वॉचटावर ऑनलाइन लाइब्रेरी
वॉचटावर
ऑनलाइन लाइब्रेरी
हिंदी
  • बाइबल
  • प्रकाशन
  • सभाएँ
  • g01 7/8 पेज 31
  • बेजान धरती पर जीवन की धारा

इस भाग के लिए कोई वीडियो नहीं है।

माफ कीजिए, वीडियो डाउनलोड नहीं हो पा रहा है।

  • बेजान धरती पर जीवन की धारा
  • सजग होइए!–2001
  • मिलते-जुलते लेख
  • विश्‍व-दर्शन
    सजग होइए!–2004
  • विश्‍व-दर्शन
    सजग होइए!–2000
  • सागर के चमकते महल
    सजग होइए!–1996
सजग होइए!–2001
g01 7/8 पेज 31

बेजान धरती पर जीवन की धारा

भारत में सजग होइए! लेखक द्वारा

भारत के उत्तरी ज़िले, लद्दाख के बेजान इलाकों को कैसे और भी उपजाऊ बनाया जा सकता है? एक रिटायर्ड सिविल इंजीनियर त्सेवॉन्ग नोरफेल हमेशा उसी सवाल के बारे में सोचा करता था। हिमालय के पहाड़ों की ऊँचाई पर स्थित प्राकृतिक ग्लेशियर (हिमनदी) की बरफ अप्रैल के महीने में नहीं पिघलती, जबकि उस समय किसानों को सिंचाई के लिए पानी की सख्त ज़रूरत पड़ती है और बारिश भी बहुत कम होती है। इसके बजाय ग्लेशियर की बरफ जून महीने में पिघलना शुरू होती है। नोरफेल को इस समस्या का बहुत ही बढ़िया हल सूझा कि क्यों न हम कम ऊँचाई पर गलेशियर बनाएँ जहाँ साल के शुरूआती महीनों में ही बरफ पिघलना शुरू हो जाए।

एक भारतीय पत्रिका द वीक के मुताबिक नोरफेल और उसकी टोली काम में जुट गयी। उन्होंने पानी की एक धारा को 700 फुट लंबे कृत्रिम जलमार्ग में पहुँचाने के लिए रास्ता बनाया। इस जलमार्ग में 70 छोटे-छोटे रास्ते हैं जो नीचे पहाड़ी की ढलान तक जाते हैं। इन रास्तों से पानी की छोटी-छोटी धाराएँ नीचे बहती हैं और पहाड़ की तलहटी में बनी घेरेदार पत्थरों की दीवार तक पहुँचते-पहुँचते बरफ बन जाती हैं। लागातार पानी आने से इतनी बरफ जमा हो जाती है कि इससे दीवारें पूरी तरह ढक जाती हैं और एक ग्लेशियर जैसा बन जाता है। पहाड़ की छाया में होने की वजह से इस ग्लेशियर की बरफ तब तक नहीं पिघलती जब तक कि तापमान ना बढ़े। अप्रैल का महीना आते ही यह बरफ पिघलनी शुरू हो जाती है और किसानों को इस ज़रूरत के वक्‍त में पानी की भरपूर सप्लाई मिल जाती है।

क्या ग्लेशियर बनाने की तरकीब कामयाब रही? कामयाब ही नहीं बल्कि बहुत कामयाब रही! दरअसल, नोरफेल की तरकीब इतनी कारगर साबित हुई कि एक नहीं, लद्दाख में दस हिमनदियाँ बनायी जा चुकी हैं। इतना ही नहीं और भी हिमनदियाँ बनाने की योजनाएँ जारी हैं। इसी तरह का एक गलेशियर 4,500 फुट की ऊँचाई पर बनाया गया है और इसमें से करीब नब्बे लाख गैलन पानी बहता है। और इन ग्लेशियरों को बनाने में कितना खर्चा आता है? द वीक पत्रिका कहती है: “एक कृत्रिम गलेशियर बनाने के लिए लगभग दो महीने लगते हैं और इसका खर्चा 80,000 रुपए आता है जिसमें से ज़्यादातर पैसा मज़दूरी में ही चला जाता है।”

इंसान की सूझबूझ का जब सही तरीके से इस्तेमाल किया जाता है, तो वह ज़रूर फायदेमंद साबित होती है। ज़रा सोचिए, परमेश्‍वर के राज्य के अधीन मानवजाति क्या-क्या काम कर सकेगी! बाइबल वादा करती है: “जंगल और निर्जल देश प्रफुल्लित होंगे, मरुभूमि मगन होकर केसर की नाईं फूलेगी; . . . जंगल में जल के सोते फूट निकलेंगे और मरुभूमि में नदियां बहने लगेंगी।” (यशायाह 35:1,6) क्या ही खुशी का आलम होगा जब हम सभी इस पृथ्वी की खूबसूरती में चार चाँद लगाने में हिस्सा ले सकेंगे! (g01 4/8)

[पेज 31 पर चित्रों का श्रेय]

Arvind Jain, The Week Magazine

Mountain High Maps® Copyright © 1997 Digital Wisdom, Inc. ▸

    हिंदी साहित्य (1972-2025)
    लॉग-आउट
    लॉग-इन
    • हिंदी
    • दूसरों को भेजें
    • पसंदीदा सेटिंग्स
    • Copyright © 2025 Watch Tower Bible and Tract Society of Pennsylvania
    • इस्तेमाल की शर्तें
    • गोपनीयता नीति
    • गोपनीयता सेटिंग्स
    • JW.ORG
    • लॉग-इन
    दूसरों को भेजें