“मानसिक सन्तुलन की सीमाओं के बाहर”
“चूँकि युद्ध मनुष्यों के मन में शुरू होता है, हमें मनुष्यों के मन में शान्ति के परकोटे खड़े करने हैं।” (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक, और सांस्कृतिक संगठन का शासपत्र) इस कथन को मन में रखते हुए, १९९३ में निरस्त्रीकरण पर संयुक्त राष्ट्र के एक सम्मेलन में उपस्थित हुए ५०० से अधिक विशेषज्ञों ने ऐसे परकोटे निर्मित करने में धर्म की भूमिका पर विचार किया।
‘विश्व सुरक्षा के लिए वकीलों की सन्धि’ का प्रतिनिधित्व करते हुए जॉनथन ग्रॆनोफ़ ने सम्मेलन का संचालन किया। उसने कहा: “वर्तमान धार्मिक और नृजातीय संघर्ष की हद सभ्य आचरण की सीमाओं के बाहर है, संभवतः मानसिक सन्तुलन की सीमाओं के बाहर।” सम्मेलन के दौरान उचित रूप से जॉन कॆनथ गॆलब्रेथ के शब्द उद्धृत किए गए: “सभी युद्धों और प्राकृतिक विपत्तियों में मारे गए लोगों की कुल संख्या से ज़्यादा लोग धर्म के नाम पर मारे गए हैं।”
डॉ. सेशागीरी राव ने कहा: “वैद्यों से उपचार करने की अपेक्षा की जाती है, बीमारियों को फैलाने की नहीं। धार्मिक परम्पराओं से एक-दूसरे के विरुद्ध घृणा और हिंसक संघर्ष को फैलाने की अपेक्षा नहीं की जाती है। उन्हें मेल-मिलाप की शक्ति का काम करना चाहिए। लेकिन हक़ीक़त में, उन्होंने अकसर विभाजक शक्तियों के तौर पर कार्य किया है और अब भी वैसा ही कार्य करती हैं।”
कुछ साल पहले, लंदन के कैथोलिक हैरल्ड (अंग्रेज़ी) ने टिप्पणी की कि शान्ति निश्चित की जा सकती है “यदि आज के गिरजे युद्ध की निन्दा की घोषणा संयुक्त रूप से करें।” लेकिन, अख़बार ने आगे कहा: “हम जानते हैं कि यह कभी नहीं होगा।” एक कैथोलिक नन ने एक बार यह टिप्पणी की: ‘यह संसार कितना अलग होगा यदि हम सब एक सुबह यह दृढ़-संकल्प करके उठें कि हम यहोवा के साक्षियों की तरह फिर कभी शस्त्र नहीं उठाएँगे!’
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Tom Haley/Sipa Press