ख़ुश हैं वे जो नम्र हैं
“परमेश्वर अभिमानियों का विरोध करता है, लेकिन नम्र लोगों पर अनुग्रह करता है।”—१ पतरस ५:५, NW.
१, २. अपने पहाड़ी उपदेश में यीशु ने किस प्रकार ख़ुश होने की बात का सम्बन्ध नम्र होने की बात के साथ जोड़ा?
क्या ख़ुश होने और नम्र होने में कोई सम्बन्ध है? अपने सबसे प्रसिद्ध उपदेश में यीशु मसीह, अर्थात् वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जो कभी जीवित रहा, ने नौ ख़ुशियों, या सुखों का वर्णन किया। (मत्ती ५:१-१२) क्या यीशु ने ख़ुश होने का सम्बन्ध नम्र होने से जोड़ा? जी हाँ, उसने जोड़ा, क्योंकि जिन ख़ुशियों का उसने ज़िक्र किया उनमें से अनेक ख़ुशियों में नम्र होना सम्मिलित है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति को अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत होने के लिए नम्र होने की ज़रूरत है। केवल नम्र लोग ही धार्मिकता के भूखे और प्यासे होते हैं। और घमंडी लोग नम्र और दयावन्त नहीं होते, न ही वे मेल करानेवाले होते हैं।
२ नम्र लोग ख़ुश हैं क्योंकि नम्र होना सही और ईमानदार है। इसके अलावा, नम्र लोग ख़ुश हैं क्योंकि नम्र होना बुद्धिमत्ता की बात है; यह यहोवा परमेश्वर और संगी मसीहियों के साथ अच्छा सम्बन्ध बनाने में योग देती है। इसके अतिरिक्त, नम्र लोग ख़ुश हैं क्योंकि नम्र होना उनकी ओर से प्रेम की एक अभिव्यक्ति है।
३. ईमानदारी हमें नम्र होने के लिए क्यों बाध्य करती है?
३ ईमानदारी हम से क्यों नम्र होने की माँग करती है? एक कारण है कि हम सब अपरिपूर्णता विरासत में पाते हैं और ग़लतियाँ करते रहते हैं। प्रेरित पौलुस ने अपने बारे में कहा: “मैं जानता हूं, कि मुझ में अर्थात् मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु बास नहीं करती, इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते।” (रोमियों ७:१८) जी हाँ, हम सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं। (रोमियों ३:२३) स्पष्टवादिता हमें घमंडी होने से दूर रखेगी। एक ग़लती मान लेने के लिए नम्रता की ज़रूरत होती है, और जब कभी हम ग़लती करते हैं तो ईमानदारी हमें दोष स्वीकार करने में मदद करेगी। क्योंकि हम जो करने का प्रयत्न करते हैं उससे बार-बार चूक जाते हैं, हमारे पास नम्र होने का ठोस कारण है।
४. हमारे नम्र होने के लिए १ कुरिन्थियों ४:७ में कौनसा बाध्यकारी कारण दिया गया है?
४ प्रेरित पौलुस हमें एक और कारण देता है कि क्यों ईमानदारी को हमें नम्र बनाना चाहिए। वह कहता है: “तुझ में और दूसरे में कौन भेद करता है? और तेरे पास क्या है जो तू ने (दूसरे से) नहीं पाया: और जब कि तू ने (दूसरे से) पाया है, तो ऐसा घमण्ड क्यों करता है, कि मानो नहीं पाया?” (१ कुरिन्थियों ४:७) इस बारे में कोई संदेह नहीं कि, अपने लिए महिमा लेना, अपनी सम्पत्ति, क्षमताओं, या उपलब्धियों पर घमंड करना, ईमानदारी नहीं होती। ईमानदारी परमेश्वर के सामने हमारे एक अच्छा अंतःकरण रखने में योग देती है, ताकि “हम सब बातों में अच्छी चाल” चल सकें।—इब्रानियों १३:१८.
५. जब हमने कोई ग़लती की है तब भी किस तरह ईमानदारी हमारी मदद करेगी?
५ ईमानदारी हमें नम्र होने में मदद करती है जब हम कोई ग़लती करते हैं। अपने आप को उचित सिद्ध करने या किसी और पर दोष डालने के बजाय यह हमें दोष स्वीकार करने के लिए ज़्यादा तत्पर बनाएगी। अतः, जबकि आदम ने हव्वा पर दोष लगाया, दाऊद ने यह कहते हुए बतशेबा पर दोष नहीं लगाया कि ‘उसे दृश्यमान रीति से नहीं नहाना चाहिए था। मैं अपने आपको परीक्षा में पड़ने से रोक न सका।’ (उत्पत्ति ३:१२; २ शमूएल ११:२-४) सचमुच, एक ओर यह कहा जा सकता है कि, ईमानदार होना हमें नम्र होने में मदद करता है; और दूसरी ओर, नम्र होना हमें ईमानदार होने में मदद करता है।
यहोवा में विश्वास हमें नम्र होने में मदद करता है
६, ७. परमेश्वर में विश्वास किस तरह हमें नम्र होने में मदद करता है?
६ यहोवा परमेश्वर में विश्वास भी हमें नम्र होने में मदद करेगा। इस बात का मूल्यांकन करना कि सृष्टिकर्ता, विश्व सर्वसत्ताधारी सचमुच कितना महान है, हमें अपने आपको अति महत्त्वपूर्ण समझने से रोकेगा। भविष्यवक्ता यशायाह हमें इसके बारे में कितनी अच्छी तरह याद दिलाता है! यशायाह ४०:१५, २२ में हम पढ़ते हैं: “देखो, जातियां तो डोल की एक बून्द वा पलड़ों पर की धूलि के तुल्य ठहरीं; . . . वह है जो पृथ्वी के घेरे के ऊपर आकाशमण्डल पर विराजमान है, और पृथ्वी के रहनेवाले टिड्डी के तुल्य हैं।”
७ यहोवा में विश्वास तब भी हमारी मदद करेगा जब हम महसूस करते हैं कि हमारे साथ अन्याय हुआ है। उस बात पर कुढ़ने के बजाय, हम नम्रतापूर्वक यहोवा पर आस रखेंगे, जैसा कि भजनहार हमें भजन ३७:१-३, ८, ९ में याद दिलाता है। प्रेरित पौलुस भी वही बात कहता है: “हे प्रियो अपना पलटा न लेना; परन्तु क्रोध को अवसर दो, क्योंकि लिखा है, पलटा लेना मेरा काम है, प्रभु कहता है मैं ही बदला दूंगा।”—रोमियों १२:१९.
नम्रता—बुद्धिमानी का मार्ग
८. नम्रता किस तरह यहोवा के साथ एक अच्छा सम्बन्ध बनाने में योग देती है?
८ इसके अनेक कारण हैं कि नम्र होना क्यों बुद्धिमानी का मार्ग है। जैसे पहले बताया गया है, एक कारण है कि यह हमारे बनानेवाले के साथ अच्छा सम्बन्ध बनाने में योग देता है। परमेश्वर का वचन नीतिवचन १६:५ में स्पष्ट रीति से बताता है: “सब मन के घमण्डियों से यहोवा घृणा करता है।” हम नीतिवचन १६:१८ में यह भी पढ़ते हैं: “विनाश से पहिले गर्व, और ठोकर खाने से पहिले घमण्ड होता है।” देर-सवेर घमण्डी शोकित होते हैं। जो हम १ पतरस ५:५ (NW) में पढ़ते हैं उसके हिसाब से वास्तव में ऐसा ही होना चाहिए: “तुम सब के सब एक दूसरे की सेवा के लिए मन की दीनता से कमर बान्ध लो, क्योंकि परमेश्वर अभिमानियों का विरोध करता है, लेकिन वह नम्र लोगों पर अनुग्रह करता है।” आपको यही मुद्दा यीशु द्वारा दिए फरीसी और चुंगी लेनेवाले के दृष्टान्त में मिलेगा जो दोनों प्रार्थना कर रहे थे। वह नम्र चुंगी लेनेवाला था जो ज़्यादा धर्मी ठहराया गया।—लूका १८:९-१४.
९. संकट के समय में नम्रता क्या मदद देती है?
९ नम्रता बुद्धिमानी का मार्ग है क्योंकि नम्रता हमारे लिए याकूब ४:७ की सलाह मानना आसान बना देती है: “इसलिये परमेश्वर के आधीन हो जाओ।” यदि हम नम्र हैं, तो जब यहोवा हम पर संकट आने की अनुमति देता है तब हम विद्रोह नहीं करेंगे। नम्रता हमें अपनी परिस्थितियों में संतुष्ट रहने और सहन करने में समर्थ करेगी। एक घमंडी व्यक्ति असंतुष्ट रहता है, हमेशा ज़्यादा चाहता है, और दुःखद परिस्थितियों में विद्रोह करता है। दूसरी ओर, एक नम्र व्यक्ति कठिनाइयों और परीक्षाओं को सहन करता है, जैसे कि अय्यूब ने भी किया था। अय्यूब ने अपनी सारी सम्पत्ति खो दी थी और वह एक दर्दनाक बीमारी से पीड़ित था, और फिर उसकी पत्नी ने यह कहते हुए उसे घमंड का मार्ग अपनाने की सलाह भी दी: “परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा।” उसने कैसी प्रतिक्रिया दिखाई? बाइबल अभिलेख हमें बताता है: “उस ने उस से कहा, तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें? इन सब बातों में भी अय्यूब ने अपने मुंह से कोई पाप नहीं किया।” (अय्यूब २:९, १०) क्योंकि अय्यूब नम्र था, उसने विद्रोह नहीं किया बल्कि जो कुछ यहोवा ने उस पर होने की अनुमति दी, बुद्धिमानी से उसके अधीन हो गया। और अन्त में उसे बड़ा प्रतिफल मिला।—अय्यूब ४२:१०-१६; याकूब ५:११.
नम्रता दूसरों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने में योग देती है
१०. नम्रता किस तरह संगी मसीहियों के साथ हमारा सम्बन्ध बेहतर बनाती है?
१० नम्रता बुद्धिमानी का मार्ग है क्योंकि यह हमारे संगी मसीहियों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने में योग देती है। प्रेरित पौलुस हमें उचित ही सलाह देता है: “विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। हर एक अपनी ही हित की नहीं, बरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करे।” (फिलिप्पियों २:३, ४) नम्रता हमें दूसरों के साथ होड़ लगाने या दूसरों को मात देने की कोशिश करने से बुद्धिमत्तापूर्वक दूर रखेगी। ऐसी मनोवृत्तियाँ हमारे लिए और हमारे संगी मसीहियों के लिए समस्याएँ पैदा करती हैं।
११. क्यों नम्रता हमें ग़लतियाँ करने से बचने में मदद कर सकती है?
११ अनेक अवसरों पर नम्रता हमें ग़लतियाँ करने से बचने में मदद करेगी। कैसे? क्योंकि नम्रता हमें अति-विश्वस्त होने से रोकेगी। इसके बजाय, हम १ कुरिन्थियों १०:१२ में दी गई पौलुस की सलाह का मूल्यांकन करेंगे: “जो समझता है, कि मैं स्थिर हूं, वह चौकस रहे; कि कहीं गिर न पड़े।” घमंडी व्यक्ति अति आत्म-विश्वस्त होता है, इसलिए वह बाहरी प्रभावों के कारण या स्वयं अपनी कमज़ोरियों के कारण ग़लतियाँ करने को प्रवृत्त होता है।
१२. नम्रता हमें कौनसी शास्त्रवचनीय बाध्यता को पूरा करने के लिए प्रेरित करेगी?
१२ नम्रता हमें अधीनता में रहने की माँग को पूरा करने में मदद करेगी। इफिसियों ५:२१ में हमें सलाह दी गई है: “मसीह के भय से एक दूसरे के आधीन रहो।” सचमुच, क्या हम सब को अधीनता में रहने की ज़रूरत नहीं है? बच्चों को अपने माता-पिता के, पत्नियों को अपने अपने पतियों के, और पतियों को मसीह के अधीन रहने की ज़रूरत है। (१ कुरिन्थियों ११:३; इफिसियों ५:२२; ६:१) फिर, किसी भी मसीही कलीसिया में, सभी को, सहायक सेवकों को भी, प्राचीनों के प्रति अधीनता दिखानी है। क्या यह सही नहीं है कि प्राचीन लोग विश्वासयोग्य दास वर्ग के अधीन हैं, ख़ासकर जैसे कि उसका प्रतिनिधित्व सर्किट ओवरसियर द्वारा होता है? और फिर, सर्किट ओवरसियर को ज़िला ओवरसियर के, और ज़िला ओवरसियर को उस देश की शाखा कमेटी के अधीन होने की ज़रूरत है जहाँ वह सेवा कर रहा है। शाखा कमेटी सदस्यों के बारे में क्या? उन्हें “एक दूसरे के आधीन” और “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” का प्रतिनिधित्व कर रहे शासी निकाय के भी अधीन रहना है जो, क्रमशः, सिंहासनारूढ़ राजा, यीशु के प्रति जवाबदेह है। (मत्ती २४:४५-४७) जैसे प्राचीनों के किसी भी निकाय में होता है, शासी निकाय के सदस्यों को दूसरों के दृष्टिकोण का आदर करना होता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति सोच सकता है कि उसके पास एक ख़ास तौर पर अच्छा विचार है। लेकिन जब तक कि काफ़ी सारे दूसरे सदस्य उसके सुझाव से सहमत नहीं होते, उसे उस बात के बारे में चिन्ता करनी छोड़ देनी चाहिए। सचमुच, हम सब को नम्रता की ज़रूरत है, क्योंकि हम सब अधीनता में हैं।
१३, १४. (क) किस ख़ास परिस्थिति में नम्रता हमारी मदद करेगी? (ख) सलाह स्वीकार करने के सम्बन्ध में पतरस ने क्या उदाहरण रखा?
१३ नम्रता ख़ासकर बुद्धिमानी का मार्ग दिखती है क्योंकि यह हमारे लिए सलाह और अनुशासन स्वीकार करना आसान बना देती है। हम सब को कभी-कभी अनुशासन की ज़रूरत होती है, और हमें नीतिवचन १९:२० में दी गई सलाह को मानना चाहिए: “सम्मति को सुन ले, और शिक्षा को ग्रहण कर, कि तू अन्तकाल में बुद्धिमान ठहरे।” जैसा कि भली-भांति कहा गया है, नम्र लोग अनुशासन मिलने पर बुरा नहीं मानते। साथ ही, प्रेरित पौलुस इब्रानियों १२:४-११ में हमें नम्रतापूर्वक अनुशासन स्वीकार करने की बुद्धिमत्ता के बारे में सलाह देता है। केवल इसी तरीक़े से हम अपना भविष्य का मार्ग बुद्धिमानी से निर्दिष्ट कर पाएँगे और बदले में अनन्तकालीन जीवन का इनाम पाएँगे। वह क्या ही ख़ुशहाल परिणाम होगा!
१४ इस सम्बन्ध में हम प्रेरित पतरस के उदाहरण की ओर संकेत कर सकते हैं। उसे प्रेरित पौलुस से कड़ी फटकार मिली, जैसा कि हम गलतियों २:१४ के वृत्तान्त से सीखते हैं: “जब मैं ने देखा, कि वे सुसमाचार की सच्चाई पर सीधी चाल नहीं चलते, तो मैं ने सब के साम्हने कैफा [पतरस] से कहा; कि जब तू यहूदी होकर अन्यजातियों की नाईं चलता है, और यहूदियों की नाईं नहीं तो तू अन्यजातियों को यहूदियों की नाईं चलने को क्यों कहता है?” क्या प्रेरित पतरस ने बुरा माना? यदि माना भी तो, हमेशा के लिए नहीं, जैसा कि बाद में २ पतरस ३:१५, १६ में देखा जा सकता है, जहाँ वह “हमारे प्रिय भाई पौलुस” का ज़िक्र करता है।
१५. हमारे नम्र होने और हमारे ख़ुश होने में क्या सम्बन्ध है?
१५ फिर आत्म-निर्भर, संतुष्ट होने की बात भी है। जब तक हम अपनी परिस्थिति, अपने विशेषाधिकारों, अपनी आशिषों से संतुष्ट नहीं हैं, हम ख़ुश नहीं रह सकते। एक नम्र मसीही यह मनोवृत्ति रखता है: “यदि परमेश्वर अनुमति देता है, तो मैं सहन कर सकता हूँ,” और वास्तव में यही प्रेरित पौलुस कहता है, जैसा हम १ कुरिन्थियों १०:१३ में पढ़ते हैं: “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, बरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको।” सो हम फिर देखते हैं कि किस प्रकार नम्रता बुद्धिमानी का मार्ग है, क्योंकि हमारी परिस्थिति चाहे कुछ भी क्यों न हो, यह हमें ख़ुश रहने में मदद करती है।
प्रेम हमें नम्र होने में मदद करेगा
१६, १७. (क) कौनसा शास्त्रवचनीय उदाहरण हमें नम्र होने के लिए मदद करने में सर्वश्रेष्ठ गुण को विशिष्ट करता है? (ख) कौनसा लौकिक उदाहरण भी इस मुद्दे को सचित्रित करता है?
१६ सबसे बढ़कर, अस्वार्थी प्रेम, अगापे (a·gaʹpe) हमें नम्र होने में मदद करेगा। यीशु अपने यातना-स्तम्भ के अनुभव को, जिसका वर्णन पौलुस फिलिप्पियों को करता है, इतनी नम्रतापूर्वक क्यों सह सका? (फिलिप्पियों २:५-८) उसने परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु क्यों न समझा? क्योंकि, जैसा उसने स्वयं कहा: “मैं पिता से प्रेम रखता हूं।” (यूहन्ना १४:३१) इसीलिए हर समय उसने महिमा और आदर अपने स्वर्गीय पिता, यहोवा को दिया। अतः, एक दूसरे अवसर पर उसने इस बात पर ज़ोर दिया कि केवल उसका स्वर्गीय पिता ही उत्तम है।—लूका १८:१८, १९.
१७ इस मुद्दे को अमरीका के एक प्रारंभिक कवि, जॉन ग्रीनलीफ़ व्हीटीअर के जीवन की एक घटना सचित्रित करती है। इस आदमी की बचपन में एक प्रेमिका थी, और एक बार एक वर्तनी-प्रतियोगिता में इस लड़की ने एक शब्द की सही वर्तनी की, जबकि उस कवि ने ग़लत वर्तनी की। इस लड़की को इसके बारे में बहुत बुरा लगा। क्यों? जैसा कि कवि ने याद किया, लड़की ने कहा: “मैं दुःखी हूँ कि मैं ने शब्द की सही वर्तनी की। मुझे आपसे आगे बढ़ना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। . . . क्योंकि मैं आपसे प्यार करती हूँ।” जी हाँ, यदि हम किसी से प्रेम करते हैं, तो हम चाहेंगे कि वह हमसे आगे रहे, हमसे पीछे नहीं, क्योंकि प्रेम नम्र होता है।
१८. नम्रता हमें कौनसी शास्त्रवचनीय सलाह को मानने के लिए मदद करेगी?
१८ यह सभी मसीहियों के लिए, ख़ासकर भाइयों के लिए एक अच्छा सबक़ है। जब सेवा के किसी ख़ास विशेषाधिकार की बात आती है, तो क्या हम आनन्दित होंगे कि वह हमारे बजाय हमारे भाई को मिला, या हमें हल्की-सी ईर्ष्या और डाह होगी? यदि हम सचमुच अपने भाई से प्रेम करते हैं, हम आनन्दित होंगे कि उसे वह ख़ास कार्य-नियुक्ति, या सम्मान, या सेवा का विशेषाधिकार मिला। जी हाँ, नम्रता इस सलाह को मानना आसान बना देगी: “परस्पर आदर करने में एक दूसरे से बढ़ चलो।” (रोमियों १२:१०) एक और अनुवाद इस तरह कहता है: “एक दूसरे का अपने से ज़्यादा आदर करो।” (न्यू इंटरनैशनल वर्शन) और फिर, हमें प्रेरित पौलुस द्वारा सलाह दी गई है: “प्रेम से एक दूसरे के दास बनो।” (गलतियों ५:१३) जी हाँ, यदि हम प्रेम करते हैं, तो हम अपने भाइयों की सेवा करने, उनके दास बनने में ख़ुश होंगे, उनका हित और कल्याण स्वयं अपने हितों से आगे रखेंगे, और इसके लिए नम्रता की ज़रूरत होती है। नम्रता हमें डींग मारने से भी रोकेगी और इस प्रकार हम दूसरों में ईर्ष्या या डाह की भावना नहीं जगाएँगे। पौलुस ने लिखा कि प्रेम “अपनी बड़ाई नहीं करता, और फूलता नहीं।” क्यों नहीं? क्योंकि अपनी बड़ाई करने और फूलने के पीछे स्वार्थी, अहंकारी उद्देश्य होता है, जबकि प्रेम अस्वार्थीपन का सार है।—१ कुरिन्थियों १३:४.
१९. कौनसे बाइबल उदाहरण सचित्रित करते हैं कि नम्रता और प्रेम साथ-साथ जाते हैं, जैसे कि घमंड और स्वार्थीपन भी साथ-साथ जाते हैं?
१९ राजा शाऊल और उसके पुत्र योनातन के साथ दाऊद का सम्बन्ध एक उल्लेखनीय उदाहरण है कि कैसे प्रेम और नम्रता साथ-साथ जाते हैं और इसी प्रकार कैसे घमंड और स्वार्थीपन साथ-साथ जाते हैं। युद्ध में दाऊद की सफलताओं के कारण, इस्राएल की स्त्रियों ने गाया: “शाऊल ने तो हजारों को, परन्तु दाऊद ने लाखों को मारा है।” (१ शमूएल १८:७) ज़रा भी नम्र न होते हुए बल्कि, उसके बजाय, घमंड से भरकर शाऊल ने उस समय से दाऊद के लिए एक हिंसक घृणा विकसित की। यह उसके पुत्र योनातन की आत्मा से कितना भिन्न था! हम पढ़ते हैं कि योनातन दाऊद से स्वयं अपने प्राण के जैसा प्रेम करता था। (१ शमूएल १८:१) सो योनातन ने कैसी प्रतिक्रिया दिखाई जब घटनाओं के दौरान यह प्रत्यक्ष हो गया कि यहोवा दाऊद को आशिष दे रहा था और वह, न कि योनातन, शाऊल के बाद इस्राएल का राजा बनेगा? क्या योनातन ने ईर्ष्या या डाह महसूस की? बिलकुल नहीं! दाऊद के लिए अपने बड़े प्रेम के कारण वह कह सका, जैसा हम १ शमूएल २३:१७ में पढ़ते हैं: “मत डर; क्योंकि तू मेरे पिता शाऊल के हाथ में न पड़ेगा; और तू ही इस्राएल का राजा होगा, और मैं तेरे नीचे हूंगा; और इस बात को मेरा पिता शाऊल भी जानता है।” दाऊद के लिए बड़े प्रेम ने योनातन को नम्रतापूर्वक यह स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जिसे उसने परमेश्वर की इच्छा महसूस किया कि कौन उसके पिता के बाद इस्राएल का राजा बनेगा।
२०. यीशु ने किस तरह प्रेम और नम्रता के बीच नज़दीकी सम्बन्ध को दिखाया?
२० अपनी मृत्यु से पहले आख़िरी रात को जब यीशु मसीह अपने प्रेरितों के साथ था, तब जो घटना हुई वह प्रेम और नम्रता के बीच सम्बन्ध को और अधिक महत्त्व देती है। यूहन्ना १३:१ में हम पढ़ते हैं कि यीशु ने “अपने लोगों से, जो जगत में थे, जैसा प्रेम वह रखता था, अन्त तक वैसा ही प्रेम रखता रहा।” उसके बाद, हम पढ़ते हैं कि यीशु ने एक नौकर की तरह काम करते हुए, अपने प्रेरितों के पैर धोए। नम्रता में क्या ही प्रभावशाली सबक़!—यूहन्ना १३:१-११.
२१. सारांश में, हमें क्यों नम्र होना चाहिए?
२१ सचमुच, नम्र होने के अनेक कारण हैं। नम्र होना सही बात है, ईमानदारी की बात है। यह विश्वास का मार्ग है। यह यहोवा परमेश्वर के साथ और हमारे संगी विश्वासियों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने में योग देता है। यह बुद्धिमानी का मार्ग है। सबसे बढ़कर, यह प्रेम का मार्ग है और सच्ची ख़ुशी लाता है।
आप कैसे उत्तर देंगे?
▫ किन तरीक़ों से ईमानदारी नम्र होने में एक मदद है?
▫ यहोवा में विश्वास हमें नम्र होने में क्यों मदद कर सकता है?
▫ क्या बात दिखाती है कि नम्र होना बुद्धिमानी का मार्ग है?
▫ हमारे नम्र होने में प्रेम ख़ासकर क्यों मददगार है?
[पेज 13 पर तसवीरें]
अय्यूब ने नम्रतापूर्वक अपने आपको यहोवा के अधीन कर दिया। वह ‘परमेश्वर की निन्दा करके नहीं मरा’
[पेज 15 पर तसवीरें]
जब पौलुस ने सब के सामने पतरस को फटकारा तो पतरस ने नम्रतापूर्वक अधीनता दिखाई