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  • क्या आप ने “धन्यवाद” कहा?
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gbr-1 पेज 10-12

क्या आप ने “धन्यवाद” कहा?

“बह, बह, हे शीत हवा, तू तो इतनी अनुपकारी नहीं जितनी की मनुष्य अकृतज्ञ है।” निश्‍चय ही यह एक अतिरंजना है! क्या मनुष्य की अकृतज्ञता शायद कठोर शीतऋतु की ठण्ड से अधिक गम्भीर हो सकती है? दु:ख की बात है कि बहुतों को शेक्सपियर के किए हुए टिप्पणी से सहमत होने का कारण था।

इस २०वी शताब्दी की क्रूर घटनाओं से कठोर बनने के कारण, हम अकृतज्ञता को अभी भी हद से ज्यादा अनुपकारी पाते हैं क्योंकि वह हमारी मूल आवश्‍यकता को छूती है जो हमें एक दूसरे के लिए है। व्यक्‍तिगत रूप से, हम जीवन को आनन्द देनेवाली हर एक आवश्‍यकताओं मे कुशल नहीं हो सकते। हम में से कुछ ही जन एकान्तवासी होना पसंद करते हैं, या शायद ही इस तरह के जीवन से बच सकते हैं। इस कारण हमें एक दुसरे की आवश्‍यकता होती है।

अतः, जब हमारी सार्वजनिक भलाई के प्रयास को धन्यवाद बिना स्वीकार किया जाता है या बिना प्रोत्साहन के स्वीकार किया जाता है; जब हम सेवा के लिए पैसे अदा करते हैं तब भी लोग अनिच्छा से देते हैं; जब हम दया बताने के लिए आगे बढ़ते हैं, तब हमें अप्रसन्‍नता से या संदेही नज़र से देखा जाता है; जब लोगों के प्रति हमारे प्रेमपूर्वक विचारों को एक कमज़ोरी का लक्षण माना जाता है; तब उनकी अकृतज्ञता की ठंडक हमारे दिल की गहराइयों तक पहुँच जाती है। क्या यह कभी आपका अनुभव रहा है?

कौन सी बात एक मनुष्य को अकृतज्ञ बनाती है? यह सुनने में शायद कठोर लगेगा, किन्तु मौलिक रूप से यह स्वार्थ है। निस्सन्देह, स्वार्थता की कई श्रेणीयाँ हैं, लापरवाही से अहंकार तक। लापरवाह व्यक्‍ति चकित हो सकता है और शायद उसे ठेस लग सकती है जब उसे संकेत किया जाता है कि वह कृतज्ञता प्रकट करने में असफल रहा है, किन्तु अहंकारी कोई चिन्ता नहीं करता। किसी भी ढंग से, यह स्पष्ट है कि हम में यहाँ कोई कमी हो सकती है जिसकी ओर हमें ध्यान देना चाहिए।

कृतज्ञता की प्रवृत्ति को विकसित करना

कृतज्ञता का प्रवृति को विकसित करने के लिए हम क्या कर सकते हैं? प्रथम, कभी भी किसी भी प्रकार की क्रिया को सामान्य न समझें। सच्चे अर्थ से “धन्यवाद” कहना कितना कठिन है? कुछ स्थानों में, बहकाया हुआ परम्परा के कारण, लोग “कृपया” या “धन्यवाद” कहना आवश्‍यक नहीं समझते हैं। फिर भी बाइबल हमें सलाह देती है कि ‘अपने-आपको धन्यवादी प्रकट करो।’—कुलुसियों ३:१५.

दुसरा, हमारे लिए जो भी कार्य दूसरे लोग करते हैं उसका मूल्यांकन हम बढ़कर कर सकते हैं। यह उन सभी के लिए हो सकता है जिससे हमारा व्यवहार होता है, खास तौर पर घर में। सप्ताह के सातों दिन एक पत्नी खरीदारी, धुलाई, भोजन तैयारी, साफ-सफाई, और बच्चों का देखभाल करती होगी। यह कितना बड़ा कार्य है! क्या हम हमारे कार्यो और शब्दों से उसका मूल्यांकन प्रकट करते हैं? या, ज्यों ज्यों समय गुज़रता है हम उसके प्रयासों को यों ही बिना मूल्यांकन के ही छोड़ देते हैं? क्या आपने हाल ही में अपने-आप से पूछा है, क्या मेरे मूल्यांकन के मुहावरे उन सब बातों के लिए काफी है जो वह हमारे घर को बाहर के कठोर संसार से एक आश्रय का स्थान बनाने में कोशिश करती है? दूसरी ओर, क्या हम पत्नियाँ अपने पति के उन प्रयासों को पूर्णरूप से मूल्यांकन करते हैं जो वह अपने परिवार की जीविका के लिए हर दिन एक ऐसे संसार में काम करता है जहाँ कठोर और कई बार निराशाजनक स्थितियों का सामना करना पड़ता है?

इन दिनों में जब कि बहुत सी पत्नियों को नौकरी के लिए घर से बाहर जाना पड़ता है, इस कारण उन पर अतिरिक्‍त दबाव आता है। परिवार के कामकाज को शाम और सप्ताहांत में ठूसना पड़ता हैं। कभी-कभी इसका शिकार कृतज्ञता हो जाती है। थके हुए लोग ठद मिज़ाजी हो सकते हैं और जीवन के शिष्टाचार और कृपा के लिए अल्प समय रहता है। ऐसी स्थितियों मे परिवार के सभी सदस्यों ने क्षमा करने और नरमी बरतने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

और हमारे बच्चों के प्रति कृतज्ञता के बारे में क्या? यह देखना कितना लाभप्रद है कि वे शरीर और बुद्धि में बढ़ रहे हैं, प्रशिक्षण और देखभाल के प्रति प्रतिक्रिया दिखाते हैं; स्वेच्छा से अपने घरेलू कामकाज में जुट जाते हैं क्योंकि आपने उन्हें सिखाया है कि वे परिवार दल के एक भाग हैं; आप पर उनका भरोसा और विश्‍वास की महसूस करना; जब आप उन्हें गुड नाइट का चुम्बन देते हैं तब उनके प्रेममय हाथ आप के गले से लिपट जाना कितना आनन्ददायक होता है। जी हाँ, हमें बच्चों के प्रति कृतज्ञ होने के कई कारण हैं , उनके माता के प्रति जो उनके प्रशिक्षण के लिए काफी समय देती है, और सबसे महत्त्वपूर्ण, परमेश्‍वर के प्रति होना चाहिए क्योंकि वह परिवार का जन्मदाता है।

परिवार के बाहर, हमारे सहकर्मी और बहुत से जो विभिन्‍न तरह की सेवाओं का प्रबन्ध करते हैं, वे सब के सब हमारे कल्याण में योगदान देते हैं। इस कारण जो कुछ वे हमारे लिए करते हैं उसके लिए हमें कृतज्ञ होना चाहिए। अकसर हम बदले में कुछ कृपा दिखा सकते हैं। यह एक साधारण मुस्कान के रूप में हो या प्रसन्‍नपूर्वक “धन्यवाद” के द्वारा हो सकता है। मुख्य बात यह है कि हमें इतना व्यस्त या विचारमग्न नहीं हो जाना चाहिए कि हम सच्चा मूल्यांकन व्यक्‍त करना ही भूल जाएँ। किसी भी प्रकार की भुगतान के अलावा, आप यह प्रकट कीजिए कि उस काम का आप मूल्यांकन करते हैं जो आपके लिए किया गया और जिस भावना से वह कार्य किया गया। ऐसा करने से अन्य व्यक्‍ति खुश होंगे और जीवन में इस प्रकार का लक्ष्य रखना उत्तम है।

क्या आप परमेश्‍वर के प्रति कृतज्ञ है?

लूका अध्याय १७ में हम दस कुष्ठियों के बारे में पढ़ते हैं जो यीशु से मिले थे और दया के लिए विनंती की थी। उन्हें चंगा करने के ख़याल से उन्होंने उन्हें याजकों को बतलाने के लिए कहा जैसे कि नियम के अनुसार आवश्‍यक था। जैसे ही वे जा रहे थे “वे शुब्द हो गए”। परन्तु उनमें से केवल एक ही यीशु को धन्यवाद करने और मुक्‍ति के लिए परमेश्‍वर की महिमा करने लौट आया।

यीशु निराश हो सकता था। “तो फिर वे नौ कहाँ है?” उसने पूछा। “क्या इस परदेशी को छोड़ और न निकला, जो परमेश्‍वर की बड़ाई करता?” (लूका १७:११-१९) कुष्ठ जैसे खतरनाक रोग से मुक्‍त हो जाने पर वह नौ जन कृतज्ञता प्रकट करने में विफल रहे। यीशु ने इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना उचित समझा। किन्तु इस सामरी पुरुष की मनोवृत्ति कितनी सन्तोषजनक और भिन्‍न थी जो अपनी कृतज्ञता इतनी सकारात्मक रूप से प्रकट करने के लिए लौटा!

अब, यहोवा परमेश्‍वर और उनके पुत्र को धन्यवाद और महिमा देने के मामले में आप अपने आपको कहाँ खड़ा हुआ पाते हैं? क्या आप सोचते हैं ऐसी कोई बात है जिसके लिए कृतज्ञ होना चाहिए?

स्पष्टतया पौलुस के दिनों में भी बहुतों ने ऐसा नहीं सोचा, क्योंकि रोम के संगी मसीहियों से उन्होंने टीका किया: “परमेश्‍वर के बारे में जाननेवाली सारी बातें मनुष्यों के आँखों के सामने सुस्पष्ट है; वास्तव में परमेश्‍वर ने यह उन्हें प्रकट किया है . . . इसलिए अब उनके आचरण के लिए कोई बचाव संभव नहीं है; परमेश्‍वर को जानने पर भी, उन्होंने परमेश्‍वर के योग्य महिमा या उसको धन्यवाद देने से इन्कार किया।”—रोमियों १:१९-२१, दि न्यू इंग्लिश बाइबल।

उसी तरह, आज, कितने लोग अंधे और कृतघ्न हैं? क्या आप उनमें से एक हो सकते हैं?

कृतज्ञ हृदय एक व्यक्‍ति की शोभा बढ़ाती है। यह शांति और संतोष लाती है उनके लिए जो उसकी पोषण करते हैं। वह व्यक्‍तित्व को बढ़ाता है। वह परमेश्‍वर की आशिष प्राप्त करता है। “धन्यवाद” केवल एक शब्द है जो हृदय को प्रसन्‍न करता है। इसलिए शब्दों में और कार्यो में कृतज्ञता को उदारता से प्रकट कीजिए यदि आप परमेश्‍वर और मनुष्य का हृदय आनन्दित करना चाहते हैं।

[पेज 11 पर तसवीर]

कृतज्ञ पति अपने पत्नी के परिश्रम को साधारण नहीं मानते

[पेज 12 पर तसवीर]

“कृपया” और “धन्यवाद” शिष्टाचार के स्वाभाविक अभिव्यंजन होना चाहिए

[पेज 11 पर तसवीर]

प्रति दिन की सेवाओं के लिए “धन्यवाद” काफी अर्थ रखता है

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