“तुमने तो उसे नहीं देखा, तौभी तुम उस से प्रेम करते हो”
“तुमने तो उसे नहीं देखा, तौभी तुम उस से प्रेम करते हो। और यद्यपि तुम उसे अभी भी नहीं देखते, फिर भी उस पर विश्वास करते हो और ऐसे आनन्द से आनन्दित होते हो।”—१ पतरस १:८, NHT.
१. हालाँकि आज पृथ्वी पर किसी-भी व्यक्ति ने यीशु को नहीं देखा, कुछ धार्मिक लोग उसे किस प्रकार भक्ति दिखाने का प्रयास करते हैं?
आज पृथ्वी पर जीवित किसी-भी व्यक्ति ने यीशु मसीह को नहीं देखा। फिर भी, करोड़ों लोग उससे प्रेम करने का दावा करते हैं। मनीला, फिलीपींस में हर साल जनवरी ९ को, क्रूस उठाए हुए यीशु की प्राकृत-आकार की एक मूर्ति सड़कों पर खींची जाती है जिसका वर्णन देश में मुख्य धर्म के सबसे बड़े और सबसे भव्य प्रदर्शन के रूप में किया गया है। उत्तेजित भीड़ धक्का-मुक्की करती है; यहाँ तक कि मूर्ति को छूने के बावले प्रयास में लोग एक दूसरे के ऊपर चढ़ जाते हैं। अनेक लोग जो इसे देखने के लिए उपस्थित होते हैं, मुख्यतः इस उत्सव की शोभायात्रा के द्वारा आकर्षित होते हैं। फिर भी, उनमें से कुछ निःसन्देह ऐसे लोग हैं जो निष्कपट रूप से यीशु की ओर आकर्षित महसूस करते हैं। इसके एक प्रमाण के रूप में वे शायद एक क्रूसमूर्ति पहनें या शायद नियमित रूप से गिरजे जाएँ। लेकिन, क्या ऐसी मूर्तिपूजा को सच्ची उपासना के तौर पर माना जा सकता है?
२, ३. (क) यीशु के अनुयायियों में से किसने उसे वास्तव में देखा और सुना था? (ख) हालाँकि उन्होंने कभी-भी व्यक्तिगत रूप से उसे नहीं देखा था, फिर भी पहली शताब्दी में और किसने यीशु से प्रेम किया और उस पर विश्वास किया?
२ प्रथम शताब्दी में, यहूदिया, सामरिया, पेरिया, और गलील के रोमी प्रान्तों में ऐसे हज़ारों लोग थे जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से यीशु मसीह को वाक़ई देखा और सुना था। जब वह परमेश्वर के राज्य के बारे में दिलकश सच्चाइयों को समझाता था तो वे सुनते थे। जो चमत्कार उसने किए वे उसके चश्मदीद गवाह थे। इनमें से कुछ उसके समर्पित चेले बन गए, जो इस बात से क़ायल थे कि वह “जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह” था। (मत्ती १६:१६) हालाँकि, जिन्हें प्रेरित पतरस ने अपनी पहली उत्प्रेरित पत्री लिखी थी वे इनके बीच नहीं थे।
३ जिन्हें पतरस ने लिखा था वे पुन्तुस, गलतिया, कप्पदुकिया, आसिया और बिथुनिया के रोमी प्रान्तों—सभी आधुनिक-दिन तुर्की के क्षेत्र में रहते थे। उन्हें पतरस ने लिखा: “तुमने तो उसे नहीं देखा, तौभी तुम उस से प्रेम करते हो। और यद्यपि तुम उसे अभी भी नहीं देखते, फिर भी उस पर विश्वास करते हो और ऐसे आनन्द से आनन्दित होते हो जो वर्णन से बाहर और महिमा से परिपूर्ण है।” (१ पतरस १:१, ८, NHT) वे यीशु मसीह को प्रेम करने और उस पर विश्वास जताने की हद तक कैसे तैयार थे?
४, ५. उन लोगों ने जिन्होंने यीशु को कभी नहीं देखा था उन्होंने उसके बारे में इतना कैसे सीखा था कि उससे प्रेम करें और उस पर विश्वास करें?
४ स्पष्टतया, उन में से कुछ यरूशलेम में थे जब प्रेरित पतरस ने सा.यु. ३३ में पिन्तेकुस्त के पर्व के लिए उपस्थित हुई भीड़ को गवाही दी। पर्व के बाद अनेक चेले यरूशलेम में रह गए ताकि प्रेरितों से अतिरिक्त हिदायत ले सकें। (प्रेरितों २:९, ४१, ४२; १ पतरस १:१ से तुलना कीजिए।) बारंबार की गई मिशनरी यात्राओं पर, प्रेरित पौलुस ने उन लोगों के बीच भी उत्साही सेवकाई जारी रखी जो उस क्षेत्र में रहते थे जिनके पास पतरस ने बाद में अपने नाम की पहली बाइबलीय पत्री भेजी।—प्रेरितों १८:२३; १९:१०; गलतियों १:१, २.
५ वे लोग, जिन्होंने यीशु को कभी नहीं देखा था, इतनी गहराई से उसकी ओर क्यों आकर्षित हुए थे? हमारे दिनों में, संसार-भर में लाखों अन्य लोग उससे गहरा प्रेम क्यों रखते हैं?
बातें जो उन्होंने सुनीं
६. (क) यदि आपने पतरस को यीशु के बारे में सा.यु. ३३ के पिन्तेकुस्त में गवाही देते हुए सुना होता, तो आप क्या सीख सकते थे? (ख) इसने वहाँ उपस्थित कुछ ३,००० पर कैसे प्रभाव डाला?
६ यदि आप उस वक़्त यरूशलेम में होते जब पतरस ने उस पर्व की भीड़ को सा.यु. ३३ में सम्बोधित किया, तो आपने यीशु के बारे में क्या सीखा होता? जो चमत्कार उसने किए थे उन्होंने निःसन्देह यह दिखाया कि वह परमेश्वर द्वारा भेजा गया था। कि हालाँकि पापपूर्ण मनुष्यों ने यीशु को मार डाला था, वह अब क़ब्र में नहीं था बल्कि पुनरुत्थित किया गया था और फिर स्वर्ग में परमेश्वर के दाहिने हाथ पर पद्दोन्नत किया गया था। कि यीशु वाक़ई, मसीह, अर्थात् मसीहा था जिसके बारे में भविष्यवक्ताओं ने लिखा था। कि यीशु मसीह के द्वारा, उसके अनुयायियों पर पवित्र आत्मा उँडेली गयी थी जिसकी वजह से वे अनेक जातियों के लोगों को परमेश्वर की शानदार बातों के बारे में, जिन्हें वह अपने पुत्र के माध्यम से कर रहा था, गवाही देने में शीघ्र ही समर्थ हुए थे। उस अवसर पर जिन्होंने पतरस को सुना था, उनमें से अनेक के हृदय गहराई से प्रभावित हुए थे, और कुछ ३,००० लोगों ने मसीही अनुयायियों के रूप में बपतिस्मा लिया। (प्रेरितों २:१४-४२) यदि आप वहाँ होते, तो क्या आपने ऐसा निर्णायक क़दम उठाया होता?
७. (क) यदि आप उस वक़्त अन्ताकिया में होते जब प्रेरित पौलुस ने वहाँ प्रचार किया, तो आपने शायद क्या सीखा होता? (ख) भीड़ के कुछ लोग विश्वासी क्यों बने और दूसरों के साथ सुसमाचार क्यों बाँटा?
७ यदि आप उनमें होते जो तब उपस्थित थे जब प्रेरित पौलुस ने गलतिया के रोमी प्रान्त अन्ताकिया में सिखाया, तो आपने शायद यीशु के बारे में और क्या सीखा होता? आपने पौलुस को यह समझाते सुना होता कि यीशु को यरूशलेम के सरदारों द्वारा मृत्युदण्ड दिया गया जो भविष्यवक्ताओं द्वारा पूर्वबताया गया था। आपने यीशु के पुनरुत्थान के आँखों देखे प्रमाण के बारे में भी सुना होता। आप पौलुस के इस विवरण से निश्चित रूप से प्रभावित होते कि मृतकों में से यीशु का पुनरुत्थान करने के द्वारा, यहोवा ने इस बात की पुष्टि की कि यह जन वाक़ई परमेश्वर का पुत्र था। और क्या आपका हृदय आनन्दित नहीं होता जब आप सीखते कि यीशु में विश्वास के द्वारा संभव हुई पापों की क्षमा अनन्त जीवन की ओर ले जा सकती है? (प्रेरितों १३:१६-४१, ४६, ४७; रोमियों १:४) जो वे सुन रहे थे उसके महत्त्व को समझते हुए, अन्ताकिया में कुछ लोग चेले बन गए, और दूसरों के साथ सुसमाचार बाँटने में सक्रिय रूप से भाग लिया, हालाँकि ऐसा करने का अर्थ था कि उन्हें कठोर सताहट का सामना करना पड़ता।—प्रेरितों १३:४२, ४३, ४८-५२; १४:१-७, २१-२३.
८. यदि आप इफिसुस की कलीसिया की सभा में होते जब पौलुस की पत्री उन्हें प्राप्त हुई, तो आपने क्या सीखा होता?
८ तब क्या यदि आप आसिया के रोमी प्रान्त में, इफिसुस की मसीही कलीसिया के साथ संगति कर रहे होते, जब वहाँ पौलुस की उत्प्रेरित पत्री चेलों को प्राप्त हुई? इससे आप परमेश्वर के उद्देश्य में यीशु की भूमिका के बारे में क्या सीख सकते थे? उस पत्री में पौलुस ने समझाया कि मसीह के द्वारा स्वर्ग और पृथ्वी की सभी वस्तुओं को परमेश्वर के सामंजस्य में लाया जाएगा, कि मसीह के द्वारा परमेश्वर का दान सभी जातियों के लोगों को दिया गया, कि ऐसे लोग जो अपने अपराधों के कारण परमेश्वर की दृष्टि में मरे हुए थे मसीह में विश्वास द्वारा जीवित किए गए, और कि इस प्रबन्ध के परिणामस्वरूप, मनुष्यों के लिए परमेश्वर के प्रिय पुत्र बनना एक बार फिर संभव हो गया था।—इफिसियों १:१, ५-१०; २:४, ५, ११-१३.
९. (क) कौन-सी बात आपको यह जानने में मदद कर सकती है कि इफिसियों को पौलुस ने जो लिखा, उसके महत्त्व को आप व्यक्तिगत रूप से समझते हैं? (ख) पतरस द्वारा ज़िक्र किए गए रोमी प्रान्तों में भाई यीशु के बारे में जो सीख रहे थे, उस बात से कैसे प्रभावित हुए?
९ क्या इन सब बातों के लिए मूल्यांकन परमेश्वर के पुत्र के लिए आपके प्रेम को और गहरा किया होता? क्या वह प्रेम आपके रोज़मर्रा के जीवन को प्रभावित करता, जैसा प्रेरित पौलुस ने इफिसियों के अध्याय ४ से ६ में प्रोत्साहित किया? क्या ऐसे मूल्यांकन ने आपको जीवन में अपनी प्राथमिकताओं की जाँच करने के लिए प्रेरित किया होता? परमेश्वर के लिए प्रेम और उसके पुत्र के लिए आभार से प्रेरित होकर, क्या आपने ज़रूरी फेर-बदल किए होते जिससे परमेश्वर की इच्छा पूरी करना सचमुच आपके जीवन का केन्द्र बिन्दु बन जाता? (इफिसियों ५:१५-१७) जो वे सीख रहे थे उसके द्वारा जिस तरह आसिया, गलतिया, और अन्य रोमी प्रान्तों में मसीही प्रभावित हुए थे उसके बारे में प्रेरित पतरस ने उन्हें लिखा: “तुमने तो उसे [यीशु मसीह को] नहीं देखा, तौभी तुम उस से प्रेम करते हो। और यद्यपि तुम उसे अभी भी नहीं देखते, फिर भी उस पर विश्वास करते हो और ऐसे आनन्द से आनन्दित होते हो जो वर्णन से बाहर और महिमा से परिपूर्ण है।”—१ पतरस १:८, NHT.
१०. (क) यीशु के लिए प्रारम्भिक मसीहियों के प्रेम में किस बात ने निःसन्देह योगदान दिया? (ख) हम भी इससे कैसे लाभ उठा सकते हैं?
१० कुछ और बात थी जिसने परमेश्वर के पुत्र के लिए प्रेम में निःसन्देह योगदान दिया, जिसे उन प्रारम्भिक मसीहियों द्वारा महसूस किया गया जिन्हें पतरस ने सम्बोधित किया था। वह क्या बात थी? जिस समय पर पतरस ने अपनी पहली पत्री लिखी थी, कम-से-कम दो सुसमाचार पुस्तकें—मत्ती और लूका—पहले ही वितरण में थीं। प्रथम-शताब्दी के जिन मसीहियों ने कभी-भी यीशु को नहीं देखा था, वे सुसमाचार-पुस्तक के वृत्तान्तों को पढ़ सकते थे। हम भी पढ़ सकते हैं। सुसमाचार पुस्तकें कल्पनाशील वृत्तान्त नहीं हैं; उनमें सबसे विश्वासजनक इतिहास की सभी विशेषताएँ हैं। उन उत्प्रेरित अभिलेखों में, हम बहुत कुछ पाते हैं जो परमेश्वर के पुत्र के लिए हमारे प्रेम को गहरा करता है।
जो आत्मा उसने दिखायी
११, १२. उस आत्मा के बारे में क्या बात है जिसे यीशु ने दूसरे लोगों के प्रति दिखायी जो आपको उसे प्रेम करने के लिए प्रेरित करती है?
११ वहाँ यीशु के जीवन के लिखित रिकार्ड में, हम सीखते हैं कि दूसरे मनुष्यों के साथ उसने कैसा व्यवहार किया। उसके मरने के १,९६० से भी ज़्यादा वर्षों के बाद, आज भी वह आत्मा जो उसने दिखायी थी, लोगों के हृदय को छू लेती है। हरेक जीवित व्यक्ति पाप के प्रभावों के बोझ तले दबा हुआ है। करोड़ों लोग अन्याय के शिकार हैं, बीमारी से संघर्ष करते हैं, या अन्य कारणों से भारी निराशा का अनुभव करते हैं। ऐसे सभी लोगों से यीशु कहता है: “हे सब परिश्रम करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगो, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हलका है।”—मत्ती ११:२८-३०.
१२ यीशु ने निर्धनों, भूखों, और जो शोक मना रहे थे उनके लिए संवेदनशील परवाह दिखाई। जब परिस्थितियों ने इसे ज़रूरी बना दिया, तब उसने बड़े समूहनों को चमत्कारिक ढंग से खिलाया भी। (लूका ९:१२-१७) उसने उन्हें दासतारूपी परम्पराओं से मुक्त किया। उसने राजनैतिक और आर्थिक दमन का अन्त करने के लिए परमेश्वर के प्रबन्ध में उनका विश्वास भी मज़बूत किया। यीशु ने उनकी आत्मा को और नहीं कुचला जो पहले ही से पददलित थे। कोमलता और प्रेम से उसने कुशलतापूर्वक नम्र लोगों को ऊपर उठाया। उसने उन लोगों को ताज़गी दी, जो ऐसे कुचले सरकण्डों के समान थे जो दोहरे पड़ गए थे और जो धुआँ देती हुई बत्ती के समान थे जो बुझने पर हो। आज के दिन तक, उसका नाम आशा जगाता है, उन लोगों के हृदयों में भी जिन्होंने उसे कभी नहीं देखा।—मत्ती १२:१५-२१; १५:३-१०.
१३. जिस तरीक़े से यीशु ने पापियों के साथ व्यवहार किया वह लोगों को क्यों आकर्षित करता है?
१३ यीशु ने ग़लत कार्यों के लिए स्वीकृति नहीं दिखायी, फिर भी उसने उन लोगों के प्रति सहानुभूति दिखायी जिन्होंने जीवन में ग़लतियाँ की थीं लेकिन पश्चाताप दिखाया और सहायता के लिए उसके पास आए थे। (लूका ७:३६-५०) वह उन लोगों के साथ भोजन करने बैठ जाता जो समाज में दलित थे, यदि वह यह महसूस करता था कि ऐसा करना उनकी आध्यात्मिक रूप से मदद करने का अवसर प्रदान करेगा। (मत्ती ९:९-१३) जो आत्मा उसने दिखायी उसके परिणामस्वरूप, ऐसी ही परिस्थितियों में रह रहे करोड़ों लोग जिन्होंने यीशु को कभी नहीं देखा उसे जानने और उस पर विश्वास करने के लिए प्रेरित हुए हैं।
१४. जो लोग बीमार, अपंग, या दुःखी थे उनकी यीशु ने जिस तरीक़े से मदद की उसमें आपको कौन-सी बात छू गयी?
१४ जिस तरीक़े से यीशु ने उन लोगों के साथ व्यवहार किया जो बीमार या अपंग थे, वह उसके स्नेह और करुणा का साथ ही उन्हें राहत देने की उसकी क्षमता का भी प्रमाण देता है। अतः, जब कोढ़ से भरा हुआ एक बीमार मनुष्य उसके पास आया और सहायता के लिए बिनती की, तो यीशु ने देखकर मुँह नहीं फेरा। और उसने उस मनुष्य को यह नहीं कहा कि हालाँकि उसने उस पर तरस खाया, लेकिन मामला हाथ से निकल चुका था और मदद के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता था। उस मनुष्य ने बिनती की: “हे प्रभु यदि तू चाहे, तो मुझे शुद्ध कर सकता है।” बिना हिचकिचाहट के यीशु ने आगे बढ़कर उस कोढ़ी को छुआ, और कहा: “मैं चाहता हूं, तू शुद्ध हो जा।” (मत्ती ८:२, ३) एक अन्य अवसर पर एक स्त्री ने गुप्त रूप से उसके वस्त्र की छोर को छूने के द्वारा चंगा होना चाहा। यीशु ने उसके साथ कृपापूर्वक और आश्वासन देते हुए व्यवहार किया। (लूका ८:४३-४८) और जब उसने एक अंत्येष्टि यात्रा को देखा, तो उसने उस विधवा पर तरस खाया जिसका एकमात्र पुत्र मर गया था। हालाँकि यीशु ने अपनी ईश्वर-प्रदत्त शक्ति को चमत्कार से अपने लिए भोजन उपलब्ध करने के लिए इस्तेमाल करने से इनकार किया था, उसने उस मृत व्यक्ति को जीवित करने और उसकी माँ को वापस लौटाने के लिए इसका खुलकर प्रयोग किया।—लूका ४:२-४; ७:११-१६.
१५. यीशु के बारे में वृत्तान्तों को पढ़ना और उन पर मनन करना आप पर कैसे प्रभाव डालता है?
१५ जब हम इन वृत्तान्तों को पढ़ते हैं और उस आत्मा पर मनन करते हैं जो यीशु ने प्रदर्शित की, तो इस व्यक्ति के लिए हमारा प्रेम गहरा हो जाता है जिसने अपना मानव जीवन दे दिया ताकि हम सर्वदा जीवित रह सकें। हालाँकि हमने उसे कभी नहीं देखा है, हम उसकी ओर आकर्षित महसूस करते हैं, और हम उसके पदचिन्हों पर चलना चाहते हैं।—१ पतरस २:२१.
परमेश्वर पर उसका विनम्र भरोसा
१६. यीशु ने किस बात की ओर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित किया, और वह हमें क्या करने के लिए प्रोत्साहित करता है?
१६ सब बातों से श्रेष्ठ, यीशु ने अपना और हमारा ध्यान अपने स्वर्गीय पिता, यहोवा परमेश्वर की ओर केन्द्रित किया। उसने यह कहने के द्वारा व्यवस्था की सबसे बड़ी आज्ञा की पहचान दी: “तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख।” (मत्ती २२:३६, ३७) उसने अपने चेलों को चिताया: “परमेश्वर पर विश्वास रखो।” (मरकुस ११:२२) जब उन्होंने अपने विश्वास की एक गंभीर परीक्षा का सामना किया, तो उसने उनसे आग्रह किया: “प्रार्थना करते रहो।”—मत्ती २६:४१.
१७, १८. (क) यीशु ने अपने पिता पर अपना विनम्र भरोसा कैसे प्रदर्शित किया? (ख) जो उसने किया वह हमारे लिए इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?
१७ स्वयं यीशु ने उदाहरण पेश किया। प्रार्थना उसके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा थी। (मत्ती १४:२३; लूका ९:२८; १८:१) जब उसके सामने अपने प्रेरित चुनने का समय आया, तब यीशु ने मात्र अपनी समझ का सहारा नहीं लिया, हालाँकि इससे पहले स्वर्ग के सभी स्वर्गदूत उसके निरीक्षण के अधीन थे। नम्रतापूर्वक उसने पूरी रात अपने पिता से प्रार्थना करने में बिताई। (लूका ६:१२, १३) जब उसने गिरफ़्तारी और दर्दनाक मृत्यु का सामना किया, गंभीरतापूर्वक प्रार्थना करते हुए यीशु एक बार फिर अपने पिता की ओर मुड़ा। उसने यह दृष्टिकोण नहीं अपनाया कि वह शैतान को अच्छी तरह जानता है और वह दुष्ट जो भी हथकण्डे अपनाएगा वह उनसे आसानी से निपट लेगा। यीशु ने जान लिया था कि यह कितना महत्त्वपूर्ण था कि वह असफल न हो। असफलता उसके पिता के लिए क्या ही निन्दा की बात होती! और मानवजाति के लिए क्या ही भारी नुक़सान होता, जिनकी जीवन की प्रत्याशाएँ उस बलिदान पर निर्भर करती थीं जिसे यीशु को चढ़ाना था!
१८ यीशु ने बारंबार प्रार्थना की—जब वह यरूशलेम में एक उपरौठी कोठरी में था और उससे भी अधिक आकुलता से गतसमनी के बाग़ में। (मत्ती २६:३६-४४; यूहन्ना १७:१-२६; इब्रानियों ५:७) यातना-स्तंभ पर दुःख भोगते वक़्त, उसने उनकी निन्दा नहीं की जो उसका मज़ाक उड़ा रहे थे। इसके बजाय, उसने उनके लिए प्रार्थना की जो अज्ञानता में कार्य कर रहे थे: “हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहे हैं।” (लूका २३:३४) उसने अपना मन अपने पिता पर केन्द्रित रखा, वह “अपने आप को सच्चे न्यायी के हाथ में सौंपता था।” यातना-स्तंभ पर उसके अन्तिम शब्द उसके पिता से एक प्रार्थना थी। (१ पतरस २:२३; लूका २३:४६) हम कितने आभारी हैं कि यहोवा पर सम्पूर्ण भरोसे के साथ, यीशु ने वफ़ादारी से उस नियुक्ति को पूरा किया जो उसके पिता ने उसे सौंपी थी! हालाँकि हमने यीशु मसीह को कभी नहीं देखा, लेकिन जो उसने किया उसके लिए हम उससे कितना गहरा प्रेम करते हैं!
उसके लिए हमारा प्रेम व्यक्त करना
१९. यीशु के लिए प्रेम व्यक्त करने में, हम किन अभ्यासों को पूर्ण रूप से अनुचित समझकर दूर रहते हैं?
१९ हम इसका प्रमाण कैसे दे सकते हैं कि जिस प्रेम का हम दावा करते हैं वह मात्र ज़बानी नहीं है? चूँकि उसके पिता ने, जिससे यीशु प्रेम करता था, मूर्तियों का बनाना और फिर भक्ति की वस्तुओं के रूप में उन्हें मानना वर्जित किया, हम ऐसी मूर्ति को गले में चेन में पहनने या उसे सड़कों पर घुमाने के द्वारा निश्चय ही यीशु को आदर नहीं लाएँगे। (निर्गमन २०:४, ५; यूहन्ना ४:२४) यदि बाक़ी के सप्ताह में उसकी शिक्षाओं के अनुसार नहीं जीते तो हमारे लिए धार्मिक सेवाओं में उपस्थित होना भी यीशु को आदर नहीं लाएगा, चाहे हम वहाँ सप्ताह में कई बार क्यों न जाएँ। यीशु ने कहा: “जिस के पास मेरी आज्ञा हैं, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा।”—यूहन्ना १४:२१, २३; १५:१०.
२०. कौन-सी ऐसी कुछ बातें हैं जो दिखाएँगी कि हम वाक़ई यीशु से प्रेम करते हैं या नहीं?
२० उसने हमें कौन-सी आज्ञाएँ दीं? सबसे मुख्य, सच्चे परमेश्वर, यहोवा की उपासना, और केवल उसी की उपासना करना। (मत्ती ४:१०; यूहन्ना १७:३) परमेश्वर के उद्देश्य में उसकी भूमिका के कारण, यीशु ने यह भी सिखाया कि हमें परमेश्वर के पुत्र के तौर पर उसमें विश्वास जताना है और कि हमारा इसे दुष्ट कार्यों से दूर रहने और ज्योति में चलने के द्वारा दिखाना ज़रूरी है। (यूहन्ना ३:१६-२१) उसने हमें पहले परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करने की सलाह दी, जिन्हें भौतिक ज़रूरतों के बारे में चिन्ता से पहले रखना था। (मत्ती ६:३१-३३) उसने आज्ञा दी कि हम एक दूसरे से ऐसा प्रेम रखें जैसा उसने हमसे रखा। (यूहन्ना १३:३४; १ पतरस १:२२) और उसने हमें परमेश्वर के उद्देश्य के साक्षी होने की नियुक्ति दी है, जैसा वह भी था। (मत्ती २४:१४; २८:१९, २०; प्रकाशितवाक्य ३:१४) हालाँकि उन्होंने यीशु को कभी नहीं देखा, कुछ ५० लाख यहोवा के साक्षी आज उसके लिए असली प्रेम के द्वारा प्रेरित होकर इन आज्ञाओं का पालन करते हैं। यीशु को व्यक्तिगत रूप से उनका न देखना किसी-भी तरीक़े से आज्ञाकारी होने के उनके दृढ़निश्चय को कमज़ोर नहीं बनाता। वे उस बात को याद करते हैं जो उनके प्रभु ने प्रेरित थोमा को कही थी: “तू ने तो मुझे देखकर विश्वास किया है, धन्य वे हैं जिन्हों ने बिना देखे विश्वास किया।”—यूहन्ना २०:२९.
२१. मसीह के मृत्यु स्मारक में उपस्थित होने से, जो इस वर्ष रविवार, मार्च २३ को सूर्यास्त के बाद मनाया जाएगा, हम कैसे लाभ उठा सकते हैं?
२१ यह आशा की जाती है कि मानवजाति के लिए परमेश्वर के प्रेम की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति को याद करने और उसके वफ़ादार पुत्र, यीशु मसीह की मृत्यु को मनाने के लिए आप भी उनमें शामिल होंगे जो रविवार मार्च २३, १९९७ को सूर्यास्त के बाद, संसार-भर में यहोवा के साक्षियों के राज्यगृहों में इकट्ठा होंगे। उस अवसर पर जो कहा और किया जाता है उसे यहोवा और उसके पुत्र के प्रति हमारे प्रेम को गहरा करना चाहिए और परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने की इच्छा को बढ़ाना चाहिए।—१ यूहन्ना ५:३.
आप कैसे जवाब देंगे?
◻ वे लोग जिन्हें पतरस की पहली पुस्तक लिखी गई थी, यीशु को कैसे जानने और प्रेम करने लगे थे?
◻ जो बातें प्रारम्भिक मसीहियों ने सुनी थीं उनमें से कौन-सी कुछ बातें हैं जो आपको प्रभावित करती हैं?
◻ जो आत्मा यीशु ने दिखायी उसमें ऐसा क्या था जो उसके लिए आपके प्रेम को गहरा करता है?
◻ परमेश्वर पर यीशु का विनम्र भरोसा हमारे लिए इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?
◻ यीशु मसीह के लिए हम अपना प्रेम कैसे प्रदर्शित कर सकते हैं?
[पेज 16, 17 पर तसवीरें]
यीशु ने जो आत्मा दिखायी उसके कारण हम उसकी ओर आकर्षित महसूस करते हैं