अध्याय 31
दूसरों का आदर करना
बाइबल हमें बताती है कि हम “सब का आदर” करें और “किसी को बदनाम न करें।” (1 पत. 2:17; तीतु. 3:2) सच पूछो तो, हर इंसान जिससे हम मिलते हैं, ‘परमेश्वर के स्वरूप में उत्पन्न हुआ’ है। (याकू. 3:9) दुनिया के हर शख्स के लिए यीशु ने अपनी जान दी है। (यूह. 3:16) इसलिए सभी को सुसमाचार सुनने का हक है जिससे कि वे उसके मुताबिक कदम उठाएँ और उद्धार पाएँ। (2 पत. 3:9) कुछ लोगों को ऐसी काबिलीयत या अधिकार हासिल है जिसकी वजह से उन्हें खास सम्मान दिया जाना चाहिए।
बाइबल, लोगों को जिस तरह का आदर दिखाने के लिए कहती है, वैसा आदर दिखाने से कुछ लोग क्यों पीछे हटते हैं? शायद उन पर अपनी संस्कृति का असर हो, इसलिए वे जाति, रंग, लिंग, सेहत, उम्र, दौलत या समाज में ओहदे के हिसाब से कुछ लोगों को आदर के लायक समझते हैं, तो कुछ को नहीं। आजकल सरकारी अधिकारी इतने भ्रष्ट हो गए हैं कि लोगों के दिल में उनके लिए इज़्ज़त नहीं रही। कुछ देशों में लोग अपनी ज़िंदगी से तंग आ चुके हैं क्योंकि उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए भी रात-दिन पिसना पड़ता है, और-तो-और वे अपने आस-पास सिर्फ ऐसे लोगों को देखते हैं जो एक-दूसरे की ज़रा भी इज़्ज़त नहीं करते। जवान लोग अपने साथियों के दबाव में आकर ऐसे टीचरों और अधिकारियों के खिलाफ बगावत करते हैं जिन्हें वे पसंद नहीं करते। बहुत-से बच्चों पर टी.वी. का असर पड़ा है, क्योंकि उसमें दिखाया जाता है कि बच्चे कैसे अपने माँ-बाप से ज़्यादा होशियार हैं और उन पर हुक्म चलाते हैं। हमें पूरी कोशिश करनी होगी कि ये दुनियावी सोच-विचार हमें दूसरों का आदर करने से रोक न पाएँ। और फिर जब हम लोगों को इज़्ज़त देते हैं, तो इससे ऐसा माहौल पैदा होता है जिसमें एक-दूसरे को अपने विचार बताना ज़्यादा आसान हो जाता है।
आदर के साथ पेश आना। जो लोग धार्मिक सेवा करते हैं, उनसे यह उम्मीद की जाती है कि उनका पहनावा सलीकेदार हो और वे सभी के साथ अच्छा बर्ताव करें। बनाव-श्रृंगार के मामले में क्या सही है और क्या नहीं, इसका हर जगह एक ही स्तर नहीं होता। कुछ जगहों पर सिर पर टोपी पहने या एक हाथ जेब में रखे हुए किसी से बात करना अपमान की बात समझा जाता है, जबकि दूसरी जगहों पर इसे बुरा नहीं माना जाता। इसलिए अपने इलाके के लोगों की भावनाओं का ध्यान रखकर उनके साथ पेश आइए ताकि उन्हें कोई ठेस न पहुँचे। तब आपके सामने ऐसे हालात पैदा नहीं होंगे जो सुसमाचार सुनाने में आपके लिए रुकावट बन सकते हैं।
यही बात, दूसरों को और खासकर बुज़ुर्गों को संबोधित करने के बारे में भी सच है। अगर बच्चे और जवान, बड़ों को नाम लेकर बुलाते हैं तो ज़्यादातर लोग इसे बदतमीज़ी समझते हैं। दूसरी तरफ, अगर बड़े नाम से बुलाने की इजाज़त देते हैं, तब बच्चे और जवान ऐसा कर सकते हैं। कुछ जगहों पर बड़ों का भी अजनबियों को नाम से बुलाना बेअदबी माना जाता है। और बहुत-सी भाषाओं में, उम्र में बड़े लोगों या अधिकारियों से बात करते वक्त उन्हें इज़्ज़त देने के लिए “आप” शब्द इस्तेमाल किया जाता है या ऐसा ही कोई तरीका अपनाया जाता है।
आदर के साथ दुआ-सलाम करना। छोटी-छोटी जगहों पर या कस्बों में यह रिवाज़ है कि जब राह चलते या घर के भीतर घुसते वक्त आपका आमना-सामना किसी से होता है, तब आप उसे अनदेखा न करें बल्कि दुआ-सलाम करें। इसके लिए “हैलो” या “नमस्ते” कहना, मुस्कुराना, सिर हिलाना, भौंहें ऊपर करना या हाथ से इशारा करना काफी होता है। किसी को देखकर जानबूझकर अनदेखा करना बेअदबी माना जाता है।
लेकिन कुछ लोगों को दुआ-सलाम करने पर भी वे शायद महसूस करें कि आपने उन्हें नज़रअंदाज़ किया है। ऐसा क्यों? क्योंकि वे महसूस कर सकते हैं कि आप उन्हें एक अलग इंसान के तौर पर आदर नहीं देते। यह बहुत आम बात है कि लोगों को किसी शारीरिक दुर्बलता की वजह से एक अलग दर्जा दिया जाता है। विकलांग और बीमार जनों से अकसर लोग दूर रहना पसंद करते हैं। लेकिन परमेश्वर का वचन हमें सिखाता है कि ऐसे लोगों के साथ कैसे प्यार और इज़्ज़त से पेश आना चाहिए। (मत्ती 8:2, 3) देखा जाए तो हम सभी पर किसी-न-किसी तरीके से आदम के पाप का असर हुआ है। ज़रा सोचिए, अगर लोग आपकी पहचान हमेशा आपकी कमियों से करें, तो क्या आपको अच्छा लगेगा? इसके बजाय, क्या आप नहीं चाहेंगे कि आपमें जो बहुत-से अच्छे गुण हैं, उनसे आपकी पहचान हो?
आदर देने में, मुखियापन का लिहाज़ करना भी शामिल है। कुछ प्रांतों में, घर के बाकी लोगों को गवाही देने से पहले, घर के मुखिया से बात करना ज़रूरी होता है। यह सच है कि हमें प्रचार करने और सिखाने का काम यहोवा से मिला है, फिर भी हम इस बात को समझते हैं कि बच्चों को तालीम, अनुशासन और हिदायतें देने का अधिकार परमेश्वर ने माता-पिता को सौंपा है। (इफि. 6:1-4) इसलिए जब हम प्रचार में किसी घर पर जाते हैं, तो बच्चों के साथ चर्चा शुरू करने से पहले अच्छा होगा अगर हम पहले उनके माता-पिता से बात करें।
उम्र के साथ-साथ लोगों की ज़िंदगी का तजुर्बा भी बढ़ता है और इसके लिए उनका आदर किया जाना चाहिए। (अय्यू. 32:6, 7) इस बात को मानते हुए श्रीलंका में जब एक जवान पायनियर बहन ने एक बुज़ुर्ग आदमी का आदर किया, तो उसे अच्छे नतीजे मिले। जब बहन उससे मिली, तो पहले उस बुज़ुर्ग ने एतराज़ किया: “तुम कल की छोकरी, मुझे बाइबल क्या सिखाओगी?” तब बहन ने कहा: “असल में, मैं आपको कुछ सिखाने नहीं आयी हूँ, मगर मैंने एक अच्छी बात सीखी है और उससे मुझे इतनी खुशी हुई कि उसके बारे में दूसरों को बताने से मैं खुद को रोक नहीं पायी और वही बात मैं आपको भी बताना चाहती हूँ।” जब बहन ने इस तरह आदर से जवाब दिया, तो उस आदमी की दिलचस्पी जागी। उसने पूछा: “अच्छा बताओ, तुमने क्या सीखा।” बहन ने कहा: “मैंने सीखा कि हम हमेशा कैसे ज़िंदा रह सकते हैं।” नतीजा यह हुआ कि वह बुज़ुर्ग यहोवा के साक्षियों के साथ बाइबल अध्ययन करने लगा। सभी बुज़ुर्ग हमसे यह नहीं कहेंगे कि उनके साथ हम इज़्ज़त से पेश आएँ, लेकिन ज़्यादातर ऐसी इज़्ज़त दिखाए जाने की कदर ज़रूर करेंगे।
लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि हम आदर-सत्कार दिखाने में ऐसे काम कर जाएँ जो बिलकुल भी ज़रूरी नहीं है। प्रशांत महासागर के द्वीपों और दूसरी कई जगहों पर साक्षी प्रचार करने के लिए पहले किसी गाँव या जनजाति के प्रधान के पास जाते हैं और वहाँ के दस्तूर के मुताबिक उन्हें दुआ-सलाम करके, आदर के साथ बात करते हैं। इस तरह उन्हें प्रधानों और उनके इलाके में रहनेवाले गाँव-वासियों को भी गवाही देने का मौका मिलता है। लेकिन ऐसे प्रधानों से बात करते वक्त भी उनकी खुशामद करना न तो ज़रूरी है, न ही यह सही है। (नीति. 29:5) उसी तरह, कुछ भाषाओं का व्याकरण ऐसा है कि आदर दिखाने के लिए उसमें खास पदवियाँ इस्तेमाल किए जाते हैं। लेकिन मसीहियों को दूसरों का आदर करने के लिए ऐसे शब्दों का बढ़ा-चढ़ाकर इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं है।
आदर के साथ अपनी बात कहना। बाइबल हमसे दूसरों को अपनी आशा का कारण समझाते वक्त “विनम्रता और आदर के साथ” पेश आने की गुज़ारिश करती है। (1 पत. 3:16, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) जब प्रचार में सामनेवाला अपनी राय बताता है, तब हो सकता है कि हम फौरन दिखा दें कि वह जो मानता है, उसमें क्या-क्या नुक्स हैं, लेकिन क्या उसे शर्मिंदा करके यह सब बताना ठीक रहेगा? ऐसा करने के बजाय, कितना अच्छा होगा अगर हम धीरज से उसकी पूरी बात सुनें, हो सके तो पूछें कि उसके ऐसा सोचने की वजह क्या है और फिर उसकी भावनाओं का लिहाज़ करते हुए बाइबल से तर्क देकर उसे समझाएँ!
जैसे एक अकेले शख्स से बात करते वक्त हम आदर से पेश आते हैं, वैसे ही स्टेज से बोलते वक्त भी हमें सुननेवालों के साथ आदर से पेश आना चाहिए। अपने सुननेवालों का आदर करनेवाला वक्ता उनकी कड़ी निंदा नहीं करेगा, ना ही ऐसे बात करेगा मानो कह रहा हो: “अगर आप चाहते तो ऐसा कर सकते थे।” इस तरह बात करने से लोगों की हिम्मत टूट जाएगी। इसलिए कितना अच्छा होगा अगर हम ऐसा सोचें कि हमारे सुननेवाले ऐसे लोगों का झुंड हैं जो यहोवा से प्यार करते हैं और उसकी सेवा करने की इच्छा रखते हैं! यीशु की मिसाल पर चलते हुए हमें ऐसे लोगों के साथ प्यार से पेश आना चाहिए जो आध्यात्मिक तरीके से कमज़ोर हैं, जिन्हें ज़्यादा तजुर्बा नहीं है या जो बाइबल की सलाह पर अमल करने में वक्त लगाते हैं।
अगर वक्ता की बातों से ज़ाहिर हो कि खुद उसे भी परमेश्वर के वचन पर और अच्छी तरह अमल करने की ज़रूरत है, तो सुननेवाले समझ पाएँगे कि वह उनका लिहाज़ करता है। इसलिए आयतों को लागू करते वक्त बार-बार “आप” या “आपको” जैसे शब्द इस्तेमाल ना ही करें, तो अच्छा होगा। मिसाल के लिए, ध्यान दीजिए कि इस सवाल में, “क्या आप पूरी कोशिश कर रहे हैं?” और इस वाक्य में क्या फर्क है, “हममें से हरेक को खुद से पूछना चाहिए: ‘क्या मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ?’” दोनों सवालों का मतलब एक ही है, मगर पहला तरीका यह दिखाता है कि वक्ता खुद को सुननेवालों से ऊँचे दर्जे का समझता है। जबकि दूसरे तरीके में हरेक को, यहाँ तक कि वक्ता को भी अपनी हालत और अपने इरादों को जाँचने का बढ़ावा मिलता है।
सुननेवालों को बस हँसाने के इरादे से उन्हें कुछ मज़ेदार बातें बताने की इच्छा पर काबू पाइए। बाइबल के गौरवपूर्ण संदेश के साथ ऐसा करना शोभा नहीं देता। यह सच है कि हमें परमेश्वर की सेवा, खुशी-खुशी करनी चाहिए। और यह भी हो सकता है कि हमें अपने भाग के लिए जो जानकारी सौंपी गयी है, उसमें कुछ हँसी की बातें हों। लेकिन जब हमें कोई गंभीर बात बतानी होती है, तब उसे अगर हम मज़ाकिया अंदाज़ में कहें, तो इससे ज़ाहिर होगा कि हम न तो सुननेवालों का और ना ही परमेश्वर का आदर करते हैं।
हमारे तौर-तरीके, व्यवहार और हमारी बोली से हमेशा यही ज़ाहिर हो कि हमने लोगों को उसी नज़र से देखना सीखा है जिस नज़र से परमेश्वर ने हमें सिखाया है।