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सजग होइए!–2004
g04 4/8 पेज 30-31

विश्‍व-दर्शन

बंदरों की शरारत

कुछ विकासवादियों का कहना है कि अगर ढेर सारे बंदरों को टाइपिंग करने के लिए ढेर सारे टाइपराइटर दिए जाएँ, तो एक-न-एक दिन वे शेक्सपियर की सारी रचनाएँ लिख डालेंगे। इस पर इंग्लैंड के प्लाइमाउथ यूनिवर्सिटी के खोजकर्ताओं ने दक्षिण-पश्‍चिमी इंग्लैंड के पेंटन चिड़ियाघर में छः बंदरों को एक महीने के लिए एक कंप्यूटर दिया। द न्यू यॉर्क टाइम्स रिपोर्ट करता है कि ये बंदर “एक भी शब्द टाइप नहीं कर पाए।” उन्होंने सिर्फ “पाँच पन्‍ने टाइप किए” जिन पर ज़्यादातर एक ही अक्षर बार-बार टाइप किया गया था। पन्‍ने के आखिर में बंदरों ने कुछ दूसरे अक्षर भी टाइप किए। इसके अलावा, उन्होंने कीबोर्ड को टॉयलॆट की तरह इस्तेमाल किया। (g04 1/22)

साँप के ज़हर से लड़ने की दवा—अब अंडों से

द टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार कहता है: “भारतीय वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि मुर्गी के अंडों के अणुओं से ऐसी दवा बनायी जा सकती है जिससे साँप के डसने का इलाज किया जा सके।” जब मुर्गी करीब 12 हफ्ते की होती है तो उसकी “किसी मांसपेशी में इंजेक्शन के ज़रिए ज़हर की ऐसी खुराक दी जाती है जो जानलेवा नहीं होती।” फिर दो-तीन हफ्ते बाद, एक और इंजेक्शन दिया जाता है ताकि पहले दी गयी खुराक बेअसर न हो। इक्कीस हफ्ते बाद, मुर्गी ऐसे अंडे देने लगती है जिनमें साँप के ज़हर से लड़नेवाली एंटीबॉडीज़ होती हैं। खोजकर्ताओं को उम्मीद है कि आगे चलकर घोड़ों से तैयार की जानेवाली एंटीबॉडीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि द टाइम्स के मुताबिक “घोड़ों से ऐसी दवा तैयार करने के लिए उन पर दर्दनाक परीक्षण किए जाते हैं।” ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने यह नयी दवा जानवरों पर आज़मायी है और उन्हें कामयाबी मिली है। अगर अंडों से तैयार की जानेवाली यह दवा, इंसानों पर असरदार साबित हो जाए तो यह वाकई भारत के लिए एक वरदान होगा। रिकॉर्ड के मुताबिक यहाँ हर साल 3,00,000 लोगों को साँप डसता है और उनमें से 10 प्रतिशत लोगों की मौत हो जाती है। (g04 1/8)

फोन के ज़रिए दूर देश को दी जानेवाली सेवाएँ

अमरीका के फिलडेलफिया शहर में एक ग्राहक, फोन पर अपने इलाके की कस्टमर सर्विस का नंबर डायल करती है। दूसरी तरफ एक युवती फोन उठाती है और अपना नाम बताती है, मीशेल। मगर असल में उसका नाम मेघना है और वह अमरीका से नहीं बल्कि भारत से बात कर रही है जहाँ इस वक्‍त आधी रात है। भारत के कॉल-सेंटरों में 10,000 से भी ज़्यादा लोग काम करते हैं। उनका काम है “विदेशी ग्राहकों के फोन” का जवाब देना और उनकी मदद करना। ये ग्राहक अमेरिकन एक्सप्रेस, AT&T, ब्रिटिश एयरवेज़, सिटीबैंक और जनरल इलेक्ट्रिक जैसी विदेशी कंपनियों के होते हैं। इंडिया टुडे पत्रिका के मुताबिक विदेशी कंपनियों ने भारत को यह काम इसलिए सौंपा है क्योंकि यहाँ टेलीफोन का खर्चा कम पड़ता है, साथ ही यहाँ पढ़े-लिखे और अँग्रेज़ी बोलनेवाले लोगों की कमी नहीं है। इसके अलावा, “इनकी तनख्वाह, पश्‍चिमी देशों में वही काम करनेवाले लोगों से 80 प्रतिशत कम है।” फोन पर उन्हें अमरीकी लहज़े में जवाब देना होता है। इसलिए मेघना जैसे ऑपरेटरों को महीनों ट्रेनिंग दी जाती है। इसमें “हॉलीवुड की मशहूर फिल्में दिखाना भी शामिल है ताकि वे सीख सकें कि अमरीका के अलग-अलग प्रांतों में लोग किस लहज़े में बात करते हैं।” मेघना का कंप्यूटर उसे फिलडेलफिया के मौसम का हाल भी बताता है ताकि वह ग्राहकों से मौसम की बात छेड़ सके। और आखिर में वह अपने ग्राहक से कहती है: “आपका दिन अच्छा रहे” जबकि भारत में उस वक्‍त रात होती है। (g03 12/22)

बेचारे किसान

न्यू साइंटिस्ट पत्रिका कहती है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक “एक तरफ जहाँ हरित क्रांति से कई देशों के किसानों की पैदावार अच्छी हुई, वहीं दूसरी तरफ इसका बुरा असर भी पड़ा: अफ्रीका के लाखों किसान, जो दुनिया के सबसे गरीब किसान हैं, गरीबी की दलदल में और भी धँस गए।” वह कैसे? सन्‌ 1950 के दशक के आखिर में, इस डर से कि कहीं दुनिया की तेज़ी से बढ़ती आबादी से अकाल न पड़ जाए, बाज़ारों में गेहूँ और चावल के नए किस्म के बीज लाए गए। इससे पैदावार बहुत अच्छी हुई जिसका नतीजा यह हुआ कि अनाज के दाम गिर गए। न्यू साइंटिस्ट कहती है: “जिन देशों के किसानों ने नयी नस्लें बोयीं, उन्हें कम दाम मिलने पर भी ज़्यादा नुकसान नहीं हुआ क्योंकि उनके अनाज की पैदावार अच्छी हुई थी। मगर जिन किसानों के पास नयी नस्लें खरीदने की हैसियत नहीं थी, उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा।” इसके अलावा, अनाज के ये नए बीज अफ्रीकी देशों में ठीक से नहीं उगे क्योंकि इन्हें तो एशिया और लैटिन अमरीका में उगने के लिए तैयार किया गया था। (g04 1/22)

गल रही बर्फ की बड़ी-बड़ी चट्टानें

भारत में बारिश के देर से आने पर, जहाँ एक तरफ पूरे पंजाब में तालाब का पानी कम हो गया, वहीं दूसरी तरफ सतलज नदी पर भाकरा बाँध का पानी, पिछले साल के मुकाबले लगभग दुगुना हो गया। इसकी वजह? डाउन टू अर्थ पत्रिका कहती है कि सतलज नदी की जो मुख्य धारा है, वह ऐसे इलाके से बहती है, जहाँ 89 बर्फीली चट्टानें या हिमनदियाँ हैं। जवाहरलाल नेहरु विश्‍वविद्यालय के हिमनद विशेषज्ञ सईद इकबाल हसनैन समझाते हैं: “बारिश न आने की वजह से बर्फीली चट्टानें धीरे-धीरे गलती जा रही हैं। आसमान में बादल न होने की वजह से बर्फीली चट्टानों पर काफी तेज़ धूप पड़ती है। इसके अलावा, ऊँचे तापमान की वजह से भी ये जल्दी गल रही हैं।” विशेषज्ञों का मानना है कि इनके गलने से बाढ़ आ सकती है। इनके गलकर छोटा होने का मतलब यह भी है कि जल्द ही ऐसा वक्‍त आएगा जब पानी इतना कम हो जाएगा कि ऊर्जा पैदा करना और खेती-बाड़ी करना मुश्‍किल हो जाएगा। (g04 1/22)

साबुन ज़िंदगी बचाता है

‘लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एण्ड ट्रॉपिकल मेडिसिन’ की एक लेक्चरर, वैल कर्टिस का कहना है कि हाथ धोने के लिए साबुन इस्तेमाल किया जाए तो हर साल दस लाख लोगों की जानें बच सकती हैं क्योंकि ऐसों को अतिसार से जुड़ी बीमारियाँ नहीं लगतीं। क्योटो, जापान में हुए तीसरे विश्‍व-जल सम्मेलन में कर्टिस ने इंसान के मल-मूत्र में पाए जानेवाले रोगाणुओं को “समाज का सबसे बड़ा दुश्‍मन” कहा। यह रिपोर्ट द डेली योम्यूरी अखबार ने दी। अखबार आगे कहता है कि “कुछ इलाकों में देखा गया है कि शिशु के मल त्यागने के बाद जब माएँ उन्हें साफ करती हैं तो बगैर हाथ धोए खाना बनाने में लग जाती हैं।” अपने हाथों को साबुन और पानी से धोने के ज़रिए वायरस और बैक्टीरिया को फैलने से रोका जा सकता है। कर्टिस के मुताबिक, गरीब देशों में अतिसार से जुड़ी बीमारियों की रोकथाम में पानी को साफ और सुरक्षित रखने के लिए जितना पैसा खर्च किया जाता है, वही रोकथाम सिर्फ साबुन के इस्तेमाल से की जा सकती है और इसका खर्चा भी तीन गुना कम होगा। (g04 2/22)

लातीनी भाषा को बरकरार रखना

बहुतों को लगता है कि लातीनी भाषा का नामो-निशान मिट चुका है, मगर वैटिकन इसे बरकरार रखने और आज भी इस्तेमाल करने की पूरी कोशिश कर रहा है। क्यों? हालाँकि वैटिकन में इतालवी भाषा बोली जाती है, मगर लातीनी अभी-भी वहाँ की सरकारी भाषा है और पोप के लिखे खतों और दस्तावेज़ों में भी यह भाषा इस्तेमाल की जाती है। सन्‌ 1970 के दशक में जब चर्चों में यह घोषणा की गयी थी कि मिस्सा, लातीनी के अलावा अलग-अलग प्रांतों की भाषाओं में भी आयोजित किया जा सकता है तो लातीनी का इस्तेमाल लगभग बंद ही हो गया। तभी पोप पॉल VI ने इस भाषा को बरकरार रखने के लिए लैटिन फाउंडेशन की शुरूआत की। इस संगठन ने लातीनी से इतालवी भाषा का एक शब्दकोश प्रकाशित किया जिसके दो खंड थे। उसके सारे-के-सारे खंड बिक गए। अब दो खंडों को मिलाकर एक नया संस्करण प्रकाशित किया गया है। इसकी कीमत 115 अमरीकी डॉलर है। नए ज़माने को ध्यान में रखकर इसमें 15,000 नए लातीनी शब्द जोड़े गए हैं, जैसे “एस्कारयोरुम लावाटोर” (बरतन धोनेवाली मशीन)। न्यू यॉर्क टाइम्स का कहना है कि “अगले दो या तीन सालों में [एक नया खंड तैयार] होने की उम्मीद है।” उसमें ज़्यादातर ऐसे शब्द जोड़े जाएँगे जो “कंप्यूटर और दूसरे क्षेत्रों में इस्तेमाल किए जाते हैं।” (g04 2/22)

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