वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जो कभी जीवित रहा
कोई मनुष्य निश्चितता से वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जो कभी जीवित रहा कहा जा सकता है? कैसे आप एक मनुष्य की महानता नापते हैं? उसकी सामरिक प्रतिमा? उसकी शारीरिक ताक़त? उसकी मानसिक बुद्धि के ज़रिये?
इतिहासकार एच. जी. वेल्स ने कहा कि एक मनुष्य की महानता उस से नापा जा सकता है जिसे ‘वह बढ़ने के लिए पीछे छोड़ जाता है, और क्या वह दूसरों को नवीन दिशाओं में सोचने प्रवृत करता है ऐसे उत्साह के साथ जो उसके बाद स्थायी रहा।’ वेल्स, हालाँकि एक ईसाई होने का दावा नहीं करता था, ने मंज़ूर कर लिया: “इस परीक्षा में यीशु प्रथम है।”
महान सिकन्दर, शार्लमेन (उसे अपने ही जीवन-काल में “महान” कहा गया), और नेपोलियन बोनापार्ट शक्तिशाली शासक थे। अपनी भयंकर उपस्थिति के ज़रिये, वे उन पर बहुत प्रभाव रखते जिन पर वे शासन करते थे। फिर भी, नेपोलियन को ऐसा कहते हुए रिपोर्ट किया गया: “यीशु मसीह ने अपनी दृश्य शारीरिक उपस्थिति के बिना अपनी प्रजाओं को प्रभावित किया है और उन पर अधिकार रखा है।”
अपनी अति-सामर्थी शिक्षा के ज़रिये और उनके अनुरूप बिताए जीवन के ज़रिये, यीशु लगभग दो हज़ार सालों से लोगों के जीवन को शक्तिशाली ढंग से प्रभावित करता है। जैसे एक लेखक ने उचित तरह से इसे अभिव्यक्त किया: “कभी आगे बढ़ी हुई सभी सेनाएँ, और सभी नौसेनाएँ जो कभी बनी थीं, और कभी शासन में रही सभी संसदें, कभी शासन किए हुए सभी राजाएँ, एक साथ मिला दिया जाए तो भी इस पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन को इतना प्रभावशाली रीति से प्रभावित नहीं किया है।”
एक एतिहासिक व्यक्ति
फिर भी, यह आश्चर्यजनक है, कुछ लोग कहते हैं कि यीशु कभी जीया ही नहीं—कि वह, दरअसल, प्रथम-शताब्दी के कुछ लोगों की सृष्टि है। ऐसे संदेह करनेवालों को जवाब देते हुए, आदरनीय इतिहासकार विल ड्यूरेंट ने तर्क प्रस्तुत किया: “एक पीढ़ी में कुछ सरल व्यक्तियों द्वारा एक ऐसे शक्तिशाली और आकर्षक व्यक्तित्व का आविष्कार करना, जो नीतिशास्त्र में बहुत ऊँचा है और मानव भाईचारे का प्रेरक दर्शन है, एक चमत्कार होगा जो सुसमाचार में अभिलिखित चमत्कारों से कहीं ज़्यादा अविश्वसनीय ठहरेगा।”
अपने आप से पूछिए: क्या एक व्यक्ति जो कभी जीवित ही नहीं था मानव इतिहास को इतने असाधारण ढंग से प्रभावित कर सकता था? संदर्भ कार्य इतिहासकारों द्वारा विश्व का इतिहास (The Historians’ History of the World) कहता है: “[यीशु के] गतिविधियों का ऐतिहासिक अंजाम, दरअसल एक लौकिक दृष्टिकोण से भी, इतिहास के किसी भी दूसरे पात्र के कामों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था। उनके जन्म से, संसार की मुख्य सभ्यताओं द्वारा मान्यता-प्राप्त, एक नए युग की तिथि शुरू होती है।”
हाँ, इसके बारे में विचार करें। जिस समझे गए साल में यीशु पैदा हुए थे, आज के कॅलेंडर उसी साल पर आधारित हैं। द वर्ल्ड बुक एनसाइक्लोपीडिया (The World Book Encyclopedia) बताता है, “उस वर्ष के पहले की तिथियाँ ई.स.पू., या ईसवी सन् पूर्व कहलाती हैं। उस वर्ष के बाद की तिथियाँ ई.स., या ईसवी सन् कहलाती हैं।”
तथापि, आलोचक कहते हैं कि हम असल में यीशु के बारे में जो कुछ जानते हैं वह बाइबल में मिलता है। वे कहते हैं, उसके बारे में कोई दूसरी समकालीन लेख अस्तित्व में नहीं हैं। एच. जी. वेल्स ने भी लिखा: “पुराने रोमी इतिहासकारों ने यीशु का पूर्ण तरह से अवहेलना किया; उसने उस समय के ऐतिहासिक लेखों को प्रभावित नहीं किया।” पर क्या यह सच है?
यद्यपि प्रारंभिक लौकिक इतिहासकारों द्वारा यीशु मसीह का उल्लेख कम है, ऐसे संदर्भ अस्तित्व में हैं। प्रथम शताब्दी के एक आदरणीय इतिहासकार, कुरनेलियुस टेसीटस ने लिखा: “[ख्रीस्ती] नाम ख्रीस्त से प्राप्त होता है, जिसे पोन्तियुस पीलातुस ने तिबेरियुस के शासन काल में घात किया था।” उस समय के अन्य रोमी लेखक, सूटोनियुस और युवा प्लीनी ने भी मसीह का ज़िक्र किया था। इसके अतिरिक्त, प्रथम-शताब्दी का एक यहूदी इतिहासकार, फ्लेवियुस युसूफुस ने याक़ूब के बारे में लिखा, जिसका परिचय उसने यूँ किया, “यीशु का भाई, जो ख्रीस्त कहलाता था”।
इस प्रकार द न्यू एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका (The New Encyclopædia Britannica) निष्कर्ष निकालता है: “ये स्वतंत्र वृत्तांत प्रमाणित करते हैं कि प्राचीन समय में मसीहियता के विरोधियों ने भी कभी यीशु के ऐतिहासिक तथ्य पर संदेह नहीं किया, जिसका खंडन पहली बार १८वीं शताब्दी के अंत में, १९वीं शताब्दी के दौरान, और २०वीं शताब्दी के शुरुआत में अपर्याप्त आधार पर किया गया।”
तथापि, मुख्यतः जो बातें यीशु के बारे में मालूम हैं पहली शताब्दी के उसके अनुयायियों द्वारा अभिलिखित किया गया। उनके रिपोर्ट सुसमाचार के किताबों में—मत्ती, मरकुस, लूका और यूहन्ना द्वारा लिखित बाइबल की किताबों में सुरक्षित है। ये वृत्तांत यीशु की पहचान के संबंध में क्या कहते हैं?
दरअसल, वह कौन था?
यीशु के पहली शताब्दी के साथियों ने इस सवाल पर विचार किया। जब उन्होंने यीशु को चमत्कारिक तरीके से तेज़ आँधी से उठा समुद्र को डाँटकर चुप करते देखा, उन्होंने अचम्भे में ताज्जुब किया: “यह कौन है?” बाद में, एक दूसरे अवसर पर, यीशु ने अपने प्रेरितों से पूछा: “तुम मुझे क्या कहते हो?”—मरकुस ४:४१; मत्ती १६:१५.
यदि आप से यह सवाल पूछा जाता, तो आप क्या जवाब देते? क्या, वास्तव में, यीशु परमेश्वर था? आज अनेक लोग कहते हैं कि वह था। फिर भी, उसके साथियों ने कभी यह विश्वास नहीं किया कि वह परमेश्वर था। यीशु के सवाल को जवाब प्रेरित पतरस ने इस तरह दिया: “तू जीवते परमेश्वर का पुत्र, मसीह है।”—मत्ती १६:१६.
यीशु ने कभी परमेश्वर होने का दावा नहीं किया, लेकिन उसने मंज़ूर किया कि वह प्रतिज्ञात मसीहा, या ख्रीस्त था। उसने यह भी कहा कि वह “परमेश्वर का पुत्र” था, परमेश्वर नहीं। (यूहन्ना ४:२५, २६; १०:३६) फिर भी, बाइबल यह नहीं कहती कि यीशु किसी दूसरे मनुष्य के समान था। वह एक बहुत ख़ास व्यक्ति था क्योंकि परमेश्वर ने सब वस्तुओं से पहले उसकी सृष्टि की थी। (कुलुस्सियों १:१५) इस भौतिक विश्व की सृष्टि से भी पहले, अनगिनत अरबों साल से, यीशु स्वर्ग में एक आत्मिक व्यक्ति के रूप में रहता था और अपने पिता, यहोवा परमेश्वर, महान सृष्टिकर्ता के साथ निकट साहचर्य का आनंद लेता था।—नीतिवचन ८:२२, २७-३१.
फिर, लगभग दो हज़ार साल पहले, परमेश्वर ने अपने बेटे के जीवन को एक स्त्री के गर्भ में स्थानांतरित किया, और यीशु एक स्त्री के द्वारा स्वाभाविक रीति से जन्म लेकर परमेश्वर का मानवी बेटा बना। (गलतियों ४:४) जब यीशु गर्भ में विकसित हो रहा था और एक लड़के के रूप में बढ़ रहा था, वह उन पर निर्भर था जिन्हें परमेश्वर ने उसका पार्थिव माता-पिता होने के लिए चुना था। अन्त में यीशु पुरुषत्व तक पहुँच गया और उसे स्वर्ग में परमेश्वर के साथ उसके पिछला साहचर्य को पूरी तरह याद करने की स्वीकृति मिली।—यूहन्ना ८:२३; १७:५.
वह कैसे सर्वश्रेष्ठ बना
चूँकि उसने सावधानीपूर्वक अपने स्वर्गीय पिता का अनुकरण किया, यीशु वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य था जो कभी जीवित रहा। एक विश्वासी पुत्र होकर, यीशु ने अपने पिता का इतना सही नक़ल किया कि वह अपने अनुयायियों से कह सका: “जिस ने मुझे देखा है उसने पिता को देखा है।” (यूहन्ना १४:९, १०) यहाँ पृथ्वी पर हरेक स्थिति में, उन्होंने ठीक वैसा ही किया, जैसे उनके पिता, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने किया होता। “मैं अपने आप से कुछ नहीं करता,” यीशु ने स्पष्ट किया, “परन्तु जैसे मेरे पिता ने मुझे सिखाया, वैसे ही ये बातें कहता हूँ।” (यूहन्ना ८:२८) अतः जब हम यीशु मसीह के जीवन का अध्ययन करते हैं, यथार्थ में, हमें एक स्पष्ट तस्वीर प्राप्त होती है कि परमेश्वर कैसे हैं।
इस प्रकार, यद्यपि प्रेरित यूहन्ना ने स्वीकार किया कि “परमेश्वर को किसी ने कभी नहीं देखा,” वह लिख सका कि “परमेश्वर प्रेम है।” (यूहन्ना १:१८; १ यूहन्ना ४:८) यीशु, जो अपने पिता का सिद्ध प्रतिबिंब है, में यूहन्ना ने जो कुछ देखा उसके ज़रिये वह परमेश्वर का प्रेम जान गया और इसलिए ऐसा कह सका। यीशु स्नेही, दयालु, दीन, और सुगम्य था। कमज़ोर और पतित, और हर प्रकार के लोग—पुरुष, स्त्री, बच्चे, धनी, गरीब, शक्तिशाली, यहाँ तक कि घोर पापी भी उसके साथ रहना पसंद करते थे। केवल बुरे दिलवाले उसे पसंद नहीं करते थे।
सचमुच, यीशु ने अपने अनुयायियों को केवल एक दूसरे से प्रेम करना ही नहीं सिखलाया, पर उन्हें यह भी दिखाया कि यह कैसे किया जाए। “जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है,” उन्होंने कहा, “वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो।” (यूहन्ना १३:३४) उनके प्रेरितों में से एक कहता है कि “मसीह के उस प्रेम,” को जानना “ज्ञान से परे है।” (इफिसियों ३:१९) हाँ, जो प्रेम मसीह ने दिखलाया वह शैक्षिक दिमाग़ी ज्ञान से महान है और दूसरों को इसका प्रत्युत्तर देने के लिए “विवश” करता है। (२ कुरिन्थियों ५:१४) इस प्रकार, ख़ासकर यीशु का प्रेम का उत्कृष्ट मिसाल, उसे वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य बनाता है जो कभी जीवित रहा। सदियों से उसका प्रेम लाखों लोगों के हृदय को छूता चला आया है और भलाई के लिए उनके जीवन को प्रभावित किया है।
फिर भी, कुछ लोग एतराज़ करेंगे: ‘मसीह के नाम में किए गए उन सब अपराधों को देखिए—क्रूसेड धर्मयुद्ध, इन्क्विज़िशन (मध्य युग के कथोलिक धर्माधिकरण), और वे लड़ाइयाँ जिस में ईसाई होने का दावा करनेवाले लाखों की तादाद में लोगों ने विरोधी पक्ष के ईसाइयों को मार डालता है।’ पर सच्चाई यह है, ये लोग यीशु के अनुयायी होने के अपने दावे को झूठा साबित करते हैं। उसकी शिक्षाएँ और जीने का तरीका उनके कामों की निन्दा करती हैं। यहाँ तक कि एक हिन्दू, मोहनदास गांधी, यह कहने के लिए प्रेरित हुआ: ‘मैं मसीह से प्रेम करता हूँ, परन्तु मसीहियों से घृणा करता हूँ क्योंकि वे वैसा जीवन नहीं बिताते जैसा मसीह ने बिताया था।’
उसके बारे में सीखने से लाभ पाएँ
यक़ीनन यीशु मसीह के जीवन और सेवकाई से अधिक महत्त्वपूर्ण अध्ययन आज दूसरा कोई नहीं हो सकता। “यीशु की ओर ताकते रहें,” प्रेरित पौलुस उकसाता है। “इसलिए उस पर ध्यान करो।” और स्वयं परमेश्वर ने अपने बेटे के बारे में आज्ञा दी थी: “उसकी सुनो।” यह किताब वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जो कभी जीवित रहा ऐसा ही करने में आपकी मदद करेगी।—इब्रानियों १२:२, ३; मत्ती १७:५.
यीशु के पार्थिव जीवन की प्रत्येक घटना को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है जो चार सुसमाचार की किताबों में लेख-बद्ध है, जिस में उनके द्वारा दिए भाषण और उनके दृष्टान्त और चमत्कार सम्मिलित हैं। जहाँ तक मुमकिन हो, सभी घटनाएँ क्रमानुसार बतायी गयी हैं। हरेक अध्याय के अन्त में बाइबल के अवतरणों की सूची है जिस पर वह अध्याय आधारित है। आपको इन अवतरणों को पढ़ने और उन में दिए गए पुनर्विचार सवालों का जवाब देने का प्रोत्साहन दिया जाता है।
शिकागो विश्वविद्यालय के एक विद्वान ने हाल ही में दावा किया: “यीशु के बारे में गए दो हज़ार बरसों से ज़्यादा पिछले बीस बरसों में लिखा गया है।” तथापि सुसमाचार के वृत्तांतों पर व्यक्तिगत रूप से ग़ौर करने की आवश्यकता अनिवार्य है, क्योंकि द एन्साइक्लोपीड़िया ब्रिटानिका (The Encyclopædia Britannica) कहता है: “अनेक आधुनिक छात्र यीशु और सुसमाचार की किताबों के बारे में विरोधी मतों से इतना व्यस्त हैं कि वे स्वयं इन मूल स्रोतों का अध्ययन करने में लापरवाही दिखाते हैं।”
सुसमाचार के वृत्तांतों पर एक गहरा, निष्पक्ष विचार करने के बाद, हम महसूस करते हैं कि आप इस बात से सहमत होंगे कि मानवी इतिहास की सर्वश्रेष्ठ घटनाएँ रोमी कैसर ऑगस्तुस के शासन काल में हुईं, जब नासरत का यीशु हमारे ख़ातिर अपना जान देने के लिए आया।