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  • तनाव से राहत पाने का कारगर उपाय
    प्रहरीदुर्ग—2001 | दिसंबर 15
    • जूआ उठाना

      9, 10. पुराने ज़माने में जूआ किस बात की निशानी था और यीशु ने लोगों को उसका जूआ उठाने का बुलावा क्यों दिया?

      9 क्या आपने गौर किया कि मत्ती 11:28,29 में यीशु ने यह भी कहा था: “मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो।” उस ज़माने में आम इंसान की ज़िंदगी इतनी बोझिल थी कि उसे हर वक्‍त ऐसा लगता था मानो वह जूआ उठाए हुए है। प्राचीन समय से ही जूआ, गुलामी या दासत्व की निशानी रहा है। (उत्पत्ति 27:40; लैव्यव्यवस्था 26:13; व्यवस्थाविवरण 28:48) यीशु की मुलाकात जिन मज़दूरों से हुई उनमें से ज़्यादातर लोग अपने कंधों पर जूआ रखकर भारी बोझ ढोते थे। कुछ जूए आरामदायक होते थे, जबकि कुछ जूओं से गर्दन और कंधे छिल जाते थे। यीशु खुद एक बढ़ई था, इसलिए उसने भी जूए बनाए होंगे और वह शायद जानता था कि जूए को कैसा आकार देने से उसे उठाना “सहज” हो जाता है। साथ ही जूए को ज़्यादा-से-ज़्यादा आरामदायक बनाने के लिए वह उस हिस्से पर कपड़ा या चमड़ा भी लगाता होगा जिसे गर्दन और कंधे पर रखा जाता था।

      10 “मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो” यह कहकर यीशु, शायद अपनी तुलना एक ऐसे आदमी से कर रहा था जो बढ़िया किस्म के जूए बनाता है और जिन्हें उठाने पर एक मज़दूर की गर्दन और कंधों को “सहज” महसूस होता। इसीलिए यीशु ने आगे कहा: “मेरा बोझ हलका है।” यह दिखाता है कि यीशु के जूए का डंडा कष्टदायक नहीं था, ना ही उसके नीचे काम करनेवालों के साथ गुलामों की तरह सलूक किया जाता। बेशक, यीशु ने लोगों से यह वादा नहीं किया था कि अगर वे उसका जूआ उठाएँगे, तो उन्हें उस ज़माने में हर तरह के ज़ुल्म से फौरन छुटकारा मिल जाएगा। लेकिन उसने लोगों को जो नज़रिया रखने की शिक्षा दी, उसे मानने से काफी हद तक उनके मन को विश्राम मिल सकता था। अपनी ज़िंदगी में और काम करने के तौर-तरीकों में बदलाव लाना भी उन्हें काफी राहत दे सकता था। लेकिन सबसे अहम बात यह थी कि भविष्य के बारे में यीशु ने जो सच्ची और पक्की आशा दी, उससे उन्हें ज़िंदगी का तनाव कम करने में मदद मिल सकती थी।

      आप भी विश्राम पा सकते हैं

      11. यह क्यों कहा जा सकता है कि यीशु, सिर्फ जूओं की अदला-बदली करने की बात नहीं कर रहा था?

      11 गौर करनेवाली बात है, यीशु यह नहीं कह रहा था कि लोग उसका जूआ लेकर अपना पिछला जूआ उतारकर फेंक सकते हैं। उसका जूआ उठाने के बाद भी उन पर रोमी सरकार की हुकूमत चलती रहती, जैसे आज के मसीहियों पर भी उनके देश की सरकारों की हुकूमत चलती है। पहली सदी के उन लोगों से रोमी सरकार, कर वसूल करना जारी रखती। बीमारियाँ और आर्थिक समस्याएँ बनी रहतीं। साथ ही, असिद्धता और पाप भी उनको पीड़ित करना नहीं छोड़ते। लेकिन अगर वे यीशु की शिक्षाओं को मानते, तो इन सारी समस्याओं के बावजूद वे विश्राम पा सकते थे और आज हम भी पा सकते हैं।

      12, 13. यीशु के मुताबिक किस काम को ज़िंदगी में पहला स्थान देने पर विश्राम मिलता और उसकी बात सुनकर कुछ लोगों ने क्या किया?

      12 यह ज़ाहिर हो गया था कि यीशु ने जूए का जो दृष्टांत बताया वह चेले बनाने के काम पर खास तरह से लागू होता है। इस बात में कोई शक नहीं कि यीशु का खास काम दूसरों को सिखाना था और उसने परमेश्‍वर के राज्य पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया। (मत्ती 4:23) इसलिए जब वह कह रहा था कि “मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो” तो इसका यह मतलब भी था कि यीशु का जूआ उठानेवालों को उसकी मिसाल पर चलते हुए दूसरों को सिखाने का काम करना था। सुसमाचार की किताबें दिखाती हैं कि यीशु ने कई नेक दिल आदमियों को अपना पेशा बदलने के लिए प्रेरित किया, जिनमें से ज़्यादातर की ज़िंदगी में उनका पेशा ही सबसे बड़ी चिंता रहती थी। याद कीजिए कि उसने पतरस, अन्द्रियास, याकूब और यूहन्‍ना को क्या बुलावा दिया: “मेरे पीछे चले आओ; मैं तुम को मनुष्यों के मछुवे बनाऊंगा।” (मरकुस 1:16-20) यीशु ने उन मछुआरों को दिखाया कि अगर वे भी उसकी तरह सिखाने के काम को ज़िंदगी में पहला स्थान देंगे और उसकी हिदायतों पर चलते हुए और उसकी मदद से यह काम करेंगे, तो उन्हें कितना आनंद मिलेगा।

      13 यीशु की बात सुननेवाले कुछ यहूदी समझ गए कि उन्हें क्या करना है और फिर उन्होंने ऐसा ही किया। मिसाल के लिए, लूका 5:1-11 में बताए गए दृश्‍य की कल्पना कीजिए जो समुद्र किनारे घटी थी। चार मछुए रात भर कठिन परिश्रम करते हैं, मगर उनके हाथ कुछ नहीं लगता। लेकिन फिर अचानक वे देखते हैं कि उनके जाल में ढेरों मछलियाँ फँस गयी हैं! यह सब अपने आप नहीं हुआ बल्कि इसके पीछे यीशु का हाथ है। फिर इन मछुओं ने देखा कि समुद्र के किनारे लोगों की एक भीड़ है जिसे यीशु की शिक्षाएँ सुनने में गहरी दिलचस्पी थी। तब उन चारों मछुओं को यीशु की इस बात का मतलब समझ आ गया: ‘अब से तुम मनुष्यों को जीवता पकड़ा करोगे।’ तब उन्होंने क्या किया? “वे नावों को किनारे पर ले आए और सब कुछ छोड़कर उसके पीछे हो लिए।”

      14. (क) आज हम विश्राम कैसे पा सकते हैं? (ख) यीशु ने आनंद देनेवाला कौन-सा सुसमाचार सुनाया था?

      14 आप भी चाहें तो यीशु के चेलों जैसा नज़रिया दिखा सकते हैं। लोगों को बाइबल की सच्चाई सिखाने का काम आज भी किया जा रहा है। आज संसार भर में करीब 60 लाख यहोवा के साक्षी यह काम कर रहे हैं। उन्होंने यीशु का न्यौता स्वीकार करके “[उसका] जूआ अपने ऊपर उठा” लिया है और वे “मनुष्यों के पकड़नेवाले” बन गए हैं। (मत्ती 4:19) उनमें से कुछ पूरा समय यह काम करते हैं जबकि बाकी लोग जितना हो सके, उतना करते हैं। उन सभी को इस काम से विश्राम मिलता है इसलिए वे अपनी ज़िंदगी में कम तनाव महसूस करते हैं। लोगों को खुशखबरी यानी “राज्य का सुसमाचार” सुनाना ऐसा काम है जिससे उन्हें बहुत आनंद मिलता है। (मत्ती 4:23) किसी को खुशखबरी सुनाना हमेशा बड़े आनंद की बात होती है और राज्य की खुशखबरी सुनाने में तो खास आनंद मिलता है। बाइबल में वह बुनियादी जानकारी पायी जाती है जिसकी मदद से हम दूसरों को भी यकीन दिला सकते हैं कि उनकी ज़िंदगी में तनाव कम हो सकता है।—2 तीमुथियुस 3:16,17.

      15. ज़िंदगी के बारे में यीशु की शिक्षाओं से लाभ पाने के लिए आपको क्या करना होगा?

      15 यहाँ तक कि जिन लोगों ने हाल ही में परमेश्‍वर के राज्य के बारे में सीखना शुरू किया है, उन्होंने भी ज़िंदगी से जुड़ी यीशु की शिक्षाओं से काफी लाभ पाया है। आज कई लोग इस बात की गवाही दे सकते हैं कि इन शिक्षाओं की मदद से कैसे उन्हें सचमुच विश्राम मिला है और कैसे उनकी ज़िंदगी की कायापलट हुई है। अगर आप बाइबल में और खासकर मत्ती, मरकुस और लूका की किताबों में दी गयी यीशु की जीवनी और सेवकाई का ब्यौरा पढ़ेंगे और उनमें बताए गए जीने के उसूलों की खुद जाँच करेंगे, तो आप भी इसी नतीजे पर पहुँच सकते हैं।

      विश्राम पाने का उपाय

      16, 17. (क) यीशु की कुछ खास शिक्षाएँ आप कहाँ पा सकते हैं? (ख) यीशु की शिक्षाओं पर अमल करने और विश्राम पाने के लिए क्या करने की ज़रूरत है?

      16 सामान्य युग 31 के वसंत में यीशु ने एक ऐसा भाषण दिया, जो आज तक संसार भर में मशहूर है। यह आम तौर पर पहाड़ी उपदेश के नाम से जाना जाता है। इसे मत्ती के 5 से 7वें अध्याय और लूका के 6ठे अध्याय में दर्ज़ किया गया है और यह यीशु की बहुत-सी शिक्षाओं का निचोड़ है। यीशु की बाकी शिक्षाओं के बारे में आप सुसमाचार की किताबों के दूसरे अध्यायों में पढ़ सकते हैं। उसकी ज़्यादातर शिक्षाओं को समझना बहुत आसान है, मगर हाँ उन पर चलना ज़रा मुश्‍किल हो सकता है। क्यों न आप उन अध्यायों को ध्यान से पढ़ें और उन पर गहराई से सोचें? ऐसा करने से यीशु की शिक्षाओं का आपके सोच-विचार और नज़रिए पर असर पड़ेगा।

      17 वैसे तो यीशु की शिक्षाओं को कई समूहों में बाँटा जा सकता है लेकिन आइए हम उसकी खास शिक्षाओं को एक समूह में इस तरह रखें, ताकि हम महीने के हर दिन किसी एक शिक्षा पर अमल करने की कोशिश कर पाएँ। यह कैसे किया जा सकता है? उन पर सरसरी नज़र डालकर आगे मत बढ़ जाइए। उस धनवान सरदार को याद कीजिए जिसने यीशु मसीह से यह सवाल किया था: “अनन्तजीवन का अधिकारी होने के लिये मैं क्या करूं?” जवाब में जब यीशु ने बताया कि उसे परमेश्‍वर की व्यवस्था के किन खास नियमों का पालन करना है, तो इस पर उसने जवाब दिया कि वह इन नियमों को पहले से मानता आया है। फिर भी उसे यह एहसास था कि उसे और भी कुछ करने की ज़रूरत है। यीशु ने बताया कि उसे परमेश्‍वर के सिद्धांतों पर चलने की और भी जी-तोड़ कोशिश करनी है यानी यीशु का चेला बनना है। लेकिन वह आदमी इस हद तक जाने को तैयार नहीं था। (लूका 18:18-23) इसलिए आज जो लोग यीशु से सीखना चाहते हैं, उन्हें याद रखने की ज़रूरत है कि यीशु की शिक्षाओं से सहमत होना एक बात है मगर पूरे जोश के साथ उन पर सचमुच अमल करना दूसरी बात है। लेकिन अमल करना ही तनाव दूर करने का राज़ है।

      18. उदाहरण देकर समझाइए कि आप बक्स में दी गयी सलाह पर चलकर कैसे लाभ पा सकते हैं?

      18 यीशु की शिक्षाओं की जाँच करने और उन पर अमल करने के लिए, सबसे पहले इस लेख के साथ दिए गए बक्स में मुद्दा 1 देखिए। यह मत्ती 5:3-9 का हवाला देता है। देखा जाए तो हममें से हरेक जन इन आयतों में दी गयी बढ़िया सलाह पर गहराई से सोचने के लिए काफी वक्‍त बिता सकता है। मोटे तौर पर, आपकी राय में ये सारी आयतें कैसा नज़रिया पैदा करने का बढ़ावा देती हैं? अगर आप सचमुच भारी तनाव से राहत पाना चाहते हैं तो कौन-सी बात आपकी मदद कर सकती है? आध्यात्मिक बातों पर ज़्यादा ध्यान देने और हमेशा उन्हीं से अपने दिमाग को भरने से आपके हालात और बेहतर कैसे हो सकते हैं? क्या ऐसी कोई बात है, जिसकी चिंता में हमेशा डूबने के बजाय, आपको आध्यात्मिक बातों पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है? अगर आप इन सलाहों पर अमल करेंगे, तो आपकी खुशी बढ़ सकती है।

      19. और भी गहरी समझ हासिल करने के लिए आप क्या कर सकते हैं?

      19 ऐसी जाँच करने के बाद, आप एक और कदम उठा सकते हैं। क्यों न इन आयतों के बारे में किसी और मसीही के साथ चर्चा करें? आप अपने जीवन-साथी, किसी नज़दीकी रिश्‍तेदार, दोस्त या किसी भाई या बहन के साथ चर्चा कर सकते हैं। (नीतिवचन 18:24; 20:5) याद कीजिए कि उस धनवान सरदार ने ज़िंदगी के एक अहम सवाल का जवाब पाने के लिए दूसरे व्यक्‍ति से यानी यीशु से पूछा था। अगर उसने यीशु के जवाब के मुताबिक काम किया होता, तो उसे आगे चलकर बहुत-सी खुशियाँ और हमेशा की ज़िंदगी भी मिल सकती थी। यह सच है कि आप उन आयतों के बारे में जिस भाई या बहन से चर्चा करेंगे, वह ठीक यीशु के जैसे विचार नहीं बता सकता। मगर फिर भी यीशु की शिक्षाओं के बारे में आपस में चर्चा करने से आप दोनों को लाभ होगा। इसलिए जल्द-से-जल्द ऐसी चर्चा करने की कोशिश कीजिए।

      20, 21. यीशु की शिक्षाओं के बारे में सीखने के लिए आप किस कार्यक्रम का पालन कर सकते हैं और आप अपनी तरक्की का जायज़ा कैसे ले सकते हैं?

      20 “आपकी मदद करनेवाली शिक्षाएँ,” इस बक्स पर दोबारा नज़र डालिए। इन शिक्षाओं को अलग-अलग समूहों में ऐसे बाँटा गया है ताकि आप दिन में कम-से-कम एक शिक्षा पर अमल कर सकें। सबसे पहले आप उन आयतों को पढ़कर देखिए कि उनमें यीशु ने क्या कहा। फिर उसके शब्दों पर सोचिए। इसके बाद मनन कीजिए कि आप उन आयतों को अपनी ज़िंदगी में कैसे लागू कर सकते हैं। अगर आपको लगता है कि आप उन्हें पहले से लागू कर रहे हैं, तो गहराई से सोचिए कि आप परमेश्‍वर की उस शिक्षा पर और अच्छी तरह चलने के लिए क्या कर सकते हैं। उस सलाह को पूरे दिन के दौरान लागू करने की कोशिश कीजिए। अगर आपको उसे समझना बहुत मुश्‍किल लगता है या आप नहीं देख पाते कि उसे कैसे अमल करना चाहिए तो अगले दिन भी उसी पर मनन कीजिए। लेकिन याद रखिए कि दूसरी शिक्षा की तरफ बढ़ने के लिए आपको पहली शिक्षा पर चलने में महारत हासिल कर लेने की ज़रूरत नहीं है। इसलिए अगले दिन दूसरी शिक्षा पर गौर कीजिए। और हफ्ते के आखिर में, आप एक बार सोच सकते हैं कि आप यीशु की चार या पाँच शिक्षाओं पर चलने में कितने कामयाब हुए हैं। ऐसे ही दूसरे हफ्ते में भी, हर दिन एक-एक शिक्षा पर अमल कीजिए। अगर आप किसी शिक्षा पर चलने में चूक जाते हैं, तो निराश मत होइए। ऐसा हर मसीही के साथ होता है। (2 इतिहास 6:36; भजन 130:3; सभोपदेशक 7:20; याकूब 3:8) फिर तीसरे और चौथे हफ्ते भी ऐसा करना जारी रखिए।

      21 एक महीने के बीतने पर या उसके आस-पास, आप बक्स में दिए गए सभी 31 मुद्दों पर अमल कर चुके होंगे। अगर आप सभी मुद्दों पर अमल नहीं कर पाते हैं, तो भी आप कैसा महसूस करेंगे? क्या आप पहले से ज़्यादा खुश और शांत महसूस नहीं करेंगे? अगर आपकी हालत में ज़्यादा सुधार न आए, तो भी आप ज़रूर पहले से कम तनाव महसूस करेंगे, या कम-से-कम तनाव पर काबू पाने में पहले से ज़्यादा काबिल होंगे और आप ऐसी कोशिश जारी रखने का तरीका सीख चुके होंगे। याद रखिए कि यीशु की शिक्षाओं में ऐसे और भी बहुत-से बढ़िया मुद्दे हैं, जो इस बक्स में नहीं दिए गए हैं। क्यों न उनकी भी जाँच करने और उन पर अमल करने की कोशिश करें?—फिलिप्पियों 3:16.

      22. यीशु की शिक्षाओं पर अमल करने का क्या नतीजा हो सकता है, लेकिन और कौन-सी बात ध्यान दिए जाने के लायक है?

      22 आप देख सकते हैं कि यीशु का जूआ वज़नदार होने के बावजूद वाकई सहज है। उसकी शिक्षाओं को मानने और उसका शिष्य होने का भार हलका है। यीशु का जूआ उठाने में 60 साल का तजुर्बा रखनेवाला उसका गहरा दोस्त, प्रेरित यूहन्‍ना इस नतीजे पर पहुँचा था: “परमेश्‍वर का प्रेम यह है, कि हम उस की आज्ञाओं को मानें; और उस की आज्ञाएं कठिन नहीं।” (1 यूहन्‍ना 5:3) आप भी यही यकीन रख सकते हैं। आप यीशु की शिक्षाओं पर जितना ज़्यादा अमल करेंगे, उतना ही आप पाएँगे कि जिन समस्याओं को लेकर दूसरे लोग भारी तनाव महसूस करते हैं, वे आपके लिए इतनी चिंता का कारण नहीं हैं। आप पाएँगे कि आपने काफी हद तक तनाव से राहत पा ली है। (भजन 34:8) लेकिन, यीशु के सहज जूए से ताल्लुक रखनेवाली एक और बात है जिस पर आपको ध्यान देने की ज़रूरत है। यीशु ने जूए का ज़िक्र करते वक्‍त यह भी कहा था: “मैं नम्र और मन में दीन हूं।” यीशु से सीखने और उसके आदर्श पर चलने में इस बात की क्या अहमियत है? इस बारे में हम अगले लेख में चर्चा करेंगे।—मत्ती 11:29.

  • “मुझ से सीखो”
    प्रहरीदुर्ग—2001 | दिसंबर 15
    • “मुझ से सीखो”

      “मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे।”—मत्ती 11:29.

      1. यीशु से सीखने पर हमारी ज़िंदगी खुशियों और आशीषों से कैसे भर सकती है?

      यीशु मसीह के सोच-विचार, उसकी शिक्षाएँ और उसके काम करने का तरीका हमेशा सही था। वह धरती पर बहुत कम साल जीया मगर इस दौरान उसने ऐसा काम किया जिससे उसे संतुष्टि और बहुत-सी आशीषें मिलीं और वह हमेशा खुश रहता था। उसने कुछ चेले इकट्ठे किए और उनको परमेश्‍वर की उपासना करना, इंसानों से प्यार करना और संसार पर जीत हासिल करना सिखाया। (यूहन्‍ना 16:33) यीशु ने उनके दिलों में आशा जगायी और “सुसमाचार के द्वारा जीवन और अमरता पर प्रकाश डाला।” (2 तीमुथियुस 1:10, NHT) अगर आप भी खुद को उसका एक चेला मानते हैं, तो आपकी राय में चेला होने का मतलब क्या है? यीशु ने चेलों के बारे में क्या कहा था, इस पर ध्यान देने से हम सीख सकते हैं कि हम अपनी ज़िंदगी से कैसे खुशी और संतुष्टि पा सकते हैं। इसमें यीशु का नज़रिया अपनाना और कुछ बुनियादी उसूलों पर चलना शामिल है।—मत्ती 10:24,25; लूका 14:26,27; यूहन्‍ना 8:31,32; 13:35; 15:8.

      2, 3. (क) यीशु का चेला होने का मतलब क्या है? (ख) हमें खुद से यह पूछना क्यों ज़रूरी है कि ‘मैं किसका चेला हूँ?’

      2 मसीही यूनानी शास्त्र में जिस शब्द का अनुवाद “चेला” किया गया है उसका दरअसल मतलब है, किसी बात पर अपना दिमाग लगानेवाला या सीखनेवाला। इसी से जुड़े एक और शब्द को हम अपने मूल पाठ, मत्ती 11:29 में पाते हैं जहाँ लिखा है: “मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे।” (तिरछे टाइप हमारे।) जी हाँ, चेला वह होता है जो किसी से सीखता है। सुसमाचार की किताबों में शब्द “चेला” अकसर यीशु के करीबी अनुयायियों के लिए इस्तेमाल किया गया है, जो उसके साथ प्रचार के दौरे में निकलते थे और जिनको वह सिखाता था। कुछ लोगों ने यीशु की शिक्षाओं पर सिर्फ विश्‍वास किया होगा, वह भी गुप्त रूप से। (लूका 6:17; यूहन्‍ना 19:38) सुसमाचार के लेखक बताते हैं कि कुछ लोग ‘यूहन्‍ना [बपतिस्मा देनेवाले] और फरीसियों के चेले’ थे। (मरकुस 2:18) और यीशु ने अपने चेलों को ‘फरीसियों की शिक्षा से चौकस’ रहने की चेतावनी दी थी, इसलिए हम खुद से पूछ सकते हैं कि ‘मैं किसका चेला हूँ?’—मत्ती 16:12.

      3 अगर हमने यीशु की शिक्षा पायी है और हम उसके चेले हैं, तो हमारी संगति से दूसरों को आध्यात्मिक विश्राम मिलना चाहिए। उनको यह फर्क साफ मालूम होना चाहिए कि अब हम पहले से भी ज़्यादा नम्र और मन में दीन हैं। अगर हम नौकरी की जगह किसी ऊँची पदवी पर हैं, माता-पिता हैं या मसीही कलीसिया में हमें रखवाली करने की ज़िम्मेदारियाँ मिली हैं, तो क्या जिन लोगों पर हमें अधिकार सौंपा गया है, उन्हें महसूस होता है कि हम उनके साथ वैसे ही पेश आते हैं जैसा यीशु दूसरों के साथ पेश आता था?

      यीशु, लोगों के साथ कैसे पेश आया

      4, 5. (क) यह जानना मुश्‍किल क्यों नहीं है कि यीशु, समस्याओं से जूझ रहे लोगों के साथ कैसे पेश आता था? (ख) जब यीशु एक फरीसी के घर भोजन कर रहा था, तब उसके साथ क्या घटना घटी?

      4 हमें यह जानने की ज़रूरत है कि यीशु, लोगों के साथ कैसे पेश आता था, खासकर उन लोगों के साथ जो गंभीर समस्याओं से जूझ रहे थे। यह जानना बहुत मुश्‍किल नहीं है क्योंकि बाइबल में इससे जुड़ी कई घटनाओं का ब्यौरा दिया गया है। यह कुछ ऐसे दुःखी लोगों के बारे में भी बताती है जिनकी यीशु से मुलाकात हुई थी। आइए देखें कि यीशु उनके साथ कैसे पेश आया और फिर यह भी गौर करें कि धर्म-गुरु और खासकर फरीसी उन्हें किस नज़र से देखते थे। यीशु और उन फरीसियों के बीच फर्क देखकर हम काफी कुछ सीख सकते हैं।

      5 सामान्य युग 31 में जब यीशु, गलील में प्रचार के दौरे पर गया, तब “किसी फरीसी ने उस से बिनती की, कि मेरे साथ भोजन कर।” यीशु ने बिना किसी हिचकिचाहट के उसका न्यौता स्वीकार किया। “सो वह उस फरीसी के घर में जाकर भोजन करने बैठा। और देखो, उस नगर की एक पापिनी स्त्री यह जानकर कि वह फरीसी के घर में भोजन करने बैठा है, संगमरमर के पात्र में इत्र लाई। और उसके पांवों के पास, पीछे खड़ी होकर, रोती हुई, उसके पांवों को आंसुओं से भिगाने और अपने सिर के बालों से पोंछने लगी और उसके पांव बार बार चूमकर उन पर इत्र मला।”—लूका 7:36-38.

      6. वह स्त्री जो “पापिनी” थी, फरीसी के घर कैसे आयी होगी?

      6 क्या आप अपने मन में इस दृश्‍य की कल्पना कर सकते हैं? इस बारे में एक किताब दावा करती है: “उस स्त्री (आयत 37) ने समाज के उन दस्तूरों का फायदा उठाया जिनके तहत गरीबों को ऐसे दावतों में आकर बचा हुआ खाना ले जाने की इजाज़त थी।” इससे हमें पता चलता है कि लोग बिन बुलाए भी दावतों में कैसे आ सकते थे। फरीसी के घर शायद और भी ऐसे लोग थे जो दावत खत्म होने पर बचा-खुचा खाना इकट्ठा करने के इरादे से आए होंगे। मगर उस स्त्री का व्यवहार कुछ अलग था। वह बाकी लोगों की तरह भोज खत्म होने की ताक में नहीं थी। दरअसल वह एक “पापिनी” या बहुत बदनाम स्त्री थी, तभी तो यीशु ने कहा कि वह उसके ‘बहुत पापों’ के बारे में जानता था।—लूका 7:47.

      7, 8. (क) अगर हम लूका 7:36-38 में बतायी गयी घटना के समय मौजूद होते, तो शायद कैसा रवैया दिखाते? (ख) शमौन ने कैसा रवैया दिखाया?

      7 मान लीजिए, आप उस ज़माने में जी रहे थे और यीशु की जगह आप थे। जब वह स्त्री आपके पास आती, तब आपको कैसा लगता? क्या आप उलझन में पड़ जाते? ऐसे हालात का आप पर क्या असर होता? (लूका 7:45) क्या आप भौचक्के रह जाते या घबरा जाते?

      8 या अगर आप उन मेहमानों में से एक होते, तो क्या आपकी सोच भी थोड़ी-बहुत उस फरीसी, शमौन की तरह होती? “यह देखकर, वह फरीसी जिस ने [यीशु को] बुलाया था, अपने मन में सोचने लगा, यदि यह भविष्यद्वक्‍ता होता तो जान जाता, कि यह जो उसे छू रही है, वह कौन और कैसी स्त्री है? क्योंकि वह तो पापिनी है।” (लूका 7:39) लेकिन, यीशु बड़ा ही रहमदिल इंसान था। वह जानता था कि उस स्त्री के दिल पर क्या बीत रही है, वह उसके मन की पीड़ा समझ सकता था। हमें यह नहीं बताया गया है कि वह स्त्री पाप के रास्ते पर कैसे निकल पड़ी थी। कुछ लोगों का मानना है कि वह एक वेश्‍या थी। इस बात से ज़ाहिर होता है कि उस नगर के यहूदी पुरुषों ने, जो भक्‍ति का दिखावा करते थे, पाप का रास्ता छोड़ने में उसकी ज़रा भी मदद नहीं की थी।

      9. यीशु उस स्त्री के साथ कैसे पेश आया और शायद इसका क्या नतीजा निकला?

      9 लेकिन यीशु उसकी मदद करना चाहता था। उसने उस स्त्री से कहा: “तेरे पाप क्षमा हुए।” फिर उसने कहा: “तेरे विश्‍वास ने तुझे बचा लिया है, कुशल से चली जा।” (लूका 7:48-50) इसके बाद क्या हुआ यह बाइबल नहीं बताती। शायद कुछ लोग एतराज़ करते हुए कहें कि यीशु ने उसकी कुछ खास मदद नहीं की, बस उसे आशीष देकर भेज दिया। लेकिन क्या आपको लगता है कि वह स्त्री दोबारा वही नीच ज़िंदगी जीने लगी होगी? हम इसके बारे में कुछ पक्का तो नहीं बता सकते लेकिन गौर कीजिए कि लूका आगे क्या कहता है। उसने कहा कि यीशु “नगर नगर और गांव गांव प्रचार करता हुआ, और परमेश्‍वर के राज्य का सुसमाचार सुनाता हुआ, फिरने लगा।” लूका आगे बताता है कि यीशु और उसके चेलों के साथ ‘कितनी स्त्रियां भी थीं जो अपनी सम्पत्ति से उनकी सेवा करती थीं।’ तो इस आधार पर कहा जा सकता है कि उन स्त्रियों में यह स्त्री भी रही होगी क्योंकि उसने पश्‍चाताप किया और उसका दिल एहसान से भरा था। उसने शुद्ध विवेक के साथ ऐसी ज़िंदगी जीनी शुरू की जिससे परमेश्‍वर खुश होता। अब उसकी ज़िंदगी को एक नयी मंज़िल मिल गयी और उसके दिल में परमेश्‍वर के लिए प्यार और भी गहरा हो गया।—लूका 8:1-3.

      यीशु और फरीसियों में फर्क

      10. शमौन के घर पर हुई घटना पर ध्यान देना क्यों फायदेमंद होगा?

      10 इस जीते-जागते ब्यौरे से हम क्या सीख सकते हैं? इस घटना से हमारा भी दिल भर आता है, है ना? अगर आप उस दिन शमौन के घर पर होते, तो आप कैसा महसूस करते? क्या आप भी वही करते जो यीशु ने किया था या क्या आपका रवैया भी कुछ उस मेज़बान फरीसी के जैसा होता? माना कि हमारी भावनाएँ और व्यवहार ठीक यीशु के जैसे नहीं हो सकते क्योंकि वह परमेश्‍वर का पुत्र था। दूसरी तरफ, हम फरीसी शमौन की तरह रवैया भी नहीं दिखाना चाहेंगे। भला कौन फरीसियों जैसा होना पसंद करेगा?

      11. हम फरीसियों के वर्ग में गिने जाना क्यों पसंद नहीं करेंगे?

      11 बाइबल और दुनियावी किताबों का अध्ययन करने पर हम जान सकते हैं कि फरीसी खुद को आम-जनता और देश की भलाई के लिए काम करनेवाले समझकर घमंड करते थे। हालाँकि परमेश्‍वर की व्यवस्था में बुनियादी बातें साफ-साफ बतायी गयी थीं और उन्हें समझना आसान था, मगर फरीसियों को इससे तसल्ली नहीं थी। इसलिए अगर उन्हें लगता कि व्यवस्था में फलाना विषय पर खुलकर नहीं समझाया गया है, तो वे मानो उस कमी को पूरा करने के लिए कुछ कायदे-कानून बना देते कि उसे किन-किन तरीकों से अमल किया जाना चाहिए। इस तरह वे किसी को अपने ज़मीर के कहे मुताबिक फैसला करने की छूट नहीं देते थे। इन धर्म-गुरुओं ने ज़िंदगी के सभी मामलों में, यहाँ तक कि हर छोटी-छोटी बात के लिए भी कानूनों की लंबी सूची तैयार कर रखी थी।a

      12. अपने बारे में फरीसियों का क्या खयाल था?

      12 पहली सदी के यहूदी इतिहासकार, जोसीफस के लेखनों से यह साफ पता चलता है कि फरीसी खुद को बड़े ही रहमदिल, विनम्र, निष्पक्ष और अपनी पदवी के लिए पूरी तरह योग्य समझते थे। बेशक, कुछ फरीसियों में काफी हद तक ऐसे गुण थे। इससे शायद आपको “नीकुदेमुस” की याद आए। (यूहन्‍ना 3:1,2; 7:50,51) और कुछ फरीसियों ने तो बाद में मसीही मार्ग भी अपनाया था। (प्रेरितों 15:5) मसीही प्रेरित पौलुस ने फरीसियों और उनके जैसे कुछ यहूदियों के बारे में यह लिखा: “उन को परमेश्‍वर के लिये धुन रहती है, परन्तु बुद्धिमानी के साथ नहीं।” (रोमियों 10:2) मगर वे आम-जनता की नज़रों में कैसे थे, इसके बारे में सुसमाचार की किताबें बताती हैं कि वे घमंडी, अहंकारी, खुद को धर्मी समझनेवाले, नुक्स निकालनेवाले और दूसरों को नीचा दिखानेवाले थे।

      यीशु का नज़रिया

      13. यीशु ने फरीसियों के बारे में क्या कहा?

      13 यीशु ने शास्त्रियों और फरीसियों की निंदा करते हुए कहा कि वे कपटी हैं। “वे एक ऐसे भारी बोझ को जिन को उठाना कठिन है, बान्धकर उन्हें मनुष्यों के कन्धों पर रखते हैं; परन्तु आप उन्हें अपनी उंगली से भी सरकाना नहीं चाहते।” जी हाँ, लोगों पर डाला गया बोझ बहुत भारी और जूआ बहुत कष्टदायक था। बाद में यीशु ने शास्त्रियों और फरीसियों को ‘मूर्ख’ कहा। एक मूर्ख, समाज के लिए खतरा होता है। यीशु ने शास्त्रियों और फरीसियों को ‘अन्धे अगुवे’ भी कहा और ज़ोर देकर बताया कि उन्होंने “व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात्‌ न्याय, और दया, और विश्‍वास को छोड़ दिया है।” तो कौन चाहेगा कि यीशु की नज़र में वह फरीसियों जैसा साबित हो?—मत्ती 23:1-4,16,17,23.

      14, 15. (क) यीशु, लेवी मत्ती के साथ जिस तरह से पेश आया, उससे फरीसियों के तौर-तरीकों के बारे में क्या मालूम पड़ता है? (ख) इस घटना से हम कौन-से ज़रूरी सबक सीखते हैं?

      14 सुसमाचार की किताबें पढ़नेवाला तकरीबन हर कोई समझ सकता है कि ज़्यादातर फरीसियों में नुक्‍ताचीनी करने की आदत थी। मिसाल के लिए इस घटना पर गौर कीजिए। जब यीशु ने चुंगी लेनेवाले लेवी, मत्ती को अपना चेला बनने का बुलावा दिया, तो उसने यीशु के लिए एक बड़ी जेवनार का इंतज़ाम किया। इसका ब्यौरा देते हुए बाइबल कहती है: “फरीसी और उन के शास्त्री उस के चेलों से यह कहकर कुड़कुड़ाने लगे, कि तुम चुग्ङी लेनेवालों और पापियों के साथ क्यों खाते-पीते हो? यीशु ने उन को उत्तर दिया; . . . मैं धर्मियों को नहीं, परन्तु पापियों को मन फिराने के लिये बुलाने आया हूं।”—लूका 5:27-32.

      15 उस अवसर पर यीशु ने एक और बात कही जिसे उस लेवी ने भी समझा: “सो तुम जाकर इस का अर्थ सीख लो, कि मैं बलिदान नहीं परन्तु दया चाहता हूं।” (मत्ती 9:13) फरीसी, इब्रानी भविष्यवक्‍ताओं के लेखनों पर विश्‍वास करने का दावा तो करते थे, मगर वे होशे 6:6 में लिखी इस बात पर नहीं चलते थे। उनकी नज़र में दूसरों पर दया दिखाने से ज़्यादा कानून के एक-एक अक्षर का सख्ती से पालन करना ज़रूरी था। इसलिए हममें से हरेक खुद से यह पूछ सकता है, ‘क्या मैं कुछेक मामलों में लकीर का फकीर हूँ, खासकर छोटे-मोटे मामलों में या जिनमें हर किसी को अपने विचार रखने का हक है? या क्या लोग मुझे दयालु और एक भले इंसान के तौर पर जानते हैं?’

      16. फरीसियों की क्या आदत थी और हम उनके जैसा बनने से कैसे दूर रह सकते हैं?

      16 दूसरों में गलतियाँ चुन-चुनकर निकालना। फरीसियों का बस यही काम था। वे हर बात में दूसरों के अंदर खामियाँ ढूँढ़ते थे, फिर चाहे उन्होंने सचमुच कोई गलती की हो या सिर्फ देखने पर ऐसा लगता हो। वे हमेशा लोगों पर बरस पड़ने के लिए तैयार रहते थे और उन्हें उनकी कमज़ोरियों का एहसास दिलाते थे। फरीसियों को इस बात का गुमान था कि वे पोदीने, सौंफ और जीरे जैसी जड़ी-बूटियों का भी दसवां अंश देते थे। वे अपने पहनावे से पवित्रता का ढोंग करते और पूरी यहूदी जाति को अपनी मुट्ठी में रखने की कोशिश करते थे। लेकिन अगर हम यीशु के नक्शेकदम पर चलना चाहते हैं, तो हमें दूसरों में गलतियाँ ढूँढ़ने और उनका ढिंढोरा पीटने की आदत से बचना चाहिए।

      यीशु, समस्याओं से कैसे निपटता था?

      17-19. (क) समझाइए कि यीशु एक ऐसे मामले से कैसे निपटा जो बहुत संगीन हो सकता था? (ख) किस बात ने उस स्त्री की हालत को और तनावपूर्ण और मुश्‍किल बना दिया था? (ग) जब वह स्त्री, यीशु के पास आयी, उस वक्‍त अगर आप भी वहाँ होते, तो आपने कैसा नज़रिया दिखाया होता?

      17 समस्याओं से निपटने का यीशु का तरीका, फरीसियों से एकदम अलग था। ध्यान दीजिए कि वह एक ऐसे मामले से कैसे निपटा जो बहुत संगीन हो सकता था। यह मामला एक स्त्री के बारे में है जिसे 12 साल से लहू बहने का रोग था। इस बारे में आप लूका 8:42-48 में पढ़ सकते हैं।

      18 मरकुस की किताब कहती है कि वह स्त्री ‘डरी हुई थी और कांप रही थी।’ (मरकुस 5:33) क्यों? बेशक इसलिए क्योंकि वह जानती थी कि उसने परमेश्‍वर का नियम तोड़ दिया है। लैव्यव्यवस्था 15:25-28 के मुताबिक, अगर किसी स्त्री का लहू ज़्यादा दिनों तक बहता, तो वह तब तक अशुद्ध मानी जाती जब तक कि उसका खून बहना बंद न होता, साथ ही वह एक और हफ्ते तक अशुद्ध होती। इस दौरान वह जिस चीज़ को छूती या जिस किसी के भी संपर्क में आती, वह भी अशुद्ध हो जाता। इसलिए भीड़ में से होते हुए यीशु तक पहुँचने के लिए उस स्त्री को बहुत मुश्‍किल हुई होगी। इस घटना को हुए 2,000 साल बीत गए हैं, मगर आज भी जब हम इसका ब्यौरा पढ़ते हैं, तो हमें उस स्त्री की हालत पर तरस आता है।

      19 अगर आप उस दिन वहाँ मौजूद होते, तो आप कैसा नज़रिया दिखाते? उस स्त्री को देखकर आपने क्या कहा होता? ध्यान दीजिए कि यीशु, उस स्त्री के साथ दया और प्यार से पेश आया और उसने उसका लिहाज़ किया। अगर उस स्त्री की वजह से कुछ समस्याएँ खड़ी हुई थीं, तो भी उसने स्त्री को उसका एहसास तक नहीं होने दिया।—मरकुस 5:34.

      20. अगर लैव्यव्यवस्था 15:25-28 आज भी लागू होती, तो हमारे सामने कौन-सी चुनौती खड़ी होती?

      20 क्या इस घटना से हम कुछ सीख सकते हैं? मान लीजिए, आप मसीही कलीसिया में एक प्राचीन हैं। और यह भी कल्पना कीजिए कि लैव्यव्यवस्था 15:25-28 आज मसीहियों पर लागू होती है और एक मसीही बहन खुद को इतनी बेबस और लाचार पाती है कि वह इस नियम को तोड़ देती है। ऐसे में आप क्या करेंगे? क्या आप सबके सामने उसे तीखी फटकार सुनाकर उसकी बेइज़्ज़ती करेंगे? आप शायद कहें, “नहीं, मैं तो ऐसा करने की कभी सोच भी नहीं सकता! मैं यीशु की तरह उसके साथ दया, प्यार और समझदारी से पेश आने और उसका लिहाज़ करने की भरसक कोशिश करूँगा।” सचमुच ऐसा संकल्प करना बहुत अच्छी बात है! लेकिन यीशु के नक्शे-कदम पर चलकर, ऐसा कर दिखाना एक चुनौती हो सकती है।

      21. यीशु ने लोगों को व्यवस्था के बारे में क्या सिखाया?

      21 यीशु से मिलने पर लोगों को बेहद सुकून मिलता था, उनकी जान-में-जान आ जाती और उनका उत्साह बढ़ जाता था। उसने लोगों को सिखाया कि जिन मामलों में परमेश्‍वर की व्यवस्था साफ-साफ नियम देती है, उन्हें हर हाल में मानना चाहिए। लेकिन जिन विषयों के बारे में मोटे तौर पर बताया गया है, उनमें वे अपने ज़मीर के मुताबिक फैसला कर सकते हैं और अपने फैसलों से परमेश्‍वर के लिए प्रेम ज़ाहिर कर सकते हैं। व्यवस्था ने लोगों को कुछ हद तक आज़ादी दी थी। (मरकुस 2:27,28) परमेश्‍वर अपने लोगों से प्यार करता था, हमेशा उनकी भलाई के लिए काम करता और जब लोग उसके नियम मानने से चूक जाते तो वह दिल खोलकर उन्हें माफ करता था। यीशु ने भी ऐसा ही नज़रिया दिखाया।—यूहन्‍ना 14:9.

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