युद्ध क्या हमेशा रहेंगे?
जुलाई १, १९१६ के रोज़, उत्तर फ्रांस के पिकार्डी नामक सुन्दर कृषि क्षेत्र में, सॉम्म का पहला युद्ध शुरू हुआ। तोपों की ज़बरदस्त बमबारी और हवाई हमलों के बाद, बर्तानवी और फ्रांसीसी सेनाओं ने एक ऐसी चढ़ाई की, जो उनकी उम्मीद के अनुसार उनके सम्मुख खाईबंद जर्मन सेनाओं का निर्णायक भेदन कर देती। लेकिन कोई भेदन न हुआ। उलटा, पहले दिन, २०,००० बर्तानवी सैनिक मारे गए। जैसे जैसे हफ़्ते गुज़रते गए, वैसे वैसे लड़ाई जारी रही, और अभी तक कोई भेदन न हो सका था। अक्तूबर में, मूसलाधार बारिश से रणक्षेत्र कीचड़ का सागर बन गया। मध्य-नवंबर तक मित्र-राष्ट्र बस पाँच मील ही आगे बढ़े थे। इसी बीच, ४,५०,००० जर्मन, २,००,००० फ्रांसीसी, और ४,२०,००० बर्तानवी जानें गँवायी गयी थीं। दस लाख से ज़्यादा सैनिक, जिन में के अधिकांश नौजवान थे, उस युद्ध में मारे गए!
यह पहले विश्व युद्ध की मात्र एक घटना थी। और पहला विश्व युद्ध सारे इतिहास भर में लड़े गए युद्धों का सिर्फ़ एक—हालाँकि तब तक सबसे बदतर—युद्ध था। मानवी जीवन की कैसी निरर्थक बरबादी!
मनुष्य इस रीति से क्यों एक दूसरे को जान से मारने पर तुले हैं? इस में अनेक तत्त्व संबद्ध हैं, जिन में हम खुदगरज़ी, महत्त्वाकांक्षा, लालच, और साथ साथ सत्ता और गौरव की लालसा का ज़िक्र कर सकते हैं। युद्ध की एक और वजह राष्ट्रीयवाद रही है। सचमुच, युद्ध बाइबल में पायी मानवी इतिहास पर इस टिप्पणी की यथार्थता प्रतिबिंबित करता है: “एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर अधिकार करके उसके ऊपर हानि लाता है।”—सभोपदेशक ८:९, न्यू.व.
धर्म ने भी अक़्सर युद्ध भड़काए हैं। मध्य युगों के क्रूसयुद्ध धार्मिक राष्ट्रों द्वारा प्रकट रूप से एक धार्मिक लक्ष्य से लड़े गए थे: मसीहीजगत् के लिए पलिश्तीन वापस जीत लेने का लक्ष्य। इस शताब्दी के दोनों विश्व युद्धों में, भिन्न संप्रदायों के पादरी वर्गों ने सैनिकों को दूसरे पक्ष में अपने समसामयिकों की हत्या करने के लिए ज़्यादा इच्छुक बनाने के लिए, उनकी धार्मिक भावनाओं को काम में लाने की कोशिश की है। और अभी लड़े जानेवाले कुछेक युद्धों में भी एक ज़बरदस्त धार्मिक पहलू है।
उम्मीद की झलकें
क्या कोई आशा है कि एक दिन युद्ध ख़त्म हो जाएँगे? जी हाँ, है। यीशु मसीह को “शान्ति का राजकुमार” कहा जाता है। जब वह पृथ्वी पर आया, उसने लोगों को अपने पड़ोसियों से अपने समान प्रेम रखने को सिखाकर, इस नाम के अनुसार आचरण किया। उसने उन्हें अपने बैरियों से प्रेम रखने को भी कहा। (यशायाह ९:६; मत्ती ५:४४; २२:३९) उसके परिणामस्वरूप, पहली सदी में जिन लोगों ने उसके उपदेशों की ओर ध्यान दिया, वे एक शान्तिमय, अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे में बन्ध गए। एक दूसरे से युद्ध करना उनके लिए अविचारणीय था। परन्तु, दुःख की बात यह है कि उन प्रारंभिक मसीहियों का शुद्ध विश्वास बाद में संदूषित हो गया। अन्त में, गिरजाओं ने राजनीति में दस्तन्दाज़ी की और उनके हाथ राष्ट्रों के युद्धों के खून से भर गए।
काफ़ी समय बाद, यूरोप पर तबदीली की हवाएँ चलने लगीं। ऐसा लगता था मानो मनुष्यजाति निरंतर युद्ध से थक रही थी। १८९९ में और फिर से १९०७ में, नेदरलैंड्स के द हेग में अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किए गए। १८९९ के सम्मेलन में, “अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों के प्रशान्त [शान्तिपूर्ण] निपटारे” के लिए एक समझौता स्वीकार किया गया। तो जैसे २०वीं सदी अरुणोदय हुई, अनेकों ने उम्मीद की कि धीरे धीरे दुनिया युद्ध लड़ने की अपनी अभिरुचि छूटाएगी। परन्तु, ऐसी उम्मीदें पहले विश्व युद्ध की बन्दूकों से छिन्न-भिन्न हुईं। क्या इसका मतलब था कि शान्ति के लिए मनुष्यजाति की उम्मीदें कभी पूरी न होतीं?