उन्होंने यहोवा की इच्छा पूरी की
यीशु ने बच्चों के साथ समय बिताया
यीशु की साढ़े तीन साल की सेवकाई अब खत्म हो रही थी। थोड़ी देर में वह यरूशलेम में प्रवेश करेगा और पीड़ादायक मौत मरेगा। आगे क्या होनेवाला था, वह यह भली-भाँति जानता था क्योंकि उसने अपने चेलों से कहा था: “मनुष्य का पुत्र मनुष्यों के हाथ में पकड़वाया जाएगा, और वे उसे मार डालेंगे।”—मरकुस ९:३१.
यकीनन, यीशु बचे हुए हर दिन, हर घंटे, हर घड़ी को बिलकुल भी गँवाना नहीं चाहता था। उसके शिष्यों को अब भी देखरेख की ज़रूरत थी। यीशु ने देखा कि उन्हें नम्रता की कमी और ठोकर खा जाने के सदा-मौजूद खतरे के बारे में अब भी कड़ी सलाह दिए जाने की ज़रूरत थी। (मरकुस ९:३५-३७, ४२-४८) उन्हें विवाह, तलाक और अविवाहित अवस्था पर भी उपदेश की ज़रूरत थी। (मत्ती १९:३-१२) यह जानते हुए कि वह जल्द ही मरनेवाला था, यीशु ने बेशक अपने शिष्यों से संक्षिप्त में और अत्यावश्यकता की भावना से बात की। समय बहुत कीमती था—ऐसी सच्चाई जिससे यीशु ने इसके बाद जो किया वह और भी ज़्यादा उल्लेखनीय हो गया।
यीशु बच्चों को पसंद करता है
बाइबल का वृत्तांत कहता है: “लोग बालकों को उसके पास लाने लगे, कि वह उन पर हाथ रखे।” जब शिष्यों ने यह देखा, तो उन्होंने तुरंत अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की। उन्होंने शायद तर्क किया हो कि यीशु बहुत ही महान हस्ती है या इतना व्यस्त है कि उसके पास बच्चों से मिलने की फुरसत नहीं। ज़रा सोचिए शिष्यों को कितना ताज्जुब होता है जब यीशु उलटा उनसे नाराज़ हो जाता है! यीशु ने उनसे कहा, “बालकों को मेरे पास आने दो और उन्हें मना न करो, क्योंकि परमेश्वर का राज्य ऐसों ही का है।” आगे यीशु ने कहा, “मैं तुम से सच कहता हूं, कि जो कोई परमेश्वर के राज्य को बालक की नाईं ग्रहण न करे, वह उस में कभी प्रवेश करने न पाएगा।”—मरकुस १०:१३-१५.
यीशु को बच्चों में सराहनीय गुण दिखे। वे प्रायः जिज्ञासु और भरोसा करनेवाले होते हैं। वे अपने माँ-बाप की बातों को मान लेते हैं, यहाँ तक कि दूसरे बच्चों के सामने अपने माँ-बाप के पक्ष में बात भी करते हैं। परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने की इच्छा रखनेवाले सभी लोगों को बच्चों के स्वीकार करनेवाले, सीखने के लिए तैयार रहनेवाले स्वभाव की नकल करनी चाहिए। जैसा यीशु ने कहा, “परमेश्वर का राज्य ऐसों ही का है।”—मत्ती १८:१-५ से तुलना कीजिए।
लेकिन यीशु महज़ दृष्टांत की खातिर इन बच्चों का इस्तेमाल नहीं कर रहा था। वृत्तांत साफ ज़ाहिर करता है कि जब यीशु बच्चों के आस-पास होता था, तब उसे सचमुच बहुत अच्छा लगता था। मरकुस रिपोर्ट देता है कि यीशु “ने उन्हें [बच्चों को] गोद में लिया, और उन पर हाथ रखकर उन्हें आशीष दी।” (मरकुस १०:१६) केवल मरकुस के वृत्तांत में ही यह स्नेह-भरा विवरण शामिल है कि यीशु ने ‘बच्चों को गोद में लिया।’a माता-पिता इन बच्चों को इस उम्मीद से यीशु के पास लाए थे कि वह बस “उन पर हाथ रखे।” लेकिन यीशु ने उनकी इस उम्मीद से भी बढ़कर काम किया।
यीशु का बच्चों पर ‘हाथ रखने’ का मतलब क्या था? यहाँ बपतिस्मा जैसे कोई भी धार्मिक रिवाज़ की बात नहीं सुझायी गयी है। जबकि कुछ अवसरों में, किसी पर हाथ रखने का मतलब होता किसी पद पर नियुक्त करना, जबकि दूसरे अवसरों में इसका मतलब केवल आशीष देना है। (उत्पत्ति ४८:१४; प्रेरितों ६:६) सो शायद यीशु बच्चों को बस आशीष दे रहा हो।
चाहे कुछ भी रहा हो, मरकुस “आशीष” (काट्यूलोजिओ) के लिए यहाँ एक ज़बरदस्त शब्द इस्तेमाल करता है जो ज़ोरदार तरीके को सूचित करता है। इससे यह समझ में आता है कि यीशु ने बच्चों को बार-बार, कोमलता से और स्नेहिल रूप से आशीष दी। ज़ाहिर है कि वह बच्चों को वक्त बरबाद करनेवाला बोझ नहीं समझता था।
हमारे लिए सबक
यीशु ने जिस प्रकार बच्चों और बड़ों से व्यवहार किया, वह न तो धौंस जमानेवाला ना ही तुच्छ दिखानेवाला व्यवहार था। एक पुस्तक कहती है, “वह बड़ी आसानी से मुसकुराया होगा और ठहाका मारकर हँसा होगा।” कोई ताज्जुब नहीं कि हर उम्र के लोग उसके सामने सहज महसूस करते थे। यीशु के उदाहरण पर विचार करते हुए हम अपने आप से पूछ सकते हैं, ‘क्या मैं मिलनसार हूँ?’ ‘क्या मैं इतना व्यस्त दिखता हूँ कि दूसरों को लगे कि मेरे पास उनके कामों और उनकी चिंताओं के लिए समय ही नहीं है?’ लोगों में दिल से दिलचस्पी लेने की भावना विकसित करना हमें प्रेरित करेगा कि हम यीशु की तरह लोगों को अपना समय दें। दूसरे लोग उनके प्रति हमारी सच्ची दिलचस्पी को ताड़ जाएँगे और हमारी ओर खिंचे चले आएँगे।—नीतिवचन ११:२५.
जैसा मरकुस का वृत्तांत दिखाता है, यीशु को बच्चों के साथ समय बिताने में बहुत आनंद मिलता था। मुमकिन है कि वह समय निकालकर बच्चों को खेलते हुए देखता हो क्योंकि उसने अपने एक दृष्टांत में उनके खेलों का ज़िक्र किया था। (मत्ती ११:१६-१९) शायद जिन बच्चों को यीशु ने आशीष दी उनमें से कुछ बच्चे इतने छोटे थे कि वे समझ नहीं पाए हों कि यीशु कौन था और वह क्या सिखाता था। लेकिन इससे यीशु को यह महसूस नहीं हुआ कि वह अपना समय बर्बाद कर रहा था। उसने बच्चों के साथ समय बिताया क्योंकि उसे बच्चों से प्यार था। यीशु अपनी सेवकाई के दौरान कई बच्चों से मिला था। संभव है कि इनमें से कई बच्चे बाद में यीशु के प्रेम को देखकर उसके शिष्य बनने के लिए प्रेरित हुए हों।
अगर यीशु ने अपनी ज़िंदगी के कठिन आखरी हफ्तों के दौरान बच्चों के साथ समय बिताया, तो यकीनन हम भी अपनी व्यस्त रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उनके लिए समय निकाल सकते हैं। हमें खासकर ऐसे बच्चों को ध्यान देना होगा जिन्हें खास ज़रूरत है, जैसे कि अनाथ बच्चे। सचमुच, सभी बच्चे अच्छी तरह उन्नति करते हैं जब उन्हें काफी ध्यान दिया जाता है, और यह यहोवा की इच्छा है कि हम उनको जितना हो सके उतना प्यार व मदद दें।—भजन १०:१४.
[फुटनोट]
a एक अनुवाद कहता है कि यीशु ने “उन्हें गले लगाया।”