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  • सजग होइए!–1997
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  • ख़रीदारी की लत
  • “टीवी देखनेवाले नन्हे-मुन्‍नों की एक सेना”
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सजग होइए!–1997
g97 4/8 पेज 29

विश्‍व-दर्शन

नुसख़ा दवाइयों का दुरुपयोग

ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य में, मॆलबोर्न का अख़बार हॆरल्ड सन (अंग्रेज़ी) रिपोर्ट करता है कि “ऑस्ट्रेलियाई लोग एक साल में दवाइयों पर $३ अरब ख़र्च करते हैं और नुसख़ा दर्दनिवारकों के अधिकाधिक लतिया होते जा रहे हैं।” विक्टोरिया के स्वास्थ्य मंत्री ने चिताया कि “नुसख़ा दवाइयों का दुरुपयोग हमारे लिए अनजाने में समस्या बन रहा है और यह सेहत और जीवन-शैली के लिए उतना ही ज़हरीला हो सकता है जितनी की अवैध दवाइयाँ।” उसने उन रिपोर्टों पर भी चिंता ज़ाहिर की कि अधिकाधिक लोग अब कई नुसख़े पाने के लिए ‘अलग-अलग डॉक्टरों से मिल’ रहे हैं। कुछ गोलियों को बचाकर रखा जाता है, और फिर उन्हें पीसकर रक्‍तप्रवाह में अंतःक्षेपित किया जाता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, वैध चिकित्सीय प्रयोग को छोड़ दर्दनिवारक दवाइयाँ लेनेवाले लोगों की संख्या १९९३ में ३ प्रतिशत से १९९५ में १२ प्रतिशत तक बढ़ गयी।

ख़रीदारी की लत

आयरलैंड में विवशकारी ख़रीदारी को “अब एक लत समझा जाता है और इसे शराब, नशीली दवाइयों, जुए, और भोजन समस्याओं की तरह एक गंभीर भावात्मक और मानसिक सनक माना जाता है जिसे पेशेवर मदद की ज़रूरत है,” द आयरिश टाइम्स (अंग्रेज़ी) कहता है। इस जुनून के शिकार लोग शायद काफ़ी पैसा उन वस्तुओं को ख़रीदने में ख़र्च करें जिनकी उन्हें ज़रूरत नहीं है। रिपोर्ट समझाती है: “कपड़ों की ख़रीदारी के अपूर्वानुभव का रोमांच शरीर में डोपामिन और सॆरोटोनिन स्राव को प्रवर्तित करता है, जो फिर एक ख़ुशहाली का एक भाव उत्पन्‍न करता है।” विवशकारी ख़रीदार के लिए, ठीक एक नशीली दवाइयों के लतिया की तरह, मदोन्मत होना अधिकाधिक कठिन होता जाता है।

“टीवी देखनेवाले नन्हे-मुन्‍नों की एक सेना”

इटली में २१,००० परिवारों के एक सर्वेक्षण ने प्रकट किया है कि इतालवी बच्चों की एक बड़ी संख्या को टीवी की लत है। अख़बार ला रेपूब्लिका ने नोट किया कि “टीवी देखनेवाले नन्हे-मुन्‍नों की एक सेना” जीवन के अपने पहले साल से ही रिमोट कंट्रोल का इस्तेमाल करने की आदी है। तीन और दस साल के बीच की उम्र के ४० लाख से ज़्यादा इतालवी बच्चे टीवी के सामने, एक दिन में ढाई से ज़्यादा घंटे लगभग सम्मोहित होकर बैठे रहते हैं। मानसिक-स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात पर चिंतित हैं कि अनेक छः से आठ महीने तक के छोटे-छोटे बच्चे भी उत्सुक टीवी देखनेवाले बन चुके हैं।

पैर की समस्याएँ

जर्मनी में अखिल चिकित्सक संघ की स्वास्थ्य सेवा द्वारा किए गए अनुमान के अनुसार, उस देश के आधे नागरिकों को अपने पैर की समस्या है। “अनेक लोग अपने पैरों की देखभाल करने की उपेक्षा करते हैं, या ऐसे जूते पहनने के द्वारा अपने पैरों का दुरुपयोग करते हैं जो बहुत तंग हैं या अन्यथा सेहत के लिए नुक़सानदेह हैं,” अख़बार नासाउइशॆ नॉइए प्रेसॆ रिपोर्ट करता है। नियमित रूप से ऊँची एड़ियोंवाले या ठीक से न बैठनेवाले जूते पहनना घुटनों, कूल्हों, या पीठ के दर्द में परिणित हो सकता है। फफूँदी के कारण होनेवाली बीमारियाँ, जैसे कि दाद और कवकता भी अधिक व्याप्त होती जा रही हैं। अखिल चिकित्सक संघ जिस निरोधक उपाय की सिफ़ारिश करते हैं वह है “साबुन को पूरी तरह धो देना और अँगूठों के बीच में ध्यानपूर्वक पोंछना।”

स्त्रियाँ और आत्महत्या

“हर साल ब्रिटॆन में ४,५०० आत्महत्याएँ होती हैं: प्रत्येक स्त्री के पीछे पाँच पुरुष,” लंदन का द टाइम्स (अंग्रेज़ी) रिपोर्ट करता है। लेकिन १५ और २४ साल की युवतियों के बीच आत्महत्याओं की संख्या गत चार सालों में उल्लेखनीय रूप से बढ़ गयी है। साउथॆम्पटन के विश्‍वविद्यालय के एक प्रोफ़ॆसर ने एक संभावित कारण को समझाया: “युवतियाँ अपनी नौकरियों में सक्षम होना चाहती हैं और फिर भी परिवार चलाने की ज़िम्मेदारी उठाना चाहती हैं। युवा मध्यम-वर्गीय मम्मियाँ [माताएँ] आयाओं को काम पर लगा रही हैं ताकि वे अपनी नौकरियों को थामे रह सकें। बाद में दुःखी होती हैं और दोषी महसूस करती हैं। उनका शरीर उनसे कह रहा है कि मम्मी बनो और उनका मन उनसे कह रहा है कि बाहर जाकर रोज़ी-रोटी कमानेवाली बनो।” प्रॉफ़ॆसर सोचता है इन सभी तनावों और दबावों का संचयन शायद लोगों को आत्महत्या करने की ओर अधिक ले जाए।

एड्‌स का “जागतिक अधिकेंद्र”

लंदन में थेम्स वैली यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए एक नए अध्ययन ने कहा कि भारत “एक एक्सप्रॆस ट्रेन [की तरह है जो] पटरियों पर एक अनर्थ की ओर तेज़ी से बढ़ती जा रही है” और तेज़ी से “मानवजाति पर अब तक आई सबसे वहशी महामारियों में से एक महामारी का जागतिक अधिकेंद्र” बन रहा है। उसी प्रकार, संयुक्‍त राष्ट्र एड्‌स कार्यक्रम के मुख्य, डॉ. पीटर पिजॉ ने एड्‌स पर ११वीं अंतरराष्ट्रीय बैठक से कहा कि एकाएक भारत एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभरा है जिसमें एड्‌स वायरस से संक्रामित लोगों की सर्वाधिक संख्या है—९५ करोड़ आबादी में ३० लाख से ज़्यादा लोग। इंडियन एक्सप्रॆस (अंग्रेज़ी) अख़बार के अनुसार, एक अध्ययन की रिपोर्ट अनुमान लगाती है कि भारत में २२.३ करोड़ लैंगिक रूप से सक्रिय पुरुषों में से १० प्रतिशत नियमित रूप से वेश्‍याओं के पास जाते हैं। बड़े शहरों में काम करनेवाली वेश्‍याओं को, जब पाया जाता है कि वे संक्रामित हैं, आम तौर पर उनके घर के गाँव में भेज दिया जाता है जहाँ शहरों के मुक़ाबले इस बीमारी की ज़्यादा अज्ञानता है और औषधीय सुविधाएँ बेकार हैं। यह इस बीमारी के फैलने में तेज़ी लाता है। यह अनुमान लगाया जाता है कि वर्ष २००० तक, भारत में क़रीब ५० लाख से ८० लाख ऐसे लोग होंगे जो एच.आई.वी-पॉज़िटिव होंगे और कम-से-कम १० लाख पक्के मामले होंगे।

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