अध्याय 44
सवालों का असरदार इस्तेमाल
सवाल इसलिए पूछे जाते हैं ताकि लोग या तो मुँह-ज़बानी या फिर मन-ही-मन उनके जवाब देकर चर्चा में हिस्सा लें। सवालों के ज़रिए आप, लोगों से बातचीत शुरू कर पाएँगे, फिर आप अपने विचार उन्हें बता सकेंगे और उनके विचार सुन सकेंगे। अपने भाषण में सिखाते वक्त, आप सवालों का इस्तेमाल करके लोगों की दिलचस्पी जगा सकते हैं, किसी विषय पर तर्क करने में उनकी मदद कर सकते हैं या फिर आप जो खास बात बता रहे हैं, उस पर ज़ोर दे सकते हैं। सवालों का अच्छा इस्तेमाल करने से, आप दूसरों को बढ़ावा देंगे कि वे आपकी बात सिर्फ सुनते ही न रहें बल्कि उस पर गहराई से सोचें भी। अपने मकसद को ध्यान में रखते हुए, इस तरीके से सवाल पूछिए जिससे इसे हासिल किया जा सके।
बातचीत में शामिल होने का बढ़ावा देने के लिए। प्रचार करते वक्त, ऐसे मौके ढूँढ़िए जब आप, लोगों को अपनी राय ज़ाहिर करने के लिए बढ़ावा दे सकते हैं।
बहुत-से साक्षी, प्रचार में लोगों से बस इतना पूछते हैं, “क्या आपने कभी सोचा है कि . . . ?” और इस तरह एक दिलचस्प चर्चा शुरू हो जाती है। जब वे ऐसे सवाल पूछते हैं, जिनके बारे में ज़्यादातर लोग सोच रहे हैं, तो उन्हें प्रचार के काम में बढ़िया नतीजे मिलते हैं। और जब साक्षी ऐसे सवाल पूछते हैं जिनके बारे में लोगों ने कभी सोचा नहीं है, तो भी लोगों में उनका जवाब जानने की इच्छा पैदा होती है। कई तरह के विषयों पर बातचीत शुरू करने के लिए हम ऐसे कह सकते हैं: “आप क्या सोचते हैं . . . ?,” “आपको क्या लगता है . . . ?” और “क्या आप मानते हैं . . . ?”
जब प्रचारक फिलिप्पुस, कूश देश के मंत्री के पास पहुँचा, जो यशायाह की भविष्यवाणी ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रहा था, तब फिलिप्पुस ने उससे बस यह पूछा: “तू जो पढ़ रहा है क्या उसे समझता भी है?” (प्रेरि. 8:30) इस सवाल से फिलिप्पुस के लिए रास्ता खुल गया कि वह यीशु मसीह के बारे में सच्चाइयाँ समझाए। हमारे समय के कुछ साक्षियों ने भी फिलिप्पुस के सवाल से मिलता-जुलता सवाल पूछकर, ऐसे लोगों को पाया है जो बाइबल की सच्चाई की सही समझ पाने के लिए वाकई तरस रहे थे।
बहुत-से लोग ऐसे होते हैं कि अगर उन्हें अपनी राय बयान करने का मौका दिया जाए, तो वे आपकी बात और भी दिलचस्पी के साथ सुनेंगे। सवाल पूछने के बाद, ध्यान से जवाब सुनिए। दूसरों की बातों में नुक्स मत निकालिए। जब सही लगे, तब सच्चे दिल से उनकी तारीफ कीजिए। एक बार जब एक शास्त्री ने यीशु के सवाल का “समझ से उत्तर दिया,” तो यीशु ने उसकी सराहना करते हुए कहा: “तू परमेश्वर के राज्य से दूर नहीं।” (मर. 12:34) अगर आप दूसरे के विचार से सहमत नहीं हैं, तो भी आप उसे अपने विचार बताने के लिए धन्यवाद दे सकते हैं। उसके विचारों से आप शायद उसका रवैया जान सकेंगे और फिर उसके हिसाब से उसे बाइबल की सच्चाई बता सकेंगे।
खास विचार बताने से पहले। जब आप कई लोगों से या किसी एक इंसान से बात करते हैं, तो ऐसे सवाल पूछने की कोशिश कीजिए जिनसे आप बातचीत का रुख खास विचारों की तरफ मोड़ सकें। इस बात का ध्यान रखें कि आपके सवाल सिर्फ ऐसे विषयों पर हों जिनमें आपके सुननेवालों को सच्ची दिलचस्पी हो। आप चाहें तो ऐसे दिलचस्प सवाल भी पूछ सकते हैं जिनके जवाब पाना इतना आसान नहीं है। सवाल पूछने के बाद, अगर आप कुछ देर रुकेंगे, तो आपकी आगे की बात जानने के लिए सुननेवालों की दिलचस्पी और भी बढ़ जाएगी।
एक मौके पर, भविष्यवक्ता मीका ने कई सवाल पूछे। पहले उसने पूछा कि परमेश्वर अपने उपासकों से क्या चाहता है। फिर उसने और चार सवाल पूछे जिनमें से हर सवाल में पहले सवाल का मुमकिन जवाब था। इन सारे सवालों से पढ़नेवालों का मन तैयार हुआ और उन्हें मीका की इस चर्चा के आखिर में बहुत सोचा-समझा जवाब मिला। (मीका 6:6-8) क्या आप भी सिखाते वक्त यही तरीका अपना सकते हैं? आज़माकर देखिए।
किसी विषय पर तर्क करने के लिए। किसी विषय पर तर्क करने के लिए भी सवालों का इस्तेमाल किया जा सकता है। यहोवा ने इस्राएल जाति को कड़ा दंड सुनाते वक्त यही तरीका अपनाया। यह हम मलाकी 1:2-10 से जान सकते हैं। सबसे पहले यहोवा ने उनसे कहा: “मैं ने तुम से प्रेम किया है।” मगर, इस्राएलियों ने उस प्रेम की कदर नहीं जानी, इसलिए यहोवा ने उनसे पूछा: “क्या एसाव याकूब का भाई न था?” फिर यहोवा ने एदोम की उजड़ी हालत की तरफ इशारा करके बताया कि यह इस बात का सबूत है कि यहोवा ने उस जाति से प्यार नहीं किया क्योंकि वह एक दुष्ट जाति थी। इसके बाद, उसने कुछ दृष्टांत बताए और बीच-बीच में सवाल पूछकर दिखाया कि इस्राएल जाति, यहोवा के प्यार के बदले उसे प्यार दिखाने से चूक गयी। यहोवा ने कुछ सवाल ऐसे पूछे मानो विश्वासघाती याजक पूछ रहे हों। दूसरे सवाल, यहोवा ने याजकों से पूछे। यह बातचीत हमारे दिल की भावनाएँ जगा देती है और हमारा ध्यान बाँधे रखती है। यहोवा का तर्क ऐसा है जिसे कोई काट नहीं सकता और उसका संदेश ऐसा है जो भुलाया नहीं जा सकता।
इसी तरह कुछ भाई, अपने भाषण में सवालों का बड़ी कुशलता से इस्तेमाल करते हैं। हालाँकि उन सवालों का ज़बानी तौर पर जवाब पाने की उम्मीद नहीं की जाती, मगर फिर भी सुननेवाले मन-ही-मन उनके जवाब देते हैं और इस तरह मानो वे भी चर्चा में शामिल हो जाते हैं।
बाइबल अध्ययन चलाते वक्त, हम सिखाने का ऐसा तरीका अपनाते हैं जिसमें विद्यार्थी के लिए भी चर्चा में हिस्सा लेना ज़रूरी होता है। बेशक, किताब से जवाब पढ़ने के बजाय अपने शब्दों में जवाब देने से उसे ज़्यादा फायदा होगा। विद्यार्थी को तर्क करने में मदद देने के लिए, प्यार भरे लहज़े से दूसरे सवाल भी पूछिए। खास विचारों पर सवाल पूछते वक्त, उससे कहिए कि वह अपना जवाब बाइबल से दे। आप यह भी पूछ सकते हैं: “हम जो चर्चा कर रहे हैं, इसका पिछले मुद्दे से क्या संबंध है जिसके बारे में हमने पहले सीखा था? यह क्यों ज़रूरी है? इसका हमारी ज़िंदगी पर कैसा असर होना चाहिए?” अपने विश्वास के बारे में बताने या खुद ही सवालों के लंबे-चौड़े जवाब देने के बजाय इस तरीके से समझाने का ज़्यादा अच्छा असर होगा। सवालों का इस तरह इस्तेमाल करने से, आप विद्यार्थी को परमेश्वर की उपासना में अपनी “तर्क-शक्ति” इस्तेमाल करने में मदद दे पाएँगे।—रोमि. 12:1, NW.
अगर एक विद्यार्थी किसी बात को नहीं समझ पाता है, तो सब्र से काम लीजिए। हो सकता है, आप जो कह रहे हैं, उसकी तुलना वह उस धारणा से कर रहा है जिसे वह बरसों से मानता आया है। ऐसे में विषय को एक अलग नज़रिए से समझाना मददगार साबित होगा। लेकिन, बहुत ही बुनियादी तर्क देने ज़रूरत होगी। ऐसे में बाइबल की आयतों का खूब इस्तेमाल कीजिए। दृष्टांत बताइए। इनके साथ-साथ, आसान सवाल पूछिए इससे विद्यार्थी को सबूतों पर तर्क करने का बढ़ावा मिलेगा।
मन की भावनाएँ बाहर लाने के लिए। जब लोग सवालों के जवाब देते हैं, तो उससे हमेशा यह ज़ाहिर नहीं होता कि वे मन में कैसा महसूस करते हैं। वे शायद बस ऐसे जवाब दें, जो उनको लगता है कि आप सुनना चाहते हैं। ऐसे में, समझ से काम लेने की ज़रूरत है। (नीति. 20:5) यीशु की तरह, आप उनसे पूछ सकते हैं: ‘क्या आप इस बात पर विश्वास करते हैं?’—यूह. 11:26.
जब यीशु के बहुत-से चेले, उसकी कही बातें सुनकर नाराज़ हो गए और उसे छोड़कर चले गए, तो यीशु ने अपने प्रेरितों से पूछा कि वे कैसा महसूस करते हैं। उसने पूछा: “क्या तुम भी चले जाना चाहते हो?” पतरस ने प्रेरितों के मन की बात बताते हुए कहा: “हे प्रभु हम किस के पास जाएं? अनन्त जीवन की बातें तो तेरे ही पास हैं। और हम ने विश्वास किया, और जान गए हैं, कि परमेश्वर का पवित्र जन तू ही है।” (यूह. 6:67-69) एक और अवसर पर, यीशु ने अपने चेलों से पूछा: “लोग मनुष्य के पुत्र को क्या कहते हैं?” इसके बाद उसने उनके दिल की बात जानने के लिए एक सवाल किया। उसने पूछा: “परन्तु तुम मुझे क्या कहते हो?” पतरस ने जवाब दिया: “तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है।”—तिरछे टाइप हमारे; मत्ती 16:13-16.
बाइबल अध्ययन चलाते वक्त आप भी, कुछ विषयों के बारे में समझाने के लिए इसी तरह के सवाल कर सकते हैं। आप पूछ सकते हैं: “इस बारे में आपके साथ पढ़नेवालों (या काम करनेवालों) का क्या नज़रिया है?” फिर आप पूछ सकते हैं: “इस बारे में आप क्या सोचते हैं?” जब आप दूसरों की असली भावनाओं को जान लेते हैं, तो एक शिक्षक के नाते उनकी बेहतरीन तरीके से मदद करना आपके लिए मुमकिन होगा।
ज़ोर देने के लिए। सवाल, विचारों पर ज़ोर देने के लिए भी पूछे जा सकते हैं। प्रेरित पौलुस ने ऐसा ही किया। रोमियों 8:31, 32 में जैसे लिखा है, उसने पूछा: “यदि परमेश्वर हमारी ओर है, तो हमारा विरोधी कौन हो सकता है? जिस ने अपने निज पुत्र को भी न रख छोड़ा, परन्तु उसे हम सब के लिये दे दिया: वह उसके साथ हमें और सब कुछ क्योंकर न देगा?” गौर कीजिए कि दोनों बार सवाल पूछकर, उससे पहले कही बात पर ज़ोर दिया गया है।
भविष्यवक्ता यशायाह ने बाबुल के राजा के खिलाफ यहोवा का न्यायदंड दर्ज़ करने के बाद, अपना दृढ़ विश्वास ज़ाहिर करते हुए कहा: “सेनाओं के यहोवा ने युक्ति की है और कौन उसको टाल सकता है? उसका हाथ बढ़ाया गया है, उसे कौन रोक सकता है?” (यशा. 14:27) इन सवालों में जो कहा जाता है, उसी से यह पता लगता है कि इस बात को कोई काट नहीं सकता। इसलिए इन सवालों के जवाबों की कोई उम्मीद भी नहीं की जाती।
गलत विचारों का पर्दाफाश करने के लिए। सोच-समझकर तैयार किए गए सवाल भी, गलत विचारों का पर्दाफाश करने का एक ज़बरदस्त तरीका है। यीशु ने एक आदमी को चंगा करने से पहले, फरीसियों और व्यवस्था के कुछ ज्ञानियों से पूछा: “क्या सब्त के दिन अच्छा करना उचित है, कि नहीं?” उस आदमी को चंगा करने के बाद उसने एक और सवाल पूछा: “तुम्हारा बेटा या बैल कुएं में गिर जाए तो तुम में से ऐसा कौन है कि वह उसे सब्त के दिन ही तुरन्त बाहर निकाल न ले?” (NHT) (लूका 14:1-6) यीशु ने इस सवाल के लिए उनसे जवाब की उम्मीद नहीं की, ना ही उसे कोई जवाब दिया गया। उन सवालों से यह ज़ाहिर हुआ कि उनके सोचने का तरीका कितना गलत था।
कभी-कभी, सच्चे मसीही भी गलत तरीके से सोच सकते हैं। पहली सदी में, कुरिन्थ के कुछ मसीही, अपने भाइयों के साथ हुए झगड़ों को सुलझाने के लिए उन्हें अदालत ले जा रहे थे, जबकि उन्हें ऐसे झगड़े आपस में सुलझा लेने चाहिए थे। इस मामले को प्रेरित पौलुस ने कैसे निपटाया? उसने उनकी सोच को सुधारने के लिए उनसे ऐसे कई सवाल पूछे जो ठीक निशाने पर बैठे।—1 कुरि. 6:1-8.
अगर आप अभ्यास करें, तो आप सवालों का बढ़िया इस्तेमाल करना सीख सकते हैं। लेकिन याद रखिए कि आपको दूसरों से सवाल पूछते वक्त इज़्ज़त से पेश आना चाहिए, खासकर उन लोगों के साथ जो उम्र में बड़े हैं, जिनसे आपकी जान-पहचान नहीं है और जो ऊँची पदवी पर हैं। बाइबल की सच्चाई को एक दिलचस्प तरीके से पेश करने के लिए सवालों का इस्तेमाल कीजिए।