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  • पाठकों के प्रश्‍न
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1998
w98 6/15 पेज 30-31

पाठकों के प्रश्‍न

यीशु ने आग्रह किया: “सकेत द्वार से प्रवेश करने का यत्न करो, क्योंकि मैं तुम से कहता हूं, कि बहुतेरे प्रवेश करना चाहेंगे, और न कर सकेंगे।” (लूका १३:२४) यीशु का अर्थ क्या था और आज यह कैसे लागू होता है?

इस दिलचस्प भाग को अच्छी तरह समझने के लिए हमें इसके आस-पास के हालात पर गौर करना चाहिए। अपनी मृत्यु के लगभग छः महीने पहले, यीशु मंदिर के पुनःसमर्पण के वार्षिक उत्सव पर यरूशलेम में था। उसने कहा कि वह परमेश्‍वर की भेड़ों का चरवाहा है लेकिन यह स्पष्ट किया कि आम तौर पर यहूदी इन भेड़ों में नहीं थे क्योंकि उन्होंने सुनने से इनकार किया। जब उसने कहा कि वह और पिता “एक” हैं, तो यहूदियों ने उसे पत्थरवाह करने के लिए पत्थर उठा लिए। वह बचकर यरदन के पार, पेरिया को भागा।—यूहन्‍ना १०:१-४०.

वहाँ एक व्यक्‍ति ने पूछा: “हे प्रभु, क्या उद्धार पानेवाले थोड़े हैं?” (लूका १३:२३) उसके लिए यह सवाल पूछना उचित था, क्योंकि उस समय के यहूदी मानते थे कि केवल कुछ ही लोग उद्धार के योग्य साबित होंगे। उनका रवैया देखकर, यह जानना मुश्‍किल नहीं है कि उनकी नज़रों में वे थोड़े-से लोग कौन होंगे। वे कितने बड़े भ्रम में थे, जैसे बाद की घटनाएँ दिखातीं!

लगभग दो साल से, यीशु उनके बीच में था, उन्हें सिखा रहा था, चमत्कार कर रहा था और स्वर्गीय राज्य में उनके वारिस होने की संभावना पेश कर रहा था। इसका नतीजा? उनको और खासकर उनके अगुओं को इस बात का घमंड था कि वे इब्राहीम के वंशज थे और उन्हें परमेश्‍वर की व्यवस्था सौंपी गयी है। (मत्ती २३:२; यूहन्‍ना ८:३१-४४) लेकिन वे अच्छे चरवाहे की आवाज़ को पहचान नहीं रहे थे और न ही उसका जवाब दे रहे थे। उनके सामने मानो द्वार खुला था, और इसके पार जाने से उन्हें राज्य में सदस्य होने का एक बड़ा इनाम मिलता, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। तुलनात्मक रूप से बहुत ही कम, ज़्यादातर निचले वर्ग के लोगों ने यीशु के सत्य का संदेश सुना, उसे स्वीकार किया और यीशु के साथ लगे रहे।—लूका २२:२८-३०; यूहन्‍ना ७:४७-४९.

पिन्तेकुस्त सा.यु. ३३ के दिन, इस दूसरे वर्ग के लोग आत्मा से अभिषिक्‍त होने की स्थिति में थे। (प्रेरितों २:१-३८) वे अधर्म के काम करनेवालों में से नहीं थे जिनका ज़िक्र यीशु ने किया, जो पेश किए गए अवसर का फायदा न उठाने की वज़ह से रोते और दाँत पीसते।—लूका १३:२७, २८.

इस वज़ह से, पहली सदी में “बहुतेरे” आम तौर पर यहूदी थे और खासकर धार्मिक अगुए। उन्होंने कहा कि वे परमेश्‍वर का अनुग्रह चाहते हैं—लेकिन सिर्फ अपने स्तरों और तरीकों के अनुसार, परमेश्‍वर के नहीं। इसके विपरीत, इनकी तुलना में जिन “थोड़े” लोगों ने राज्य का भाग बनने में सच्ची दिलचस्पी दिखाकर प्रतिक्रिया दिखायी, वे मसीही कलीसिया के अभिषिक्‍त सदस्य बने।

अब हमारे समय में इसके ज़्यादा विस्तार से लागू होने पर ध्यान दीजिए। चर्च जानेवाले मसीहीजगत के अनगिनत लोगों को यह सिखाया गया है कि वे स्वर्ग जाएँगे। लेकिन, यह महत्त्वाकांक्षा शास्त्र की सही-सही शिक्षाओं पर आधारित नहीं है। जैसे पहले यहूदियों के साथ था, ये परमेश्‍वर से अनुग्रह केवल अपनी शर्तों पर चाहते हैं।

लेकिन, हमारे समय में तुलनात्मक रूप से थोड़े लोग हैं जिन्होंने राज्य संदेश की ओर नम्रता से प्रतिक्रिया दिखायी है, खुद को यहोवा को समर्पित किया है और उसका अनुग्रह पाने की स्थिति में आए हैं। इसकी वज़ह से वे “राज्य के सन्तान” बने हैं। (मत्ती १३:३८) ऐसी अभिषिक्‍त “संतान” को सा.यु. ३३ के पिन्तेकुस्त से न्यौता मिलना शुरू हुआ। यहोवा के साक्षी एक अरसे से मानते आए हैं कि अपने लोगों के साथ परमेश्‍वर के व्यवहार का सबूत यह संकेत देता है कि बुनियादी रूप से स्वर्गीय वर्ग के सदस्यों को बुलाया जा चुका है। इसलिए, हाल के सालों में बाइबल की सच्चाई सीखनेवालों ने समझ लिया है कि अब परादीस पृथ्वी पर अनंतकाल के जीवन की आशा पेश की जा रही है। इनकी गिनती अभिषिक्‍त मसीहियों के घट रहे शेषवर्ग से बहुत ज़्यादा है, जो वास्तव में स्वर्ग जाने की आशा रखता है। लूका १३:२४ मुख्यतया उन पर लागू नहीं होता जिनकी स्वर्ग जाने की आशा नहीं है, लेकिन हाँ इसमें उनके लिए बुद्धिमानी भरी सलाह दी गयी है।

हमसे यत्न करने का आग्रह करके, यीशु यह नहीं कह रहा था कि वह या उसका पिता हमें रोकने के लिए हमारे सामने बाधाएँ खड़ी करते हैं। लेकिन हम लूका १३:२४ से समझते हैं कि परमेश्‍वर की माँगें ऐसी हैं जो अयोग्य लोगों को अलग कर देती हैं। “यत्न करो” का तात्पर्य है संघर्ष करना, आगे बढ़ना। इसलिए हम खुद से पूछ सकते हैं, ‘क्या मैं आगे बढ़ रहा/ही हूँ?’ लूका १३:२४ को दूसरों शब्दों में यूँ कहा जा सकता है, ‘मुझे सकेत द्वार से प्रवेश करने का यत्न करना है, क्योंकि बहुतेरे प्रवेश करना चाहेंगे, और न कर सकेंगे। इसलिए क्या मैं सचमुच यत्न कर रहा/ही हूँ? क्या मैं प्राचीन स्टेडियम के ऐसे खिलाड़ी की तरह हूँ जो इनाम पाने के लिए अपना सबकुछ लगा देता है? ऐसा कोई भी खिलाड़ी बेमन से या आराम से काम नहीं करेगा। क्या मैं ऐसा करता/ती हूँ?’

यीशु के शब्द दिखाते हैं कि कुछ शायद अपनी सहूलियत के अनुसार, ऐसी आरामदायक गति से जो उनको अच्छी लगती है “द्वार से प्रवेश” करना चाहेंगे। ऐसे रवैए का असर कुछेक साक्षियों पर हो सकता है। कुछ शायद यह तर्क करें, ‘मैं ऐसे कई समर्पित मसीहियों को जानता हूँ जो सालों तक आगे बढ़ते रहे, उन्होंने कई बलिदान किए; फिर भी, जब उनकी मौत आयी तब इस दुष्ट व्यवस्था का अंत अभी आया नहीं था। सो शायद अच्छा होगा अगर मैं धीमा हो जाऊँ, ज़्यादा सामान्य जीवन जीऊँ।’

ऐसा सोचना आसान है, लेकिन क्या सचमुच बुद्धिमानी है? उदाहरण के लिए, क्या प्रेरितों ने ऐसा सोचा? निश्‍चय ही नहीं। उन्होंने सच्ची उपासना को अपना सर्वस्व सौंप दिया, और अपनी मृत्यु तक ऐसा ही किया। उदाहरण के लिए, पौलुस कह सकता था: “हम [मसीह] का प्रचार करते हैं, . . . इसी अभिप्राय से मैं उसकी उस शक्‍ति के अनुसार जो मुझ में सामर्थ्य के साथ कार्य करती है, कठोर परिश्रम करता हूं।” बाद में उसने लिखा: “हम परिश्रम और यत्न इसी लिये करते हैं, कि हमारी आशा उस जीवते परमेश्‍वर पर है; जो सब मनुष्यों का, और निज करके विश्‍वासियों का उद्धारकर्त्ता है।”—कुलुस्सियों १:२८, २९, NHT; १ तीमुथियुस ४:१०.

हम जानते हैं कि पौलुस ने यत्न या परिश्रम करके बिलकुल सही किया। पौलुस की तरह अगर हम सब यह कह सकें तो हमें कितना संतोष होगा: “मैं अच्छी कुश्‍ती लड़ चुका हूं मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्‍वास की रखवाली की है।” (२ तीमुथियुस ४:७) सो लूका १३:२४ में लिखे यीशु के शब्दों के अनुसार, हम में से हरेक व्यक्‍ति पूछ सकता है, ‘क्या मैं परिश्रम और मेहनत से आगे बढ़ रहा हूँ? जी हाँ, क्या मैं पर्याप्त और पक्का सबूत देता हूँ कि मैं यीशु की इस सलाह को मान रहा हूँ: “सकेत द्वार से प्रवेश करने का यत्न करो”?’

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