विश्व एकता—क्या यह कभी संभव है?
“यदि अगली कुछ पीढ़ियों में हम अपने स्वतंत्र राष्ट्रों को किसी क़िस्म के सच्चे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में बदलने में सफल हो जाते हैं, . . . तो हमने असल में युद्ध की प्राचीन प्रथा को भी समाप्त कर दिया होगा . . . लेकिन, यदि हम असफल हो जाते हैं, तो संभवतः कोई सभ्यता . . . नहीं रहेगी।” सैन्य इतिहासकार ग्विन डायर युद्ध (अंग्रेज़ी) नामक अपनी पुस्तक में यह कहता है।
डायर का कहना है कि इतिहास के पन्ने राष्ट्रों और अन्य शक्तिशाली समूहों के वृत्तांतों से भरे पड़े हैं जिन्होंने अपने मतभेदों को दूर करने के लिए युद्ध का सहारा लिया। उनकी फूट ने करोड़ों लोगों के जीवन बरबाद कर दिये। इसने राजा सुलैमान के दिनों में लोगों को कैसे प्रभावित किया, इस विषय में उसका वर्णन आज भी उपयुक्त है। उसने लिखा: “तब मैं ने वह सब अन्धेर देखा जो संसार में होता है। और क्या देखा, कि अन्धेर सहनेवालों के आंसू बह रहे हैं, और उनको कोई शान्ति देनेवाला नहीं! अन्धेर करनेवालों के हाथ में शक्ति थी, परन्तु उनको कोई शान्ति देनेवाला नहीं था।”—सभोपदेशक ४:१.
जैसे उपर्युक्त इतिहासकार बताता है, ‘अन्धेर सहनेवालों के आंसुओं’ के लिए करुणा के अलावा, स्वतंत्र राष्ट्रों को किसी क़िस्म के सच्चे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में बदलने के लिए कोई रास्ता ढूँढ़ने का आजकल एक और कारण है: सभ्यता का अस्तित्त्व ही जोखिम में है! आधुनिक युद्ध से यह अपेक्षा की जा सकती है कि इसका सहारा लेनेवाला हर राष्ट्र नष्ट हो जाएगा और कोई विजयी नहीं होगा।
विश्व एकता दिखायी पड़ रही है?
विश्व एकता की संभावना कितनी है? क्या मानव समाज उन विभाजक शक्तियों को वश में कर सकता है जो पृथ्वी के अस्तित्त्व को ख़तरे में डाल रही हैं? कुछ लोग ऐसा सोचते हैं। ब्रिटॆन के डेली टॆलिग्राफ़ का सैन्य-विषय संपादक, जॉन कीगन लिखता है: “गड़बड़ी और अनिश्चितता के बावजूद, ऐसा लगता है कि एक युद्धरहित संसार को उभरता हुआ देखा जा सकता है।”
कौन-सी बात उसे यह सकारात्मक दृष्टिकोण देती है? मानवजाति के लंबे युद्ध इतिहास और सफलतापूर्वक अपना मार्गदर्शन करने की मनुष्य की प्रतीयमान अक्षमता के बावजूद, इतने सारे लोग आशावान क्यों दिखायी पड़ते हैं? (यिर्मयाह १०:२३) ‘मनुष्यजाति आगे बढ़ रही है। इतिहास दिखाता है कि निरंतर प्रगति हो रही है,’ एक समय कुछ लोग तर्क करते थे। आज भी, अनेक लोग मानते हैं कि किसी-न-किसी तरह मनुष्य की स्वाभाविक भलाई बुराई पर जय पाएगी। क्या यह एक यथार्थ आशा है? या क्या यह बस एक भ्रम है जो और अधिक निराशा का कारण बनेगा? अपनी पुस्तक विश्व का संक्षिप्त इतिहास (अंग्रेज़ी) में इतिहासकार जे. एम. रॉबट्र्स ने यथार्थ रूप से लिखा: “यह नहीं कहा जा सकता कि संसार का भविष्य सुरक्षित है। न ही मानव पीड़ा का कोई अंत अभी दिखायी पड़ता है, न ही यह मानने का कोई आधार है कि ऐसा होगा।”
क्या यह मानने के असल कारण हैं कि लोग और राष्ट्र अपने परस्पर अविश्वास और विभाजक मतभेदों को सचमुच दूर कर देंगे? या क्या मनुष्यों के प्रयासों से बढ़कर किसी चीज़ की ज़रूरत है? अगला लेख इन प्रश्नों पर चर्चा करेगा।
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