पहले बाइबल ने कहा
● “बातचीत न तो कभी तुरंत शुरू की जाती थी, न ही जल्दबाज़ी में। झट से कोई प्रश्न नहीं पूछता था, बात चाहे कितनी भी ज़रूरी क्यों न हो, और न ही फटाफट उत्तर देने के लिए किसी पर दबाव डाला जाता था। सोचने के लिए समय देना बातचीत शुरू करने और आगे बढ़ाने का शालीन तरीका समझा जाता था। लकोटा लोगों में मौन का महत्त्व था . . . [यह] सच्ची शिष्टता दिखाते हुए और इस नियम को मानते हुए किया जाता था कि ‘पहले सोचो फिर बोलो।’”—लूथर स्टैंडिंग बैर, ओग्लाला सू प्रधान (१८६८?-१९३९)।
“हे मेरे प्रिय भाइयो, यह बात तुम जानते हो: इसलिये हर एक मनुष्य सुनने के लिये तत्पर और बोलने में धीरा और क्रोध में धीमा हो।”—याकूब १:१९, बाइबल (सा.यु. पहली सदी)।
“धर्मी मन में सोचता है कि क्या उत्तर दूं, परन्तु दुष्टों के मुंह से बुरी बातें उबल आती हैं।”—नीतिवचन १५:२८, बाइबल (सा.यु.पू. आठवीं सदी के करीब)।
“मूर्ख अपने सारे मन की बात खोल देता है, परन्तु बुद्धिमान अपने मन को रोकता, और शान्त कर देता है।”—नीतिवचन २९:११, बाइबल (सा.यु.पू. आठवीं सदी के करीब)।
[पेज 27 पर चित्र का श्रेय]
Photo by David Barry, the Denver Public Library, Western History Collection