सबके लिए भोजन सिर्फ़ एक सपना?
इटली में सजग होइए! संवाददाता द्वारा
“हर आदमी, औरत और बच्चे को भूख और कुपोषण से मुक्त रहने का अधिकार है,” संयुक्त राष्ट्र के भोजन और कृषि संगठन (FAO) द्वारा १९७४ में आयोजित विश्व भोजन सम्मेलन में यह घोषणा की गई। तब “एक दशक के अंदर” संसार से भुखमरी का नामोनिशान मिटा देने की अपील की गई थी।
लेकिन, पिछले साल जब १७३ देशों के प्रतिनिधि रोम में FAO के मुख्यालय में पाँच-दिवसीय विश्व भोजन के एक शिखर-सम्मेलन में मिले, तो उनका मक़सद था यह पूछना: “गड़बड़ क्या हुई?” न सिर्फ़ सबके लिए भोजन उपलब्ध कराने में नाक़ामयाबी रही है, बल्कि अब दो दशकों से भी ज़्यादा समय बाद, स्थिति बदतर है।
भोजन, आबादी और ग़रीबी के प्रमुख मुद्दे गंभीर हैं। जैसा कि उस शिखर-सम्मेलन में जारी एक दस्तावेज़ ने स्वीकार किया, जब तक ये समस्याएँ सुलझाई नहीं जातीं, “कई देशों और प्रदेशों की सामाजिक स्थिरता गंभीर रूप से प्रभावित हो सकती है, और शायद विश्व शांति पर भी बुरा असर हो।” एक दर्शक ने ज़्यादा खुलकर कहा: “हम सभ्यता और राष्ट्रीय संस्कृतियों का विनाश देखेंगे।”
FAO के महानिदेशक ज़ॉक जूफ़ के अनुसार, “८० करोड़ से भी ज़्यादा लोगों को पर्याप्त भोजन उपलब्ध नहीं है; जिनमें २० करोड़ बच्चे शामिल हैं।” ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि सन् २०२५ तक, ५.८ अरब संसार की मौजूदा आबादी ८.३ अरब तक पहुँच जाएगी, जिसमें से अधिकांश बढ़ोतरी विकासशील देशों में होगी। श्री जूफ़ अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं: “जीवन और गरिमा के मौलिक अधिकार से वंचित पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की संख्या अप्रिय रूप से बढ़ी है। भूखे लोगों की पुकारों के साथ, अनउपजाऊ भूमि, कटे जंगल और तेज़ी से ख़ाली होते मछुवाही के इलाक़ों की ख़ामोश व्यथा की आवाज़ मिली है।”
किस उपाय का प्रस्ताव रखा गया है? श्री जूफ़ कहते हैं कि “साहसपूर्ण कार्रवाई” इसका हल है, यानी कि जिन देशों में भोजन की कमी है, उन्हें “भोजन सुरक्षा” के साथ-साथ ख़ुद का पेट भरने में समर्थ करने के लिए कौशल, निवेश और तकनीकी प्रदान करना।
“भोजन सुरक्षा”—इतनी मुश्किल क्यों?
शिखर-सम्मेलन में जारी एक दस्तावेज़ के अनुसार, “भोजन सुरक्षा तब होती है, जब एक सक्रिय और स्वस्थ जीवन के लिए सभी लोग, हर समय पर्याप्त, सुरक्षित और पौष्टिक भोजन सुलभ तरीक़े से और सस्ते दामों पर हासिल कर पाएँ ताकि अपनी आहार संबंधी ज़रूरतें और मनपसंद भोजन पा सकें।”
भोजन सुरक्षा किस तरह ख़तरे में पड़ सकती है, यह ज़ाएर की शरणार्थी-समस्या से ज़ाहिर हुआ। जहाँ एक ओर रुवाण्डा के दस लाख शरणार्थी भूखे मर रहे थे, वहीं दूसरी ओर उन्हें खिलाने के लिए संयुक्त राष्ट्र एजंसियों के पास ढेरों भोजन उपलब्ध था। लेकिन परिवहन और वितरण के प्रबंधों के लिए राजनैतिक प्राधिकरण और स्थानीय अधिकारियों के सहयोग—या फिर शरणार्थी शिविरों पर यदि स्थानीय युद्ध-नेताओं का क़ब्ज़ा था तो उनके सहयोग—की ज़रूरत थी। ज़ाएर का संकट एक बार फिर बताता है कि भोजन उपलब्ध होते हुए भी, भूखों को खिलाना अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए कितना मुश्किल है। एक दर्शक ने टिप्पणी की: “कुछ भी करने से पहले ढेरों संगठन और हस्तियों के साथ परामर्श करना पड़ता है और उनको पटाना पड़ता है।”
जैसा कि अमरीकी कृषि-विभाग के एक दस्तावेज़ ने इशारा किया, भोजन सुरक्षा कई मूलभूत कारणों से बुरी तरह चरमरा सकती है। प्राकृतिक आपदाओं के अलावा, इनमें शामिल हैं युद्ध और गृह-संघर्ष, असंगत राष्ट्रीय नीतियाँ, अपर्याप्त अनुसंधान और तकनीकी, पर्यावरण का नुक़सान, ग़रीबी, आबादी का बढ़ना, लैंगिक भेदभाव और ख़राब स्वास्थ्य।
कुछ उपलब्धियाँ हासिल हुई हैं। सत्तरादि से, विकासशील राष्ट्रों में औसत आहार संबंधी ऊर्जा सप्लाई, जो कि भोजन की खपत की सूचक है, प्रतिदिन २,१४० से बढ़कर २,५२० कैलोरी प्रति व्यक्ति हो गई है। लेकिन FAO के अनुसार, आबादी में करोड़ों की वृद्धि को देखते हुए सन् २०३० तक, “भोजन उपलब्धता के वर्तमान स्तरों को मात्र बनाए रखने में ही, तेज़ और नियमित उत्पादन मात्रा की आवश्यकता होगी, जिससे कि खाद्य-सामग्री ७५ प्रतिशत से अधिक बढ़ जाए। और यह सब उन प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किए बिना, जिन पर हम सब निर्भर हैं।” ज़ाहिर है भूख से मर रही आबादी के लिए भोजन उपलब्ध कराने का काम मुश्किल है।
‘हमें काम करना है, न कि और ज़्यादा शिखर-सम्मेलन’
विश्व भोजन शिखर-सम्मेलन की कार्रवाई और उसमें किए गए वादों की बहुत आलोचना की गई। एक लैटिन-अमरीकी प्रतिनिधि ने अल्पपोषित लोगों की वर्तमान संख्या को केवल आधा तक कम करने के “सीमित” लक्ष्य को “शर्मनाक” बताकर उसकी निंदा की। पंद्रह देशों ने शिखर-सम्मेलन द्वारा पास किए गए प्रस्तावों की अलग-अलग व्याख्याएँ कीं। इतालवी समाचार-पत्र ला रेपूबब्लीका ने कहा कि एक सीधा-सादा घोषणा-पत्र और रूपरेखा तैयार करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए भी “दो साल तक मिलते रहना और बातचीत करना ज़रूरी था। हरेक शब्द, हरेक अल्पविराम को तोला गया ताकि ज़ख़्म . . . कहीं फिर से हरे न हो जाएँ।”
शिखर-सम्मेलन के दस्तावेज़ों को तैयार करनेवाले बहुत से लोग नतीजों से नाख़ुश थे। “हमें इस बारे में बहुत शंका है कि घोषित किया गया बढ़िया प्रस्ताव साकार होगा या नहीं,” एक ने कहा। फ़साद की एक जड़ यह थी कि भोजन तक पहुँच को एक “अंतर्राष्ट्रीय मान्यता-प्राप्त अधिकार” के तौर पर परिभाषित किया जाए कि नहीं, चूँकि एक “अधिकार” का अदालत में बचाव किया जा सकता है। कनाडा के एक प्रतिनिधि ने स्पष्ट किया: “अमीर देशों को डर था कि उन्हें आर्थिक सहायता के लिए मजबूर किया जाएगा। इसलिए उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि घोषणा-पत्र के मूल-पाठ को कुछ नरम किया जाए।”
संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित शिखर-सम्मेलनों में होनेवाली अनंत चर्चाओं की वजह से एक यूरोपीय मंत्री ने कहा: “[आबादी और विकास पर, १९९४ में आयोजित] काहिरा सम्मेलन में इतने निर्णयों पर पहुँचने के बाद, आनेवाले हर सम्मेलन में हम अपने आपको उन्हीं बातों पर चर्चा करते पाते हैं।” उन्होंने सिफ़ारिश की: “हमारे संगी मनुष्यों की भलाई की योजनाओं को लागू करना हमारी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर होना चाहिए, न कि और ज़्यादा शिखर-सम्मेलन।”
दर्शकों ने इस ओर भी इशारा किया कि कुछ देश जो इसका ख़र्च नहीं उठा सकते थे, उनके लिए शिखर-सम्मेलन में उपस्थित होना ही एक भारी ख़र्चा था। एक छोटे-से अफ्रीकी देश ने १४ प्रतिनिधि और २ मंत्री भेजे, जो रोम में दो हफ़्तों से ज़्यादा समय के लिए ठहरे। इतालवी समाचार-पत्र कोरीएरे देल्ला सेरा ने रिपोर्ट किया कि एक ऐसे अफ्रीकी देश के राष्ट्रपति की पत्नी ने, जहाँ औसत वार्षिक आय प्रति व्यक्ति ३,३०० डॉलर से ज़्यादा नहीं है, रोम के आधुनिकतम बाज़ारों में २३,००० डॉलर की ख़रीदारी की।
क्या यह विश्वास करने का कोई कारण है कि शिखर-सम्मेलन में अपनाई गई रूपरेखा सफल होगी? एक पत्रकार जवाब देता है: “अब तो हम बस यह उम्मीद करते हैं कि सरकारें इसे गंभीरता से लेंगी और यह निश्चित करने के लिए क़दम उठाएँगी कि इसकी सिफ़ारिशें लागू की जाएँ। क्या वे ऐसा करेंगी? . . . इतिहास आशावाद के लिए बहुत कम कारण छोड़ता है।” इसी टीकाकार ने यह निराशाजनक सच्चाई सामने रखी कि १९९२ रियो डॆ जनॆरो पृथ्वी शिखर-सम्मेलन में, विकास सहयोग के लिए अंशदान को कुल घरेलू उत्पाद के ०.७ प्रतिशत तक बढ़ाने पर सहमत होने के बावजूद, “केवल मुट्ठीभर देशों ने उस निर्बाध लक्ष्य को प्राप्त किया है।”
भूखों का पेट कौन भरेगा?
इतिहास ने अच्छी तरह दिखा दिया है कि मनुष्यजाति के तमाम नेक इरादों के बावजूद, “मनुष्य का मार्ग उसके वश में नहीं है, मनुष्य चलता तो है, परन्तु उसके डग उसके अधीन नहीं हैं।” (यिर्मयाह १०:२३) तो यह असंभावनीय है कि मनुष्य कभी ख़ुद के बूते पर सब के लिए भोजन उपलब्ध करा पाएगा। लालच, अव्यवस्था, और अहं मनुष्यजाति को विनाश के कगार तक ले आए हैं। FAO के महानिदेशक जूफ़ ने टिप्पणी की: “आख़िरी विश्लेषण में जिस चीज़ की आवश्यकता है, वह है दिल, दिमाग़ और इच्छाओं की कायापलट।”
यह ऐसी चीज़ है जो सिर्फ़ परमेश्वर का राज्य ही कर सकता है। दरअसल, शताब्दियों पहले यहोवा ने अपने लोगों के बारे में भविष्यवाणी की थी: “मैं अपनी व्यवस्था उनके मन में समवाऊंगा, और उसे उनके हृदय पर लिखूंगा; और मैं उनका परमेश्वर ठहरूंगा, और वे मेरी प्रजा ठहरेंगे।”—यिर्मयाह ३१:३३.
जब यहोवा परमेश्वर ने मनुष्यजाति के बाग़ीचे रूपी प्रारंभिक घर को बनाया, तब उसने मनुष्य को “जितने बीजवाले छोटे छोटे पेड़ सारी पृथ्वी के ऊपर हैं और जितने वृक्षों में बीजवाले फल होते हैं, वे सब” भोजन के लिए दिए। (उत्पत्ति १:२९) वह प्रबंध प्रचुर, पौष्टिक, और पहुँच के भीतर था। अपनी भोजन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उसमें वह सब कुछ था जिसकी मनुष्यजाति को ज़रूरत थी।
परमेश्वर का उद्देश्य बदला नहीं है। (यशायाह ५५:१०, ११) बहुत पहले ही उसने आश्वासन दिया कि सिर्फ़ वही मसीह के ज़रिए अपने राज्य के द्वारा मनुष्यजाति की हरेक ज़रूरत को पूरा करेगा, सभी के लिए भोजन उपलब्ध कराने, ग़रीबी मिटाने, प्राकृतिक विपदाओं को क़ाबू में करने और झगड़े मिटाने के द्वारा। (भजन ४६:८, ९; यशायाह ११:९; मरकुस ४:३७-४१; ६:३७-४४ से तुलना कीजिए।) उस समय ‘भूमि अपनी उपज देगी, परमेश्वर जो हमारा परमेश्वर है, हमें आशीष देगा।’ “देश में पहाड़ों की चोटियों पर बहुत सा अन्न होगा।”—भजन ६७:६; ७२:१६.
[पेज 12 पर चित्र का श्रेय]
Dorothea Lange, FSA Collection, Library of Congress