गर्मा-गर्म खाना घर से दफ्तर तक मुंबइया अंदाज़ में
आप हर दिन अपने काम के लिए घर से सुबह पाँच बजे ही निकल जाते हैं। दोपहर में आपको घर के बने अपने पसंदीदा खाने की याद आती है। भारत के मुंबई शहर में काम करनेवाले ऐसे हज़ारों लोगों के लिए घर का खाना सिर्फ ख्वाब नहीं है, क्यों? क्योंकि वहाँ हैं डब्बेवाले, जो आपके घर से खाना आपके दफ्तर पहुँचा देते हैं।
मौके का फायदा
उन्नीसवीं सदी के आखिर में मुंबई, जो कि उस वक्त बम्बई के नाम से जाना जाता था, एक महानगरी बन रहा था। वहाँ के अँग्रेज़ और भारतीय व्यापारियों को अपने दफ्तर जाने के लिए काफी लंबा सफर तय करना पड़ता था। एक जगह से दूसरी जगह जाने में बहुत समय लगता था। इसके अलावा शहर में रेस्तराँ बहुत कम और दूर-दूर हुआ करते थे। घर के बने खाने का स्वाद ही अलग होता है, इसलिए कुछ लोग नौकरों के ज़रिए घर से खाना मँगवाने लगे। एक अक्लमंद आदमी ने सोचा कि इससे अच्छी कमाई हो सकती है। वह गाँवों से बेरोज़गार जवानों को शहर लाया और घर से दफ्तर खाना पहुँचाने का काम शुरू कर दिया। इस छोटी-सी शुरूआत से आज एक फलता-फूलता व्यापार खड़ा हो गया है।
लोग आज भी घर का बना खाना ज़्यादा पसंद करते हैं। माना कि आज पहले से कहीं ज़्यादा रेस्तराँ हैं, लेकिन घर के बने खाने से पैसे की बचत होती है और इसकी बात ही कुछ और होती है। इसके अलावा, कई लोग बीमारी की वजह से खास प्रकार का भोजन लेते हैं। वहीं कुछ लोग अपने धार्मिक विश्वासों की वजह से कुछ चीज़ों से परहेज़ करते हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोग प्याज़ से, तो कुछ लहसुन से परहेज़ करते हैं। होटल के खाने में ऐसी बहुत सारी चीज़ें होती हैं, इसलिए झंझट से बचने के लिए लोग दफ्तर में भी घर का बना खाना ज़्यादा पसंद करते हैं।
सबसे भरोसेमंद सेवा
डब्बा पहुँचाने के इस आसान-से काम में इतने सालों में ज़्यादा फर्क नहीं आया है। बस अब यह बड़े पैमाने पर होने लगा है। दो करोड़ की आबादी वाले इस शहर में आजकल 5,000 से ज़्यादा पुरुष और कुछ स्त्रियाँ, अपने इलाके के घरों से डब्बे इकट्ठा करके लोगों के दफ्तर पहुँचाते हैं। वे एक दिन में 2,00,000 से भी ज़्यादा डब्बे पहुँचाते हैं। ये डब्बेवाले 60 किलोमीटर के दायरे में काम करते हैं। कुछ पैदल चलकर अपने ठेले में 30 या 40 डब्बे ले जाते हैं, तो कुछ साइकिल या लोकल ट्रेन से डब्बे पहुँचाते हैं। पहुँचाने का तरीका चाहे जैसा भी हो, ये लोग सही वक्त पर, सही व्यक्ति को, सही डब्बा देते हैं। ये लोग अपना काम इतनी अच्छी तरह करते हैं कि कहा जाता है कि 60 लाख में से सिर्फ 1 बार इनसे गड़बड़ी होती है! आखिर ये लोग इतना बढ़िया रिकॉर्ड कैसे रख पाते हैं?
सन् 1956 में डब्बेवालों को एक समाज-सेवी संस्थान के तौर पर पंजीकृत किया गया। इस संस्थान में एक प्रशासनिक समिति और दूसरे कुछ अधिकारी भी हैं। हर इलाके का अपना-अपना समूह होता है, जिनमें एक निरीक्षक और कुछ कर्मचारी होते हैं। हर समूह अपने इलाके का काम सँभालता है। लेकिन सभी लोग इस संस्थान के बराबर के हिस्सेदार हैं। और यही इनकी कामयाबी का राज़ है। दिलचस्पी की बात है कि इस सेवा को शुरू हुए 100 से भी ज़्यादा साल हो चुके हैं लेकिन इन्होंने आज तक कभी हड़ताल नहीं की।
सभी डब्बेवालों के पास एक पहचान पत्र रहता है। इनकी सफेद कमीज़, ढीली पैंट और सफेद टोपी से इन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है। अगर वे टोपी नहीं पहनते, बिना किसी वाजिब कारण के काम पर देर से आते हैं या छुट्टी ले लेते हैं, या काम के वक्त शराब पीते पकड़े जाते हैं तो उन्हें जुर्माना भरना पड़ता है।
रोज़ का काम
सुबह 8:30 बजे तक ग्राहक के घर पर कोई, शायद उसकी पत्नी खाना बनाकर डब्बे या टिफिन में भर देती है। एक डब्बे में कई भाग होते हैं जो एक-के-ऊपर-एक रखे जाते हैं और जिनके दोनों तरफ लोहे का हुक होता है जिसे ऊपर से बंद कर दिया जाता है। डब्बेवाला अपने इलाके से सारे डब्बे इकट्ठा करता है, उन्हें अपनी साइकिल या ठेले पर लादकर झटपट रेलवे स्टेशन पहुँचता है, जहाँ उसके समूह के दूसरे लोग भी आ जाते हैं। फिर जिस तरह से डाकिया इलाके के हिसाब से चिट्ठियाँ अलग करता है, वैसे ही डब्बों को इलाके के हिसाब से अलग कर दिया जाता है।
हर डब्बे पर अक्षरों, नंबरों और रंग से बना एक कोड छपा होता है जिससे यह पता चलता है कि डब्बा कौन-से इलाके का है, सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन कौन-सा है, कौन-से स्टेशन पर उसे उतारना है और किस इमारत की किस मंज़िल पर उसे पहुँचाना है। डब्बों को जिस इलाके में पहुँचाना है, उस हिसाब से उन्हें अलग कर दिया जाता है। फिर इन्हें लकड़ी के एक लंबे तख्ते पर रखा जाता है। इस पर एक बार में 48 डब्बे रखे जा सकते हैं। ट्रेन आने पर इंजन की बगलवाली एक खास बोगी में सारे डब्बे रख दिए जाते हैं। उसके बाद जब ट्रेन एक बड़े स्टेशन पहुँचती है तब डब्बों को फिर से छाँटकर उन्हें ट्रेन से उनके ग्राहक के दफ्तर के पासवाले स्टेशन के लिए रवाना कर दिया जाता है। आखिरी स्टेशन पर पहुँचकर डब्बों को छाँटकर साइकिल या ठेले से उनके मालिक तक पहुँचा दिया जाता है।
डब्बे पहुँचाने का यह तरीका न सिर्फ बढ़िया होता है बल्कि सस्ता भी। सबसे बढ़कर डब्बेवाले कभी गाड़ियों की लंबी कतार के बीच नहीं फँसते, क्योंकि वे फुटपाथ पर से या कारों की लंबी लाइन के बीच में से अपनी साइकिल निकाल ले जाते हैं। इस वजह से वे सही व्यक्ति को उसका डब्बा दोपहर 12:30 बजे से पहले पहुँचा देते हैं। इतनी मेहनत-मशक्कत के बाद डब्बेवाले खुद खाना खाते हैं और फिर 1:15 से 2:00 बजे के बीच दफ्तर जाकर खाली डब्बे इकट्ठा करते हैं और ग्राहक के घर पहुँचा देते हैं। घर पर डब्बों को धोकर दूसरे दिन के लिए तैयार रख दिया जाता है। शुरू से आखिर तक यह पूरी प्रक्रिया इतनी रफ्तार से और सही तरीके से चलती है कि यह एक रिले दौड़ जैसी लगती है।
छोटा काम, बड़ा नाम
डब्बेवालों का बढ़िया रिकॉर्ड लोगों की नज़रों से छुपा नहीं है। दूसरे संगठनों ने डब्बे पहुँचाने के इनके तरीके का गहराई से अध्ययन किया है ताकि वे व्यापार के दूसरे क्षेत्रों में भी इनसे सीखी बातें लागू कर सकें। इन डब्बेवालों पर डॉक्यूमेन्टरी फिल्में भी बनायी जा चुकी हैं। डब्बेवालों से गलती न के बराबर होती है, इसलिए फॉर्बस ग्लोबल मैगज़ीन ने इन्हें सिक्स सिग्मा सर्टिफिकेशन नाम का प्रशंसा-पत्र भी दिया है। द गिनिज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस में भी इनका नाम दर्ज़ है और अमरीका के हॉवर्ड बिज़नेस स्कूल के विद्यार्थी इनके बारे में अध्ययन करते हैं। यहाँ तक कि बड़ी-बड़ी हस्तियाँ भी इन डब्बेवालों से मिलने आयी हैं। ब्रिटेन के शाही परिवार का एक सदस्य तो इनके काम से इतना प्रभावित हुआ कि उसने कुछ डब्बेवालों को अपनी शादी में इंग्लैंड बुलाया।
आज डब्बेवाले हिसाब-किताब रखने और खाना पहुँचाने का ऑर्डर लेने के लिए कंप्यूटर और मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। मगर डब्बा पहुँचाने का उनका तरीका वही पुराना है। जैसे-जैसे दोपहर के खाने का वक्त नज़दीक आता है, मुंबई के दफ्तरों में काम करनेवाले कई कर्मचारियों को यकीन रहता है कि कुछ ही देर में उनकी मेज़ पर घर का बना गर्मा-गर्म खाना पहुँच जाएगा और उसमें एक मिनट की भी देर नहीं होगी! (g10-E 11)
[पेज 21 पर तसवीर]
“डब्बों” को ट्रेन में चढ़ाया जा रहा है
[पेज 21 पर तसवीर]
“डब्बे” के अलग-अलग भाग एक-के-ऊपर-एक रखे जा सकते हैं, इससे इसे पकड़ना और कहीं ले जाना आसान होता है
[पेज 22 पर तसवीर]
“डब्बेवालों” के काम करने के बेहतरीन तरीके से सीखी बातों को व्यापार के दूसरे कई क्षेत्रों में लागू किया गया है