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“मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य”प्रहरीदुर्ग—1997 | फरवरी 15
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१३. (क) प्रमुखता और अधिकार के पीछे भागने के बारे में उचित दृष्टिकोण रखने में कैसे सभोपदेशक ९:४, ५ हमारी मदद करता है? (ख) यदि यही जीवन सब कुछ है तो कौन-सी सच्चाइयों का हमें सामना करना चाहिए? (फुटनोट देखिए।)
१३ ऐसी प्रमुखता या प्रभुत्व का आगे चलकर क्या होता है? जैसे एक पीढ़ी जाती है और दूसरी आती है, प्रमुख या शक्तिशाली लोग मिट जाते हैं और भुला दिए जाते हैं। यह भवन-निर्माताओं, संगीतकार और अन्य कलाकारों, समाज सुधारकों, इत्यादि के बारे में उतना ही सच है जितना अधिकांश राजनितिज्ञों और सेना नायकों के बारे में। इन ‘कामों’ को करनेवाले, आप कितने ख़ास लोगों को जानते हैं जो वर्ष १७०० और १८०० के बीच जीवित थे? सुलैमान ने सही ढंग से मामलों का विश्लेषण किया, उसने कहा: “जीवता कुत्ता मरे हुए सिंह से बढ़कर है। क्योंकि जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, . . . उनका स्मरण मिट गया है।” (सभोपदेशक ९:४, ५) और यदि यही जीवन सब कुछ है तो प्रमुखता या अधिकार पाने के पीछे भागना वाक़ई व्यर्थ है।a
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“मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य”प्रहरीदुर्ग—1997 | फरवरी 15
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a प्रहरीदुर्ग (अंग्रेज़ी) ने एक बार यह अन्तर्दृष्टि-भरी टिप्पणी की थी: “हमें यह जीवन व्यर्थ बातों में गँवाना नहीं चाहिए . . . यदि यही जीवन सब कुछ है, तो कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं। यह जीवन उस गेंद के समान है जिसे हवा में फेंका जाता है और जल्द ही वह मिट्टी में दोबारा गिर जाती है। यह एक भागती छाया, एक मुर्झाता फूल, ऐसी घास का एक तिनका है जो कटने और जल्दी सूखने पर हो। . . . अनन्तता के पैमाने पर हमारा जीवन काल एक नगण्य कण के समान है। समय की धारा में यह एक पूरी बूँद भी नहीं है। निश्चित रूप से [सुलैमान] सही है जब वह अनेक मानव चिन्ताओं और गतिविधियों पर पुनर्विचार करता है और उन्हें व्यर्थ घोषित करता है। हम इतनी जल्दी चले जाते हैं कि आए ही न होते तो अच्छा था, आने और जानेवाले अरबों में से एक, और इतने थोड़े लोग ही जानते हैं कि हम कभी यहाँ पर थे भी। यह दृष्टिकोण निन्दक या निराशाजनक या रूखा अथवा विकृत नहीं है। यह एक सच्चाई है, वास्तविकता, एक व्यावहारिक दृष्टिकोण, यदि यही जीवन सब कुछ है।”—अगस्त १, १९५७, पृष्ठ ४७२.
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