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वचन पर चलनेवाले बनो, केवल सुननेवाले नहींप्रहरीदुर्ग—1991 | नवंबर 1
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३. इसके बाद पर्वत के उपदेश में यीशु दोष लगाने के बारे में कौनसा आदेश देता है?
३ जैसे-जैसे यीशु अपने पर्वत के उपदेश को जारी रखता है, और भी बातें जमा हो गयीं, जिनका अनुपालन करने के लिए मसीहियों को यत्न करना चाहिए। प्रस्तुत है एक बात जो सरल तो लगती है, परन्तु एक ऐसी प्रवृत्ति को ग़लत ठहराती है, जिस से पीछा छुड़ाना बहुत ही मुश्किल है: “दोष मत लगाओ, कि तुम पर भी दोष न लगाया जाए। क्योंकि जिस प्रकार तुम दोष लगाते हो, उसी प्रकार तुम पर भी दोष लगाया जाएगा; और जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जाएगा। तू क्यों अपने भाई की आँख के तिनके को देखता है, और अपनी आँख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता? और जब तेरी ही आँख में लट्ठा है, तो तू अपने भाई से क्योंकर कह सकता है, कि ला, मैं तेरी आँख से तिनका निकाल दूँ। हे कपटी, पहले अपनी आँख में से लट्ठा निकाल ले, तब तू अपने भाई की आँख का तिनका भली भाँति देखकर निकाल सकेगा।”—मत्ती ७:१-५.
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वचन पर चलनेवाले बनो, केवल सुननेवाले नहींप्रहरीदुर्ग—1991 | नवंबर 1
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५. अपनी कमियों को देखने से दूसरों में कमियाँ देखना ज़्यादा आसान क्यों है?
५ सामान्य युग की पहली सदी में, मौखिक परंपराओं की वजह से, आम तौर से फ़रीसी दूसरों पर कठोरता से दोष लगाने के लिए प्रवृत्त थे। यीशु के सुननेवालों में जिस किसी को ऐसा करने की आदत थी, उन्हें यह रोक देना था। दूसरों की आँख के तिनके को देखना अपनी आँख का लट्ठा देखने से कितना ज़्यादा आसान है—और उस से कहीं ज़्यादा हमारे अहम् को आश्वासन देता है! जैसे एक आदमी ने कहा, “मुझे दूसरों की नुक़ताचीनी करना बेहद पसन्द है इसलिए कि इससे मूझे अच्छा लगता है!” आदतन दूसरों की निन्दा करने से शायद हमें ऐसे सद्गुण का अहसास मिले, जो अपनी उन ग़लतियों को बराबर कर देती हैं, जिनको हम छिपाना चाहते हैं। लेकिन अगर सुधार की ज़रूरत हो, तो इसे नम्रता की आत्मा में दिया जाना चाहिए। सुधार देनेवाले को हमेशा ही खुद अपनी कमियों का अहसास होना चाहिए।—गलतियों ६:१.
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वचन पर चलनेवाले बनो, केवल सुननेवाले नहींप्रहरीदुर्ग—1991 | नवंबर 1
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६. जब आवश्यक हो, तब हमारे न्याय किस बुनियाद पर किए जाने चाहिए, और हमें कौनसी सहायता खोजनी चाहिए ताकि ज़्यादा नुक़ताचीनी न करें?
६ यीशु जगत को दोषी ठहराने के लिए नहीं, बल्कि उसका उद्धार करने के लिए आया। उसने जब भी न्याय किया, वह उसका न था पर उन शब्दों पर आधारित न्याय था, जो परमेश्वर ने उसे कहने के लिए दिए थे। (यूहन्ना १२:४७-५०) हम जब भी न्याय करते हैं, इसे भी यहोवा के वचन के अनुरूप होना चाहिए। हमें आधिकारिक रूप से न्याय करने की मानवीय प्रवृत्ति को कुचल डालना चाहिए। ऐसा करने में, हमें लगातार यहोवा की मदद के लिए प्रार्थना करनी चाहिए: “माँगते रहो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ते रहो, तो तुम पाओगे; खटखटाते रहो, तो तुम्हारे लिए खोल दिया जाएगा। क्योंकि जो कोई माँगते रहता है, उसे मिलता है; और जो ढूँढ़ते रहता है, वह पाता है; और जो खटखटाते रहता है, उसके लिए खोला जाएगा।” (मत्ती ७:७, ८, न्यू.व.) यीशु ने भी कहा: “मैं अपने आप से कुछ नहीं कर सकता; जैसा सुनता हूँ, वैसा न्याय करता हूँ, और मेरा न्याय सच्चा है; क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, परन्तु अपने भेजनेवाले की इच्छा चाहता हूँ।”—यूहन्ना ५:३०.
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