क्या आपके परिवार में परमेश्वर पहले स्थान पर आता है?
“तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से . . . प्रेम रखना।”—मरकुस १२:२९, ३०.
१. यह कितना महत्त्वपूर्ण है कि हम यहोवा से प्रेम रखें?
“सब से मुख्य आज्ञा कौन सी है?” एक शास्त्री ने यीशु से पूछा था। अपनी राय देने के बजाय, यीशु ने उसके सवाल का जवाब परमेश्वर के वचन से व्यवस्थाविवरण ६:४, ५ को उद्धृत करने के द्वारा दिया। उसने जवाब दिया: “सब आज्ञाओं में से यह मुख्य है; हे इस्राएल सुन; प्रभु हमारा परमेश्वर एक ही प्रभु है। और तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना।”—मरकुस १२:२८-३०.
२. (क) यीशु को किस विरोध का सामना करना पड़ा? (ख) कभी-कभी कौन-सी बात यहोवा को प्रसन्न करना कठिन बना सकती है?
२ उस आज्ञा को मानना जिसे यीशु ने मुख्य आज्ञा—सबसे महत्त्वपूर्ण आज्ञा—कहा, यह माँग करता है कि हम हमेशा वही कार्य करें जो यहोवा को प्रसन्न करता है। यीशु ने ऐसा किया, हालाँकि एक मौक़े पर प्रेरित पतरस ने यीशु ने जो मार्ग अपनाया उस पर आपत्ति उठायी, और एक दूसरे मौक़े पर उसके निकट सम्बन्धियों ने भी ऐसा ही किया। (मत्ती १६:२१-२३; मरकुस ३:२१; यूहन्ना ८:२९) यदि आप अपने आपको समान परिस्थिति में पाते हैं तब क्या? मान लीजिए कि परिवार के सदस्य चाहते हैं कि आप अपना बाइबल अध्ययन और यहोवा के साक्षियों के साथ अपनी संगति रोक दें। परमेश्वर को जो प्रसन्न करता है, उसे करने के द्वारा क्या आप परमेश्वर को पहला स्थान देंगे? जब परिवार के सदस्य उसकी सेवा करने के आपके प्रयत्नों का शायद विरोध करते हैं, तब भी क्या परमेश्वर पहले स्थान पर आता है?
पारिवारिक विरोध का फन्दा
३. (क) यीशु की शिक्षाओं के नतीजे परिवार के लिए क्या हो सकते हैं? (ख) परिवार के सदस्य कैसे दिखा सकते हैं कि उन्हें किसके लिए ज़्यादा स्नेह है?
३ जब परिवार का कोई सदस्य यीशु की शिक्षाओं को अपनाता है तब परिवार के विरोध करनेवाले सदस्यों से संभवतः आनेवाली कठिनाई को यीशु ने कम नहीं दिखाया। “मनुष्य के बैरी उसके घर ही के लोग होंगे,” यीशु ने कहा। फिर भी, उस दुःखद नतीजे के बावजूद, यीशु ने यह कहते हुए दिखाया कि किसे पहले स्थान पर आना चाहिए: “जो माता या पिता को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं और जो बेटा या बेटी को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं।” (मत्ती १०:३४-३७) हम उसके पुत्र, यीशु मसीह, जो “[परमेश्वर] के तत्व की छाप” है, की शिक्षाओं का पालन करने के द्वारा यहोवा परमेश्वर को पहला स्थान देते हैं।—इब्रानियों १:३; यूहन्ना १४:९.
४. (क) यीशु के कहने के अनुसार उसके अनुयायी होने में क्या शामिल था? (ख) किस अर्थ में मसीहियों को परिवार के सदस्यों से घृणा करनी है?
४ एक और मौक़े पर जब यीशु चर्चा कर रहा था कि उसके सच्चे अनुयायी होने में वास्तव में क्या शामिल है, तब उसने कहा: “यदि कोई मेरे पास आए, और अपने पिता और माता और पत्नी और लड़केबालों और भाइयों और बहिनों बरन अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता।” (लूका १४:२६) स्पष्टतया यीशु के कहने का यह अर्थ नहीं था कि उसके अनुयायियों को शाब्दिक तौर पर अपने परिवार के सदस्यों से घृणा करनी चाहिए, क्योंकि उसने लोगों को अपने बैरियों से भी प्रेम करने के लिए आदेश दिया था। (मत्ती ५:४४) इसके बजाय, यीशु का यहाँ अर्थ था कि उसके अनुयायियों को जितना वे परमेश्वर से प्रेम करते थे उससे कम अपने परिवार के सदस्यों से प्रेम करना चाहिए। (मत्ती ६:२४ से तुलना कीजिए।) इस समझ के सामंजस्य में बाइबल कहती है कि याक़ूब लिआ को “अप्रिय” समझता था और राहेल से प्रेम करता था, जिसका अर्थ था कि वह लिआ से उतना प्रेम नहीं रखता था जितना कि वह उसकी बहन, राहेल से रखता था। (उत्पत्ति २९:३०-३२) यीशु ने कहा कि हमारे अपने “प्राण,” या जीवन से भी घृणा की जानी चाहिए, या उसे यहोवा से कम प्रिय समझा जाना चाहिए!
५. शैतान कैसे धूर्ततापूर्वक पारिवारिक प्रबन्ध का अनुचित फ़ायदा उठाता है?
५ सृष्टिकर्ता और जीवन-दाता के रूप में, यहोवा अपने सभी सेवकों की पूर्ण भक्ति के योग्य है। (प्रकाशितवाक्य ४:११) “मैं . . . उस पिता के साम्हने घुटने टेकता हूं,” प्रेरित पौलुस ने लिखा, “जिस से स्वर्ग और पृथ्वी पर, हर एक घराने का नाम रखा जाता है।” (इफिसियों ३:१४, १५) यहोवा ने पारिवारिक प्रबन्ध को इतने अद्भुत तरीक़े से बनाया कि परिवार के सदस्यों के पास एक दूसरे के लिए स्वाभाविक स्नेह होता है। (१ राजा ३:२५, २६; १ थिस्सलुनीकियों २:७) लेकिन, शैतान, अर्थात् इब्लीस धूर्ततापूर्वक इस स्वाभाविक पारिवारिक स्नेह का अनुचित फ़ायदा उठाता है, जिसमें प्रियजनों को प्रसन्न करने की इच्छा शामिल है। वह पारिवारिक विरोध की आग को हवा देता है, और अनेक लोग इसका सामना करते वक़्त बाइबल सच्चाई के लिए दृढ़ रहने को एक चुनौती पाते हैं।—प्रकाशितवाक्य १२:९, १२.
चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करना
६, ७. (क) बाइबल अध्ययन और मसीही संगति के महत्त्व का मूल्यांकन करने के लिए परिवार के सदस्यों की मदद कैसे की जा सकती है? (ख) हम कैसे प्रदर्शित कर सकते हैं कि हम सचमुच अपने परिवार के सदस्यों से प्रेम करते हैं?
६ यदि आप परमेश्वर को प्रसन्न करने या परिवार के एक सदस्य को प्रसन्न करने के बीच चुनाव करने के लिए विवश हों, तब आप क्या करेंगे? क्या आप इसे उचित ठहराने की कोशिश करेंगे कि परमेश्वर हम से उसके वचन का अध्ययन करने और उसके सिद्धान्तों को लागू करने की अपेक्षा नहीं करता है यदि ऐसा करना पारिवारिक मतभेद उत्पन्न करता हो? लेकिन इसके बारे में सोचिए। यदि आप हार मान लेते हैं और अपना बाइबल अध्ययन या यहोवा के साक्षियों के साथ संगति रोक देते हैं, तब प्रियजन कैसे कभी समझ पाएँगे कि बाइबल का यथार्थ ज्ञान जीवन-मृत्यु का विषय है?—यूहन्ना १७:३; २ थिस्सलुनीकियों १:६-८.
७ हम स्थिति को इस तरीक़े से चित्रित कर सकते हैं: शायद परिवार के एक सदस्य को मदिरा के लिए अत्यधिक लालसा है। क्या पीने की उसकी समस्या को अनदेखा करना या उसे बढ़ावा देना उसके लिए वास्तविक लाभ का होगा? क्या शान्ति बनाए रखने के लिए हार मानकर उसकी समस्या के बारे में कुछ न करना बेहतर होगा? जी नहीं, आप संभवतः सहमत होंगे कि पीने की उसकी समस्या पर विजय पाने में उसकी मदद करने की कोशिश करना सर्वोत्तम होगा, भले ही इसका अर्थ होगा उसके क्रोध और धमकियों का साहसपूर्वक सामना करना। (नीतिवचन २९:२५) समान रूप से, यदि आप सचमुच अपने परिवार के सदस्यों से प्रेम करते हैं, तो आप बाइबल का अध्ययन करने से आपको रोकने के उनके प्रयत्नों के आगे हार नहीं मानेंगे। (प्रेरितों ५:२९) ऐसा हो कि एक दृढ़ स्थिति लेने के द्वारा ही आप उन्हें यह मूल्यांकन करने में मदद करें कि मसीह की शिक्षाओं के मुताबिक़ जीने का अर्थ है हमारा जीवन।
८. हम इस तथ्य से कैसे लाभ प्राप्त करते हैं कि यीशु ने वफ़ादारी से परमेश्वर की इच्छा की?
८ परमेश्वर को पहला स्थान देना कभी-कभी शायद बहुत मुश्किल हो। लेकिन याद रखिए, शैतान ने यीशु के लिए भी परमेश्वर की इच्छा करना कठिन बनाया। फिर भी यीशु ने कभी हार नहीं मानी; उसने हमारे लिए यातना स्तंभ की पीड़ा को भी सहा। ‘यीशु मसीह हमारा उद्धारकर्ता है,’ बाइबल कहती है। “वह हमारे लिये . . . मरा।” (तीतुस ३:६; १ थिस्सलुनीकियों ५:१०) क्या हम कृतज्ञ नहीं हैं कि यीशु ने विरोध के सामने हार नहीं मानी? क्योंकि उसने एक बलिदान रूपी मृत्यु सही, हमारे पास उसके बहाए गए लहू में विश्वास करने के द्वारा धार्मिकता के एक शान्तिपूर्ण नए संसार में अनन्त जीवन की प्रत्याशा है।—यूहन्ना ३:१६, ३६; प्रकाशितवाक्य २१:३, ४.
एक संभावित मूल्यवान प्रतिफल
९. (क) मसीही दूसरों को बचाने में कैसे हिस्सा ले सकते हैं? (ख) तीमुथियुस की पारिवारिक स्थिति क्या थी?
९ क्या आप समझ पाए कि आप भी दूसरों को, जिनमें अत्यंत प्रिय रिश्तेदार शामिल हैं, बचाने में हिस्सा ले सकते हैं? प्रेरित पौलुस ने तीमुथियुस से आग्रह किया: “इन बातों पर [जो तुझे सिखायी गयी हैं] स्थिर रह, क्योंकि यदि ऐसा करता रहेगा, तो तू अपने, और अपने सुननेवालों के लिये भी उद्धार का कारण होगा।” (१ तीमुथियुस ४:१६, तिरछे टाइप हमारे।) तीमुथियुस एक विभाजित घराने में रहता था, उसका यूनानी पिता अविश्वासी था। (प्रेरितों १६:१; २ तीमुथियुस १:५; ३:१४) हालाँकि हम नहीं जानते कि तीमुथियुस का पिता कभी विश्वासी बना या नहीं, लेकिन यह संभावना कि वह शायद बना हो उसकी पत्नी, यूनीके, और तीमुथियुस के विश्वासी आचरण द्वारा बहुत बढ़ गयी थी।
१०. मसीही अपने अविश्वासी विवाह-साथियों के पक्ष में क्या कर सकते हैं?
१० शास्त्र प्रकट करता है कि जो पति और पत्नी बाइबल सच्चाई का दृढ़तापूर्वक समर्थन करते हैं, विश्वासी बनने में अपने ग़ैर-मसीही विवाह-साथियों की मदद करने के द्वारा उनके उद्धार में योग दे सकते हैं। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “यदि किसी भाई की पत्नी विश्वास न रखती हो, और उसके साथ रहने से प्रसन्न हो, तो वह उसे न छोड़े। और जिस स्त्री का पति विश्वास न रखता हो, और उसके साथ रहने से प्रसन्न हो; वह पति को न छोड़े। क्योंकि हे स्त्री, तू क्या जानती है, कि तू अपने पति का उद्धार करा ले? और हे पुरुष, तू क्या जानता है कि तू अपनी पत्नी का उद्धार करा ले?” (१ कुरिन्थियों ७:१२, १३, १६) प्रेरित पतरस ने वर्णन किया कि कैसे पत्नियाँ, असल में, अपने पतियों का उद्धार करा सकती हैं। उसने आग्रह किया: “अपने पति के आधीन रहो। इसलिये कि यदि इन में से कोई ऐसे हों जो वचन को न मानते हों, तौभी . . . बिना वचन के अपनी अपनी पत्नी के चालचलन के द्वारा खिंच जाएं।”—१ पतरस ३:१, २.
११, १२. (क) हज़ारों मसीहियों ने क्या प्रतिफल पाया है, और उसे पाने के लिए उन्होंने क्या किया? (ख) परिवार के एक सदस्य के अनुभव का वर्णन कीजिए जिसे वफ़ादारी से धीरज धरने का प्रतिफल मिला।
११ हाल के वर्षों में कई हज़ार लोग महीनों, यहाँ तक कि सालों तक अपने साक्षी रिश्तेदारों की मसीही गतिविधियों का विरोध करने के बाद यहोवा के साक्षी बने हैं। यह ऐसे मसीहियों के लिए क्या ही प्रतिफल है जो दृढ़ बने रहे हैं, और ऐसे भूतपूर्व विरोधियों के लिए क्या ही आशिष! भावाकुल आवाज़ में, एक ७४-वर्षीय मसीही प्राचीन ने बताया: “उन सालों के दौरान, जब मैं उनका विरोध करता था, सच्चाई पर डटे रहने के लिए मैं अकसर अपनी पत्नी और बच्चों को धन्यवाद देता हूँ।” उसने कहा कि तीन साल तक उसने हठपूर्वक अपनी पत्नी को बाइबल के बारे में उससे बात करने की भी अनुमति देने से इनकार किया था। “लेकिन वह मौक़ा देखकर कुशलता से बात करती थी,” उसने कहा, “और मेरे पैरों को मलते वक़्त मुझे गवाही देने लगती। मैं कितना कृतज्ञ हूँ कि उसने मेरे विरोध के कारण हार नहीं मानी!”
१२ एक और पति ने, जिसने अपने परिवार का विरोध किया था, लिखा: ‘मैं अपनी पत्नी का सबसे बुरा दुश्मन था क्योंकि उसके सच्चाई पाने के बाद, मैं ने उसे धमकी दी, और हम रोज़ झगड़ते थे; कहने का मतलब है कि झगड़ा हमेशा मैं शुरू करता था। लेकिन सब व्यर्थ; मेरी पत्नी बाइबल पर डटी रही। इस प्रकार सच्चाई के विरुद्ध और अपनी पत्नी और बच्चे के विरुद्ध मेरी कटु लड़ाई में बारह साल गुज़र गए। उन दोनों के लिए, मैं साक्षात् शैतान था।’ अंततः वह पुरुष अपने जीवन का विश्लेषण करने लगा। ‘मुझे महसूस हुआ कि मैं ने उनको कितना तंग किया था,’ उसने समझाया। ‘मैं ने बाइबल पढ़ी, और उसके उपदेश की सहायता से मैं अब एक बपतिस्मा-प्राप्त साक्षी हूँ।’ उस पत्नी के शानदार प्रतिफल के बारे में सोचिए, जी हाँ, जिसने १२ साल तक उसके विरोध को वफ़ादारी से सहने के द्वारा ‘अपने पति का उद्धार कराने’ में सहायता की।
यीशु से सीखना
१३. (क) जो मुख्य सबक़ पतियों और पत्नियों को यीशु के जीवन-मार्ग से सीखना चाहिए, वह क्या है? (ख) जो लोग परमेश्वर की इच्छा के अधीन होना कठिन पाते हैं, यीशु के उदाहरण से कैसे लाभ प्राप्त कर सकते हैं?
१३ जो मुख्य सबक़ पतियों और पत्नियों को यीशु के जीवन-मार्ग से सीखना चाहिए, वह है परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता। “मैं सर्वदा वही काम करता हूं, जिस से वह प्रसन्न होता है,” यीशु ने कहा। “मैं अपनी इच्छा नहीं, परन्तु अपने भेजनेवाले की इच्छा चाहता हूं।” (यूहन्ना ५:३०; ८:२९) जब यीशु को एक बार परमेश्वर की इच्छा का एक ख़ास पहलू अरुचिकर लगा तब भी वह आज्ञाकारी रहा। “यदि तू चाहे तो इस कटोरे को मेरे पास से हटा ले,” उसने प्रार्थना की। लेकिन उसने तुरन्त आगे कहा: “तौभी मेरी नहीं परन्तु तेरी ही इच्छा पूरी हो।” (लूका २२:४२) यीशु ने परमेश्वर से अपनी इच्छा बदलने को नहीं कहा; उसने परमेश्वर की उसके लिए जो भी इच्छा थी, अपने आपको आज्ञाकारिता से उसके अधीन करने के द्वारा दिखाया कि वह परमेश्वर से सचमुच प्रेम करता था। (१ यूहन्ना ५:३) हमेशा परमेश्वर की इच्छा को पहला स्थान देना, जैसा यीशु ने किया, न केवल अविवाहित जीवन में बल्कि विवाहित और पारिवारिक जीवन में भी सफलता के लिए अत्यावश्यक है। ग़ौर कीजिए कि ऐसा क्यों है।
१४. कुछ मसीही अनुचित रूप से कैसे तर्क करते हैं?
१४ जैसे पहले नोट किया गया है, जब विश्वासी लोग परमेश्वर को पहला स्थान देते हैं, वे अपने अविश्वासी विवाह-साथियों के साथ ही रहने की कोशिश करते हैं और उद्धार के लिए योग्य होने में उनकी मदद करने में अकसर समर्थ होते हैं। तब भी जब दोनों साथी विश्वासी हैं, उनका विवाह शायद आदर्श न हो। पापमय प्रवृत्तियों की वजह से, पतियों और पत्नियों को हमेशा एक दूसरे के प्रति प्रेममय विचार नहीं होते। (रोमियों ७:१९, २०; १ कुरिन्थियों ७:२८) कुछ लोग दूसरा विवाह-साथी पाने की खोज करने की हद तक जाते हैं, हालाँकि उनके पास तलाक़ के लिए कोई शास्त्रीय आधार नहीं होता। (मत्ती १९:९; इब्रानियों १३:४) वे तर्क करते हैं कि उनके लिए यह सर्वोत्तम है, कि पतियों और पत्नियों के एक साथ रहने की परमेश्वर की इच्छा बहुत कठिन है। (मलाकी २:१६; मत्ती १९:५, ६) इसमें कोई शक नहीं कि यह परमेश्वर के विचारों के बजाय मनुष्यों के विचार सोचने का एक और मामला है।
१५. परमेश्वर को पहला स्थान देना एक सुरक्षा क्यों है?
१५ परमेश्वर को पहला स्थान देना क्या ही सुरक्षा है! जो विवाहित दम्पति ऐसा करते हैं, एक साथ जुड़े रहने की कोशिश करेंगे और परमेश्वर के वचन की सलाह को लागू करने के द्वारा अपनी समस्याओं का हल निकालेंगे। इस प्रकार वे हर क़िस्म की मनोव्यथाओं से दूर रहते हैं जो उसकी इच्छा की उपेक्षा करने से परिणित होती हैं। (भजन १९:७-११) यह बात उस युवा दम्पति द्वारा चित्रित की गयी है जिसने, जब तलाक़ की दहलीज़ पर थे, तब बाइबल की सलाह का पालन करने का निर्णय किया। सालों बाद जब उस पत्नी ने अपने विवाह में प्राप्त आनन्द को याद किया, तो उसने कहा: “मुझे बैठकर रोना चाहिए जब मैं उस संभावना पर विचार करती हूँ कि मुझे ये सब साल अपने पति से अलग होकर जीना पड़ सकता था। फिर मैं यहोवा परमेश्वर से प्रार्थना करती हूँ और उसकी सलाह और मार्गदर्शन के लिए, जो हमें इतने सुखी सम्बन्ध में इकट्ठे लाया, उसका शुक्रिया अदा करती हूँ।”
पतियों, पत्नियों—मसीह का अनुकरण कीजिए!
१६. दोनों, पतियों और पत्नियों के लिए यीशु ने क्या उदाहरण रखा?
१६ यीशु ने, जिसने हमेशा परमेश्वर को पहला स्थान दिया, दोनों, पतियों और पत्नियों के लिए एक अद्भुत उदाहरण रखा, और इस पर नज़दीकी से ध्यान देने में वे अच्छा करते हैं। जिस तरह से यीशु मसीही कलीसिया के सदस्यों पर कोमल मुखियापन का प्रयोग करता है, उसका अनुकरण करने के लिए पतियों से आग्रह किया गया है। (इफिसियों ५:२३) और मसीही पत्नियाँ परमेश्वर के प्रति अधीनता के यीशु के दोषरहित उदाहरण से सीख सकती हैं।—१ कुरिन्थियों ११:३.
१७, १८. किन तरीक़ों से यीशु ने पतियों के लिए एक उत्तम उदाहरण रखा?
१७ बाइबल आदेश देती है: “हे पतियो, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, जैसा मसीह ने भी कलीसिया से प्रेम करके अपने आप को उसके लिये दे दिया।” (इफिसियों ५:२५) एक महत्त्वपूर्ण तरीक़ा जिससे यीशु ने अनुयायियों की अपनी कलीसिया के लिए अपना प्रेम दिखाया वह था उनका घनिष्ठ मित्र बनने के द्वारा। “मैं ने तुम्हें मित्र कहा है,” यीशु ने कहा, “क्योंकि मैं ने जो बातें अपने पिता से सुनीं, वे सब तुम्हें बता दीं।” (यूहन्ना १५:१५) यीशु ने अपने शिष्यों के साथ बात करने में जितना समय बिताया, उसके बारे में सोचिए—उनके साथ की गयी उसकी अनेकों-अनेक चर्चाएँ—और जो विश्वास उसने उन पर रखा! क्या यह पतियों के लिए एक उत्तम उदाहरण नहीं है?
१८ यीशु ने अपने शिष्यों में एक सच्ची दिलचस्पी ली और उनके लिए उसे एक असली लगाव था। (यूहन्ना १३:१) जब उसकी शिक्षाएँ उनके लिए अस्पष्ट होती थीं, तब वह धैर्यपूर्वक समय निकालता था ताकि वह अकेले में विषयों को स्पष्ट करे। (मत्ती १३:३६-४३) पतियों, क्या आपके लिए अपनी पत्नी के आध्यात्मिक हित का समान महत्त्व है? क्या आप उसके साथ समय बिताते हैं, और यह निश्चित करते हैं कि आप दोनों के मन और हृदय में बाइबल सच्चाइयाँ स्पष्ट हैं? यीशु सेवकाई में अपने प्रेरितों के साथ गया, और शायद उसने उनमें से प्रत्येक को व्यक्तिगत रूप से प्रशिक्षित किया। क्या आप घर-घर की भेंट में और बाइबल अध्ययन संचालित करने में हिस्सा लेते हुए, सेवकाई में अपनी पत्नी के साथ जाते हैं?
१९. जिस तरीक़े से यीशु अपने प्रेरितों की बार-बार उठनेवाली कमज़ोरियों से निपटा, वह पतियों के लिए एक उदाहरण कैसे रखता है?
१९ विशेषकर अपने प्रेरितों की अपरिपूर्णताओं से निपटते वक़्त यीशु ने पतियों के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रदान किया। अपने प्रेरितों के साथ अपने आख़िरी भोजन के दौरान, वह प्रतिद्वंद्विता की बार-बार उठनेवाली आत्मा को भाँप सका। क्या उसने कठोरतापूर्वक उनकी आलोचना की? जी नहीं, बल्कि उसने नम्रतापूर्वक हर एक के पाँव धोए। (मरकुस ९:३३-३७; १०:३५-४५; यूहन्ना १३:२-१७) क्या आप अपनी पत्नी के साथ ऐसा धैर्य दिखाते हैं? बार-बार उठनेवाली कमज़ोरी के बारे में शिकायत करने के बजाय, क्या आप धैर्यपूर्वक उसकी मदद करने और अपने उदाहरण द्वारा उसके हृदय तक पहुँचने की कोशिश करते हैं? पत्नियाँ संभवतः ऐसी प्रेममय करुणा पर अनुकूल प्रतिक्रिया दिखाएँगीं, जैसे प्रेरितों ने अंततः दिखायी।
२०. मसीही पत्नियों को कौन-सी बात कभी नहीं भूलनी चाहिए, और उनके लिए एक उदाहरण के तौर पर किसे प्रदान किया गया है?
२० पत्नियों को भी यीशु पर विचार करने की ज़रूरत है, जो कभी नहीं भूला कि “मसीह का सिर परमेश्वर है।” उसने हमेशा अपने आपको अपने स्वर्गीय पिता के अधीन किया। समान रूप से, पत्नियों को नहीं भूलना चाहिए कि “स्त्री का सिर पुरुष है,” जी हाँ, कि उनका पति उनका सिर है। (१ कुरिन्थियों ११:३; इफिसियों ५:२३) प्रेरित पतरस ने मसीही पत्नियों से प्रारंभिक समय की ‘पवित्र स्त्रियों’ के उदाहरण पर विचार करने का आग्रह किया, विशेषकर सारा के उदाहरण पर, जो “इब्राहीम की आज्ञा में रहती और उसे स्वामी कहती थी।”—१ पतरस ३:५, ६.
२१. इब्राहीम और सारा का विवाह सफल लेकिन लूत और उसकी पत्नी का विवाह असफल क्यों था?
२१ प्रत्यक्षतः सारा ने एक अजनबी जगह तम्बुओं में रहने के लिए समृद्ध शहर के एक आरामदेह घर को छोड़ दिया। क्यों? क्योंकि उसे वह जीवन-शैली पसन्द थी? संभवतः नहीं। क्योंकि उसके पति ने उससे जाने के लिए कहा? निःसंदेह यह एक तत्त्व था, चूँकि सारा इब्राहीम से उसके ईश्वरीय गुणों की वजह से प्रेम करती थी और उसका आदर करती थी। (उत्पत्ति १८:१२) लेकिन उसका अपने पति के साथ जाने का मुख्य कारण था यहोवा के लिए उसका प्रेम और परमेश्वर के निर्देशन का पालन करने की उसकी हार्दिक इच्छा। (उत्पत्ति १२:१) परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता में उसे आनन्द मिला। दूसरी तरफ़, लूत की पत्नी ने परमेश्वर की इच्छा करने में संकोच किया और इस कारण सदोम के अपने गृह-नगर में पीछे छूटी चीज़ों की तरफ़ लालसा से मुड़कर देखा। (उत्पत्ति १९:१५, २५, २६; लूका १७:३२) उस विवाह का क्या ही एक दुःखद अन्त हुआ—इसीलिए कि उसने परमेश्वर की अवज्ञा की!
२२. (क) परिवार के सदस्य कौन-से आत्म-परीक्षण बुद्धिमत्तापूर्वक करेंगे? (ख) हम अपने अगले अध्ययन में किस बात पर विचार करेंगे?
२२ सो एक पति या पत्नी के तौर पर, यह महत्त्वपूर्ण है कि आप अपने आपसे पूछें, ‘क्या परमेश्वर हमारे परिवार में पहले स्थान पर आता है? क्या मैं सचमुच उस भूमिका को पूरा करने का प्रयत्न करता हूँ जिसे परमेश्वर ने मुझे प्रदान किया है? क्या मैं अपने विवाह-साथी से प्रेम करने का असली प्रयास करता हूँ और उसे यहोवा के साथ एक अच्छा सम्बन्ध पाने या बनाए रखने में मदद करता हूँ?’ अधिकांश परिवारों में बच्चे भी हैं। इसके बाद हम माता-पिताओं की भूमिका और उन्हें और उनके बच्चों, दोनों को परमेश्वर को पहला स्थान देने की ज़रूरत पर विचार करेंगे।
क्या आपको याद है?
◻ अनेक परिवारों के लिए यीशु की शिक्षाओं के क्या नतीजे हो सकते हैं?
◻ हज़ारों दृढ़निश्चयी मसीहियों ने कौन-सा प्रतिफल प्राप्त किया है?
◻ कौन-सी बात विवाह-साथियों को अनैतिकता और तलाक़ से दूर रहने में मदद करेगी?
◻ यीशु के उदाहरण से पति क्या सीख सकते हैं?
◻ पत्नियाँ एक सुखी विवाह में योग कैसे दे सकती हैं?
[पेज 10 पर तसवीरें]
सारा ने अपने विवाह की सफलता में योग कैसे दिया?