प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं
“यहोवा दुष्टों से दूर रहता है, परन्तु धर्मियों की प्रार्थना सुनता है।”—नीतिवचन १५:२९.
१. यदि परमेश्वर को हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देना है, तो हमें कौनसी शर्त पूरी करनी चाहिए?
यहोवा की सभी आवश्यकताएँ बुद्धिमान, न्याय्य और प्रेममय हैं। वे किसी भी तरह भारी नहीं है। (१ यूहन्ना ५:३) उन में प्रार्थनाओं से संबंधित उसकी आवश्यकताएँ समाविष्ट हैं, जिन में से एक यह है कि हमें अपनी ज़िंदगी को हमारी प्रार्थनाओं के अनुरूप बीतानी चाहिए। हमारा आचरण यहोवा परमेश्वर को अवश्य प्रसन्न करना चाहिए। वरना, हम कैसे उस से हमारे निवेदन और बिनतियों पर कृपादृष्टि से ग़ौर करने की आशा कर सकते हैं?
२, ३. जैसा यशायाह, यिर्मयाह, और मीका के शब्दों से देखा गया है, यहोवा ने इस्राएलियों की प्रार्थनाओं को उत्तर क्यों नहीं दिया?
२ प्रार्थना का यह एक पहलू है जिसकी ईसाईजगत के अधिकतम लोग देखी-अनदेखी करते हैं, उसी तरह जिस तरह यशायाह के समय के धर्मत्यागी इस्राएलियों ने इसकी देखी-अनदेखी की। इसलिए यहोवा ने अपने भविष्यद्वक्ता से अपना प्रतिनिधित्व करवाया, यह कहकर कि: “तुम कितनी ही प्रार्थना क्यों न करो, तोभी मैं नहीं सुनता . . . अपने को धोकर पवित्र करो; मेरी आँखों के सामने से अपने बुरे कामों को दूर करो; भविष्य में बुराई करना छोड़ दो; भलाई करना सीखो।” (यशायाह १:१५-१७) जी हाँ, अगर वे इस्राएली परमेश्वर की कृपा चाहते थे, उन्हें उसे प्रसन्न करनेवाली रीति से व्यवहार करना पड़ता। जैसे भली-भाँति कहा गया है: “अगर तुम चाहते हो कि प्रार्थना करते वक्त परमेश्वर तुम्हारी सुन ले, तो जब वे बोलते हैं, तुम्हें भी सुनना चाहिए।”
३ वास्तव में, यहोवा परमेश्वर ने अपनी जाति इस्राएल को इन सच्चाईयों के विषय याद दिलाना वारंवार ज़रूरी समझा। इसलिए हम पढ़ते हैं: “जो अपना कान व्यवस्था सुनने से फेर लेता है—उसकी प्रार्थना भी” परमेश्वर के नज़रों में “घृणित ठहरती है।” “यहोवा दुष्टों से दुर रहता है, परन्तु धर्मियों की प्रार्थना सुनता है।” (नीतिवचन २८:९; १५:२९; न्यू.व.) इस स्थिति की वजह से, यिर्मयाह ने शोक किया: “तू [यहोवा] ने अपने को मेघ से घेर लिया है कि तुझ तक प्रार्थना न पहुँच सके।” (विलापगीत ३:४४) सचमुच, जो चेतावनी मीका देने के लिए प्रेरित हुआ, वह परिपूर्ण हुई: “वे यहोवा की दोहाई देंगे, परन्तु वह उनकी न सुनेगा, वरन उस समय वह उनके बुरे कामों के कारण उन से मुँह फेर लेगा।”—मीका ३:४; नीतिवचन १:२८-३२.
४. क्या संकेत करता है कि यहोवा के लोगों के बीच भी कुछेक अपनी प्रार्थनाओं के अनुरूप कर्मों की आवश्यकता की क़दर नहीं करते?
४ तो हमारी प्रार्थनाओं के अनुकूल जीना आवश्यक है। क्या आज इस तथ्य पर ज़ोर डालना अनिवार्य है? ज़रूर, न केवल ईसाईजगत के बीच की स्थिति के कारण, परन्तु यहोवा के कुछेक समर्पित लोगों के बीच की स्थिति की वजह से भी। पिछले साल सुसमाचार के ३०,००,००० से ज़्यादा प्रचारकों में से, ३७,००० से अधिक लोग एक मसीही को शोभा न देनेवाले आचरण की वजह से जाति-बहिष्कृत किए गए। उसका अनुपात कुल मिलाकर ८० में एक होता है। संभवतः, इन में से अधिकतम व्यक्ति कम से कम कभी-कभी तो प्रार्थना कर रहे थे। पर क्या वे अपनी प्रार्थनाओं के अनुरूप काम कर रहे थे? बिल्कुल नहीं! कुछेक प्राचीन भी जो कई दशकों से पूरे-समय की सेवा में रहे थे, किसी न किसी रीति से अनुशासित किए गए। कितना दुःखद! सचमुच, “जो समझता है, कि मैं स्थिर हूँ, वह चौकस रहे, कि कहीं वह गिर न पड़े,” कि वह इस तरह कार्य न करे जिस से उसकी प्रार्थनाएँ उसके रचयिता की नज़रों में अस्वीकार्य बने।—१ कुरिन्थियों १०:१२.
क्यों प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं
५. अगर यहोवा को हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देना है, तो हमें अपनी सच्चाई किस तरह साबित करनी चाहिए?
५ यदि हम चाहते हैं कि यहोवा परमेश्वर हमारी प्रार्थनाएँ सुने, तो हमें न केवल नैतिक और आत्मिक रूप से स्वच्छ होना चाहिए, पर जिस के लिए हम प्रार्थना कर रहे हैं उसके अनुरूप कार्य करने के द्वारा, हमें अपनी प्रार्थनाओं की सच्चाई भी साबित करनी चाहिए। केवल प्रार्थना ही ईमानदार, अक्लमंद कोशिश के लिए एक एवज़ी नहीं। यहोवा हमारे लिए वह काम नहीं करेगा जो हम, उसके शब्द के उपदेश को सच्चाई से लागू करने और उसकी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का अनुपालन करने के द्वारा, अपने आप के लिए कर सकते हैं। इस संबंध में, हम जितना कर सकते हैं उतना करने के लिए तैयार होना चाहिए ताकि उसके पास हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देने का आधार हो। इसलिए, जैसा कि किसी ने अच्छी तरह कहा है, ‘हम जितना काम करने के लिए तैयार हैं, उस से ज़्यादा चीज़ों के लिए माँगते रहना नहीं चाहिए।’
६. किन दो कारणों से हमें प्रार्थना करनी चाहिए?
६ परन्तु, यह प्रश्न पूछा जा सकता है: ‘प्रार्थना क्यों करें, अगर जो प्रार्थना करते हैं, उसके लिए हमें काम भी करना पड़े?’ कम से कम दो अच्छे कारणों से हमें प्रार्थना करनी चाहिए। पहला, अपनी प्रार्थनाओं से हम स्वीकार करते हैं कि सभी अच्छी चीज़ें परमेश्वर से आती हैं। वह हर एक अच्छे वरदान और हर एक उत्तम दान का दाता है—रोशनी, बारिश, फलवन्त ऋतु, और इस से भी ज़्यादा कई चीज़ें! (मत्ती ५:४५; प्रेरितों के काम १४:१६, १७; याकूब १:१७) दूसरा, हमारी कोशिशों का सफल-असफल होना, यहोवा की आशीष पर निर्भर होता हैं। जैसा हम भजन १२७:१ में पढ़ते हैं: “यदि घर को यहोवा न बनाए, तो उसके बनानेवालों का परिश्रम व्यर्थ होगा। यदि नगर की रक्षा यहोवा न करे, तो रखवाले का जागना व्यर्थ ही होगा।” यही बात दोहराते हुए प्रेरित पौलुस के ये शब्द १ कुरिन्थियों ३:६, ७ में हैं: “मैं ने लगाया, अपुल्लोस ने सींचा, परन्तु परमेश्वर ने बढ़ाया। इसलिए न तो लगानेवाला कुछ है, और न सींचनेवाला, परन्तु परमेश्वर जो बढ़ानेवाला है।”
कुछ प्राचीन उदाहरण
७, ८. (अ) याकूब की ज़िंदगी की कौनसी घटना दिखाती है कि उसने समझ लिया कि प्रार्थनाओं के साथ साथ कर्म भी होने चाहिए? (ब) इस संबंध में राजा दाऊद ने कौनसा उदाहरण प्रस्तुत किया?
७ धर्मशास्त्र अनेक घटनाओं का विवरण देती हैं जो दिखाते हैं, कि यहोवा के विश्चसनीय सेवकों ने जिस के लिए प्रार्थना की, उसके अनुरूप कार्य भी किया। कुछेक प्रतिनिधिक उदाहरणों पर ग़ौर करें। चूँकि इब्राहीम के पोते याकूब ने जन्मसिद्ध अधिकार का आशीर्वाद हासिल किया, उसके बड़े भाई एसाव ने उसके प्रति हिंसक बैर रखा। (उत्पत्ति २७:४१) कुछ २० साल बाद, जब याकूब, बड़ी घर-गृहस्थी और काफ़ी गाय-बैलों सहित पद्दनराम से अपने जन्म-स्थान लौट रहा था, उसने सुना कि एसाव उसे मिलने आ रहा है। एसाव का विद्वेष याद करके, याकूब ने अपने भाई के गुस्से से रक्षण पाने के लिए, भावप्रवणता से यहोवा से प्रार्थना की। पर क्या उसने बात वहीं छोड़ दी? बिल्कुल नहीं। उसने अपने आगे भरपूर भेंट भेजे, यह तर्क करते हुए कि: “यह भेंट जो मेंरे आगे आगे जाती है, इसके द्वारा मैं उसके क्रोध को शान्त करके तब उसका दर्शन कर सकूँ।” और वैसे ही हुआ, क्योंकि जब दोनों भाई मिले, तब एसाव ने याकूब को गले मिलाया और उसे चूम लिया।—उत्पत्ति, अध्याय ३२, ३३.
८ हम जिस के लिए प्रार्थना करते हैं, उसके अनुरूप कार्य करने का एक और उदाहरण दाऊद ने प्रस्तुत किया। जब उसके बेटे अबशालोम ने उसकी राजगद्दी छीन ली, दाऊद के सलाहकार अहीतोपेल ने अपना हिस्सा अबशालोम के साथ गिन लिया। तो दाऊद ने गंभीर बिनती की, कि अहीतोपेल की सलाह व्यर्थ कर दी जाए। क्या दाऊद ने केवल उस तक ही प्रार्थना सीमित रखी? नहीं, उसने अपने वफ़ादार सलाहकार हूशै को अबशालोम के साथ होने का आदेश दिया ताकि वह अहीतोपेल की सलाह व्यर्थ कर सके। और बातें कुछ इस प्रकार ही घटीं। अबशालोम ने अहीतोपेल की सलाह को ठुकराकर हूशै द्वारा दिए बुरी सलाह पर अमल किया।—२ शमूएल १५:३१-३७; १७:१-१४; १८:६-८.
९. नहेमायाह ने कैसे दिखाया कि उसने इस सिद्धान्त को समझ लिया कि प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं?
९ एक और उदाहरण जिसका उल्लेख हमारी सलाह के लिए की जा सकता है, वह नहेमायाह का उदाहरण है। उसे एक बड़ी योजना पूरी करनी थी—यरूशलेम के शहरपनाह का पुनर्निमाण करना। परन्तु, उसके विरुद्ध कई शत्रु षड्यंत्र कर रहे थे। नहेमायाह ने दोनों, प्रार्थना की और कार्य भी किया, जैसे कि हम पढ़ते हैं: “हम लोगों ने अपने परमेश्वर से प्रार्थना की, और उनके विरुद्ध दिन-रात पहरुए ठहरा दिए।” उस समय से, नहेमायाह के आधे सेवक दूसरे आधे, जो शहरपनाह बना रहे थे, उनकी रक्षा करने के लिए तैयार खड़े थे।—नहेमायाह ४:९, १६.
यीशु का उदाहरण
१०, ११. यीशु द्वारा प्रस्तुत किए कौनसे उदाहरण दिखाते हैं कि उसने अपनी प्रार्थनाओं के अनुरूप कार्य किया?
१० हम जिस के लिए प्रार्थना करते हैं उसके अनुरूप कार्य करने का एक बढ़िया उदाहरण यीशु मसीह ने हमारे लिए प्रस्तुत किया। उसने हमें प्रार्थना करना सीखाया: “तेरा नाम पवित्र माना जाए।” (मत्ती ६:९) लेकिन यीशु ने जितना संभव था, उतना किया, कि उसके श्रोता उसके पिता के नाम को पवित्र मानें। उसी तरह, यीशु ने अपने आप को प्रार्थना करने तक ही सीमित न रखा: “हे पिता, अपने नाम की महिमा कर।” (यूहन्ना १२:२८) नहीं, उसने अपने पिता के नाम की महिमा करने और दूसरों से यह करवाने के लिए जितना कर सका, उतना किया।—लूका ५:२३-२६; १७:१२-१५; यूहन्ना १७:४.
११ लोगों की अत्यधिक आत्मिक ज़रूरत देखकर, यीशु ने अपने चेलों से कहा: “पक्के खेत तो बहुत हैं पर मज़दूर थोड़े हैं। इसलिए खेत के स्वामी [यहोवा परमेश्वर] से बिनती करो कि वह अपने खेत काटने के लिए मज़दूर भेज दे।” (मत्ती ९:३७, ३८) क्या यीशु ने बातें वहीं की वहीं छोड़ दीं? बिल्कुल नहीं! उसके फ़ौरन बाद, उसने अपने १२ प्रेरितों को दो-दो करके एक प्रचार करने के या ‘कटाई’ के दौरे पर भेज दिया। बाद में, यीशु ने ७० सुसमाचार प्रचारकों को वही काम करने भेज दिया।—मत्ती १०:१-१०; लूका १०:१-९.
सिद्धान्त को लागू करना
१२. हमारी प्रार्थनाएँ, कि परमेश्वर हमें अपनी प्रतिदिन की रोटी दे, इन से कर्म का क्या संबंध है?
१२ स्पष्ट रूप से, यहोवा परमेश्वर हमसे समनुरूप होने की अपेक्षा करता है, कि हम अपनी प्रार्थनाओं के अनुसार कार्य करें, और इस प्रकार अपनी सच्चाई साबित करें। यीशु ने हमें प्रार्थना करने के लिए कहा: “हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे।” (मत्ती ६:९) इसलिए, सही रूप से, उसके सभी अनुगामी परमेश्वर को उस मतलब से याचना करते हैं। लेकिन क्या हम उसके बारे में कुछ करे बिना ही, अपने स्वर्गीय पिता से उस प्रार्थना का उत्तर देने की अपेक्षा करते हैं? कदापि नहीं। इसीलिए हम पढ़ते हैं: “आलसी का प्राण लालसा तो करता है”—शायद प्रार्थना करने के द्वारा भी—“लेकिन उसको कुछ नहीं मिलता।” (नीतिवचन १३:४) प्रेरित पौलुस ने वही मुद्दे की बात २ थिस्सलुनीकियों ३:१० में की, यह कहकर कि: “यदि कोई काम करना न चाहे, तो खाने भी न पाए।” हमारी प्रतिदिन की रोटी के लिए प्रार्थना करने के साथ साथ काम करने की तैयारी भी होनी चाहिए। दिलचस्प रूप से, पौलुस ने अक्लमंदी से कहा कि जो “काम करना न चाहे” उसे खाना भी नहीं चाहिए। कुछेक जो काम करना चाहते हैं, शायद बेरोज़गार, बीमार, या काम करने के लिए बहुत ही बूढ़े हैं। वे काम करना तो चाहते हैं, पर यह उनके परिस्थितियों से बाहर है। अतः, वे शायद सही-सही अपनी प्रतिदिन की रोटी के लिए प्रार्थना करके उसे प्राप्त करने की आशा रख सकते हैं।
१३. अगर यहोवा को उसकी पवित्र आत्मा के लिए हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देना है, तो हमें क्या करना चाहिए?
१३ यीशु ने हमें अपने स्वर्गीय पिता से उसकी पवित्र आत्मा के लिए माँगने की सलाह भी दी। जैसा यीशु हमें आश्वासन देता है, अपने बच्चों को अच्छी चीज़ें देने के लिए पार्थीव माता-पिता जितने इच्छुक हैं, उससे कहीं ज़्यादा इच्छुक परमेश्वर हमें पवित्र आत्मा देने के लिए है। (लूका ११:१३) पर क्या अपनी तरफ से कोई कोशिश के बिना ही, हम यहोवा परमेश्वर से उम्मीद कर सकते हैं कि वह चमत्कारिक रीति से हमें पवित्र आत्मा देगा? बिल्कुल नहीं! हमें पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए हर कोशिश करनी चाहिए। उसके लिए प्रार्थना करने के अतिरिक्त, हमें अध्यवसाय से परमेश्वर के शब्द पर अपना भरण-पोषण करने की ज़रूरत है। क्यों? इसलिए कि यहोवा परमेश्वर अपने शब्द को छोड़कर अपनी पवित्र आत्मा नहीं देता। और न ही हम पवित्र आत्मा प्राप्त करने की उम्मीद कर सकेंगे, अगर हम यहोवा द्वारा आज इस्तेमाल किए जा रहे पार्थीव मार्ग, “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास,” जिसका प्रतिनिधित्व यहोवा के गवाहों के शासी वर्ग द्वारा होता है, उसकी उपेक्षा करेंगे। इस “दास” की मदद के बग़ैर, हम जो भी पढ़ते हैं, उसका पूरा महत्त्व न समझ पाते और, जो हम सीखते हैं, उसे न ही लागू करना जानते।—मत्ती २४:४५-४७.
१४, १५. (अ) यदि यहोवा को बुद्धि के लिए हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देना है, तो हमें किस तरह सहयोग देना चाहिए? (ब) यह राजा सुलैमान के उदाहरण से किस तरह साबित हुआ है?
१४ यह सिद्धान्त कि प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं, यीशु का सौतेला भाई, चेला याकूब के इन शब्दों पर भी लागू होता है: “यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो, तो परमेश्वर से माँगे, जो बिना उलाहना दिए सब को उदारता से देता है; और उस को दी जाएगी।” (याकूब १:५; मत्ती १३:५५) पर क्या परमेश्वर कोई चमत्कार से हमें यह बुद्धि प्रदान करता है? नहीं। प्रथमतः, हम में सही अभिवृत्ति होनी चाहिए, जैसा हम पढ़ते हैं: “वह नम्र लोगों को अपना मार्ग दिखलाएगा।” (भजन २५:९) और परमेश्वर “नम्र लोगों” को किस तरह मार्ग दिखलाता है? उसके शब्द के ज़रिए। फिर से, हमें उसे समझने और लागू करने के लिए कोशिश करनी चाहिए, जैसा नीतिवचन २:१-६ में संकेत किया गया है: “हे मेरे पुत्र, यदि तू मेरे वचन ग्रहण करे, और मेरी आज्ञाओं को अपने हृदय में रख छोड़े, और बुद्धि की बात ध्यान से सुने, और समझ की बात मन लगाकर सोचे; और प्रवीणता और समझ के लिए अति यत्न से पुकारे, और उसको चान्दी की नाईं ढूँढ़े, . . . तो तू यहोवा के भय को समझेगा, और परमेश्वर का ज्ञान तुझे प्राप्त होगा। क्योंकि बुद्धि यहोवा ही देता है।”
१५ जब राजा सुलैमान ने बुद्धि के लिए प्रार्थना की और परमेश्वर ने उसकी प्रार्थना का चमत्कारिक रीति से जवाब दिया, क्या यह सिद्धान्त, कि प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं, यहाँ भी लागू हुआ? जी हाँ, यह लागू हुआ, इसलिए कि इस्राएल का राजा होने के नाते, सुलैमान को आवश्यक था कि वह व्यवस्था की अपनी खुद की प्रति लिखे, उस में हर दिन पढ़े, और उसे अपनी ज़िंदगी में अमल में लाए। लेकिन जब सुलैमान उसके निदेशों के प्रतिकूल गया, जैसा पत्नियों और घोड़ों की संख्या बढ़ाने के द्वारा, उसके कर्म अब और उसकी प्रार्थनाओं के अनुरूप न थे। फलस्वरूप, सुलैमान एक धर्मत्यागी बन गया और ऐसे ही एक “मूर्ख” के तौर से मर गया।—भजन १४:१; व्यवस्थाविवरण १७:१६-२०; १ राजा १०:२६; ११:३, ४, ११.
१६. कौनसा चित्रण दिखाता है कि शारीरिक कमज़ोरियों पर क़ाबू पाने की हमारी प्रार्थनाओं के साथ साथ कर्म होने चाहिए?
१६ यह सिद्धान्त कि प्रार्थनाओं के साथ-साथ कर्म भी होने चाहिए, तब भी लागू होता है जब हम कोई पक्की, स्वार्थी आदत पर क़ाबू पाने के लिए परमेश्वर की मदद का निवेदन कर रहे हों। इस प्रकार एक पायनियर बहन ने क़बूल किया कि उसे टी.वी. के धारावाहिक देखने की लत थी, और वह हर दिन उन्हें सुबह ११:०० बजे से लेकर दोपहर ३:३० बजे तक देखती। एक ज़िला सम्मेलन के भाषण से सीखकर, कि ये अनैतिक कार्यक्रम कितने हानिकारक हैं, उसने प्रार्थना में इस मामले को परमेश्वर के सामने पेश किया। पर इस आदत पर क़ाबू पाने के लिए उसे काफ़ी समय लगा। क्यों? इसलिए कि, जैसा उसने कहा: ‘मैं आदत पर क़ाबू पाने के लिए प्रार्थना तो करती, और फिर चाहे जो हो, उन कार्यक्रमों को देखती। तो मैंने निश्चय किया कि दिन भर क्षेत्र सेवकाई में व्यस्त रहती ताकि मुझे वह प्रलोभन न होता। आख़िरकार मैं इस स्थिति तक पहुँची कि मैं सुबह ही टी. वी. बंद कर सकी और उसे दिन भर बंद रख सकी।’ जी हाँ, अपनी कमज़ोरी पर क़ाबू पाने के लिए प्रार्थना करने के अतिरिक्त, उसे उस पर क़ाबू पाने के लिए मेहनत भी करनी पड़ी।
प्रार्थना और हमारा गवाही का कार्य
१७-१९. (अ) कौनसे तथ्य दिखाते हैं कि यहोवा के गवाह अपनी प्रार्थनाओं के अनुरूप कार्य करते आए हैं? (ब) एक व्यक्ति का कौनसा उदाहरण उसी बात को दोहराता है?
१७ यह सिद्धान्त कि प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं, राज्य-प्रचार कार्य में सबसे ज़्यादा सच साबित है। इस प्रकार, यहोवा के सभी गवाह न केवल कटाई-मज़दूरों में एक बढ़ती के लिए प्रार्थना करते हैं, पर उस काम में खुद भी जुट जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप, उन्होंने एक के बाद दूसरे देश में अद्भुत वृद्धि देखी है। सिर्फ एक ही उदाहरण पर ग़ौर करना हो तो: १९३० में यहोवा का सिर्फ एक ही गवाह चिली देश में प्रचार कर रहा था। आज वह एक गवाह न केवल एक हज़ार, लेकिन कुछ ३०,००० बन गया है। (यशायाह ६०:२२) क्या यह सिर्फ प्रार्थना के फलस्वरूप हुआ? नहीं, इस में काम का भी समावेश था। अजी, केवल १९८६ में ही चिली देश में यहोवा के गवाहों ने प्रचार कार्य में ६४,९२,००० घंटे बीताए!
१८ वही बात सच है जब प्रचार कार्य निषिद्ध होता है। गवाह न केवल वृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं लेकिन वे गुप्त बनकर प्रचार करते रहते हैं। इसलिए, सरकारी विरोध के बावजूद भी, इन देशों में वृद्धि होती है। इस प्रकार, ३३ देशों में जहाँ यहोवा के गवाह ऐसे सरकारी विरोध का सामना कर रहे हैं, १९८६ सेवा वर्ष के दौरान उन्होंने अपने प्रचार कार्य में ३,२६,००,००० घंटे बीताए और ४.६-प्रतिशत वृद्धि में आनन्द लिया!
१९ निःसंदेह, यह सिद्धान्त कि प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं, व्यक्तिगत रूप से भी लागू होता है। हम शायद यहोवा से प्रार्थना कर रहे हों कि एक गृह बाइबल अध्ययन प्राप्त करे, लेकिन उसे पाने को अपनी पूरी शक्ति नहीं लगा रहे होंगे। यह एक पायनियर का अनुभव था। चूँकि एक ही बाइबल अध्ययन था, उसने और अध्ययन पाने के लिए प्रार्थना की। क्या उसने मामलों को वहीं छोड़ दिया? नहीं, लेकिन उसने अपनी सेवकाई पर ध्यानपूर्वक ग़ौर किया और उसे पता लगा कि उसकी पुनर्भेंटों के दौरान वह गृह बाइबल अध्ययन का विषय ही नहीं छेड़ रही थी। इस ओर कार्य करते हुए, उसे जल्दी ही दो और बाइबल अध्ययन मिले।
२०. प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं, इस सिद्धान्त को किस तरह संक्षिप्त किया जा सकता है?
२० इस से कई ज़्यादा उदाहरण दिए जा सकते हैं यह साबित करने के लिए कि प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं। उदाहरणार्थ, परिवार या मण्डली में निजी रिश्तों से संबंधित प्रार्थनाएँ हैं। लेकिन पूर्वगामी उदाहरण यह स्पष्ट करने के लिए क़ाफी होने चाहिए कि प्रार्थनाएँ कर्मों को ज़रूर आवश्यक करती हैं। यह सबसे तर्कसंगत है, इसलिए कि अगर हम यहोवा परमेश्वर को हमारे आचरण से ही नाराज़ करेंगे, तो हम उस से उम्मीद नहीं रख सकते कि वह हमारे निवेदनों पर कृपादृष्टि से विचार करे। यह निष्कर्ष भी निकलता है कि हमें अपनी प्रार्थनाओं के अनुरूप जितना हो सके उतना करना चाहिए, अगर हम यहोवा से उम्मीद रखते हैं कि वह हमारे लिए वो बातें करे जो हम अपने लिए नहीं कर पाते। सचमुच, यहोवा के सिद्धान्त बुद्धिमान और न्याय्य हैं। वे सार्थक हैं, और इस से हमारा ही फ़ायदा होगा अगर हम उनके अनुकूल कार्य करेंगे।
क्या आप स्मरण करते हैं?
◻ प्राचीन इस्राएल में अनेकों द्वारा प्रार्थना संबंधित कौनसी आवश्यकता की देखी-अनदेखी हुई?
◻ मनचाहे बातों के लिए प्रार्थना करने के साथ साथ कार्य करना आवश्यक कराने में परमेश्वर अतर्कशील क्यों नहीं?
◻ कौनसे प्राचीन उदाहरण दिखाते हैं कि यहोवा के सेवकों ने, जिसके लिए प्रार्थना की, उसके अनुरूप कार्य भी किया?
◻ यदि यहोवा को उसकी पवित्र आत्मा, और बुद्धि के लिए हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देना है, तो हमें क्या करना चाहिए?
◻ प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं, यह सिद्धान्त हमारी क्षेत्र सेवकाई में किस तरह लागू होता है?
[पेज 17 पर तसवीरें]
यीशु ने अपने चेलों को ज़्यादा कटाई-मज़दूरों के लिए प्रार्थना करने को प्रोत्साहित तो किया। लेकिन उसने उन्हें प्रचार या ‘कटाई’ के कार्य में भेज भी दिया
[पेज 18 पर तसवीरें]
क्या आप अपने टेलिविज़न देखना क़ाबू में लाने की प्रार्थना करते हैं? फिर आपका टी.वी. सेट बंद करके इस सिद्धान्त को लागू कीजिए, कि प्रार्थनाएँ कर्म आवश्यक करती हैं