। इसलिए धरती पर आने से पहले उसे बुद्धि का साकार रूप कहा गया है। (नीतिवचन 8:22-31; कुलुस्सियों 1:15, 16) धरती पर अपनी सेवा के दौरान, यीशु उस बुद्धि का इस्तेमाल कर सका जो उसने स्वर्ग में अपने पिता से पायी थी।b (यूहन्ना 8:26, 28, 38) इसलिए इसमें कोई हैरत नहीं कि यीशु की बातों से उसका बेशुमार ज्ञान और गहरी समझ झलकती है और उसके हर काम से उसकी समझ-बूझ।
8. यीशु के चेले होने के नाते हम बुद्धि कैसे पा सकते हैं?
8 यीशु के चेले होने के नाते हमें भी बुद्धि के लिए यहोवा से मदद माँगनी होगी। (नीतिवचन 2:6) बेशक, यहोवा कोई चमत्कार करके हमारे दिमाग में बुद्धि नहीं भर देगा। लेकिन अगर हम सच्चे मन से प्रार्थना करें कि वह हमें ज़िंदगी की मुश्किलों का सामना करने के लिए बुद्धि दे, तो वह हमारी ज़रूर सुनेगा। (याकूब 1:5) यह बुद्धि पाने के लिए हमें बहुत मेहनत करनी होगी। हमें उसे इस तरह ढूँढ़ना होगा जिस तरह कोई “गुप्त धन” की खोज में लगा रहता है। (नीतिवचन 2:1-6) जी हाँ, हमें परमेश्वर के वचन का गहराई से अध्ययन करना होगा, जहाँ यहोवा की बुद्धि पायी जाती है। और सीखी बातों के मुताबिक चलना होगा। बुद्धि पाने में, खासकर यहोवा के बेटे की मिसाल हमारी मदद कर सकती है। आइए ऐसे कुछ दायरे देखें जिनमें यीशु ने अपनी बुद्धि ज़ाहिर की और यह सीखें कि कैसे हम उसके नक्शे-कदम पर चल सकते हैं।
बुद्धि की बातें
परमेश्वर की बुद्धि बाइबल में पायी जाती है
9. यीशु की शिक्षाएँ बुद्धि से भरपूर क्यों थीं?
9 यीशु की बातें सुनने के लिए भीड़-की-भीड़ उसके पास उमड़ चली आती थी। (मरकुस 6:31-34; लूका 5:1-3) और क्यों न हो, वह जब भी कुछ कहता, हमेशा बेजोड़ बुद्धि की बातें कहता। उसकी शिक्षाओं से साफ पता चलता कि उसे परमेश्वर के वचन का गहरा ज्ञान है और मामलों की तह तक पहुँचने की लाजवाब काबिलीयत है। उसकी शिक्षाओं से हर इंसान फायदा पा सकता है और ये कभी पुरानी नहीं पड़तीं। ये आज भी हमारे लिए उतनी ही फायदेमंद हैं जितनी तब थीं जब ये दी गयी थीं। आइए भविष्यवाणी में बताए “अद्भुत परामर्श दाता” यानी यीशु की बातों में पायी जानेवाली बुद्धि के कुछ उदाहरण देखें।—यशायाह 9:6, नयी हिन्दी बाइबिल।
10. यीशु ने हमें कौन-से अच्छे गुण बढ़ाने के लिए उकसाया? और क्यों?
10 यीशु की ज़्यादातर शिक्षाएँ पहाड़ी उपदेश में दी गयी हैं, जिसका ज़िक्र इस अध्याय की शुरूआत में किया गया था। इस पूरे उपदेश में न तो किसी और घटना का ब्यौरा दिया गया है और न ही कोई दूसरी बात कही गयी है। इसमें यीशु ने सलाह दी कि हमारी बोली और व्यवहार किस तरह का होना चाहिए। इतना ही नहीं, उसने यह भी बताया कि हम किन वजहों से फलाँ बात कहते या फलाँ काम करते हैं। वह अच्छी तरह जानता था कि हम जो सोचते और महसूस करते हैं, वही कहते और करते भी हैं। इसलिए यीशु ने उकसाया कि हम अपने अंदर अच्छे गुण बढ़ाएँ। जैसे, कोमल स्वभाव, न्याय होते देखने की भूख, दया दिखाने और शांति कायम करने की इच्छा और दूसरों के लिए प्यार। (मत्ती 5:5-9, 43-48) जैसे-जैसे हम ये गुण बढ़ाएँगे, हमें इसके बढ़िया नतीजे मिलेंगे। हमारी अच्छी बातचीत और व्यवहार से न सिर्फ यहोवा का दिल खुश होगा बल्कि दूसरों के साथ हमारे रिश्ते में भी मिठास बढ़ेगी।—मत्ती 5:16.
11. पाप के कामों की बात करते वक्त यीशु किस तरह मामले की जड़ तक गया?
11 जब यीशु पाप के कामों की बात कर रहा था, तो उसने हमें सिर्फ उनसे दूर रहने की सलाह नहीं दी। बल्कि यह भी बताया कि किस वजह से एक इंसान ऐसे पाप करता है। मिसाल के लिए, उसने महज़ यह नहीं कहा कि हमें हिंसा के कामों से दूर रहना चाहिए। बल्कि हमें खबरदार भी किया कि हम अपने दिल में गुस्से की आग को सुलगने न दें। (मत्ती 5:21, 22; 1 यूहन्ना 3:15) उसी तरह उसने सिर्फ यह नहीं कहा कि व्यभिचार से दूर रहो, बल्कि उस वासना से आगाह भी किया जो हमारे दिल में पनप सकती है और हमसे यह पाप करवा सकती है। यीशु ने बताया कि हमें ध्यान रखना चाहिए कि कहीं हमारी आँखें हमारे अंदर गलत इच्छाएँ न जगाएँ और हमें गलत काम करने के लिए न लुभाएँ। (मत्ती 5:27-30) इस तरह यीशु मामलों की जड़ तक गया। उसने ऐसे रवैयों और इच्छाओं की तरफ ध्यान दिलाया जो एक इंसान को पाप की ओर ले जाती हैं।—भजन 7:14.
12. यीशु के चेले उसकी सलाहों के बारे में क्या मानते हैं? वे ऐसा क्यों सोचते हैं?
12 यीशु की बुद्धि-भरी बातों की तो दाद देनी पड़ेगी! इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि “भीड़ उसका सिखाने का तरीका देखकर दंग रह गयी।” (मत्ती 7:28) उसके चेले होने के नाते हम मानते हैं कि उसकी बुद्धि-भरी सलाहें हमें जीने का तरीका सिखाती हैं। हम यीशु के कहे मुताबिक दया, शांति, और प्यार जैसे गुणों को पैदा करने की कोशिश करते हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि इस तरह हम ऐसे चालचलन की बुनियाद डाल रहे होंगे जो यहोवा को भाता है। हम अपने दिल से ज़बरदस्त क्रोध और अनैतिक इच्छाओं को उखाड़ फेंकने की जी-जान से कोशिश करते हैं जिनके बारे में यीशु ने आगाह किया था। क्योंकि हम जानते हैं कि ऐसा करने से हम पाप में पड़ने से बचेंगे।—याकूब 1:14, 15.
ऐसी ज़िंदगी जो बुद्धि के चलाए चलती है
13, 14. क्या दिखाता है कि यीशु ने अपनी ज़िंदगी के बारे में समझ-बूझ से फैसला किया?
13 यीशु ने न सिर्फ अपनी बातों से बल्कि अपने कामों से भी बुद्धि दिखायी। उसने अपने फैसलों, खुद के बारे में अपने नज़रिए और दूसरों के साथ अपने व्यवहार में—जी हाँ, अपने जीने के तरीके से बुद्धि के कई खूबसूरत पहलू ज़ाहिर किए। आइए ऐसे कुछ उदाहरण देखें जिनसे पता चलता है कि यीशु ‘व्यवहारिक बुद्धि और सोचने-समझने की काबिलीयत’ के मुताबिक काम करता था।—नीतिवचन 3:21, NW.
14 बुद्धि में समझ-बूझ से काम लेना शामिल है। ज़िंदगी किस तरह जीनी है, इसका फैसला करते वक्त यीशु ने समझ-बूझ दिखायी। ज़रा सोचिए, अगर यीशु चाहता तो अपने लिए एक आलीशान घर बना सकता था, अच्छा-खासा कारोबार खड़ा कर सकता था या दुनिया में नामो-शोहरत हासिल कर सकता था। लेकिन यीशु जानता था कि इन चीज़ों के पीछे ज़िंदगी लगाना “व्यर्थ है और हवा पकड़ने के बराबर है।” (सभोपदेशक 4:4, बुल्के बाइबिल; 5:10) ऐसी ज़िंदगी जीना बुद्धिमानी नहीं मूर्खता है। यीशु ने अपनी ज़िंदगी को सादा रखने का फैसला किया। धन-दौलत कमाने या ऐशो-आराम की चीज़ें बटोरने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी। (मत्ती 8:20) अपनी शिक्षाओं के मुताबिक उसने अपनी आँख एक ही मकसद पर लगाए रखी। वह है परमेश्वर की मरज़ी पूरी करना। (मत्ती 6:22) यीशु ने बुद्धिमानी दिखाते हुए अपना समय और अपनी ताकत परमेश्वर के राज के कामों में लगायी। ये काम गाड़ी, बँगला, पैसे से कहीं ज़्यादा अहमियत रखते हैं और आशीषें पहुँचाते हैं। (मत्ती 6:19-21) इस तरह यीशु हमारे लिए एक नमूना छोड़ गया ताकि हम उस पर चल सकें।
15. यीशु के चेले कैसे दिखाते हैं कि वे अपनी आँख एक ही चीज़ पर टिकाए रखते हैं? ऐसा करना बुद्धिमानी का रास्ता क्यों है?
15 आज भी यीशु के चेले देखते हैं कि अपनी आँख एक ही चीज़ पर टिकाए रखना बुद्धिमानी है। इसलिए वे बेवजह अपने सिर पर कर्ज़ नहीं चढ़ाते। और न ही गैर-ज़रूरी कामों में उलझते हैं, जिससे उनके पास समय और ताकत ही न बचे। (1 तीमुथियुस 6:9, 10) बहुत-से मसीहियों ने अपना रहन-सहन सादा बनाने के लिए कदम उठाए हैं ताकि वे प्रचार काम में ज़्यादा वक्त बिता सकें और हो सके तो पूरे समय के प्रचारक बन सकें। इससे बढ़कर बुद्धिमानी का रास्ता और कोई नहीं हो सकता। क्योंकि राज के कामों को अपनी ज़िंदगी में सही जगह देने से हमें सबसे ज़्यादा खुशी और संतोष मिलता है।—मत्ती 6:33.
16, 17. (क) यीशु ने किन तरीकों से दिखाया कि वह अपनी सीमाओं को पहचानता था और खुद से हद-से-ज़्यादा की उम्मीद नहीं करता था? (ख) हम कैसे दिखा सकते हैं कि हम अपनी सीमाएँ पहचानते हैं और खुद से हद-से-ज़्यादा की उम्मीद नहीं करते?
16 बाइबल बताती है कि बुद्धि का मर्यादा से गहरा ताल्लुक है। मर्यादा का मतलब है अपनी सीमाओं को पहचानना। (नीतिवचन 11:2, NW) यीशु अपनी सीमाएँ पहचानता था और खुद से हद-से-ज़्यादा की उम्मीद नहीं करता था। वह जानता था कि वह अपने सुननेवालों में से हर किसी को नहीं बदल सकता। (मत्ती 10:32-39) उसे यह भी पता था कि वह अकेले सबको राज का संदेश नहीं सुना सकेगा। इसलिए उसने बुद्धिमानी दिखाते हुए चेला बनाने का काम अपने शिष्यों को सौंपा। (मत्ती 28:18-20) उसने नम्र होकर यह कबूल किया कि वे उससे भी ‘बड़े-बड़े काम करेंगे।’ क्योंकि वे यीशु से ज़्यादा लंबे समय तक और बड़े पैमाने पर लोगों को प्रचार कर सकेंगे। (यूहन्ना 14:12) यीशु ने यह भी माना कि उसे मदद की ज़रूरत है। उसने उन स्वर्गदूतों की मदद कबूल की जो वीराने में उसकी सेवा करने आए थे और उस स्वर्गदूत की भी जो गतसमनी के बाग में उसकी हिम्मत बँधाने आया था। यही नहीं, ज़िंदगी की सबसे मुश्किल घड़ी में परमेश्वर के इस बेटे ने अपने पिता को मदद के लिए पुकारा।—मत्ती 4:11; लूका 22:43; इब्रानियों 5:7.
17 हमें भी अपनी सीमाओं को पहचानना चाहिए और खुद से हद-से-ज़्यादा की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। बेशक हम तन-मन से प्रचार और चेला बनाने का काम करना चाहते हैं और उसके लिए जी-तोड़ संघर्ष करते हैं। (लूका 13:24; कुलुस्सियों 3:23) लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यहोवा हमारी तुलना किसी से नहीं करता और न ही हमें करनी चाहिए। (गलातियों 6:4) व्यावहारिक बुद्धि हमारी मदद करेगी कि हम अपनी काबिलीयतों और हालात को ध्यान में रखकर ऐसे लक्ष्य रखें जिन्हें हम हासिल कर सकते हैं। इसके अलावा बुद्धि, ज़िम्मेदार भाइयों को यह कबूल करने में मदद देगी कि उनकी कुछ सीमाएँ हैं और उन्हें भी समय-समय पर मदद और हौसला-अफज़ाई की ज़रूरत है। मर्यादा का गुण उन भाइयों को यह पहचानने में मदद देगा कि यहोवा एक मसीही भाई को उनकी ‘हिम्मत बँधानेवाला मददगार’ बना सकता है। इतना ही नहीं, इस गुण की बदौलत वे एहसान-भरे दिल से इस मदद को स्वीकार भी कर सकेंगे।—कुलुस्सियों 4:11.
18, 19. (क) क्या दिखाता है कि यीशु अपने चेलों के लिए लिहाज़ दिखाता और उनके साथ प्यार से पेश आता था? (ख) दूसरों में अच्छाइयाँ ढूँढ़ने और उनके लिए लिहाज़ दिखाने की हमारे पास क्या बेहतरीन वजह है? और हम ऐसा कैसे कर सकते हैं?
18 याकूब 3:17 कहता है: ‘जो बुद्धि स्वर्ग से मिलती है, वह लिहाज़ दिखानेवाली होती है।’ यीशु अपने चेलों के लिए लिहाज़ दिखाता और उनके साथ प्यार से पेश आता था। वह उनकी खामियों से अच्छी तरह वाकिफ था, फिर भी वह उनमें अच्छाइयाँ ढूँढ़ता था। (यूहन्ना 1:47) वह जानता था कि जिस रात उसे गिरफ्तार किया जाएगा उसके चेले उसे छोड़कर भाग जाएँगे, मगर उसने उनकी वफादारी पर शक नहीं किया। (मत्ती 26:31-35; लूका 22:28-30) पतरस ने तो यीशु को जानने से तीन बार इनकार कर दिया था। फिर भी, यीशु ने पतरस के लिए यहोवा से मिन्नत की और उसकी वफादारी पर भरोसा जताया। (लूका 22:31-34) धरती पर अपनी ज़िंदगी की आखिरी रात, जब यीशु अपने पिता से प्रार्थना कर रहा था तो उसने अपने चेलों की गलतियाँ नहीं गिनायीं। इसके बजाय, उनकी अच्छाई पर ध्यान देते हुए उसने कहा: “उन्होंने तेरा वचन माना है।” (यूहन्ना 17:6) उनकी असिद्धताओं के बावजूद यीशु ने उन्हें राज का प्रचार करने और चेले बनाने का काम सौंपा। (मत्ती 28:19, 20) इसमें कोई शक नहीं कि यीशु ने अपने चेलों पर जो भरोसा और विश्वास दिखाया, उससे उन्हें अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने का हौसला मिला होगा।
19 यीशु के चेलों के पास इस मामले में उसकी मिसाल पर चलने की अच्छी वजह है। अगर परमेश्वर का बेटा सिद्ध होते हुए भी अपने असिद्ध चेलों के साथ सब्र से पेश आया, तो हम पापी इंसानों को एक-दूसरे के साथ पेश आते वक्त और भी ज़्यादा लिहाज़ दिखाने की ज़रूरत है। (फिलिप्पियों 4:5) मसीही भाई-बहनों की कमियों पर ध्यान देने के बजाय हमें उनमें अच्छाइयाँ देखनी चाहिए। हमारे लिए यह याद रखना बुद्धिमानी होगी कि उन्हें यहोवा अपने पास खींच लाया है। (यूहन्ना 6:44) उसने ज़रूर उनमें कुछ अच्छी बात देखी होगी और हमें भी ऐसा करना चाहिए। ऐसा रवैया रखने से हम उनकी खामियों को अनदेखा करेंगे। साथ ही, हम यह देखने की कोशिश करेंगे कि हम किन बातों में उनकी तारीफ कर सकते हैं। (नीतिवचन 19:11) जब हम अपने मसीही भाई-बहनों पर भरोसा दिखाते हैं, तो हम उनकी मदद कर रहे होंगे कि वे यहोवा की सेवा में अपना भरसक करें और उससे खुशी पाएँ।—1 थिस्सलुनीकियों 5:11.
20. खुशखबरी की किताबों में दिए खज़ाने का हमें क्या करना चाहिए? और क्यों?
20 यीशु की ज़िंदगी और उसकी सेवा के बारे में खुशखबरी की किताबों में दर्ज़ ब्यौरे सचमुच बुद्धि का खज़ाना है। इस अनमोल खज़ाने का हमें क्या करना चाहिए? पहाड़ी उपदेश के आखिर में यीशु ने अपने सुननेवालों को उकसाया कि वे उसकी बुद्धि-भरी बातों को सिर्फ सुनें नहीं बल्कि उस पर चलें भी। (मत्ती 7:24-27) अपनी सोच और इरादों को यीशु की बुद्धि-भरी बातों और कामों के मुताबिक ढालिए। साथ ही, उसकी बातों और कामों के अनुसार चलिए। इस तरह हम आज सबसे बेहतरीन ज़िंदगी का लुत्फ उठाएँगे और हमेशा की ज़िंदगी की ओर ले जानेवाली राह पर चलते रहेंगे। (मत्ती 7:13, 14) इससे बढ़कर बुद्धिमानी का रास्ता हो ही नहीं सकता!
a उस दिन यीशु ने जो भाषण दिया, वह पहाड़ी उपदेश के नाम से जाना गया। यह उपदेश मत्ती 5:3–7:27 में दर्ज़ है। इसमें 107 आयतें हैं और इसे देने में करीब 20 मिनट लगे होंगे।
b यीशु के बपतिस्मे पर जब “आकाश खुल गया,” तो ऐसा मालूम होता है कि उसे स्वर्ग की ज़िंदगी की सारी बातें याद आ गयीं।—मत्ती 3:13-17.
-
-
“उसने . . . आज्ञा माननी सीखी”मेरा चेला बन जा और मेरे पीछे हो ले
-
-
अध्याय 6
“उसने . . . आज्ञा माननी सीखी”
1, 2. एक पिता अपने बेटे को उसकी आज्ञा मानते देख क्यों खुश होता है? और इससे हमें यहोवा की भावनाओं के बारे में क्या पता चलता है?
एक पिता खिड़की से बाहर देखता है कि उसका नन्हा बेटा अपने दोस्तों के साथ खेल रहा है। इतने में उनकी गेंद उछलकर सड़क पर चली जाती है। बेटा टकटकी लगाए गेंद को देखता रहता है। एक दोस्त उसे सड़क से गेंद उठा लाने को कहता है। मगर वह अपना सिर हिलाते हुए बोलता है, “नहीं, मैं नहीं जा सकता।” यह सुनकर पिता मुस्कुरा देता है।
2 वह क्यों? क्योंकि उसने अपने बेटे को सड़क पर अकेले जाने से मना किया था। बेटा नहीं जानता कि उसके पापा उसे देख रहे हैं। फिर भी जब वह उनका कहना मानता है, तो पिता को तसल्ली होती है कि उसका बेटा आज्ञा मानना सीख रहा है और इसलिए वह खतरे से महफूज़ रहेगा। यह पिता अपने बेटे के बारे में बिलकुल वैसा ही महसूस करता है, जैसा स्वर्ग में रहनेवाला हमारा पिता हमारे बारे में महसूस करता है। यहोवा जानता है कि अगर हमें वफादार बने रहना है और वह सुनहरा भविष्य देखना है जो उसने हमारे लिए रखा है, तो हमें उस पर भरोसा करना सीखना होगा और उसकी आज्ञा माननी होगी। (नीतिवचन 3:5, 6) इसके लिए उसने हमारे पास दुनिया का सबसे महान शिक्षक भेजा।
3, 4. मिसाल देकर समझाइए कि यीशु ने कैसे ‘आज्ञा माननी सीखी’ और वह कैसे ‘परिपूर्ण किया’ गया।
3 बाइबल यीशु के बारे में एक हैरतअँगेज़ बात बताती है: “परमेश्वर का बेटा होते हुए भी उसने दुःख सह-सहकर आज्ञा माननी सीखी। और परिपूर्ण किए जाने के बाद, उसे उन सबको हमेशा का उद्धार दिलाने की ज़िम्मेदारी दी गयी जो उसकी आज्ञा मानते हैं।” (इब्रानियों 5:8, 9) परमेश्वर का यह पहलौठा बेटा अनगिनत युगों तक स्वर्ग में रहा। उसने शैतान और उसके बागी स्वर्गदूतों को परमेश्वर के खिलाफ जाते देखा, मगर उसने उनका साथ कभी नहीं दिया। ईश्वर प्रेरणा से लिखे भविष्यवाणी के ये शब्द यीशु पर लागू हुए: “मैं बागी . . . न हुआ।” (यशायाह 50:5, किताब-ए-मुकद्दस) लेकिन अगर यीशु पूरी तरह से आज्ञाकारी था तो इन शब्दों का क्या मतलब है कि ‘उसने आज्ञा माननी सीखी’? और सिद्ध होते हुए भी वह किस तरह ‘परिपूर्ण किया’ गया?
4 इसे समझने के लिए एक मिसाल लीजिए। एक सैनिक के पास लोहे की तलवार है। भले ही उस तलवार का युद्ध में कभी इस्तेमाल नहीं हुआ, लेकिन उसमें कोई खोट नहीं और वह बहुत अच्छी तरह बनायी गयी है। मगर वह सैनिक उस तलवार के बदले मज़बूत स्टील से बनी तलवार ले लेता है। इस तलवार से बहुत-से युद्ध लड़े गए हैं। क्या आपको नहीं लगता कि यह सौदा बुद्धि-भरा है? उसी तरह स्वर्ग में यीशु के आज्ञा मानने के गुण में कोई खोट नहीं था। मगर जब वह धरती पर आया तो उसे ऐसी आज़माइशों का सामना करना पड़ा जो वह स्वर्ग में कभी नहीं कर सकता था। ऐसे में उसका यह गुण परखा गया और स्टील से बनी तलवार की तरह और भी मज़बूत हुआ।
5. यीशु ने जिस तरह आज्ञा मानी, वह क्यों गौरतलब है? इस अध्याय में हम क्या देखेंगे?
5 धरती पर यीशु जिस मकसद से आया, उसे पूरा करने के लिए परमेश्वर की आज्ञा मानना बेहद ज़रूरी था। यीशु ने “आखिरी आदम” के नाते वह किया जो हमारे पहले माता-पिता करने में नाकाम रहे। वह है, आज़माइशों में भी यहोवा का आज्ञाकारी रहना। (1 कुरिंथियों 15:45) फिर भी, यीशु ने सिर्फ कहने भर के लिए आज्ञा नहीं मानी। उसने पूरे दिल, पूरी जान और पूरे दिमाग से यहोवा का कहा माना। और ऐसा उसने खुशी-खुशी किया। यीशु के लिए अपने पिता की मरज़ी पूरी करना खाना खाने से ज़्यादा ज़रूरी था! (यूहन्ना 4:34) क्या बात हमें यीशु की तरह आज्ञा मानने में मदद देगी? आइए सबसे पहले देखें कि यीशु ने किन वजहों से यहोवा की आज्ञा मानी। ये वजहें हमें भी गलत काम का डटकर विरोध करने और परमेश्वर की मरज़ी पर चलने में मदद देंगी। हम यह भी देखेंगे कि मसीह की तरह आज्ञा मानने से क्या आशीषें मिलती हैं।
किन वजहों से यीशु ने आज्ञा मानी?
6, 7. यीशु ने किन वजहों से यहोवा का कहा माना?
6 यीशु के अच्छे गुणों ने उसे यहोवा का कहा मानने के लिए उभारा। जैसा कि हमने अध्याय 3 में देखा, मसीह दिल से नम्र था। अकसर देखा जाता है कि घमंड की वजह से लोग आज्ञा मानने को तुच्छ समझते हैं, जबकि नम्रता का गुण होने से हम खुशी-खुशी यहोवा की आज्ञा मान पाते हैं। (निर्गमन 5:1, 2; 1 पतरस 5:5, 6) यीशु ने जिन बातों से प्यार किया और जिन बातों से नफरत, उस वजह से भी वह यहोवा की आज्ञा मान सका।
7 यीशु ने सबसे बढ़कर अपने पिता यहोवा से प्यार किया। इस प्यार के बारे में अध्याय 13 में खुलकर चर्चा की जाएगी। इस प्यार ने यीशु के अंदर परमेश्वर का डर पैदा किया। यहोवा के लिए उसका प्यार इतना ज़बरदस्त और उसकी श्रद्धा इतनी गहरी थी कि वह अपने पिता का दिल दुखाने से डरता था। परमेश्वर का डर मानने की वजह से यीशु की प्रार्थनाएँ सुनी गयीं। (इब्रानियों 5:7) यही डर मसीहाई राजा, यीशु की हुकूमत की खास पहचान होगा।—यशायाह 11:3.
मनोरंजन के मामले में आपका चुनाव क्या यह दिखाता है कि आप बुराई से नफरत करते हैं?
8, 9. भविष्यवाणी के मुताबिक यीशु ने सच्चाई और बुराई के बारे में कैसा महसूस किया? और उसने अपनी भावनाएँ कैसे ज़ाहिर कीं?
8 यहोवा से प्यार करने में यह भी शामिल है कि हम उन बातों से नफरत करें जिनसे वह नफरत करता है। मिसाल के लिए, इस भविष्यवाणी पर गौर कीजिए जो मसीहाई राजा के बारे में कही गयी थी: “तू ने धार्मिकता से प्रेम और दुष्टता से बैर किया है, इसीलिए परमेश्वर तेरे परमेश्वर ने तेरे साथियों से बढ़कर तुझे हर्ष के तेल से अभिषिक्त किया है।” (भजन 45:7, NHT) इस भविष्यवाणी के मुताबिक यीशु के ‘साथी,’ दाविद के वंश से आनेवाले दूसरे राजा थे। जब यीशु का अभिषेक किया गया, तो उसके पास उन राजाओं से बढ़कर खुशी मनाने की वजह थी। क्यों? क्योंकि यीशु को उनसे कहीं बड़ा इनाम मिलेगा और उसकी बादशाहत से बड़े पैमाने पर लोगों को फायदे पहुँचेंगे। उसे इसलिए इनाम दिया जाएगा क्योंकि सच्चाई से प्यार और बुराई से नफरत ने उसे हर बात में यहोवा की आज्ञा मानने के लिए उकसाया।
9 यीशु ने कैसे ज़ाहिर किया कि वह सच्चाई से प्यार और बुराई से नफरत करता है? जब प्रचार में उसके चेलों ने उसकी हिदायतें मानी और बदले में अच्छे नतीजे पाए, तो यीशु आनंद से भर गया। (लूका 10:1, 17, 21) दूसरी तरफ, जब यरूशलेम के लोगों ने बार-बार आज्ञा न मानने का रवैया दिखाया और यीशु की प्यार-भरी मदद ठुकरा दी, तो उसने कैसा महसूस किया? वह उनका बगावती रवैया देखकर रोने लगा। (लूका 19:41, 42) इससे पता चलता है कि अच्छे और बुरे व्यवहार का यीशु की भावनाओं पर गहरा असर होता था।
10. हमें अपने अंदर अच्छे और गलत कामों के लिए कैसी भावनाएँ पैदा करनी चाहिए? ऐसा करने में क्या बात हमारी मदद करेगी?
10 यीशु की भावनाओं पर मनन करने से हम खुद की जाँच कर पाते हैं कि हम किन वजहों से यहोवा की आज्ञा मान रहे हैं। असिद्ध होते हुए भी हम अच्छे कामों के लिए सच्चा प्यार और गलत कामों के लिए ज़बरदस्त नफरत पैदा कर सकते हैं। हमें यहोवा से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें उसके और उसके बेटे के जैसी भावनाएँ पैदा करने में मदद दे। (भजन 51:10) इसके साथ-साथ, हमें उन बातों से दूर रहना चाहिए जो हमारे अंदर इन भावनाओं को कमज़ोर कर सकती हैं। इसलिए मनोरंजन और दोस्तों का सोच-समझकर चुनाव करना ज़रूरी है। (नीतिवचन 13:20; फिलिप्पियों 4:8) अगर हम उन्हीं वजहों से यहोवा का कहा मानें जिन वजहों से यीशु ने माना था, तो आज्ञा मानना हमारे लिए महज़ दिखावा नहीं होगा। जो सही है हम वही करेंगे क्योंकि हमें ऐसा करना पसंद है। हम गलत कामों से दूर रहेंगे, इसलिए नहीं कि हमें पकड़े जाने का डर है बल्कि इसलिए कि हमें ऐसे कामों से सख्त नफरत है।
“उसने कोई पाप नहीं किया”
11, 12. (क) यीशु की सेवा की शुरूआत में उसके साथ क्या हुआ? (ख) शैतान ने यीशु को फुसलाने के लिए सबसे पहले क्या कहा? इस तरह उसने कौन-सी धूर्त चाल अपनायी?
11 यीशु को पाप से कितनी नफरत है, इस बात की परख उसकी सेवा की शुरूआत में ही हो गयी। बपतिस्मे के बाद, वह 40 दिन और 40 रात वीराने में रहा और इस दौरान उसने कुछ नहीं खाया। फिर, शैतान उसे फुसलाने आया। ध्यान दीजिए कि शैतान कितना धूर्त था।—मत्ती 4:1-11.
12 शैतान ने सबसे पहले कहा: “अगर तू सचमुच परमेश्वर का बेटा है, तो इन पत्थरों से बोल कि ये रोटियाँ बन जाएँ।” (मत्ती 4:3) इतने लंबे उपवास के बाद यीशु कैसा महसूस कर रहा था? बाइबल बताती है: “उसे भूख लगी।” (मत्ती 4:2) शैतान ने भूख जैसी स्वाभाविक इच्छा का नाजायज़ फायदा उठाया। उसने जानबूझकर उस वक्त का इंतज़ार किया जब यीशु शारीरिक रूप से कमज़ोर था। शैतान के इस ताने पर भी गौर कीजिए: “अगर तू सचमुच परमेश्वर का बेटा है।” शैतान अच्छी तरह जानता था कि यीशु “सारी सृष्टि में पहलौठा है,” फिर भी उसने यीशु को भड़काने और उसे यहोवा के खिलाफ करने के लिए ऐसा कहा। (कुलुस्सियों 1:15) मगर यीशु उसके झाँसे में नहीं आया। वह जानता था कि यह परमेश्वर की मरज़ी नहीं कि वह अपनी ताकत का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करे। यीशु ने पत्थरों को रोटियों में बदलने से इनकार कर दिया। इस तरह उसने दिखाया कि वह नम्र है और अपने खाने-पीने की ज़रूरतों और मार्गदर्शन के लिए यहोवा पर निर्भर रहता है।—मत्ती 4:4.
13-15. (क) शैतान ने कैसे दूसरी और तीसरी बार यीशु को फुसलाने की कोशिश की? और हर बार यीशु ने क्या किया? (ख) यीशु को शैतान के खिलाफ हमेशा चौकन्ना क्यों रहना था?
13 शैतान ने यीशु को दूसरी बार फुसलाने के लिए उसे मंदिर की चारदीवारी के ऊपर लाकर खड़ा किया। और उसे वहाँ से छलाँग लगाने को कहा। शैतान ने बड़ी चालाकी से शास्त्र को तोड़-मरोड़कर कहा कि अगर यीशु ऐसा करे, तो स्वर्गदूत उसे बचा लेंगे। ज़रा सोचिए, अगर मंदिर में मौजूद भीड़ यह चमत्कार देखती, तो क्या किसी की मजाल होती कि वह यीशु को वादा किया गया मसीहा मानने से इनकार कर दे? और अगर वह इस दिखावे की बिनाह पर यीशु को मसीहा कबूल कर लेती, तो क्या यीशु ढेरों तकलीफों और मुश्किलों से बच नहीं जाता? शायद ऐसा हो सकता था। मगर यीशु जानता था कि यहोवा की यही मरज़ी है कि मसीहा बिना कोई दिखावा किए अपना काम करे, न कि हैरतअँगेज़ कारनामे कर लोगों को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कायल करे। (यशायाह 42:1, 2) इस बार भी यीशु ने यहोवा की आज्ञा तोड़ने से साफ मना कर दिया। नामो-शोहरत पाने का लालच यीशु को न ललचा सका।
14 लेकिन अधिकार पाने के लालच के बारे में क्या? शैतान ने अपनी तीसरी कोशिश में यीशु के सामने इस दुनिया के तमाम राज्य देने की पेशकश रखी। और बदले में उससे कहा कि वह बस एक बार गिरकर उसकी उपासना करे। क्या यीशु ने शैतान की पेशकश के बारे में गंभीरता से सोचा? गौर कीजिए कि यीशु ने क्या जवाब दिया: “दूर हो जा शैतान! क्योंकि यह लिखा है, ‘तू सिर्फ अपने परमेश्वर यहोवा की उपासना कर और उसी की पवित्र सेवा कर।’” (मत्ती 4:10) कोई भी बात यीशु को किसी दूसरे ईश्वर की उपासना करने के लिए नहीं लुभा सकती। चाहे उसके सामने दुनिया-जहान का अधिकार रख दिया जाए, वह कभी यहोवा की आज्ञा नहीं तोड़ेगा।
15 क्या शैतान ने हार मान ली? हालाँकि यीशु के हुक्म पर उसने उसे अकेला छोड़ दिया। लेकिन लूका की खुशखबरी की किताब बताती है कि शैतान “कोई और सही मौका मिलने तक उसके पास से चला गया।” (लूका 4:13) इसमें कोई शक नहीं कि शैतान ने दूसरे मौकों पर भी उसे आज़माइश में डालने और लुभाने की कोशिश की। वह यीशु की मौत तक हाथ धोकर उसके पीछे पड़ा रहा। बाइबल बताती है कि यीशु की “सब बातों में परीक्षा हुई।” (इब्रानियों 4:15) वाकई, यीशु को शैतान के खिलाफ हमेशा चौकन्ना रहना था और हमें भी रहना चाहिए।
16. शैतान आज परमेश्वर के सेवकों को गलत काम के लिए कैसे लुभाता है? और हम उसकी चालों को कैसे नाकाम कर सकते हैं?
16 शैतान आज भी परमेश्वर के सेवकों को गलत काम करने के लिए लुभाता है। अफसोस कि हम अपनी असिद्धताओं की वजह से अकसर शैतान का आसानी से निशाना बन बैठते हैं। शैतान हमारे अंदर स्वार्थ, घमंड या अधिकार पाने की कमज़ोरी का फायदा उठाता है। यहाँ तक कि धन-दौलत का जाल बिछाकर वह एक-साथ हमारी इन तीनों कमज़ोरियों का फायदा उठाता है। इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि हम समय-समय पर ईमानदारी से खुद की जाँच करें। हमें 1 यूहन्ना 2:15-17 के शब्दों पर मनन करना चाहिए। ऐसा करते वक्त हम खुद से पूछ सकते हैं कि शरीर की ख्वाहिशें, ऐशो-आराम की चीज़ों की तमन्ना और अपनी चीज़ों का दिखावा करने की इच्छा कहीं यहोवा के लिए हमारे प्यार का गला तो नहीं घोंट रही हैं? हमें याद रखना चाहिए कि यह दुनिया अपने अंतिम कगार पर है और उसका शासक शैतान भी मिटनेवाला है। आइए हम शैतान की धूर्त चालों को नाकाम करें, जो वह हमें पाप के फंदे में फसाने के लिए चलता है। और अपने मालिक, यीशु के नक्शे-कदम पर चलें जिसने “कोई पाप नहीं किया।”—1 पतरस 2:22.
“मैं हमेशा वही करता हूँ जिससे वह खुश होता है”
17. अपने पिता का कहा मानने में यीशु कैसा महसूस करता था? मगर कुछ लोग शायद क्या कहें?
17 आज्ञा मानने में सिर्फ पाप से दूर रहना ही नहीं बल्कि यहोवा की हर बात का पालन करना भी शामिल है। मसीह ने ऐसा ही किया। उसने कहा: “मैं हमेशा वही करता हूँ जिससे वह खुश होता है।” (यूहन्ना 8:29) अपने पिता का कहा मानने से यीशु को बेइंतिहा खुशी मिली। मगर कुछ लोग शायद कहें कि यीशु के लिए आज्ञा मानना आसान था क्योंकि उसे सिर्फ यहोवा को जवाब देना था जो सिद्ध है। जबकि हमें अकसर अधिकार के पद पर बैठे ऐसे लोगों को जवाब देना पड़ता है जो असिद्ध हैं। लेकिन सच तो यह है कि यीशु अधिकार रखनेवाले असिद्ध इंसानों के भी अधीन रहा।
18. आज्ञा मानने में जवान यीशु ने क्या मिसाल रखी?
18 जब यीशु बड़ा हो रहा था, तो वह अपने असिद्ध माता-पिता यूसुफ और मरियम के अधिकार के अधीन रहा। बाकी बच्चों के मुकाबले वह अपने माता-पिता में ज़्यादा कमियाँ देख सकता था। लेकिन क्या वह उनके खिलाफ गया? क्या वह परिवार में अपनी मर्यादा भूलकर उन्हें यह सिखाने लगा कि घर कैसे चलाया जाता है? ध्यान दीजिए कि 12 साल के यीशु के बारे में लूका 2:51 क्या कहता है: “वह . . . लगातार उनके अधीन रहा।” इस तरह आज्ञा मानने में यीशु ने मसीही जवानों के लिए बहुत उम्दा मिसाल रखी। ये जवान अपने माता-पिता की आज्ञा मानने की भरसक कोशिश करते हैं और उन्हें वह आदर देते हैं जिसके वे हकदार हैं।—इफिसियों 6:1, 2.
19, 20. (क) असिद्ध इंसानों की आज्ञा मानने में यीशु ने कौन-सी चुनौतियों का सामना किया? (ख) सच्चे मसीहियों को अगुवाई लेनेवाले भाइयों की आज्ञा क्यों माननी चाहिए?
19 जब असिद्ध इंसानों की आज्ञा मानने की बात आती है, तो यीशु के सामने ऐसी चुनौतियाँ आयीं जिनका सामना आज सच्चे मसीहियों को नहीं करना पड़ता है। ध्यान दीजिए कि यीशु किस मुश्किल समय में जीया था। बरसों से यहोवा, यहूदियों की धार्मिक व्यवस्था को मंज़ूर करता आया था, जिसमें यरूशलेम में उनका मंदिर और याजकवर्ग शामिल था। लेकिन अब यहोवा उसे ठुकरानेवाला था और उसकी जगह मसीही मंडली का इंतज़ाम ठहरानेवाला था। (मत्ती 23:33-38) इस बीच कई धर्मगुरु यूनानी फलसफों से झूठी शिक्षाएँ देने लगे थे। मंदिर में भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया था कि यीशु ने उसे “लुटेरों का अड्डा” कहा। (मरकुस 11:17) मगर क्या यीशु ने मंदिर और सभा-घरों में जाना छोड़ दिया? बिलकुल नहीं! यहोवा अब भी उन इंतज़ामों का इस्तेमाल कर रहा था। और जब तक यहोवा ने उन्हें बदलने के लिए कोई कदम नहीं उठाया, तब तक यीशु सभा-घरों और त्योहारों के वक्त मंदिर में जाता रहा।—लूका 4:16; यूहन्ना 5:1.
20 अगर यीशु ने उन हालात में आज्ञा मानी, तो आज हम सच्चे मसीहियों को और भी कितना आज्ञाकारी होना चाहिए? आखिरकार, हम बहुत अलग समय में जी रहे हैं। यह वह दौर है जब भविष्यवाणी के मुताबिक सच्ची उपासना को बहाल किया गया है। परमेश्वर वादा करता है कि वह कभी शैतान को अपने बहाल किए लोगों को भ्रष्ट नहीं करने देगा। (यशायाह 2:1, 2; 54:17) माना कि मसीही मंडली में हमें पाप और असिद्धताओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन क्या हमें दूसरों की खामियाँ देखकर सभाओं में जाना बंद कर देना चाहिए या प्राचीनों की नुक्ताचीनी करनी चाहिए? हरगिज़ नहीं! इसके बजाय, हम मंडली में अगुवाई लेनेवाले भाइयों को दिल से सहयोग देते हैं। यहोवा की आज्ञा मानते हुए हम मसीही सभाओं और सम्मेलनों में हाज़िर होते हैं और वहाँ बाइबल से मिलनेवाली सलाह पर चलते हैं।—इब्रानियों 10:24, 25; 13:17.
मसीही सभाओं में हम जो सीखते हैं, उसे मानने की पूरी कोशिश करते हैं
21. जब यीशु पर इंसानों ने परमेश्वर की आज्ञा तोड़ने का दबाव डाला, तो उसने क्या किया? इस तरह उसने हमारे लिए क्या मिसाल रखी?
21 यहोवा की आज्ञा मानने में यीशु का इरादा इतना पक्का था कि उसने किसी को भी, अपने दोस्तों को भी यह इरादा कमज़ोर करने नहीं दिया। मिसाल के लिए, प्रेषित पतरस ने अपने मालिक को समझाने की कोशिश की कि उसके लिए दुख सहना और मरना ज़रूरी नहीं। भले ही पतरस ने नेक इरादे से यीशु को खुद पर दया करने की सलाह दी, मगर उसकी सलाह गलत थी। इसलिए यीशु ने सख्ती से उसकी बात ठुकरा दी। (मत्ती 16:21-23) आज मसीह के चेलों को भी अकसर ऐसे रिश्तेदारों का सामना करना पड़ता है, जो शायद उनका भला चाहने के लिए उन्हें परमेश्वर के नियमों और सिद्धांतों को मानने से रोकें। यीशु के पहली सदी के चेलों की तरह, हमारा भी यही कहना है कि “इंसानों के बजाय परमेश्वर को अपना राजा जानकर उसकी आज्ञा मानना ही हमारा कर्तव्य है।”—प्रेषितों 5:29.
मसीह के जैसे आज्ञाकारी बनने की आशीषें
22. यीशु ने किस सवाल का जवाब दिया? और कैसे?
22 शैतान ने यीशु की सबसे बड़ी परीक्षा तब ली जब उसे मौत का सामना करना पड़ा। जिस दिन यीशु ने दम तोड़ा, उस दिन उसने “आज्ञा माननी सीखी।” उसने अपने पिता की मरज़ी पूरी की, न कि अपनी। (लूका 22:42) वह इस परीक्षा में खरा उतरा और उसने हमारे लिए एक सिद्ध मिसाल कायम की। (1 तीमुथियुस 3:16) इस तरह यीशु ने उस सवाल का जवाब दिया जो शैतान ने बरसों पहले उठाया था। वह सवाल था: क्या एक सिद्ध इंसान आज़माइशों के बावजूद यहोवा का आज्ञाकारी रह सकता है? आदम और हव्वा ने तो यहोवा की आज्ञा नहीं मानी। लेकिन फिर यीशु आया और उसने अपने जीने के तरीके से दिखाया कि शैतान झूठा है। यहोवा की सबसे महान सृष्टि, यीशु दुख झेलकर और मौत सहकर भी यहोवा का आज्ञाकारी रहा।
23-25. (क) आज्ञा मानना का खराई से क्या नाता है? उदाहरण देकर समझाइए। (ख) अगले अध्याय का विषय क्या है?
23 यहोवा की आज्ञा मानने से हम दिखा रहे होंगे कि हम अपनी खराई बनाए रखते हैं यानी तन-मन से यहोवा की भक्ति करते हैं। यीशु ने यहोवा की आज्ञा मानी, इसलिए वह अपनी खराई बनाए रख सका और पूरी मानवजाति को फायदा पहुँचा सका। (रोमियों 5:19) यहोवा ने यीशु को बेशुमार आशीषें दीं। अगर हम भी अपने मालिक यीशु का कहा मानें, तो यहोवा हमें भी ढेरों आशीषें देगा। मसीह की आज्ञा मानने से हमें “हमेशा का उद्धार” मिलेगा।—इब्रानियों 5:9.
24 इसके अलावा, खराई बनाए रखना अपने-आप में एक आशीष है। नीतिवचन 10:9 कहता है: “जो खराई से चलता है वह निडर चलता है।” अगर खराई की तुलना एक आलीशान घर से की जाए, तो हर मामले में आज्ञा मानने की तुलना उस घर की एक-एक ईंट से की जा सकती है। हमें शायद लगे कि एक अकेली ईंट का कोई मोल नहीं, लेकिन एक-एक ईंट को जोड़कर ही पूरा घर बनता है। उसी तरह, जब हम दिन-ब-दिन और साल-दर-साल आज्ञाकारी रहते हैं, तो हम मानो अपनी खराई का खूबसूरत घर खड़ा कर रहे हैं।
25 लंबे समय तक आज्ञा मानते रहने में एक और गुण शामिल है। और वह है, धीरज का गुण। यीशु की ज़िंदगी का यह पहलू हमारे अगले अध्याय का विषय है।
-