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  • जन भाषणों की तैयारी करना
    परमेश्‍वर की सेवा स्कूल से फायदा उठाइए
    • जन भाषणों की तैयारी करना

      यहोवा के साक्षियों की ज़्यादातर कलीसियाओं में, हर हफ्ते बाइबल के किसी विषय पर जन भाषण दिया जाता है। अगर आप एक प्राचीन या एक सहायक सेवक हैं, तो क्या आप ज़ाहिर कर रहे हैं कि आप एक अच्छे वक्‍ता और काबिल शिक्षक हैं? अगर हाँ, तो शायद आपको जन भाषण देने के लिए कहा जाए। परमेश्‍वर की सेवा स्कूल से मिली तालीम की बदौलत हज़ारों भाई, जन भाषण देने का बढ़िया सुअवसर पाने के काबिल बने हैं। अगर आपको जन भाषण देने के लिए कहा जाता है, तब आपको किस तरह तैयारी करनी चाहिए?

      आउटलाइन का अध्ययन कीजिए

      भाषण की तैयारी में किसी भी तरह की खोजबीन शुरू करने से पहले, आउटलाइन को पूरा पढ़िए और फिर उस पर मनन करते रहिए, जब तक आप उसमें दी गयी बातों को अच्छी तरह समझ न लें। भाषण के शीर्षक को अपने मन में अच्छी तरह बिठा लीजिए। गौर कीजिए कि आप अपने सुननेवालों को क्या सिखाना चाहते हैं। भाषण देने का आपका मकसद क्या है?

      भाषण के उपशीर्षकों को पढ़िए, समझने की कोशिश कीजिए और जाँचिए। ये आपके भाषण के मुख्य मुद्दे हैं। ध्यान दीजिए कि हरेक मुद्दा, भाषण के शीर्षक से क्या ताल्लुक रखता है? हर मुख्य मुद्दे के नीचे कई छोटे-छोटे मुद्दे दिए होते हैं और इन मुद्दों के नीचे इनका खुलासा करनेवाले कुछ विचार होते हैं। गौर कीजिए कि आउटलाइन का हर भाग, किस तरह पिछले भाग से जुड़ा है और अगले भाग के लिए सुननेवालों के मन को तैयार करता है। और देखिए कि हर भाग, भाषण के मकसद तक पहुँचने के लिए कैसे मदद करता है। जब आप भाषण के शीर्षक और उसके मकसद को समझ लेते हैं और कि मुख्य मुद्दों के ज़रिए किस तरह यह मकसद पूरा होता है, तब आप दी गयी जानकारी की तैयारी शुरू कर सकते हैं।

      सबसे पहले यह कीजिए कि आपके भाषण में जितने मुख्य मुद्दे हैं यानी चार या पाँच, उतने ही भागों में भाषण को बाँटना अच्छा होगा। फिर हरेक भाग को एक छोटे-से भाषण के तौर पर तैयार कीजिए।

      याद रखिए कि आउटलाइन, भाषण तैयार करने में सिर्फ एक सहायक है। यह आपके नोट्‌स्‌ का काम नहीं करती जिसे देखकर आप भाषण देते हैं। आउटलाइन एक पंजर या कंकाल की तरह है जिसमें मानो माँस-पेशियाँ भरने, दिल डालने और जान फूँकने की ज़रूरत होती है, तभी जाकर एक जीता-जागता भाषण बनता है।

      बाइबल का इस्तेमाल कीजिए

      यीशु मसीह और उसके चेलों ने जो कुछ सिखाया, पवित्र शास्त्र से सिखाया। (लूका 4:16-21; 24:27; प्रेरि. 17:2, 3) आप भी वैसा ही कर सकते हैं। बाइबल ही आपके भाषण की बुनियाद होनी चाहिए। इसलिए आउटलाइन में दी गयी जानकारी सिर्फ समझाने और उसे लागू करने के बजाय यह समझने की कोशिश कीजिए कि बाइबल इस जानकारी को कैसे सही साबित करती है। और फिर, बाइबल का इस्तेमाल करके सिखाइए।

      अपने भाषण की तैयारी करते वक्‍त, आउटलाइन में दी हर आयत खोलकर पढ़िए और उसकी जाँच कीजिए। उसके आस-पास की आयतों पर भी ध्यान दीजिए। कुछ आयतें सिर्फ हालात के बारे में हमारी समझ बढ़ाने के लिए होती हैं। इसलिए हर आयत को पढ़ने या उस पर बात करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। सिर्फ उन्हीं आयतों को चुनिए जिनसे आपके सुननेवालों को खास फायदा हो। अगर आप आउटलाइन में दी गयी आयतों पर ही ध्यान देंगे, तो आपको उनके अलावा दूसरी आयतों का इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

      अच्छा भाषण देने का मतलब यह नहीं कि आप ज़्यादा-से-ज़्यादा आयतों का इस्तेमाल करें। इसके बजाय, अच्छा भाषण वह होता है जिसमें बेहतरीन तरीके से सिखाया जाता है। जब आप आयत खोलकर पढ़ने के लिए कहते हैं, तो सुननेवालों को बताइए कि आप वह आयत क्यों इस्तेमाल कर रहे हैं। थोड़ा वक्‍त देकर समझाइए कि वह आयत कैसे लागू होती है। और आयत पढ़ने के बाद, उस पर चर्चा करते वक्‍त अपनी बाइबल खुली ही रखिए। मुमकिन है कि यह देखकर सभा में हाज़िर लोग भी अपनी-अपनी बाइबल खुली रखें। आप, अपने सुननेवालों में परमेश्‍वर के वचन से ज्ञान हासिल करने की दिलचस्पी कैसे जगा सकते हैं और इससे पूरा फायदा पाने के लिए आप उनकी मदद कैसे कर सकते हैं? (नहे. 8:8, 12) ऐसा करने के तीन तरीके हैं: आयतों का मतलब समझाना, उदाहरण देना और उन्हें लागू करने का तरीका बताना।

      मतलब समझाना। जब आप किसी खास आयत को समझाने की तैयारी करते हैं, तो उस वक्‍त खुद से पूछिए: ‘इसका क्या मतलब है? इसे मैं अपने भाषण में क्यों बताना चाहता हूँ? इस आयत के बारे में सुननेवालों के मन में कौन-कौन-से सवाल उठ सकते हैं?’ आपको यह जाँच करनी पड़ सकती है कि आस-पास की आयतें क्या बताती हैं, उसे कब, कहाँ और किसने लिखा था। यह किन हालात में लिखी गयी थी, उसके शब्दों का ज़ोर किस पर है और ईश्‍वर-प्रेरणा से लिखनेवाले ने उसे किस इरादे से लिखा था। यह सब जानने के लिए आपको खोजबीन करनी होगी। इस बारे में आपको, “विश्‍वासयोग्य और बुद्धिमान दास” के ज़रिए तैयार किए गए साहित्य में जानकारी का अनमोल खज़ाना मिलेगा। (मत्ती 24:45-47) आयत की हर बारीकी समझाने की कोशिश मत कीजिए, बल्कि इतना ही बताइए कि आपने अपने सुननेवालों को जो आयत पढ़कर सुनायी, उसका मुद्दे से क्या ताल्लुक है।

      उदाहरण देना। उदाहरण इसलिए दिए जाते हैं कि सुननेवाले मामले की तह तक जाएँ और उसे अच्छी तरह समझें या आपने जो मुद्दा या सिद्धांत बताया है, उसे याद रख सकें। उदाहरणों की मदद से लोग आपकी बात आसानी से समझ पाते हैं और जो वे पहले से जानते हैं, उसकी तुलना इस जानकारी के साथ करते हैं। यीशु ने अपने मशहूर पहाड़ी उपदेश में इसी तरह उदाहरणों का इस्तेमाल किया था। उसने “आकाश के पक्षियों,” “जंगली सोसनों,” “सकेत फाटक,” और ‘चटान पर बने घर’ जैसी कई मिसालें दीं जिनकी वजह से उसका सिखाने का तरीका बड़ा ज़बरदस्त था, उसकी शिक्षाएँ समझने में आसान थीं और भूली नहीं जा सकतीं।—मत्ती, अध्या. 5-7.

      लागू करना। जैसे ऊपर बताया है, समझाने और उदाहरण देने से सुननेवालों को ज्ञान तो ज़रूर मिलता है, मगर इसका फायदा तभी होगा जब वे इस ज्ञान को अमल में लाएँगे। सच है कि बाइबल के संदेश को अपने जीवन में लागू करने की ज़िम्मेदारी हर सुननेवाले की है, फिर भी उन्हें क्या कदम उठाने चाहिए, यह जानने के लिए आप उनकी मदद कर सकते हैं। पहले ध्यान दीजिए कि आपके सुननेवाले, चर्चा की जा रही आयत का मतलब और उसके ज़रिए आप क्या कहना चाहते हैं, यह समझ चुके हैं या नहीं। उसके बाद, कुछ वक्‍त के लिए यह बताइए कि पेश की गयी जानकारी का हमारे विश्‍वासों और चालचलन पर क्या असर होना चाहिए। जिस सच्चाई पर चर्चा हो रही है, उससे मेल न खानेवाले गलत विचारों और चालचलन से दूर रहने के फायदों पर ज़ोर दीजिए।

      जब आप सोच रहे होते हैं कि आयतों को कैसे लागू करें, तो हमेशा याद रखिए कि सभा में हाज़िर लोग, अलग-अलग माहौल में पले-बड़े हैं और वे तरह-तरह के हालात का सामना कर रहे हैं। सुननेवालों में कुछ दिलचस्पी दिखानेवाले नए लोग हो सकते हैं, कुछ जवान तो कुछ बूढ़े और ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जो अपनी ज़िंदगी में तरह-तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं। आप अपना भाषण इस ढंग से पेश कीजिए जिससे सुननेवाले कुछ सीखें और जानकारी उनके काम आए। ऐसी सलाह मत दीजिए जिससे सुननेवालों को यह लगे कि आप सिर्फ चंद लोगों को मन में रखकर सलाह दे रहे हैं।

      भाषण देनेवाले के फैसले

      आपके भाषण के संबंध में कुछ बातें पहले से तय होती हैं। जैसे कि आउटलाइन के उपशीर्षक यानी भाषण के मुख्य मुद्दे साफ-साफ लिखे होते हैं और यह भी बताया जाता है कि हर उपशीर्षक पर चर्चा करने के लिए कितना समय लेना चाहिए। बाकी के फैसले आपको करने होते हैं। जैसे हर मुख्य मुद्दे के नीचे जो छोटे मुद्दे दिए होते हैं, उनमें से किन मुद्दों पर आप ज़्यादा समय बिताएँगे और किन पर कम, यह चुनाव आपको करना होगा। यह मत सोचिए कि आपको हर छोटे मुद्दे पर बराबर ज़ोर देना है। ऐसा करने से आपको पूरी जानकारी फटाफट बतानी पड़ेगी और सुननेवालों को यह सबकुछ याद रखना बड़ा मुश्‍किल लगेगा। आप यह कैसे तय कर सकते हैं कि आपको किन छोटे मुद्दों को खोलकर समझाना है, और किन्हें थोड़े शब्दों में बताना है या उनका महज़ ज़िक्र करके छोड़ देना है? इसके लिए खुद से पूछिए: ‘किन मुद्दों पर ज़्यादा ज़ोर देने से मैं भाषण का ज़रूरी संदेश अपने सुननेवालों तक पहुँचा सकूँगा? किन मुद्दों से मेरे सुननेवालों को ज़्यादा-से-ज़्यादा फायदा होगा? किसी आयत और उससे जुड़े मुद्दे का ज़िक्र न करने से, क्या पेश की गयी दलीलें कमज़ोर पड़ जाएँगी?’

      इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखिए कि आप अपने भाषण में अनुमान की बिनाह पर कोई भी बात न कहें, ना ही अपनी राय ज़ाहिर करें। परमेश्‍वर के पुत्र, यीशु मसीह ने भी “अपनी ओर से” कोई बात नहीं कही थी। (यूह. 14:10) यह मत भूलिए कि लोग यहोवा के साक्षियों की सभाओं में इसलिए आते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि इनमें बाइबल पर चर्चा की जाती है। अगर आप एक अच्छे वक्‍ता के तौर पर जाने जाते हैं, तो यह शायद इसलिए है क्योंकि आप हमेशा लोगों का ध्यान अपनी तरफ नहीं बल्कि परमेश्‍वर के वचन पर दिलाते हैं। और इसी वजह से लोग, आपके भाषण सुनना पसंद करते हैं।—फिलि. 1:10, 11.

      एक आउटलाइन जिसमें सिर्फ कुछ मुद्दे दिए होते हैं, उससे बाइबल की बढ़िया जानकारी देनेवाला भाषण तैयार करने के बाद, अब आपको उसका अभ्यास करना चाहिए। ऐसा ऊँची आवाज़ में करना ज़्यादा फायदेमंद होगा। आपको इस बात का ध्यान रखना है कि सारे मुद्दे आपके मन में अच्छी तरह बैठ जाएँ। भाषण देते वक्‍त आपको पूरे यकीन के साथ बोलना चाहिए, जानकारी को जानदार बनाना चाहिए, साथ ही पूरे जोश के साथ सच्चाई पेश करनी चाहिए। अपना भाषण पेश करने से पहले, खुद से यह सवाल पूछिए: ‘भाषण देने का मेरा मकसद क्या है?’ इसके अलावा, ये सवाल भी पूछिए: ‘क्या मुख्य मुद्दे साफ पहचाने जाते हैं? क्या मेरा भाषण पूरी तरह बाइबल पर आधारित है? क्या एक मुख्य मुद्दे की चर्चा अगले मुद्दे के लिए सुननेवालों को तैयार करती है? क्या भाषण से यहोवा और उसके इंतज़ामों के लिए कदरदानी बढ़ती है? क्या भाषण की समाप्ति का इसके शीर्षक से सीधा संबंध है? क्या इससे सुननेवालों को पता लगता है कि उन्हें क्या-क्या कदम उठाने हैं और क्या भाषण के आखिरी शब्द उनके अंदर यह सब करने का जोश भरते हैं?’ अगर इन सारे सवालों का जवाब आप ‘हाँ’ में दे सकते हैं, तो पूरी कलीसिया को फायदा पहुँचाने और यहोवा की स्तुति करने के लिए, आप “ज्ञान का ठीक बखान” करने के काबिल हैं।—नीति. 15:2.

  • सिखाने की कला में महारत हासिल कीजिए
    परमेश्‍वर की सेवा स्कूल से फायदा उठाइए
    • सिखाने की कला में महारत हासिल कीजिए

      एक सिखानेवाले के तौर पर आपका लक्ष्य क्या है? अगर आप हाल ही में राज्य प्रचारक बने हैं, तो आप बेशक यह सीखना चाहेंगे कि लोगों के साथ बाइबल अध्ययन कैसे करें, क्योंकि यीशु ने अपने शिष्यों को चेला बनाने का काम सौंपा है। (मत्ती 28:19, 20) और अगर आप पहले से यह काम कर रहे हैं, तो आपकी शायद यह इच्छा हो कि सिखाने की काबिलीयत को और भी बढ़ाते जाएँ, ताकि आप उन लोगों के दिलों तक पहुँच सकें जिनकी आप मदद करना चाहते हैं। अगर आप एक माता या पिता हैं, तो बेशक आप अपने बच्चों को इस तरह सिखाना चाहेंगे जिससे उन्हें अपना जीवन यहोवा को समर्पित करने की प्रेरणा मिले। (3 यूह. 4) अगर आप एक प्राचीन हैं या प्राचीन बनने के लिए मेहनत कर रहे हैं, तो आप शायद ऐसे वक्‍ता बनना चाहते हों, जो सुननेवालों में यहोवा और उसके मार्गों के लिए गहरी कदरदानी बढ़ा सके। आप ये लक्ष्य कैसे हासिल कर सकते हैं?

      आइए हम यीशु मसीह की मिसाल से सीखें जो एक महान शिक्षक था। (लूका 6:40) वह चाहे पहाड़ी की ढलान पर बैठी हुई भीड़ से बात कर रहा था, या फिर राह चलते लोगों से, उसने जो कहा और जिस तरीके से कहा, वह लोगों पर गहरी छाप छोड़ गया। यीशु लोगों को सोचने पर मजबूर कर देता था और उनके दिल में कदम उठाने की प्रेरणा जगाता था। वह जो कुछ सिखाता था, उसे रोज़मर्रा ज़िंदगी पर इस तरह लागू करता था कि लोग आसानी से समझ जाते थे। क्या आप भी उसकी तरह सिखा सकते हैं?

      यहोवा पर भरोसा रखिए

      यीशु सिखाने में माहिर था, क्योंकि उसका अपने स्वर्गीय पिता के साथ बहुत नज़दीकी रिश्‍ता था और उस पर परमेश्‍वर की आत्मा थी। क्या आप यहोवा से बिनती करते हैं कि वह आपको ऐसी काबिलीयत दे ताकि आप असरदार तरीके से बाइबल अध्ययन करा सकें? अगर आप एक माता या पिता हैं, तो क्या आप अपने बच्चों को सिखाने में परमेश्‍वर का मार्गदर्शन पाने के लिए लगातार बिनती करते हैं? क्या आप भाषण देने या सभाएँ चलाने की तैयारी करते वक्‍त, सच्चे दिल से प्रार्थना करते हैं? इस तरह अगर आप, प्रार्थना करते हुए यहोवा पर पूरा भरोसा रखेंगे, तो वह एक काबिल शिक्षक बनने में आपकी ज़रूर मदद करेगा।

      यहोवा पर भरोसा रखने का एक और तरीका है, उसके वचन, बाइबल पर निर्भर रहना। धरती पर अपनी सिद्ध जीवन की आखिरी रात को, यीशु ने अपने पिता से प्रार्थना की: “मैं ने तेरा वचन उन्हें पहुंचा दिया है।” (यूह. 17:14) यीशु को सदियों का तजुर्बा था, फिर भी उसने लोगों को कभी अपने विचार नहीं सिखाए। इसके बजाय उसने हरदम वही बातें बतायीं जो उसके पिता ने उसे सिखायी थीं, इस तरह वह हमारे लिए एक बेहतरीन मिसाल छोड़ गया। (यूह. 12:49, 50) बाइबल के रूप में सुरक्षित, परमेश्‍वर का वचन लोगों की ज़िंदगियाँ बदलने की ताकत रखता है। जी हाँ, इससे लोगों के काम, उनके सोचने का तरीका, उनकी भावनाएँ सबकुछ बदल जाता है। (इब्रा. 4:12) जैसे-जैसे आप परमेश्‍वर के वचन का ज़्यादा-से-ज़्यादा ज्ञान लेंगे और उसे प्रचार में अच्छी तरह इस्तेमाल करना सीखेंगे, वैसे-वैसे आप सिखाने में इस कदर माहिर होंगे कि आप लोगों को परमेश्‍वर की तरफ खींच पाएँगे।—2 तीमु. 3:16, 17.

      यहोवा की महिमा कीजिए

      मसीह की तरह काबिल शिक्षक बनने का मतलब महज़ एक दिलचस्प भाषण देना नहीं है। यह सच है कि यीशु के “मनोहर शब्द” सुनकर, लोग दंग रह जाते थे। (लूका 4:22, बुल्के बाइबिल) मगर, बढ़िया तरीके से बात करने में यीशु का मकसद क्या था? उसका मकसद था, यहोवा की महिमा करना, न कि लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचना। (यूह. 7:16-18) इतना ही नहीं, उसने अपने शिष्यों को यह कहकर उकसाया: “तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के साम्हने चमके कि वे तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की, जो स्वर्ग में है, बड़ाई करें।” (तिरछे टाइप हमारे।) (मत्ती 5:16) उसी तरह दूसरों को सिखाते वक्‍त, हमें भी यही सलाह माननी चाहिए। हमारा भी यही लक्ष्य होना चाहिए कि यहोवा की महिमा करें और ऐसी बात कहने से दूर रहें जिससे लोग हमारी वाह-वाही करने लगें। इसलिए, हम क्या बोलेंगे और कैसे बोलेंगे, इसकी तैयारी करते वक्‍त, हमें खुद से यह पूछने की ज़रूरत है: ‘क्या इससे लोगों के दिल में यहोवा के लिए कदरदानी बढ़ेगी, या फिर उनका ध्यान मेरी तरफ खिंचेगा?’

      उदाहरण के लिए, असरदार तरीके से सिखाने के लिए उदाहरणों या असल ज़िंदगी की लोगों की मिसालें इस्तेमाल की जा सकती हैं। फिर भी, यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि अगर उदाहरण लंबा-चौड़ा हो, या किसी के अनुभव को कुछ ज़्यादा ही खींचकर बताया जाए, तो इनके ज़रिए जो मुद्दा सिखाया जा रहा है, वही सुननेवालों को याद नहीं रहेगा। उसी तरह, लोगों का मन बहलानेवाले किस्से-कहानियाँ सुनाने से हम अपने प्रचार करने का मकसद पूरा नहीं कर पाएँगे। दरअसल, इस तरह सिखानेवाला, परमेश्‍वर की शिक्षा देने का असली मकसद पूरा करने के बजाय, लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचता है।

      ‘अन्तर करें’

      सही मायनों में शिष्य बनने के लिए ज़रूरी है कि एक इंसान सिखायी जा रही बातों को अच्छी तरह समझे। उसके लिए सच्चाई जानना, साथ ही यह समझना बेहद ज़रूरी है कि यह सच्चाई किस तरह दूसरे धर्मों से बिलकुल अलग है। इसके लिए तुलना करके फर्क देखने की ज़रूरत है।

      यहोवा ने बार-बार अपने लोगों से यह गुज़ारिश की कि जो शुद्ध है और जो अशुद्ध है, उसमें ‘अन्तर करें।’ (लैव्य. 10:9-11) उसने बताया कि उसके महान आत्मिक मंदिर में सेवा करनेवाले, उसकी प्रजा को “पवित्र अपवित्र का भेद सिखाया” करेंगे। (यहे. 44:23) नीतिवचन की किताब में धार्मिकता और दुष्टता, बुद्धि और मूर्खता में फर्क बतानेवाली ढेरों आयतें हैं। यहाँ तक कि मिलती-जुलती दो चीज़ों के बीच भी फर्क किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, रोमियों 5:7 में पौलुस ने धर्मी और भले इंसान का अंतर बताया। इब्रानियों की किताब में उसने दिखाया कि मसीह, महायाजक के तौर पर जो सेवा करता है, वह हारून की सेवा से श्रेष्ठ है। सत्रहवीं सदी के एक शिक्षक, योहान आमोस कमीनियस ने लिखा: “सिखाने का मतलब काफी हद तक अलग-अलग चीज़ों के बीच यह फर्क समझाना है कि उन्हें किस मकसद से, किस रूप में और किसने रचा। . . . इसलिए जो इंसान इस फर्क को अच्छी तरह समझाता है, वही अच्छी तरह सिखाता है।”

      अब मान लीजिए कि आप किसी को परमेश्‍वर के राज्य के बारे में सिखा रहे हैं। अगर उस शख्स को राज्य के बारे में सही समझ नहीं है, तो आप उसे बता सकते हैं कि राज्य के बारे में बाइबल जो बताती है और लोग जो कहते हैं कि राज्य महज़ इंसान के दिल की दशा है, इन दोनों में फर्क है। या आप उसे यह दिखा सकते हैं कि परमेश्‍वर का राज्य किस तरह इंसानों की सरकारों से अलग है। मगर, जो लोग ये बुनियादी सच्चाइयाँ जानते हैं, उनके साथ आप राज्य के बारे में और भी बारीकी से चर्चा कर सकते हैं। आप उन्हें मसीहाई राज्य और पूरे विश्‍व पर यहोवा की हुकूमत के बीच का फर्क बता सकते हैं जिसका ज़िक्र भजन 103:19 में किया गया है। या फिर आप यह बता सकते हैं कि किस तरह यह राज्य, कुलुस्सियों 1:13 में बताए “प्रिय पुत्र के राज्य” से, या इफिसियों 1:10 में बताए “प्रबन्ध” से अलग है। इस तरह अंतर करने या फर्क बताने से, बाइबल की यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा आपके सुननेवालों को साफ-साफ समझ आ जाएगी।

      यीशु ने बार-बार सिखाने का यह तरीका अपनाया। उसने बताया कि मूसा की व्यवस्था को ज़्यादातर लोग जिस तरह समझते थे, उसमें और उस व्यवस्था के असली मकसद में फर्क था। (मत्ती 5:21-48) उसने यह दिखाया कि कैसे परमेश्‍वर की सच्ची भक्‍ति, फरीसियों के कपट भरे कामों से बिलकुल अलग है। (मत्ती 6:1-18) यीशु ने “प्रभुता” जताने के रवैए और त्याग की उस भावना के बीच फर्क दिखाया, जो उसके चेलों को दिखानी चाहिए। (मत्ती 20:25-28) मत्ती 21:28-32 के मुताबिक, एक और अवसर पर, यीशु ने अपने सुननेवालों को उकसाया कि वे सच्चे पश्‍चाताप और अपने आपको धर्मी मानने की भावना के बीच खुद अंतर करें। इससे हम, अच्छी तरह सिखाने के एक और अहम पहलू पर आते हैं।

      सुननेवालों को सोचने के लिए उकसाइए

      मत्ती 21:28 में हम पढ़ते हैं कि यीशु ने फर्क समझाने से पहले यह पूछा: “तुम क्या समझते हो?” इससे ज़ाहिर होता है कि एक काबिल शिक्षक सिर्फ सच्चाइयाँ बयान नहीं करता या सीधे सवालों का जवाब नहीं देता। इसके बजाय, वह अपने सुननेवालों को सोचने-समझने की काबिलीयत बढ़ाने के लिए उकसाता है। (नीति. 3:21, NW; रोमि. 12:1) इसका एक तरीका है, सवाल पूछना। जैसे कि मत्ती 17:25 (NHT) में यीशु ने पूछा: “शमौन, तू क्या सोचता है? पृथ्वी के राजा चुंगी या कर किस से लेते हैं, अपने पुत्रों से या परायों से?” (तिरछे टाइप हमारे।) यीशु ने सवाल पूछकर, पतरस को सोचने के लिए उकसाया और इस तरह मंदिर का कर देने के बारे में, वह खुद-ब-खुद सही नतीजे पर पहुँचा। वैसे ही जब एक आदमी ने यीशु से पूछा: “मेरा पड़ोसी कौन है?” तो यीशु ने पहले एक याजक और एक लेवी के कामों और एक सामरी के कामों के बीच फर्क बताया। फिर यीशु ने उस आदमी से सवाल किया: “अब तेरी समझ में जो डाकुओं में घिर गया था, इन तीनों में से उसका पड़ोसी कौन ठहरा?” (लूका 10:29-36) इस बार भी, यीशु ने अपने सुननेवाले को सीधा जवाब नहीं दिया, बल्कि उसे सोचने में मदद दी जिससे वह अपने सवाल का जवाब खुद-ब-खुद दे सके।—लूका 7:41-43.

      दिल तक पहुँचने की कोशिश कीजिए

      परमेश्‍वर के वचन की सही समझ रखनेवाले शिक्षक जानते हैं कि सच्ची उपासना का मतलब सिर्फ कुछेक सच्चाइयों को मुँह-ज़बानी याद रखना और कायदे-कानूनों को मानकर चलना नहीं है। सच्ची उपासना के लिए यहोवा के साथ एक अच्छा रिश्‍ता कायम करना और उसके मार्गों की दिल से कदर करना बेहद ज़रूरी है। इसमें हमारा मन या हृदय शामिल है। (व्यव. 10:12, 13; लूका 10:25-27) बाइबल में अकसर शब्द “हृदय” (NHT) का मतलब हमारे अंदर का इंसान है। यह शब्द एक इंसान की ख्वाहिशों, भावनाओं, इरादों या उसकी पसंद के लिए भी इस्तेमाल होता है।

      यीशु जानता था कि इंसान बाहरी रूप देखता है, मगर परमेश्‍वर हमारा हृदय जाँचता है। (1 शमू. 16:7, NHT) हम परमेश्‍वर की सेवा इसलिए करते हैं, क्योंकि हम दिल से उससे प्यार करते हैं, ना कि दूसरों की वाह-वाही पाने के लिए। (मत्ती 6:5-8) लेकिन फरीसी बहुत-से काम सिर्फ दिखावे के लिए करते थे। वे व्यवस्था में लिखी हर छोटी-छोटी बात को मानने और खुद के बनाए नियमों का सख्ती से पालन करने पर बड़ा ज़ोर देते थे। लेकिन वे जिस परमेश्‍वर की उपासना करने का दावा करते थे, उसके गुण अपने अंदर पैदा करने से चूक गए। (मत्ती 9:13; लूका 11:42) यीशु ने सिखाया कि परमेश्‍वर की आज्ञा मानना ज़रूरी है, मगर आज्ञा मानते वक्‍त हमारे मन में क्या है, इसकी अहमियत कहीं ज़्यादा है। (मत्ती 15:7-9; मर. 7:20-23; यूह. 3:36) अगर हम यीशु की मिसाल पर चलेंगे, तो हम बेहतरीन तरीके से सिखा पाएँगे। लोगों को यह सिखाना ज़रूरी है कि परमेश्‍वर उनसे क्या माँग करता है। मगर यह भी ज़रूरी है कि वे यहोवा को करीब से जानें, उसके साथ एक रिश्‍ता कायम करें और उससे प्यार करें। तब उनके चालचलन से साफ ज़ाहिर होगा कि सच्चे परमेश्‍वर के साथ अपने अच्छे रिश्‍ते को वे कितना अनमोल समझते हैं।

      बेशक, ऐसी शिक्षा से लोगों को तभी फायदा होगा, जब वे अपने दिल में झाँककर देखेंगे। यीशु ने लोगों को उकसाया कि वे अपने इरादों और भावनाओं को जाँचें। यीशु, किसी की गलत सोच को सुधारते वक्‍त उनसे पूछता था कि वे ऐसा क्यों सोचते हैं, या उन्होंने जो कहा या किया, उसकी वजह क्या थी। मगर यीशु उन्हें इतने तक लाकर यूँ ही नहीं छोड़ देता था। सवाल के साथ-साथ यीशु उनसे कुछ ऐसी बात कहता, कोई ऐसा दृष्टांत बताता या कुछ ऐसा काम करता जिससे कि उन्हें मामले को सही नज़रिए से देखने का बढ़ावा मिले। (मर. 2:8; 4:40; 8:17; लूका 6:41, 46) हम भी अपने सुननेवालों को खुद की जाँच करने के लिए ऐसे सवाल पूछने का सुझाव दे सकते हैं। जैसे कि ‘मुझे ऐसा काम करना क्यों अच्छा लगता है? इन हालात में मैंने यह कदम क्यों उठाया?’ फिर उन्हें उस मसले को यहोवा की नज़र से देखने का बढ़ावा दीजिए।

      लागू करने का तरीका सिखाइए

      एक अच्छा शिक्षक जानता है कि “बुद्धि श्रेष्ठ है।” (नीति. 4:7) ज्ञान को सही तरीके से लागू करने से एक इंसान बुद्धि हासिल करता है, जिसकी मदद से वह समस्याओं का हल करता है, खतरों से दूर रहता है, लक्ष्य हासिल करता है और दूसरों की मदद करता है। एक शिक्षक होने के नाते आपकी ज़िम्मेदारी बनती है कि आप यह सब सीखने में अपने विद्यार्थी की मदद करें। मगर उसके फैसले खुद उसे करने दीजिए। बाइबल के सिद्धांतों पर चर्चा करते वक्‍त, विद्यार्थी की तर्क करने में मदद कीजिए। आप रोज़मर्रा ज़िंदगी में पैदा होनेवाले हालात का ज़िक्र कर सकते हैं, फिर विद्यार्थी से पूछ सकते हैं कि अभी हमने बाइबल के जिस सिद्धांत पर चर्चा की है, वह आपकी इस हालात का सामना करने में किस तरह मदद कर सकता है।—इब्रा. 5:14.

      इस मामले में, सा.यु. 33 के पिन्तेकुस्त के दिन, प्रेरित पतरस ने जो भाषण दिया, वह एक मिसाल है। उसने अपने भाषण में भविष्यवाणियों को इस तरह लागू किया जिससे लोगों की ज़िंदगी पर गहरा असर पड़ा। (प्रेरि. 2:14-36) उसने पहले शास्त्रवचन के उन तीन भागों पर चर्चा की जिन पर वहाँ जमा भीड़ विश्‍वास करने का दावा करती थी। उस दिन लोगों ने जो घटनाएँ देखी थीं, उनको मद्देनज़र रखते हुए, पतरस ने बताया कि शास्त्र के ये भाग कैसे पूरे होते हैं। भीड़ पर इसका यह असर हुआ कि उसे सुनी हुई बातों के मुताबिक काम करने की ज़रूरत महसूस हुई। क्या आपके सिखाने का भी लोगों पर ऐसा ही असर होता है? क्या आप सच्चाई बयान करने के अलावा, लोगों की यह समझने में मदद करते हैं कि किस वजह से ये बातें सच हैं? क्या आप उन्हें यह समझने में मदद देते हैं कि वे जो बातें सीख रहे हैं, उनके मुताबिक उन्हें अपनी ज़िंदगी में कैसे बदलाव करने चाहिए? वे शायद पिन्तेकुस्त के दिन जमा भीड़ की तरह नहीं पूछें कि “हम क्या करें?” लेकिन अगर आप उन्हें अच्छी तरह समझाएँगे कि शास्त्रवचनों पर कैसे अमल करें, तो वे उनके मुताबिक कदम उठाने के लिए ज़रूर प्रेरित होंगे।—प्रेरि. 2:37.

      जब माता-पिता अपने बच्चों के साथ बैठकर बाइबल पढ़ते हैं, तो यह उनके लिए एक सुनहरा मौका होता है जिसमें वे सिखा सकते हैं कि बाइबल के सिद्धांतों को अपनी ज़िंदगी में कैसे अमल में लाएँ। (इफि. 6:4) मिसाल के लिए, आप हफ्ते की बाइबल पढ़ाई में से कुछ आयतें चुनकर अपने बच्चों के साथ उनके मतलब पर चर्चा कर सकते हैं। फिर, उनसे ऐसे सवाल पूछ सकते हैं: ‘इन आयतों से हमने क्या सीखा? हम अपने प्रचार में इनका इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं? इन आयतों से हमें, यहोवा और उसके काम करने के तरीके के बारे में क्या पता चलता है? और इससे यहोवा के लिए हमारे मन में श्रद्धा कैसे बढ़ती है?’ अपने परिवार को उकसाइए कि जिस दौरान परमेश्‍वर की सेवा स्कूल में बाइबल की झलकियाँ पेश की जाएँ, वे इन मुद्दों को बताएँ। वे जिन आयतों पर अपने विचार बताएँगे, वही उन्हें याद रहेंगी।

      अच्छी मिसाल कायम कीजिए

      आप सिर्फ शब्दों से ही नहीं बल्कि अपने कामों से भी दूसरों को सिखाते हैं। आप जो कुछ करते हैं, वह इस बात का जीता-जागता सबूत है कि आप जो कहते हैं, उस पर कैसे अमल किया जाना चाहिए। बच्चे भी सुनने से ज़्यादा देखकर सीखते हैं। जब वे अपने माता-पिता की नकल करते हैं, तो इससे ज़ाहिर होता है कि वे उनकी तरह बनना चाहते हैं। वे जानने के लिए उत्सुक होते हैं कि अपने माता-पिता के जैसे काम करने से कैसा महसूस होता है। उसी तरह जिन लोगों को आप सिखाते हैं, जब वे ‘आप की सी चाल चलते हैं, जैसा आप मसीह की सी चाल चलते हैं,’ तो उन्हें भी यहोवा के मार्गों पर चलने की आशीषें मिलती हैं। (1 कुरि. 11:1) तब वे खुद अनुभव करते हैं कि यहोवा, इंसानों के साथ कैसा व्यवहार करता है।

      इसलिए, दूसरों के लिए एक अच्छी मिसाल कायम करना वाकई बड़ी गंभीर बात है। “पवित्र चालचलन और भक्‍ति में [हम जिस तरह के] मनुष्य” हैं, इसका उन लोगों पर गहरा असर पड़ेगा जिनको हम सिखाते हैं। हमारी ज़िंदगी उनके लिए एक जीती-जागती मिसाल बन जाएगी कि बाइबल के सिद्धांतों पर किस तरह अमल करना चाहिए। (2 पत. 3:11) अगर आप अपने बाइबल विद्यार्थी को नियमित रूप से बाइबल पढ़ने का बढ़ावा देते हैं, तो आप खुद बिना नागा पढ़ने की पूरी कोशिश कीजिए। अगर आप चाहते हैं कि आपके बच्चे बाइबल के सिद्धांतों को मानना सीखें, तो उनके सामने परमेश्‍वर की मरज़ी के मुताबिक काम करने की एक अच्छी मिसाल रखिए। अगर आप कलीसिया के भाई-बहनों को प्रचार में जोशीले होने की हिदायतें देते हैं, तो आप प्रचार में पूरा-पूरा हिस्सा लीजिए। जो कुछ आप सिखाते हैं, खुद उसके मुताबिक काम कीजिए, ऐसा करने से आप सही मायनों में दूसरों को प्रेरणा देने के काबिल होंगे।—रोमि. 2:21-23.

      सिखाने की अपनी काबिलीयत सुधारने के लिए खुद से पूछिए: ‘क्या मेरे सिखाने के तरीके से सुननेवाले अपनी बोल-चाल, अपने रवैए और चालचलन में बदलाव लाते हैं? किसी मामले को और भी साफ-साफ समझाने के लिए क्या मैं दो विचारों या काम करने के तरीकों के बीच फर्क समझाता हूँ? मैं जो सिखाता हूँ, वह मेरे विद्यार्थियों, बच्चों या सभा में सुननेवालों को हमेशा याद रहे, इसके लिए मैं क्या करता हूँ? क्या मैं अपने सुननेवालों को यह ठीक-ठीक बताता हूँ कि वे जो सीख रहे हैं, उस पर कैसे अमल करें? क्या वे मेरी मिसाल से सीख सकते हैं? क्या वे समझते हैं कि चर्चा की जा रही बातों पर अगर वे अमल करेंगे, तो इससे यहोवा के साथ उनका रिश्‍ता ज़्यादा मज़बूत हो सकता है?’ (नीति. 9:10) सिखाने की कला में महारत हासिल करते वक्‍त, इन सभी बातों पर लगातार ध्यान देते रहिए। “अपनी और अपने उपदेश की चौकसी रख। इन बातों पर स्थिर रह, क्योंकि यदि ऐसा करता रहेगा, तो तू अपने, और अपने सुननेवालों के लिये भी उद्धार का कारण होगा।”—1 तीमु. 4:15, 16.

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