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g03 10/8 पेज 18-20

“छाता मत भूल जाना!”

ब्रिटेन में सजग होइए! लेखक द्वारा

ब्रिटेन में आम तौर पर कई लोग छाते के बिना घर से बाहर कदम नहीं रखते, फिर चाहे आसमान साफ हो या उसमें काली घटा छायी हो। यहाँ पानी कब बरसने लगेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। इसलिए घर से निकलते वक्‍त अकसर हम एक-दूसरे को याद दिलाते हैं: “छाता मत भूल जाना!” मगर होता यह है कि अनजाने में हम उसे बस, ट्रेन या किसी दुकान में भूल आते हैं। जी हाँ, अकसर हम अपने छाते की कदर नहीं करते क्योंकि गुम होने पर हम दूसरा खरीद सकते हैं। लेकिन एक ज़माना था जब छाते को कोई मामूली चीज़ नहीं समझा जाता था।

एक शानदार इतिहास

सबूत दिखाते हैं कि शुरू-शुरू में, छाते को बारिश के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता था। इसके बजाय यह ओहदे और रुतबे की निशानी था, जिसे सिर्फ बड़ी-बड़ी हस्तियाँ इस्तेमाल कर सकती थीं। अश्‍शूर, मिस्र, फारस और भारत की हज़ारों साल पुरानी मूर्तियों और चित्रकारी में देखा जा सकता है कि सेवक अपने शासकों को धूप से बचाने के लिए कैसे छत्र पकड़े खड़े हैं। अश्‍शूर के राज में, राजा को छोड़ किसी और को छत्र रखने की इजाज़त नहीं थी।

पूरे इतिहास में छत्र, अधिकार की निशानी रहा है, खासकर एशिया के बारे में यह सच है। कहा जाता है कि एक शासक का ओहदा जितना ऊँचा होता था, उसके पास उतने ही ज़्यादा छत्र होते थे। बर्मा का एक राजा इसकी मिसाल है, जिसे ‘चौबीस छत्रों का स्वामी’ कहा जाता था। कभी-कभी यह बात भी मायने रखती थी कि एक छत्र के ऊपर कितने छत्र लगे हैं। चीन के सम्राट के छत्र के ऊपर चार छत्र लगे होते थे और साइएम के राजा के छत्र के ऊपर सात या नौ। आज भी कुछ पूर्वी और अफ्रीकी देशों में छत्र, अधिकार की निशानी है।

धर्म से जुड़े छत्र

जब से छाते की शुरूआत हुई, तब से इसका ताल्लुक धर्म से रहा है। प्राचीन मिस्रियों की यह धारणा थी कि नट नाम की देवी, एक छतरी की तरह अपने शरीर से पूरी पृथ्वी को छाया देती है। इसलिए लोग उसकी छत्रछाया में रहने के लिए चलती-फिरती “छत” यानी अपने-अपने छाते साथ लेकर चलते थे। भारत और चीन के लोग मानते थे कि पूरा आसमान ही एक खुली छतरी है। प्राचीन समय में बौद्ध धर्म के माननेवाले, छत्र को बुद्ध की निशानी मानते थे और उनके ज़्यादातर स्मारक के गुंबद पर छत्र होते थे। हिन्दू धर्म में भी छत्र, खास मायने रखता है।

सामान्य युग पूर्व 500 के आते-आते छाते का चलन यूनान में भी शुरू हो गया। यहाँ इन्हें धार्मिक त्योहारों में देवी-देवताओं की मूर्तियों को छाया देने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। एथेन्स में, स्त्रियों को छाया देने के लिए उनके नौकर छतरी पकड़ा करते थे। लेकिन रही आदमियों की बात, तो उनमें से बहुत कम इसे इस्तेमाल करते थे। यूनान के बाद, रोम में छाते का दस्तूर शुरू हुआ।

रोमन कैथोलिक चर्च ने धार्मिक समारोहों में पहने जानेवाले खास लिबास के साथ-साथ छत्र को भी शामिल किया। ऐसे मौकों पर पोप, लाल-पीले रंग के धारीवाले रेशमी छत्र के साथ हाज़िर होता, जबकि कार्डिनल और बिशप, बैंगनी या हरे रंग के छत्र के साथ। आज भी बड़े-बड़े चर्चों में, पोप की कुर्सी पर एक ओम्ब्रेलोने या लाल-पीला धारीवाला छत्र लगा होता है। पोप की मौत के बाद जब तक नए पोप का चुनाव नहीं होता, तब तक जो कार्डिनल, चर्च के अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी निभाता है, उसके पास भी उस दौरान अपनी पहचान के लिए एक ओम्ब्रेलोने होता है।

पहले धूप से बचाव, फिर बारिश से

कागज़ से बने छाते पर तेल या मोम लगाकर बरसात में उसे इस्तेमाल करने का रिवाज़ या तो चीनी लोगों ने शुरू किया था या शायद प्राचीन रोम की स्त्रियों ने। मगर फिर यूरोप में धूप या बारिश से बचानेवाले इन छातों का इस्तेमाल कुछ समय के लिए बंद हो गया। बाद में सोलहवीं सदी में एक बार फिर ये छाते नज़र आने लगे जब पहले इटली और फिर फ्रांस के वासियों ने दोबारा इन्हें इस्तेमाल में लाना शुरू किया।

अठारहवीं सदी के आते-आते, ब्रिटेन की स्त्रियों के हाथ में भी छतरियाँ नज़र आने लगीं, जबकि पुरुषों को अब भी इनका इस्तेमाल करना गवारा नहीं था, क्योंकि उनका मानना था कि ये सिर्फ औरतों को ही शोभा देती हैं। मगर कॉफीहाउस के मालिक ऐसा नहीं सोचते थे। वे जानते थे कि खराब मौसम में छाते कितने काम आते हैं, क्योंकि इनकी मदद से ग्राहकों को उनकी घोड़ा-गाड़ी तक पहुँचाया जा सकता था। इसके अलावा, पादरियों के लिए भी छाते बहुत फायदेमंद साबित हुए, जब उन्हें ज़ोरदार बारिश के वक्‍त कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार की रस्में निभानी पड़ती थीं।

जोनस हानवे नाम के मुसाफिर और समाज-सेवक ने इंग्लैंड में छाते का इतिहास ही बदल डाला। कहा जाता है कि वही पहला आदमी था जिसने लंदन की सड़कों पर सरेआम छाता लेकर घूमने की हिम्मत की। विदेश की सैर करते वक्‍त उसने कई आदमियों को छाते का इस्तेमाल करते देखा था, इसलिए उसने ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह छाता लेकर ज़रूर घूमेगा। उसे देखकर घोड़ा-गाड़ीवाले उसकी खिल्ली उड़ाते और जानबूझकर अपनी गाड़ी तेज़ी से चलाते हुए उस पर कीचड़ उछालते थे। मगर हानवे ने हार नहीं मानी और अगले 30 सालों तक उसका छाता हमेशा उसके साथ रहा। सन्‌ 1786 में, उसकी मौत हो गयी। तब तक स्त्री-पुरुष दोनों बिना किसी झिझक के छाता इस्तेमाल करने लगे थे।

उन दिनों बारिश के लिए बनाए गए छाते का इस्तेमाल करना बहुत मुश्‍किल था क्योंकि वह बहुत बड़ा और भारी-भरकम हुआ करता था और उसकी बनावट भी अच्छी नहीं थी। छाते पर कैनवस या फिर रेशम के कपड़े चढ़ाए जाते थे, जिस पर तेल लगा होता था। उसकी तीलियाँ और उसका लंबा डंडा, बाँस या व्हेल की हड्डियों का बना होता था। इसलिए जब छाता पानी में तर-बतर हो जाता तो उसे खोलना बहुत मुश्‍किल होता था और उसमें से पानी भी टपकता था। फिर भी छाते का इस्तेमाल मशहूर होता गया क्योंकि बारिश से बचने के लिए घोड़ा-गाड़ी किराए पर लेने से तो एक छाता खरीद लेना किफायती था। छाता बनानेवालों और बेचनेवाली दुकानों की गिनती बढ़ने लगी और बेहतरीन-से-बेहतरीन डिज़ाइन के छाते बनाए जाने लगे। उन्‍नीसवीं सदी के बीच, सैमूएल फॉक्स ने एक नए किस्म का छाता तैयार किया जिसे पैरगन नाम दिया गया। यह छाता हलका मगर मज़बूत स्टील से बनाया गया था और उस पर भारी-भरकम कैनवस के कपड़ों के बजाय रेशम, सूती और मोम से मढ़ी लिनेन जैसे हलके कपड़े चढ़ाए गए थे। इस तरह नए ज़माने के छाते की ईजाद हुई।

छतरी का फैशन

इंग्लैंड में फैशन-परस्त औरतें, अब तो छतरी की इतनी दीवानी हो गयीं कि यह उनके फैशन में शुमार हो गयी। बदलते फैशन के साथ, वे पहले से बड़ी और रंग-बिरंगी, चमकीली रेशम और सैटिन से बनी छतरियाँ लेकर घूमने लगीं। अकसर वे जिस रंग के कपड़े पहनतीं, उसी रंग की छतरी साथ लेती थीं। उनकी छतरियों के किनारे पर, तरह-तरह के लेस, रिबन, यहाँ तक कि पंख लगे होते थे। और बीसवीं सदी में तो अच्छे घरानों की स्त्रियाँ, अपनी कोमल त्वचा की हिफाज़त करने के लिए बगैर छतरी के घर से बाहर कदम तक नहीं रखती थीं।

सन्‌ 1920 के दशक में जब धूप में रहकर अपना रंग भूरा करने का चलन ज़ोर पकड़ने लगा, तो औरतों में छतरियों का इस्तेमाल लगभग बंद हो गया। मगर देवियों ने उनको ताक पर रख दिया तो क्या हुआ, शहर के सज्जनों ने उनका इस्तेमाल शुरू कर दिया। वे अकसर गोल टोपी (बोलर हैट) पहनते और हाथ में बंद, काला छाता लेकर घूमते जो उनके लिए छड़ी का काम भी देता था और इसलिए जहाँ भी देखो, सारे सज्जन एक-से नज़र आते थे।

दूसरे विश्‍व-युद्ध के बाद, नयी तकनीक की बदौलत बाज़ार में बेहतर किस्म की छतरियाँ बिकने लगीं। जैसे वे छतरियाँ जिन्हें फोल्ड करके रखा जा सकता था साथ ही जो वॉटरप्रूफ नाइलॉन, पोलियेस्टर और प्लास्टिक से बनी होती थीं। अभी-भी कुछ गिनी-चुनी दुकानें हैं, जहाँ हाथ से बढ़िया किस्म के छाते बनाए जाते हैं और ये बहुत महँगे होते हैं। मगर आज ज़्यादातर छाते, कारखानों में बनते हैं जो हर रंग और आकार के होते हैं और सस्ते मिलते हैं। जैसे, गॉल्फ छाता, जो इतना बड़ा होता है कि दो लोग आराम से उसके नीचे खड़े हो सकते हैं, आँगन में पूरे टेबल को ढकनेवाला छाता, और ऐसी छतरी जो फोल्ड करने पर छः इंच की हो जाती है और बड़ी आसानी से पर्स में आ जाती है।

एक ज़माना था जब छाता, रुतबे की निशानी था और उसे खरीदना, हर किसी के बस में नहीं था। मगर अब यह एक किफायती चीज़ बन गया है। और देखा गया है कि छाता उन चीज़ों में से एक है जिन्हें लोग सबसे ज़्यादा खोते हैं। दुनिया की किसी भी जगह यह धूप और बारिश में सच्चा साथी है। और आजकल तो कुछ देशों में पुराने ज़माने की तरह, लोग धूप से भी बचने के लिए छाते का इस्तेमाल करने लगे हैं, क्योंकि धूप से होनेवाले खतरों के बारे में ज़्यादा-से-ज़्यादा आगाह किया जा रहा है। तो फिर आज, घर से निकलते वक्‍त शायद आपको भी कोई याद दिलाए: “छाता मत भूल जाना!” (g03 7/22)

[पेज 20 पर बक्स/तसवीर]

छाता खरीदना और उसकी देखभाल करना

खरीदने से पहले सोच लीजिए कि आपको किस तरह का छाता चाहिए: टिकाऊ और मज़बूत छाता या ऐसा जो हलका और कहीं भी ले जाने में आसान हो। फोल्ड की जानेवाली सस्ती छतरी आसानी से बैग में रखी जा सकती है, उसमें तीलियाँ कम होती हैं, मगर वह तेज़ हवा के आगे टिक नहीं सकती। दूसरी तरफ, पुराने ज़माने के बड़े-बड़े छाते महँगे ज़रूर होते हैं, मगर ये मौसम के थपेड़े झेल सकते हैं और ज़्यादा टिकाऊ होते हैं। छाता अच्छा हो तो कई सालों तक काम आ सकता है। खैर, आपकी पसंद जो भी हो, आप उसे बंद करने से पहले हमेशा अच्छी तरह सुखा लें ताकि उसमें फफूँद और ज़ंग न लगे। छाते को उसके कवर में रखने से वह साफ-सुथरा रहेगा और उस पर धूल नहीं जमेगी।

[पेज 19 पर तसवीरें]

अश्‍शूर के राजा को छाया देता हुआ उसका सेवक

छतरी लिए हुए प्राचीन यूनान की एक स्त्री

[चित्र का श्रेय]

चित्रकारी: The Complete Encyclopedia of Illustration/J. G. Heck

[पेज 20 पर तसवीर]

करीब सा.यु. 1900 की एक छतरी

[चित्र का श्रेय]

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