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  • ‘हम अपने लिए नहीं जीते’

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  • ‘हम अपने लिए नहीं जीते’
  • सजग होइए!–1998
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  • एक बहुत ही बड़ा फैसला
  • अफ्रीका में हमारी सेवकाई
  • राष्ट्रवाद का बखेड़ा
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सजग होइए!–1998
g98 11/8 पेज 19-25

‘हम अपने लिए नहीं जीते’

जैक योहानसन की ज़ुबानी

मालावी के उस अफ्रीकी सैनिक ने मुझे ऑर्डर दिया कि नदी के किनारे गाड़ी की हॆडलाइट के सामने खड़ा हो जाऊँ। जैसे ही उसने अपनी बंदूक तानी, लॉइड लीक्वीडे झट से नदी के किनारे आकर मेरे सामने खड़ा हो गया। उसने कहा: “मुझे मारो! मुझे गोली मारो! इस फिरंगी को नहीं। यह बेकसूर है!” अफ्रीका का एक आदमी, मुझ यूरोपीयन के लिए अपनी जान देने के लिए क्यों तैयार था? मेरी इस दिलचस्प दास्तान की शुरुआत अफ्रीका में ४० साल पहले एक मिशनरी के तौर पर हुई।

बात सन १९४२ की है। मैं बस नौ बरस का था, और मेरी माँ चल बसी। और हम पाँच बच्चे और पिताजी ही रह गए। मैं सबसे छोटा था। चार महीने बाद मेरे पिताजी की पानी में डूबने से मौत हो गई। वे, पूरे फिनलैंड में पहले यहोवा के साक्षियों में से थे। मेरी दीदी, माया ने हमारी देखभाल और परवरिश की। हमारे पास किसी तरह बस अपना खेत ही बचा रहा। दीदी आध्यात्मिक बातों में भी आगे थीं। और इसी वज़ह से पिताजी की मौत के एक साल के अंदर ही, उन्होंने और मेरे एक भैय्या ने बपतिस्मा लेकर यहोवा परमेश्‍वर को अपना समर्पण किया। एक साल बाद, ११ की उम्र में मैंने भी बपतिस्मा ले लिया।

एक बहुत ही बड़ा फैसला

मैंने १९५१ में एक कमर्शियल कॉलेज में अपनी पढ़ाई खत्म कर ली। बाद में मुझे फिनलैंड की फोर्ड मोटर कंपनी में नौकरी मिल गयी। छः महीने बाद, यहोवा के साक्षियों के एक अक्लमंद सफरी ओवरसियर ने मुझे एक सर्प्राइज़ दिया। उन्होंने मुझसे एक असेंब्ली में पायनियर, या पूरे समय प्रचार करने के काम से मिलनेवाली आशीषों पर भाषण देने के लिए कहा। मैं परेशान हो गया, क्योंकि मैं तो नौकरी कर रहा था और इसलिए मुझे लगा कि मैं भाषण तो दे दूँगा, मगर लफ्ज़ मेरे दिल से नहीं निकलेंगे। सो मैंने इस बारे में यहोवा से प्रार्थना की, और मुझे एहसास हुआ कि मसीहियों को ‘आगे को अपने लिये नहीं जीना है परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा।’ मैंने अपनी ज़िंदगी में बदलाव करना ज़्यादा ज़रूरी समझा, ताकि मैं एक पायनियर बन सकूं।—२ कुरिन्थियों ५:१५.

मेरे इस फैसले को सुनकर मेरे सुपरवाइज़र ने मुझसे वादा किया कि अगर मैं नौकरी न छोड़ूँ, तो वह मुझे दुगनी तनखाह देगा। बाद में जब उसने देखा कि मैं अपने फैसले से टस-से-मस नहीं हो रहा हूँ, तो उसने कहा: “तुमने एकदम सही फैसला किया है। पता है, मैंने तो इस ऑफिस में अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी है। मगर क्या मैं लोगों की मदद कर सका?” सो मई १९५२ में मैं एक पायनियर बन गया। कुछ हफ्तों बाद, भरपूर आत्म-विश्‍वास के साथ मैं पायनियर सेवकाई पर अपना भाषण दे सका।

कुछ महीनों तक पायनियरिंग करने के बाद, मुझे छः महीने की कैद हो गयी क्योंकि एक मसीही होने के नाते में युद्धों में हिस्सा नहीं ले सकता। इसके बाद फिर आठ महीने की कैद हो गयी। इस बार मैं फिनलैंड खाड़ी के हास्तो बूसो द्वीप पर दूसरे जवान साक्षियों के साथ था। इस द्वीप को हम ‘लिटल गिलियड’ पुकारते थे, क्योंकि हम वहाँ बाइबल का बहुत ही गहरा अध्ययन किया करते थे। खैर, मैं असली गिलियड, यानी वॉचटावर स्कूल ऑफ गिलियड जाना चाहता था, जो न्यू यॉर्क के साउथ लैंसिंग में है।

जब मैं उस द्वीप पर ही कैद में था, मुझे वॉच टावर सोसाइटी के ब्रांच ऑफिस से एक खत मिला। उसमें मुझसे यहोवा के साक्षियों के सफरी ओवरसियर का काम संभालने के लिए कहा गया था। मेरी रिहाई होने पर मुझे फिनलैंड के स्विडिश-भाषा बोलनेवाली कलीसियाओं से भेंट करनी था। उस वक्‍त मैं सिर्फ २० बरस का था। सो मैंने सोचा, ‘नहीं, ये मुझसे नहीं होगा।’ फिर भी मैंने यहोवा पर अपना भरोसा रखा। (फिलिप्पियों ४:१३) मगर जिन कलीसियाओं में मैंने भेंट की, वहाँ के साक्षी बहुत ही अच्छे थे। मैं तो बस एक “लड़का” था, फिर भी उन्होंने कभी मुझे नीची निगाह से नहीं देखा।—यिर्मयाह १:७.

अगले साल जब मैं कलीसियाओं को भेंट कर रहा था, मेरी मुलाकात लिंडा से हुई। वह फिनलैंड में छुट्टियों पर अमरीका से आयी थी। और अमरीका लौटने के बाद उसने बहुत अच्छी और तेज़ आध्यात्मिक प्रगति की। जल्द ही उसका बपतिस्मा हुआ, और जून १९५७ में हमारी शादी हो गयी। बाद में, सितंबर १९५८ में हमें गिलियड स्कूल की ३२वीं क्लास के लिए बुलाया गया। और फरवरी १९५९ तक हमारी ग्रैजुएशन हो गयी। तब हमें दक्षिणपूर्वी अफ्रीका के न्यासालैंड में भेजा गया, जिसे अब मालावी कहा जाता है।

अफ्रीका में हमारी सेवकाई

हमारे अफ्रीकी भाई-बहनों के साथ प्रचार करना हमें कितना अच्छा लगता था। उस वक्‍त न्यासालैंड में बस १४,००० प्रकाशक थे। कभी-कभी हम अपना बोरिया-बिस्तर साथ लेकर लैंड रोवर गाड़ी में सफर करते। हम उन गाँवों में रहते जिन गाँवों में किसी फिरंगी ने कदम तक नहीं रखा था। और हमेशा लोग हमारी मेहमाननवाज़ी करते। जब हम किसी गाँव में जाते, तो सारा-का-सारा गाँव हमें देखने के लिए बाहर निकल आता। नमस्ते कहकर वे लोग ज़मीन पर पुतलों के माफिक खामोश बैठ जाते, और बस हमें एक-टक देखते रहते।

अकसर गाँववाले खासकर हमारे लिए एक झोंपड़ी बनाते। कभी-कभी मिट्टी से और कभी-कभी बड़ी-बड़ी घास से। उस झोंपड़ी में बस एक पलंग रखने तक की जगह होती थी। कभी-कभी रात को हमारी झोंपड़ी के आस-पास लकड़-बग्घे घूमते थे, और रात को हमारे सिरहाने ही इतनी ज़ोर से डरावनी हूक लगाते की पूछो मत! मगर न्यासालैंड के साक्षियों पर उन जंगली जानवरों से भी ज़्यादा खतरनाक ताकतों का हमला होनेवाला था।

राष्ट्रवाद का बखेड़ा

पूरे अफ्रीका में आज़ादी की लड़ाइयाँ छिड़ रही थीं। और न्यासालैंड में सबसे अपेक्षा की जाती थी कि वहाँ की एकमात्र पार्टी के सदस्य बनें। अचानक ही, हमारी तटस्थता एक बहुत ही बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बन गयी। तब मैं ऑफिस का काम संभाल रहा था, क्योंकि हमारे शाखा ओवरसियर, भाई मैल्कम वीगो बाहर गए हुए थे। सो मैंने न्यासालैंड के उस समय के प्रधान मंत्री, डॉ. हेस्टिंग्स कामूज़ू बांदा से मुलाकात करने की गुज़ारिश की। मेरे साथ दो मसीही प्राचीन भी थे, और हमने उन्हें अपनी तटस्थता के बारे में समझाया, और हमारी वह मुलाकात शांतिपूर्वक खत्म हुई। इसके बावजूद, करीब एक महीने बाद, यानी फरवरी १९६४ को, इलॆटन मवाचांदे सताहट का पहला शिकार बना। उसे लोगों ने भालों और बरछियों से मार डाला, क्योंकि उन लोगों के सिर पर खून सवार था। उसके गाँव के बाकी के साक्षियों को वहाँ से भाग जाने पर मज़बूर किया गया।

हमने डॉ. बांदा को एक टॆलिग्राम भेजा, और उनसे अपील की कि अपना अधिकार इस्तेमाल करके ऐसी हिंसा को रोकें। मुझे जल्द ही प्रधान मंत्री के ऑफिस से एक फोन आया और मुझे उनसे मिलने के लिए बुलाया गया। सो मैं एक और मिशनरी, हैरॉल्ड गाय, और वहाँ के एक साक्षी, एलॆक्ज़ांडर माफांबाना के साथ डॉ. बांदा से मिलने गया। उनके दफ्तर में दो मंत्री भी बैठे हुए थे।

जैसे ही हम बैठे, डॉ. बांदा मुँह से एक भी शब्द निकाले बिना, हमें टॆलिग्राम हिलाकर दिखाने लगे। आखिर में उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ी और कहा: “मिस्टर योहानसन, इस टॆलिग्राम का मतलब क्या है?” फिर एक बार हमने उन्हें समझाया कि हम किसी राजनीति में भाग नहीं लेते, और मैंने कहा: “इलॆटन मवाचांदे का खून हुआ है, आप ही हमारी मदद कर सकते हैं।” इसके बाद डॉ. बांदा थोड़े शांत हो गए।

मगर वहाँ मौजूद एक मंत्री ने दावा किया कि किसी दूर-दराज़ के गाँव में साक्षियों ने अधिकारियों को बिलकुल सहयोग नहीं दिया। दूसरे मंत्री ने किसी फलाने-फलाने गाँव का नाम लेकर कहा कि वहाँ के साक्षियों ने डॉ. बांदा के बारे में भला-बुरा कहा है। लेकिन फिर भी वह हमें ऐसे लोगों का एक भी नाम नहीं बता सके जिन्होंने ऐसा कहा हो। हमने उन्हें समझाया कि यहोवा के साक्षियों को यह सिखाया जाता है कि हमेशा सरकार का या अधिकारियों का आदर करें। लेकिन दुःख की बात है कि डॉ. बांदा और उनके साथियों की गलतफहमी दूर करने की हमारी सभी कोशिशें नाकाम रहीं।

हमारी जान खतरे में थी

न्यासालैंड को १९६४ में आज़ादी मिल गयी और वह मालावी गणराज्य बन गया। लेकिन हमारा प्रचार का काम चलता रहा। मगर हम पर आहिस्ते-आहिस्ते दबाव बढ़ रहा था। इस समय देश के उत्तरी भाग के साक्षियों ने हमें फोन करके बताया कि वहाँ लोगों ने सरकार के खिलाफ बगावत कर दी है। हमें लगा कि फौरन किसी को जाकर हमारे साक्षियों की हालत का जायज़ा लेना होगा और उनका हौसला बढ़ाना होगा। पहले भी मैं वहाँ के जंगलों में अकेला गया था, और लिंडा ने साहस के साथ मुझे जाने भी दिया था। मगर इस बार उसने मुझसे बिनती की कि मैं पास के ही एक जवान साक्षी, लॉइड लीक्वीडे को साथ ले जाऊँ। आखिर मैं मान गया। मैंने कहा, ‘चलो, अगर लिंडा को इसी से खुशी मिलती है, तो ठीक है।’

हमसे कहा गया था कि हमें किसी फलानी-फलानी नदी को शाम के ६ बजे के करफ्यू से पहले ही पार करना होगा। हमने समय पर पहुँचने की बहुत कोशिश की, मगर सड़क खराब होने की वज़ह से हम वक्‍त पर नहीं पहुँच पाए। तब जाकर हमें पता चला कि ऊपर से ऑर्डर आयी है कि छः बजे के बाद नदी के इस पार जो भी दिखे, उसे गोली से उड़ा दिया जाए। जब हम नदी के पास अपनी गाड़ी लेकर पहुँचे, हमने देखा कि नाव नदी की दूसरी तरफ पहुँच चुकी थी। भाई लीक्वीडे ने चिल्लाकर कहा कि आकर हमें उस पार ले चलो। नाव तो आयी, मगर उस पर सवार एक सिपाही ने चिल्लाकर कहा: “मुझे उस गोरे आदमी को गोली मारनी होगी!”

पहले तो मुझे लगा कि ये बस गीदड़ भबकी है। मगर जैसे ही नाव पास आयी, उस सिपाही ने मुझे ऑर्डर दिया कि मैं अपनी गाड़ी के लाइट्‌स के आगे खड़े हो जाऊँ। इसी समय मेरा अफ्रीकी दोस्त फौरन हमारे बीच में आकर खड़ा हो गया, और उस सिपाही से मिन्‍नतें करने लगा कि उन्हें छोड़ दो पर मुझे मार दो। मेरे बदले वह अपनी जान देने के लिए राज़ी था, यह देखकर उस सिपाही का दिल पसीज गया, और उसने अपनी बंदूक नीचे कर ली। बस, मुझे यीशु मसीह के शब्द याद आ गए: “इस से बड़ा प्रेम किसी का नहीं, कि कोई अपने मित्रों के लिये अपना प्राण दे।” (यूहन्‍ना १५:१३) मैं कितना खुश था कि मैंने लिंडा की बात मानी और उस अज़ीज़ भाई को साथ ले गया था!

अगले दिन कुछ गुंडों ने ब्लैंटाइर का रास्ता रोक रखा था। वे लोग भाई लीक्वीडे की पार्टी मेंबरशिप का कार्ड देखना चाहते थे। हमारे पास बस एक ही रास्ता था—भीड़ के बीच में से भाग निकलना, और वह भी बहुत ही तेज़ी से! मैंने अपनी गाड़ी को अचानक गियर में डाला, जिससे गाड़ी आगे की ओर लपकी। इससे वे लोग चौंक गए और बस हमने वहाँ से गाड़ी भगायी। अगर भाई लीक्वीडे उन लोगों के हाथ में पड़ जाते, तो शायद हम उस भाई को फिर कभी ज़िंदा न देखते। हम शाखा दफ्तर में वापस लोटे। मगर हम दोनों बुरी तरह सहमें हुए से थे। मगर शुक्र है यहोवा की सुरक्षा का, हम ज़िंदा थे।

विश्‍वास की वज़ह से कैद

मलावी में हमारे काम पर अक्‍तूबर १९६७ को सरकारी पाबंदी लगा दी गयी। उस समय देश में करीब १८,००० साक्षी थे। दो हफ्ते बाद हमें खबर हुई की राजधानी, लिलाँग्वी में ३,००० साक्षियों को कैद कर लिया गया है। हमने फैसला किया कि उसी रात गाड़ी से ३०० किलोमीटर तय करके वहाँ जाएँगे, और कुछ नहीं तो बस उन्हें हौसला देंगे। हमने लैंड रोवर गाड़ी में वॉचटावर के साहित्य भरे। यहोवा का शुक्र है, कहीं पर भी हमारी तलाशी नहीं ली गयी। रास्ते भर में, एक के बाद एक कलीसिया में हम बक्से भरके आध्यात्मिक भोजन देते गए।

सुबह हम कैदखाने की ओर रवाना हो गए। उफ्फ! हमने जो देखा, उस पर हमें यकीन ही नहीं हुआ! पूरी रात पानी बरसा था, और हमारे मसीही भाई बहनों को बाहर खुले आँगन में खड़ा किया गया था। आँगन के चारों ओर बाड़ा लगा था। वे लोग पानी से तरबतर थे, और कुछ लोग अपने कंबलों को बाड़ों पर सुखाने की कोशिश कर रहे थे। हम बाड़े में से ही कुछ लोगों से बात कर पाए।

दोपहर को अदालत में उन पर मुकदमा चलाया गया, और कई लोग यहोवा के साक्षी होने का दावा करते हुए गवाही देने के लिए आगे आए। हमने उनकी आँखों में आँखें डालने की कोशिश की, मगर उनके चहरे पर कोई भावना नहीं थी। यह देखकर हमारी आँखें फटी-की-फटी ही रह गयी कि अदालत में खड़े इन सभी लोग ने अपने विश्‍वास को त्याग दिया! मगर, मुझे बाद में पता चला की वहाँ के भाई इनमें से एक भी आदमी को नहीं जानते थे जिन्होंने अभी-अभी विश्‍वास को त्यागा था। दरअसल ये सच्चे साक्षियों की हिम्मत तोड़ने के लिए बनायी गई एक गंदी साज़िश थी।

इस बीच हमें देश से निकालने का हुक्म दिया गया। ब्लाँटाइर में हमारे ब्रांच ऑफिस पर कब्ज़ा कर लिया गया था, और मिशनरियों को देश छोड़ने के लिए २४ घंटे की मोहलत दी गयी। खैर, हम वापस घर लोटे तो क्या देखा? एक पुलिस अफसर हमारे लिए हमारे ही घर का दरवाज़ा खोल रहा था! अगली दोपहर को एक पुलिस अफसर आया, और कुछ हिचकिचाहट के साथ वह हमें गिरफ्तार करके हवाई-अड्डे तक ले गया।

हम अक्‍तूबर ८, १९६७ को मलावी से रवाना हो गए। हमें पता था कि वहाँ हमारे मसीही भाई-बहनों पर बहुत कड़ी सताहट आनेवाली है। हम खून के आँसू रो रहे थे। दसियों भाई-बहनों की जान गयी; सैकड़ों भाई-बहनों के साथ वहशियों की तरह सलूक किया गया; और हज़ारों लोगों को अपने घरों, नौकरी-पेशे और संपत्ति से हाथ धोना पड़ा। बहरहाल, लगभग सभी भाई-बहनों ने अपने विश्‍वास को बिलकुल नहीं त्यागा।

नए-नए असाइनमेंट्‌स

इतनी मुश्‍किलात के बावजूद, हमारे ख्याल में भी कभी नहीं आया कि हम मिशनरी काम छोड़ दें। इसके बजाय हमने नया असाइनमेंट ले लिया। हमें केन्या भेजा गया। इस देश के लोगों और नज़ारों में काफी फर्क है। मसाई लोगों से मिलकर लिंडा बहुत ही खुश हुई। उस समय, कोई भी मसाई यहोवा का साक्षी नहीं था। मगर लिंडा एक मसाई औरत, दोरकास से मिली, और उसके साथ बाइबल स्टडी करने लगी।

दोरकास को पता चला कि परमेश्‍वर को खुश करने के लिए उसे अपनी शादी को कानूनन रजिस्टर कराना चाहिए। उसके दो बच्चों के पिता ने इससे इनकार किया, सो दोरकास ने अपने ही बलबूते पर बच्चों की परवरिश करने की कोशिश की। उसका आदमी साक्षियों पर बहुत गुस्सा गुस्सा था, लेकिन वह अपने परिवार से दूर होकर खुश नहीं था। आखिर में, दोरकास के मनाने पर वह भी यहोवा के साक्षियों के साथ बाइबल स्टडी करने लगा। वह अपनी ज़िंदगी को सही रास्ते पर लाया, एक साक्षी बन गया, और दोरकास से शादी कर ली। दोरकास एक पायनियर बन गयी, और उसका पति और उनका बड़ा बेटा अब अपनी कलीसिया में प्राचीन हैं।

अचानक, १९७३ में केन्या में यहोवा के साक्षियों के काम पर पाबंदी लगा दी गयी, और हमें देश छोड़ना पड़ा। कुछ महीनों बाद ही पाबंदी हठा दी गयी। मगर तब तक हमें अपना तीसरा असाइनमेंट मिल चुका था—ब्राज़ाविल, काँगो। हम अप्रैल १९७४ को वहाँ पहुँचे। कुछ तीन साल बाद, हम मिशनरियों पर जासूस होने का झूठा इल्ज़ाम लगाया गया, और हमारे काम को बंद कर दिया गया। इसके अलावा, उस देश के राष्ट्रपति के कत्ल किए जाने के बाद ब्राज़ाविल में लड़ाई छिड़ गयी। सभी मिशनरियों को अलग-अलग देशों में भेज दिया गया, मगर हमसे कहा गया कि जितने ज़्यादा समय तक हो सके, वहीं रहें। कई हफ्ते हम यह सोचकर रात को सोते कि पता नहीं कल की सुबह देखेंगे भी या नहीं। मगर हमें चैन की नींद आयी क्योंकि यहोवा पर हमारा पूरा भरोसा था। कुछ महीनों तक हम ब्रांच ऑफिस में अकेले थे। मेरे ख्याल से हमारी मिशनरी सेवा में वह दौर हमारे विश्‍वास की सबसे कड़ी परीक्षा का दौर था, लेकिन इससे हमारे विश्‍वास को सबसे ज़्यादा मज़बूती भी मिली।

अप्रैल १९७७ को हमें ब्राज़ाविल छोड़ना पड़ा। हमें बहुत ही ताज्जुब हुआ—हमें एक नया ब्रांच ऑफिस खोलने के लिए ईरान भेजा गया था। हमारी पहली सबसे बड़ी मुश्‍किल थी वहाँ की फारसी भाषा सीखना। एक नयी भाषा सीखने की वज़ह से हम अपनी सभाओं में बस छोटे-छोटे जवाब देते थे, बच्चों की तरह! १९७८ में ईरान में आंदोलन छिड़ गया। हम भारी लड़ाई के दौरान भी वहीं रहे, मगर जुलाई १९८० में, हम सभी मिशनरियों को देश से निकाल दिया गया।

अब पाँचवे असाइनमेंट में हमें फिर एक बार मध्य अफ्रीका, ज़ाएर भेजा गया। इसे अब काँगो लोकतंत्र गणराज्य कहा जाता है। हमने ज़ाएर में १५ साल तक सेवा की, और कुछ समय तक प्रतिबंध के समय में भी। जब हम वहाँ आए थे तब वहाँ करीब २२,००० साक्षी थे—आज वहाँ १,००,००० से भी ज़्यादा हैं!

घर वापसी!

अगस्त १२, १९९३ को मलावी में यहोवा के साक्षियों पर से प्रतिबंध हठा दिया गया। दो साल बाद मुझे और लिंडा को फिर एक बार वहीं भेजा गया जहाँ से हमने मिशनरी सफर शुरू किया था—मलावी में, उसी खूबसूरत और दिलकश देश में, जिसे ‘अफ्रीका का दिल’ भी कहा जाता है। जनवरी १९९६ से, हम खुशी के साथ मलावी के खुश और शांतिप्रिय लोगों के साथ काम कर रहे हैं। मलावी के वफादार भाइयों के साथ फिर एक बार सेवा करना हमारे लिए कितनी खुशी की बात है! इनमें से कई भाई-बहनों ने तो तीस साल तक सताहट के दौर को सहा है। हमारे अफ्रीकी भाइयों से हमें हमेशा ही प्रेरणा मिली है, और वे हमारे अज़ीज़ हैं। वे लोग पौलुस के इन शब्दों पर वाकई खरे उतरे हैं: “हमें बड़े क्लेश उठाकर परमेश्‍वर के राज्य में प्रवेश करना होगा।” (प्रेरितों १४:२२) आज, मलावी में करीब-करीब ४१,००० यहोवा के साक्षी आज़ादी से प्रचार करते हैं और बड़े-बड़े अधिवेशन आयोजित करते हैं।

हमें अपने सभी असाइनमेंटों में बहुत ही खुशी मिली है। लिंडा ने और मैंने सीखा है कि ज़िदगी के कोई भी हालात, वे चाहे कितने भी मुश्‍किल क्यों न हों, आपको अच्छा इंसान बना सकते हैं। बशर्ते हममें “यहोवा का आनन्द” बना रहे। (नहेम्याह ८:१०) जब हमें अपने असाइनमेंट छोड़ने पड़े, तब दूसरे असाइनमेंट में एडजस्ट होने में मुझे कुछ-कुछ मुश्‍किल ज़रूर हुई। मगर लिंडा इन बदलावों को बड़ी आसानी से एडजस्ट कर लेती है। उसके इसी गुण की वज़ह से—और खासकर यहोवा में उसके अटूट विश्‍वास की वज़ह से—मुझे काफी मदद मिली है, और एक “अच्छी पत्नी” की आशीष भी मिली है।—नीतिवचन १८:२२, NW.

हमें ज़िंदगी भर कितनी खुशियाँ मिली हैं! बार-बार हमने यहोवा का शुक्रिया किया है कि उसका साया हमारे साथ था। (रोमियों ८:३१) पूर्ण समय की सेवकाई पर भाषण देकर आज चालीस साल से ज़्यादा बीत चुके हैं। हमें खुशी है कि हमने ‘परखकर देखा हे कि यहोवा कैसा भला है।’ (भजन ३४:८; मलाकी ३:१०) हमें पूरा यकीन है कि ‘अपने लिए नहीं जीना’ एकदम बेहतरीन ज़िंदगी है।

[पेज 20 पर नक्शा/तसवीर]

जिन देशों में हमने सेवा की

ईरान

कांगो गणराज्य

कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य

केन्या

मलावी

[पेज 22 पर तसवीर]

जब हम दक्षिण अफ्रीका के केप टाऊन से होते हुए मलावी जा रहे थे

[पेज 23 पर तसवीर]

जब हमें मलावी में गिरफ्तार करके देश से निकाला गया

[पेज 24 पर तसवीर]

मसाई जन-जाति की दोरकास अपने पति के साथ

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