ईश्वरीय भक्ति में यीशु के आदर्श का अनुसरण करो
“इस में सन्देह नहीं कि इस ईश्वरीय भक्ति का भेद विशाल है: ‘अर्थात वह [यीशु] शरीर में प्रगट हुआ।’”—१ तीमुथियुस ३:१६, न्यू.व.
१. (अ) वह कौनसा प्रश्न था जो ४,००० से अधिक सालों के लिए अनुत्तरित रह गया? (ब) इसका उत्तर कब और कैसे दिया गया?
यह एक ऐसा प्रश्न था जो ४,००० से अधिक सालों के लिए अनुत्तरित रह गया। जब से पहला मनुष्य, आदम, खराई रखने में असफल हो गया, प्रश्न यह उठा: ईश्वरीय भक्ति मनुष्यजाति में कैसे व्यक्त की जा सकती है? अन्त में, सामान्य युग की पहली सदी में, इस पृथ्वी पर परमेश्वर के पुत्र के आने से, इसका उत्तर दिया गया। प्रत्येक विचार, शब्द और कार्य में यीशु मसीह ने यहोवा से अपना व्यक्तिगत लगाव प्रदर्शित किया। इस तरह उसने समर्पित व्यक्तियों को ऐसी भक्ति बनाए रखने का तरीक़ा प्रदर्शित करने के द्वारा, ‘ईश्वरीय भक्ति का भेद’ अनावृत किया।—१ तीमुथियुस ३:१६.
२. ईश्वरीय भक्ति का पीछा करने में, हमें यीशु के उदाहरण पर ध्यान से क्यों विचार करना चाहिए?
२ समर्पित, बपतिस्मा पाए हुए मसीहियों के रूप में ईश्वरीय भक्ति का पीछा करने में, अगर हम यीशु के उदाहरण पर “ध्यान” करेंगे तो भली-भाँति करेंगे। (इब्रानियों १२:३) क्यों? इसके दो कारण है। पहला यह, कि यीशु के उदाहरण से हमें ईश्वरीय भक्ति विकसित करने में मदद मिल सकती है। यीशु अपने पिता को सभों से बेहतर जानता था। (यूहन्ना १:१८) और इतने सूक्ष्म रूप से यीशु ने यहोवा के मार्गों और गुणों का अनुकरण किया कि वह कह सका: “जिसने मुझे देखा है उस ने पिता को देखा है।” (यूहन्ना १४:९) तब, यीशु के जीवन और उसकी सेवकाई से हम यहोवा के प्रेममय गुणों के लिए गहरी क़दर प्राप्त कर सकते हैं, जिससे हमारे प्रेममय सृष्टिकर्ता के साथ हमारा व्यक्तिगत लगाव मज़बूत होता है। दूसरी बात यह कि यीशु का उदाहरण हमें ईश्वरीय भक्ति व्यक्त करने में सहायता देगी। उसने ईश्वरीय भक्ति व्यक्त करते हुए चालचलन का एक परिपूर्ण उदाहरण स्थापित किया। इसलिए इस पर विचार करना अच्छा होगा, कि हम कैसे ‘मसीह को पहिन’ लेंगे, अर्थात्, कैसे उसे एक आदर्श के तौर से लेंगे, उसके उदाहरण का अनुकरण करेंगे।—रोमियों १३:१४.
३. हमारे व्यक्तिगत बाइबल अध्ययन कार्यक्रम में क्या शामिल होना चाहिए, और क्यों?
३ यीशु ने जो कुछ कहा या किया, वे सभी बातें लिखित रूप में बचाकर नहीं रखे गए थे। (यूहन्ना २१:२५) इसीलिए, उन बातों में, जो दैवी प्रेरणा से अभिलिखित की गयीं, हमें विशेष रुचि होनी चाहिए। इस कारण से व्यक्तिगत बाइबल अध्ययन के कार्यक्रम में यीशु के जीवन के सुसमाचार वृत्तान्तों का नियमित पठन भी शामिल होना चाहिए। लेकिन अगर ऐसे पठन को हमें ईश्वरीय भक्ति के अपने लक्ष्य में सहायक होना है, तो जो कुछ हम पढ़ते हैं, उस पर हमें क़दरदानी से विचार करने के लिए समय लेना चाहिए। हमें प्रत्यक्ष बातों से अधिक आगे देखने में भी सचेत रहना चाहिए।
जैसा पिता, वैसा पुत्र
४. (अ) क्या दिखाता है कि यीशु स्नेह और गहरी भावनाएँ महसूस करनेवाला व्यक्ति था? (ब) दूसरों से व्यवहार करने में यीशु ने पहल कैसे की?
४ इस उदाहरण पर विचार कीजिए। यीशु स्नेह और गहरी भावनाएँ महसूस करनेवाला पुरुष था। मरकुस १०:१, १०, १३, १७, और ३५ से यह ग़ौर करें कि सभी उमर और पार्श्व के लोग उसे सुगम्य पाते थे। एक से अधिक अवसर पर, उसने बच्चों को अपनी बाहों में ले लिया। (मरकुस ९:३६; १०:१६) यीशु के साथ लोग, यहाँ तक कि बच्चें भी, इतने निश्चिन्त क्यों महसूस करते थे? उन में उसकी निष्कपट, असली परवाह के कारण। (मरकुस १:४०, ४१) यह इस बात से स्पष्ट था कि बहुधा उसने ज़रूरतमंदों के पास जाने में पहल की। इसलिए, हम पढ़ते हैं कि उसने नाईन की विधवा को “देखा”, जिसके मृत बेटे को ले जाया जा रहा था। फिर उसने “पास आकर” उस लड़के को पुनरुत्थित किया, और कहीं भी कोई उल्लेख नहीं कि ऐसा करने के लिए किसी ने उस से कहा था। (लूका ७:१३-१५) उसने, बिना किसी के कहने पर, एक अपंग स्त्री और जलोदर से पीड़ित एक आदमी को भी स्वस्थ करने में पहल की।—लूका १३:११-१३; १४:१-४.
५. यीशु की सेवकाई के ये वृत्तान्त हमें यहोवा के गुणों और मार्गों के बारे में क्या सिखाते हैं?
५ जब आप ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं, रुकिए और अपने आप से पूछिए: ‘चूँकि यीशु ने अपने पिता का परिपूर्ण रीति से अनुकरण किया, ये वृत्तान्त मुझे यहोवा के गुणों और मार्गों के बारे में क्या बताते हैं?’ इनसे हमें आश्वासन मिलना चाहिए कि यहोवा स्नेह और गहरी भावनाएँ महसूस करनेवाले परमेश्वर हैं। मानव परिवार के लिए उनकी चिरस्थायी चिन्ता की गहराई ने उन्हें उनके साथ व्यवहार करने में पहल करने के लिए प्रेरित किया है। अपने पुत्र को “बहुतों की छुड़ौती के लिए” देने में उन पर दबाव ड़ालने की कोई ज़रूरत नहीं थी। (मत्ती २०:२८; यूहन्ना ३:१६) वह उन लोगों के साथ “स्नेह और प्रेम” रखने के अवसरों की खोज करते हैं, जो उनकी सेवा प्रेम से करेंगे। (व्यवस्थाविवरण १०:१५) जैसे बाइबल कहती है: “[यहोवा] की दृष्टि सारी पृथ्वी पर इसलिए फिरती रहती है कि जिनका मन उसकी ओर निष्कपट रहता है, उनकी सहायता में वह अपना सामर्थ दिखाए।”—२ इतिहास १६:९.
६. जब हम यहोवा के स्नेह और उनकी गहरी भावनाओं पर, जिनका उदाहरण यीशु था, विचार करते हैं तब क्या परिणाम निकलता है?
६ इस तरह यहोवा के स्नेह और उनकी गहरी भावनाओं पर, जिनका उदाहरण उनका पुत्र था, विचार करना आपके हृदय को छू लेगा, और उसे उनके कोमल और आकर्षक गुणों के लिए और भी ज़्यादा क़दर से भर देगा। परिणामस्वरूप, यह आपको उनके निकट ले जाएगा। आप मुक्त रूप से प्रार्थना में उनके पास हर समय और हर तरह की परिस्थितियों में जाने के लिए प्रेरित होंगे। (भजन संहिता ६५:२) इससे उनकी ओर आपके व्यक्तिगत लगाव को मज़बूत करेगा।
७. यहोवा के स्नेह और गहरी भावनाओं पर विचार करने के बाद, आप को अपने आप से क्या पूछना चाहिए, और क्यों?
७ लेकिन याद रखिए, कि ईश्वरीय भक्ति में केवल एक श्रद्धास्पद भावना से कुछ अधिक शामिल है। जैसे बाइबल विद्वान आर. लेन्सकी बताते हैं, उस में “हमारा सम्पूर्ण श्रद्धालु, सम्माननीय मनोवृत्ति और उससे उत्पन्न होनेवाली सभी क्रियाएं, शामिल हैं।” (तिर्यगक्षर हमारे) इसलिए यहोवा के स्नेह और उनकी गहरी भावनाओं पर विचार करने के बाद, जिनका उदाहरण यीशु ने प्रस्तुत किया था, अपने आप से पूछिए: ‘इस विषय में मैं और भी ज़्यादा यहोवा के समान कैसे बन सकता हूँ? क्या दूसरे लोग मुझे सुगम्य पाते हैं?’ अगर आप एक माता या पिता हैं, तो बच्चों के लिए आपको गम्य होना होगा। और अगर आप मण्डली के एक प्राचीन हैं, तो आपको अवश्य गम्य होना चाहिए। तो फिर, कौनसी बात आपको अधिक सुगम्य बना सकती है? स्नेह और गहरी भावनाएँ। आपको दूसरों में एक निष्कपट, असली दिलचस्पी विकसित करनी चाहिए। जब आप सचमुच दूसरों के बारे में चिन्ता करते हैं और उनके लिए अपने आप की कर्मशक्ति आदि लगाने के लिए इच्छुक हैं, तो इसका उन्हें बोध होगा और वे आपकी ओर आकर्षित महसूस करेंगे।
८. (अ) यीशु के बारे में बाइबल वृत्तान्त पढ़ते वक्त आप को कौनसी बात ध्यान में रखनी चाहिए? (ब) फुटनोट में बताए गए वृत्तान्तों से हम यहोवा के बारे में क्या सीखते हैं?
८ इसलिए जब आप यीशु के बारे में बाइबल वृत्तान्त पढ़ते हैं, तो इस बात को ध्यान में रखिए कि यीशु ने जो भी कहा या किया, इनके ज़रिए आप एक व्यक्ति के रूप में यहोवा के बारे में, काफ़ी कुछ सीख सकेंगे।a और जब परमेश्वर के गुणों के लिए आपकी क़दर, जैसे यीशु द्वारा प्रदर्शित किए गए, आपको उनके समान बनने के लिए प्रेरित करती है, आप अपनी ईश्वरीय भक्ति का प्रमाण दे रहे हैं।
पारिवारिक सदस्यों की ओर ईश्वरीय भक्ति का प्रयोग करना
९, १०. (अ) अपनी माता, मरियम, के लिए यीशु ने मरने से कुछ ही क्षण पहले, अपने प्रेम और चिन्ता को कैसे प्रगट किया? (ब) प्रत्यक्षतः, यीशु ने मरियम की देखभाल उसके अपने किसी शारीरिक भाई को सौंपने के बजाय, प्रेरित यूहन्ना को क्यों सौंप दी?
९ ईश्वरीय भक्ति को कैसे व्यक्त किया जाना चाहिए, इसके बारे में यीशु मसीह का जीवन और सेवकाई बहुत कुछ बताते हैं। यूहन्ना १९:२५-२७ में एक हृदयस्पर्शी उदाहरण अभिलिखित है, जहाँ हम पढ़ते हैं: “परन्तु, यीशु के यातना खम्भे के पास उस की माता और उस की माता की बहिन मरियम, क्लोपास की पत्नी और मरियम मगदलीनी खड़ी थीं। यीशु ने अपनी माता और उस चेले [यूहन्ना] को जिस से वह प्रेम रखता था, पास खड़े देखकर अपनी माता से कहा: ‘हे नारी, देख! यह तेरा पुत्र है!’ तब उस चेले से कहा: ‘यह तेरी माता है!’ और उसी समय से वह चेला, उसे अपने घर ले गया।”
१० ज़रा कल्पना कीजिए! अपनी पार्थिव ज़िन्दगी को अर्पित करने से कुछ ही पल पहले, यीशु के प्रेम और उसकी चिन्ता ने उसे अपनी माता, मरियम, (जो प्रत्यक्षतः अब तक एक विधवा हो चुकी थी) की देखभाल प्रिय प्रेरित यूहन्ना को सौंपने के लिए उकसाया। लेकिन यूहन्ना ही क्यों, यीशु के अपने शारीरिक भाइयों में से कोई क्यों नहीं? क्योंकि यीशु केवल मरियम की शारीरिक, भौतिक आवश्यकताओं से चिन्तित न था, बल्कि अधिक विशेष रूप से उसकी आध्यात्मिक ख़ैरियत के बारे में चिन्तित था। और प्रेरित यूहन्ना (शायद यीशु के मौसेरे भाई) ने अपना विश्वास सिद्ध किया था, जब कि ऐसा कोई संकेत न था कि अब तक, यीशु के अपने शारीरिक भाई विश्वासी बन चुके थे।—मत्ती १२:४६-५०; यूहन्ना ७:५.
११. (अ) पौलुस के अनुसार, एक मसीही शायद अपने ही घर में ईश्वरीय भक्ति का प्रयोग कैसे कर सकता है? (ब) एक सच्चा मसीही वयोवृद्ध माता-पिताओं के लिए प्रबन्ध क्यों करता है?
११ अब, यह ईश्वरीय भक्ति की एक अभिव्यक्ति कैसे थी? प्रेरित पौलुस ने स्पष्ट किया: “उन विधवाओं का जो सचमुच विधवा हैं आदर कर। और यदि किसी विधवा के लड़केबाले या नातीपोते हों, तो वे पहिले अपने ही घराने के साथ ईश्वरीय भक्ति का बर्ताव करना, और अपने माता-पिता आदि को उन का हक्क देना सीखें, क्योंकि यह परमेश्वर को भाता है।” (१ तीमुथियुस ५:३, ४; न्यू.व.) जैसे पौलुस कहता है, जब यह आवश्यक हो जाए, तब अपने माता-पिता को भौतिक सहायता देने के द्वारा उनका आदर करना ईश्वरीय भक्ति की एक अभिव्यक्ति है। यह कैसे? यहोवा, पारिवारिक व्यवस्था का आरंभक, बच्चों को अपने माता-पिता का आदर करने का आदेश देता है। (इफिसियों ३:१४, १५; ६:१-३) इसलिए, सच्चा मसीही यह समझता है कि ऐसी पारिवारिक ज़िम्मेदारी लेना न केवल अपने माता-पिता के लिए प्रेम दिखाता है बल्कि परमेश्वर के लिए श्रद्धा और उनके आदेशों के लिए आज्ञाकारिता प्रदर्शित करता है।—कुलुस्सियों ३:२० से तुलना करें।
१२. आप वयोवृद्ध माता-पिताओं की ओर ईश्वरीय भक्ति का प्रयोग कैसे कर सकेंगे, और इसका उद्देश्य क्या होना चाहिए?
१२ तो फिर आप पारिवारिक सदस्यों की ओर ईश्वरीय भक्ति का प्रयोग कैसे कर सकेंगे? इस में वयोवृद्ध माता-पिता की आध्यात्मिक और भौतिक ज़रूरतों का ध्यान रखने की व्यवस्था करना भी अवश्य शामिल होगा, जैसे कि यीशु ने किया। ऐसा करने से रह जाना ईश्वरीय भक्ति की एक कमी व्यक्त करेगा। (२ तीमुथियुस ३:२, ३, ५ से तुलना करें।) एक समर्पित मसीही ज़रूरतमन्द माता-पिता का भरण-पोषण केवल दया या कर्तव्य के कारण नहीं करता बल्कि इसलिए कि वह अपने परिवार से प्रेम रखता है, और वह समझता है कि यहोवा ऐसी ज़िम्मेदारी पर कितना ज़्यादा ध्यान देते हैं। इस तरह, उसका वयोवृद्ध माता-पिता की देखभाल करना ईश्वरीय भक्ति की एक अभिव्यक्ति है।b
१३. एक मसीही पिता अपने परिवार की ओर ईश्वरीय भक्ति का प्रयोग कैसे कर सकता है?
१३ घर में ईश्वरीय भक्ति का प्रयोग अन्य तरीक़ों से भी किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, एक मसीही पिता को अपने परिवार की भौतिक, भावात्मक और आध्यात्मिक भरण-पोषण करने का उत्तरदायित्व है। इसलिए, भौतिक सहायता के अतिरिक्त, वह प्रेममय रीति से एक नियमित पारिवारिक बाइबल अध्ययन की व्यवस्था करता है। वह अपने परिवार के साथ नियमित रूप से क्षेत्र सेवकाई में भाग लेने के लिए समय नियत करता है। वह संतुलित है, और विश्राम तथा मनोरंजन की उनकी आवश्यकता पहचानता है। मण्डली के कार्यों को अपने परिवार की उपेक्षा नहीं करने देते हुए, वह बुद्धिमानी से प्राथमिकताएँ निर्धारित करता है। (१ तीमुथियुस ३:५, १२) वह यह सब क्यों करता है? केवल कर्तव्य की भावना से नहीं बल्कि अपने परिवार से प्रेम रखने की वजह से। वह उस महत्त्व को समझता है जो यहोवा अपने परिवार की देखभाल करने पर रखता है। इस तरह एक पति और पिता के रूप में अपना उत्तरदायित्व पूर्ण करने के द्वारा, वह ईश्वरीय भक्ति का प्रयोग कर रहा है।
१४. एक मसीही पत्नी घर में ईश्वरीय भक्ति कैसे व्यक्त कर सकती है?
१४ मसीही पत्नियों को भी घर में ईश्वरीय भक्ति का अनुपालन करने की ज़िम्मेदारी है। कैसे? बाइबल कहती है कि एक पत्नी को अपने पति के “आधीन” रहना चाहिए और उसकी ओर “गहरा आदर” दिखाना चाहिए। (इफिसियों ५:२२, ३३, न्यू.व.) उसका पति चाहे एक विश्वासी हो या न हो, तौभी उसे उसके “आधीन” रहना चाहिए। (१ पतरस ३:१) एक मसीही स्त्री ऐसी पत्नियोचित अधीनता अपने पति के फ़ैसलों का समर्थन करने के द्वारा प्रदर्शित करती है, जब तक कि ये फ़ैसले परमेश्वर के नियमों के प्रतिकूल नहीं हैं। (प्रेरितों के काम ५:२९) और वह यह भूमिका क्यों स्वीकार करती है? केवल इसलिए नहीं कि वह अपने पति से प्रेम करती है, बल्कि विशेष रूप से इसलिए कि वह जानती है कि यह “प्रभु में उचित है”—अर्थात्, यह परिवार के लिए परमेश्वर की व्यवस्था है। (कुलुस्सियों ३:१८) इस तरह पति की ओर उसकी स्वैच्छिक अधीनता उसकी ईश्वरीय भक्ति की एक अभिव्यक्ति है।
“मैं इसीलिये निकला हूं”
१५. यीशु ने किस उत्कृष्ट तरीक़े से ईश्वरीय भक्ति प्रदर्शित की?
१५ यीशु का ईश्वरीय भक्ति व्यक्त करने का एक उत्कृष्ट तरीक़ा ‘परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार घोषित करना’ था। (लूका ४:४३) सा. यु. २९ में युरदान में अपनी बपतिस्मा के बाद, यीशु ने अगले साढ़े तीन वर्ष इस अति-महत्त्वपूर्ण कार्य में पूर्णरूपेण व्यस्त रहकर बिताए। उसने कहा, “मैं इसी लिये निकला हूं।” (मरकुस १:३८; यूहन्ना १८:३७) लेकिन यह उसकी ईश्वरीय भक्ति की एक अभिव्यक्ति कैसे थी?
१६, १७. (अ) प्रचार और शिक्षण कार्य में पूर्णरूपसे व्यस्त रहने के लिए यीशु किस बात से प्रेरित हुआ? (ब) प्रचार और शिक्षण कार्य की यीशु की सेवकाई उसकी ईश्वरीय भक्ति की एक अभिव्यक्ति क्यों थी?
१६ याद कीजिए कि ईश्वरीय भक्ति में एक ऐसी रीति से जीना शामिल है जो परमेश्वर को भाता है, क्योंकि आप उनसे प्रेम करते हैं और उनके प्रेममय गुणों की बहुत क़दर करते हैं। तो फिर, वह कौनसी बात थी जिस से यीशु पृथ्वी पर उसके अन्तिम वर्षों में प्रचार और शिक्षण कार्य में पूर्णरूपेण व्यस्त रहने के लिए प्रेरित हुआ? केवल कर्तव्य या दायित्व की कोई भावना? इस में कोई शक नहीं कि उसे लोगों के लिए चिन्ता थी। (मत्ती ९:३५, ३६) और उसने पूरी तरह से समझ लिया कि पवित्र आत्मा द्वारा उसका अभिषेक किया जाना, उसे उसकी सेवकाई पूर्ण करने के लिए नियुक्त और अधिकृत करता था। (लूका ४:१६-२१) लेकिन, उसके उद्देश्य और भी गम्भीर थे।
१७ यीशु ने स्पष्ट रूप से अपनी पार्थिव ज़िन्दगी की आख़री रात को अपने शिष्यों से कहा, “मैं पिता से प्रेम रखता हूं।” (यूहन्ना १४:३१) यह प्रेम यहोवा के गुणों के एक बहुत ही गहरा और सम्पूर्ण ज्ञान पर आधारित है। (लूका १०:२२) गहरी क़दर से उत्तेजित दिल से प्रेरित होकर, यीशु ने परमेश्वर की इच्छा करने में प्रसन्नता पायी। (भजन संहिता ४०:८) यह उसका “भोजन” था—जीवन के लिए कितना आवश्यक, कितना रुचिकर। (यूहन्ना ४:३४) अपने आप को पहले रखने के बजाय, उसने “पहिले राज्य की खोज करने” में एक परिपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया। (मत्ती ६:३३) तो प्रचार और शिक्षण कार्य की उसकी सेवकाई का उसकी ईश्वरीय भक्ति की एक अभिव्यक्ति बनना, केवल उसने क्या किया या फिर कितना किया था, इस बात पर आधारित न था, बल्कि इस बात पर आधारित था कि उसने यह क्यों किया था।
१८. सेवकाई में थोड़ा कुछ भाग लेना क्यों अनिवार्यतः ईश्वरीय भक्ति की एक अभिव्यक्ति नहीं है?
१८ हम इस विषय में उस “आदर्श,” यीशु, के उदाहरण का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? (१ पतरस २:२१) उन सब को, जो यीशु के आमंत्रण “मेरे पीछे हो ले” की ओर प्रतिक्रिया दिखाते हैं, राज्य का सुसमाचार प्रचार करने और शिष्य बनाने के लिए एक दैवी उत्तरदायित्व है। (लूका १८:२२; मत्ती २४:१४; २८:१९, २०) क्या इसका अर्थ है कि सुसमाचार की घोषणा करने में थोड़ा कुछ भाग लेने से हम ईश्वरीय भक्ति का पीछा कर रहे हैं? अनिवार्यतः नहीं। अगर हम सेवकाई में एक सरसरी रूप से या नाम-मात्र के लिए हिस्सा लेते, या केवल परिवार के सदस्यों को या दूसरों को प्रसन्न करने के लिए करते, तो इसे मुश्किल से ‘ईश्वरीय भक्ति की एक क्रिया’ समझा जाता।—२ पतरस ३:११.
१९. (अ) हम जो भी सेवकाई में करते हैं उसका मूल कारण क्या होना चाहिए? (ब) जब हम परमेश्वर के लिए एक गहरे प्रेम से प्रेरित होते हैं, तो क्या परिणाम निकलता है?
१९ जैसे यीशु के बारे में था, हमारे उद्देश्यों को भी गम्भीर होने चाहिए। यीशु ने कहा: “तू यहोवा अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से [भीतरी व्यक्ति की भावनाओं, अभिलाषाओं और विचारों से] और अपने सारे प्राण से [अपने जीवन और सम्पूर्ण शरीर से], और अपनी सारी बुद्धि से [अपनी बौद्धिक योग्यताओं से], और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना।” इसके साथ एक विवेकी लिपिक ने कहा: “और यह . . . सारे होमों और बलिदानों से बढ़कर है।” (मरकुस १२:३०, ३३, ३४, न्यू.व.) इसलिए केवल हम क्या करते हैं यही महत्त्व का नहीं है, बल्कि हम यह क्यों करते हैं यह महत्त्व का है। परमेश्वर के लिए हमारे हर कण को शामिल करनेवाले एक गहरे प्रेम को सेवकाई में हम जो भी करते हैं, उसका मूल कारण होना चाहिए। जब बात यह होगी, तब हम केवल एक नाम-मात्र का हिस्सा लेने से संतुष्ट नहीं रहेंगे, बल्कि हम भरसक कोशिश करने के द्वारा अपनी ईश्वरीय भक्ति की गहराई प्रदर्शित करने के लिए प्रेरित होंगे। (२ तीमुथियुस २:१५) उसी वक्त, जब परमेश्वर के लिए प्रेम हमारा उद्देश्य होता है, तब हम आलोचनात्मक नहीं बनेंगे और हमारी सेवकाई को दूसरों की सेवकाई से तुलना नहीं करेंगे।—गलतियों ६:४.
२०. ईश्वरीय भक्ति का पीछा करने में हम यीशु के उदाहरण से पूरा लाभ कैसे पा सकते हैं?
२० हम कितने एहसानमन्द हो सकते हैं कि यहोवा ने हम से ईश्वरीय भक्ति का भेद व्यक्त किया है! ध्यानपूर्वक उन बातों का अध्ययन करने के द्वारा जो यीशु ने कहा और किया, और उसका अनुकरण करने की कोशिश करने के द्वारा, हम ईश्वरीय भक्ति को एक पूर्ण मात्रा में दोनों, उत्पन्न करने और प्रगट करने में भी मदद पाएँगे। जब हम समर्पित, बपतिस्मा पाए हुए, मसीहियों के रूप में ईश्वरीय भक्ति का पीछा करने में यीशु के उदाहरण का अनुसरण करेंगे, तब यहोवा हमें प्रचुरता से आशीष देंगे।—१ तीमुथियुस ४:७, ८.
[फुटनोट]
a कुछ अतिरिक्त उदाहरणों के लिए, निम्नलिखित वृत्तान्तों से हम यहोवा के बारे क्या सीख रहे हैं, उस पर विचार कीजिए: मत्ती ८:२, ३; मरकुस १४:३-९; लूका २१:१-४; और यूहन्ना ११:३३-३६.
b वयोवृद्ध माता-पिताओं की ओर ईश्वरीय भक्ति का प्रयोग करने में जो भी सम्बद्ध है, उस पर एक सम्पूर्ण चर्चा के लिए, द वॉचटावर, जून १, १९८७, पृष्ठ १३-१८ देखें।
क्या आप स्मरण करते हैं
◻ ईश्वरीय भक्ति का पीछा करते समय, हमें यीशु के उदाहरण पर क्यों विचार करना चाहिए?
◻ यीशु द्वारा दिखाए गए स्नेह और गहरी भावनाओं से हम यहोवा के बारे में क्या सीखते हैं?
◻ परिवार के सदस्यों की ओर हम ईश्वरीय भक्ति कैसे प्रगट कर सकते हैं?
◻ हमारा उद्देश्य क्या होना चाहिए कि हमारी सेवकाई ईश्वरीय भक्ति की एक अभिव्यक्ति बने?
[पेज 21 पर तसवीरें]
एक मसीही पिता अपने परिवार के लिए भौतिक, भावात्मक, और आध्यात्मिक रूप से भरण पोषण करने के लिए ज़िम्मेदार है
[पेज 23 पर बक्स/तसवीर]
“और यदि किसी विधवा के लड़केबाले या नातीपोते हों, तो वे . . . अपने माता-पिता आदि को उन का हक्क देना सीखें।”