बाइबल की किताब नंबर 65—यहूदा
लेखक: यहूदा
लिखने की जगह: पैलिस्टाइन (?)
लिखना पूरा हुआ: लगभग सा.यु. 65
यहूदा के मसीही भाई खतरे में थे! मसीह यीशु की मौत और पुनरुत्थान के बाद से कुछ बुरे लोग मसीही कलीसिया में आ घुसे थे। इन दुश्मनों का मकसद था, भाइयों के विश्वास को कमज़ोर करना और इस खतरे के बारे में प्रेरित पौलुस ने 14 साल पहले खबरदार किया था। (2 थिस्स. 2:3) ऐसे में, भाइयों को इस खतरे से कैसे बचाया जा सकता था? यहूदा की पत्री इसका जवाब देती है। इस पत्री में यहूदा ने सीधे-सीधे और बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से बातों को लिखा। वह खुद आयत 3 और 4 में बताता है कि उसने यह पत्री क्यों लिखी: ‘मैं ने तुम्हें यह समझाना आवश्यक जाना क्योंकि कितने ऐसे मनुष्य चुपके से हम में आ मिले हैं, ये भक्तिहीन हैं, और हमारे परमेश्वर के अनुग्रह को लुचपन में बदल डालते हैं।’ ऐसे लोगों की वजह से कलीसिया की नींव हिल सकती थी यानी लोग खरी शिक्षा पर शक करने लग सकते थे और कलीसिया अशुद्ध हो सकती थी। इसलिए यहूदा ने अपने भाइयों की भलाई की खातिर इस पत्री को लिखना ज़रूरी समझा, ताकि वे अपने विश्वास के लिए संघर्ष कर सकें।
2 लेकिन यहूदा था कौन? पत्री के शुरूआती शब्द हमें बताते हैं कि इसे ‘यीशु मसीह के दास और याकूब के भाई यहूदा ने बुलाए हुओं के नाम’ लिखा था। यीशु के शुरू के 12 प्रेरितों में से दो का नाम यहूदा था। तो क्या यह यहूदा एक प्रेरित था? (लूका 6:16) यहूदा खुद को एक प्रेरित नहीं बताता। इसके बजाय, वह प्रेरितों के लिए “वे” शब्द इस्तेमाल करता है, जिसका मतलब है कि वह खुद को उनमें से एक नहीं गिनता। (यहू. 17, 18) इसके अलावा, वह अपने आपको “याकूब का भाई” कहता है। मुमकिन है कि वह उस याकूब की बात कर रहा था, जो याकूब की पत्री का लेखक और यीशु का सौतेला भाई था। (आयत 1) यरूशलेम की कलीसिया का ‘खम्भा’ होने के नाते इस याकूब को सभी लोग जानते थे। इसलिए यहूदा अपनी पहचान बताने के लिए कहता है कि वह याकूब का भाई है। तो इस हिसाब से यहूदा भी यीशु का सौतेला भाई हुआ और बाइबल में यीशु के भाइयों के साथ उसका भी नाम आता है। (गल. 1:19; 2:9; मत्ती 13:55; मर. 6:3) लेकिन फिर भी यहूदा ने औरों की नज़रों में छाने के लिए, यीशु को अपना भाई नहीं कहा, बल्कि नम्रता दिखाते हुए उसने खुद को “यीशु मसीह का दास” कहा। इस तरह उसने यीशु के साथ अपने आध्यात्मिक रिश्ते को ज़्यादा अहमियत दी।—मत्ती 20:27; 1 कुरि. 7:22; 2 कुरि. 5:16.
3 इस किताब की सच्चाई के बारे में क्या? इसकी सच्चाई का एक सबूत यह है कि सा.यु. दूसरी सदी के मूराटोरी खंड में इसका ज़िक्र मिलता है। इसके अलावा, सिकंदरिया के क्लैमेंट (सा.यु. दूसरी सदी) ने इसे बाइबल के संग्रह का हिस्सा माना। ऑरिजन ने इस किताब के बारे में कहा, “हालाँकि यह छोटी है, लेकिन इसमें दर्ज़ बुद्धि-भरी बातें परमेश्वर की तरफ से हैं।”a टर्टलियन ने भी इसे सच्चा माना। इसमें कोई शक नहीं कि यह किताब ईश्वर-प्रेरित शास्त्र का हिस्सा है।
4 यहूदा अपनी पत्री किसी खास कलीसिया या व्यक्ति को नहीं, बल्कि “बुलाए हुओं” को लिखता है। इसलिए यह एक आम पत्री थी, जिसे सभी कलीसिया के मसीहियों को पढ़कर सुनाया जाना था। इसे कहाँ लिखा गया था, इस बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं मिलती, लेकिन मुमकिन है कि इसे पैलिस्टाइन में लिखा गया था। पत्री कब लिखी गयी, यह भी पक्के तौर पर बताना मुश्किल है। लेकिन एक बात पक्की है कि जब यह लिखी गयी, उस वक्त मसीही कलीसिया को शुरू हुए काफी समय हो चुका था। यह किस बिनाह पर कहा जा सकता है? इस बिनाह पर कि यहूदा “उन बातों” की याद दिलाता है “जो हमारे प्रभु यीशु मसीह के प्रेरित पहिले कह चुके” थे और फिर वह शायद 2 पतरस 3:3 का भी हवाला देता है। (यहू. 17, 18) इसके अलावा, यहूदा और दूसरा पतरस के अध्याय 2 की कई बातें मिलती-जुलती हैं। यहूदा और पतरस दोनों को इसी बात की चिंता खाए जा रही थी कि कलीसिया पर खतरे के बादल मँडरा रहे हैं। इससे इशारा मिलता है कि यहूदा ने लगभग उसी समय अपनी किताब लिखी, जब पतरस ने अपनी पत्री लिखी थी। इसलिए यह कहा जाता है कि इस पत्री को तकरीबन सा.यु. 65 में लिखा गया था। ऐसा कहने की एक और वजह यह है कि यहूदा इस बात का ज़िक्र नहीं करता कि सेस्टियस गैलस ने सा.यु. 66 में यहूदियों की बगावत कुचलने के लिए यरूशलेम पर चढ़ाई की थी। और ना ही वह सा.यु. 70 में हुए यरूशलेम के नाश का ज़िक्र करता है। यहूदा अपनी पत्री में पापियों पर लाए परमेश्वर के न्यायदंड की मिसालें देता है। अगर उस समय तक यरूशलेम का नाश हो चुका होता, तो वह अपनी दलील पुख्ता करने के लिए इसकी मिसाल ज़रूर देता, क्योंकि यीशु ने खुद यरूशलेम के विनाश की भविष्यवाणी की थी।—लूका 19:41-44; यहू. 5-7.
क्यों फायदेमंद है
8 यहूदा ने खुद पाया कि अपने ‘प्रिय भाइयों’ (नयी हिन्दी बाइबिल) का हौसला बढ़ाने, उन्हें शिक्षा, सलाह, ताड़ना और चेतावनी देने के लिए ईश्वर-प्रेरित शास्त्र फायदेमंद है। कलीसिया में घुस आए भक्तिहीन लोगों के घोर पापों का परदाफाश करने के लिए यहूदा, इब्रानी शास्त्र से दमदार उदाहरण देता है। जैसे, वह बुरे कामों से बाज़ न आनेवाले इस्राएलियों, सदोम और अमोरा के लोगों साथ ही, उन स्वर्गदूतों के बारे में बताता है, जिन्होंने पाप किया था। और वह यह समझाता है कि जो भी उनकी तरह दुष्ट काम करेंगे, वे सज़ा भुगतेंगे। वह भ्रष्ट इंसानों की तुलना विवेकहीन पशुओं से करता है और कहता है कि वे कैन की सी चाल चलते हैं, बिलाम की तरह गुमराह हो गए हैं और कोरह की तरह विद्रोह करके नाश हो गए। यहूदा “सृष्टि की किताब” से भी जानदार मिसालें देता है। सीधे और साफ शब्दों में लिखी यहूदा की यह किताब “सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र” का हिस्सा बनी। इसलिए हमें बाकी शास्त्र के साथ-साथ इसका भी अध्ययन करना चाहिए, जो हमें “अन्त के [इन] दिनों में” (NHT) सही चालचलन बनाए रखने की सलाह देती है।—यहू. 5-7, 11-13, 17, 18; उत्प. 4:4, 5, 8; 6:4; 18:20, 21; 19:4, 5, 24, 25; गिन. 14:35-37; 16:1-7, 31-35; 22:2-7, 21; 31:8.
9 बाहरवालों से आए विरोध और आज़माइशें मसीहियत को बढ़ने से नहीं रोक सके। लेकिन अब भाइयों को कलीसिया के अंदर से ही खतरा था। कुछ लोग समुद्र में छिपी चट्टान सरीखे थे, जो पूरी कलीसिया को गरक करने पर तुले हुए थे। यहूदा बखूबी जानता था कि कलीसिया को बाहरवालों से ज़्यादा इन लोगों से खतरा था। इसलिए उसने “विश्वास के लिए यत्नपूर्वक संघर्ष” (NHT) करने पर ज़ोर दिया। यह पत्री उस ज़माने के लिए जितनी ज़रूरी थी, आज भी उतनी ही ज़रूरी है। इसमें दी चेतावनी पर आज हमें भी ध्यान देने की ज़रूरत है। हमें भी अपने विश्वास की रक्षा करने के लिए कड़ा संघर्ष करना है, बदचलनी को उखाड़ फेंकना है, शंका करनेवालों पर दया दिखाकर उनकी मदद करनी है, और हो सके तो उन्हें “आग में से झपटकर” निकालना है। अगर मसीहियों को नैतिक रूप से शुद्ध रहना, आध्यात्मिक रूप से फल लाना और सच्ची उपासना करना है, तो उन्हें अपने अति पवित्र विश्वास में उन्नति करते जाना है। उन्हें सही उसूलों के लिए खड़े रहना और प्रार्थना के ज़रिए परमेश्वर के करीब आना है। इतना ही नहीं, उन्हें “प्रभुता” के बारे में सही नज़रिया रखना चाहिए और उनको आदर दिखाना चाहिए, जिन्हें मसीही कलीसिया में परमेश्वर से अधिकार मिला है।—यहू. 3, 8, 23.
10 जिन ‘शारीरिक लोगों में आत्मा’ यानी आध्यात्मिकता नहीं है, वे कभी परमेश्वर के राज्य में दाखिल नहीं हो सकते। और अगर इन्हें कलीसिया में रहने दिया जाए, तो ये उन मसीहियों के लिए भी रोड़ा बन सकते हैं, जो अनंत जीवन की राह पर चल रहे हैं। (यहू. 19; गल. 5:19-21) इसलिए यह कितना ज़रूरी है कि कलीसिया को इन लोगों से खबरदार किया जाए और उन्हें कलीसिया से निकाल दिया जाए। ऐसा करने से भाइयों को “दया और शान्ति और प्रेम” बहुतायत में मिलेगा और वे ‘अनन्त जीवन के लिए हमारे प्रभु यीशु मसीह की दया की आशा देखते हुए’ परमेश्वर के प्रेम में बने रहेंगे। उद्धारकर्त्ता परमेश्वर राज्य के वारिसों को “अपनी महिमा की उपस्थिति में . . . निर्दोष और आनन्दित करके खड़ा” (NHT) करेगा। यहूदा की तरह, राज्य के वारिस भी यीशु मसीह के ज़रिए परमेश्वर की ‘महिमा, गौरव, पराक्रम और अधिकार’ का गुणगान करते हैं।—यहू. 2, 21, 24, 25.
[फुटनोट]
a नए नियम का संग्रह (अँग्रेज़ी), सन् 1987, बी. एम. मेट्ज़्गर, पेज 138.