चुनाव करने के हक का समर्थन
इस विश्व का मालिक और महाराजा खुद हमें इस बात का हक देता है कि किसी मामले पर चुनाव करने से पहले हम उसे अच्छी तरह जान लें। वही हमारा सृजनहार भी है। इंसान की ज़रूरतों को जितना वो समझता है कोई और नहीं समझ सकता। इसलिए, किस राह पर चलने में अक्लमंदी है यह समझाने के लिए उसने बहुत सी हिदायतें, चेतावनियाँ और सलाहें दी हैं। साथ ही, उसने अपनी बुद्धिमान सृष्टि को खुद चुनाव करने का भी हक दिया है कि वे उसकी राह पर चलना चाहते हैं या नहीं। इस तरह वह उनके चुनाव करने के हक का लिहाज़ करता है। परमेश्वर के नज़रिए के बारे में उसके भविष्यवक्ता मूसा ने बताया: “मैंने तुम्हारे सामने जीवन तथा मृत्यु, और आशिष तथा शाप रखा है, अतः जीवन को चुन ले कि तू अपनी सन्तान सहित जीवित रहे।”—व्यवस्थाविवरण ३०:१९, NHT.
यही बात इलाज के मामले में भी लागू होती है। सबकुछ जान-समझकर खुद चुनाव या फैसला करने के हक के इस विचार को धीरे-धीरे जापान और कई और देशों में मान्यता मिल रही है जबकि पहले ऐसा नहीं था। जान-समझकर चुनाव करने के हक के बारे में समझाते हुए डॉ. मीचीतारो नाकामुरे ने कहा: “यह एक ऐसा विचार है कि डॉक्टर मरीज़ को सरल भाषा में समझाता है कि उसे क्या बीमारी है, वह बीमारी कब तक ठीक हो सकती है, इलाज किस तरह किया जाएगा और उस इलाज से क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं। इस तरह डॉक्टर, मरीज़ के इस हक का लिहाज़ करता है कि अपनी मरज़ी के मुताबिक उसका इलाज किया जाए।”—जापान मॆडिकल जर्नल।
सालों से, जापान के डॉक्टर मरीज़ का इलाज इस तरीके से करने के खिलाफ आवाज़ उठाते आए हैं और उन्होंने इसकी वज़ह भी बतायी है। वहाँ की अदालतों ने हमेशा डॉक्टरों का ही पक्ष लिया है। इसलिए फरवरी ९, १९९८ के दिन टोक्यो हाई कोर्ट के चीफ जज ताकियो ईनाबा के फैसले ने इतिहास बदलकर रख दिया जब उसने जान-समझकर चुनाव करने के हक का समर्थन किया। वह फैसला क्या था और किस मामले की वज़ह से यह मुकद्दमा अदालतों में लाया गया?
जुलाई १९९२ में ६३ साल की मीसाइ ताकेडा, यूनिवर्सिटी ऑफ टोक्यो के इन्सटिट्यूट ऑफ मॆडिकल साइंस अस्पताल में गई। वह यहोवा की एक साक्षी थी। उसको कलेजे का कैंसर था इसलिए उसे ऑपरेशन की ज़रूरत पड़ी। खून का गलत प्रयोग न करने की बाइबल की सलाह को वह पूरे दिल से मानना चाहती थी इसलिए उसने डॉक्टरों को साफ-साफ बताया कि वह सिर्फ ऐसा इलाज करवाएगी जिसमें खून का बिल्कुल भी इस्तेमाल न किया जाए। (उत्पत्ति ९:३, ४; प्रेरितों १५:२९) डॉक्टरों ने एक ऐसा फॉर्म (release from liability form) स्वीकार किया जिसमें इस बहन के चुनाव का जो भी नतीजा होता उसके लिए न तो डॉक्टर और न ही अस्पताल कसूरवार ठहरता। डॉक्टरों ने उसे यकीन दिलाया कि वे बिल्कुल वैसा ही करेंगे जैसा उसने कहा था।
लेकिन ऑपरेशन के बाद, जब मीसाइ बेहोश ही थी तब उसे खून चढ़ा दिया गया—जो उसकी साफ-साफ ज़ाहिर की गई ख्वाहिश के बिल्कुल खिलाफ था। इस बात को छिपाने की कोशिशों पर से परदा उठ गया जब उसी अस्पताल में काम करनेवाले एक आदमी ने यह बात एक न्यूज़ रिपोर्टर को बता दी। आप समझ सकते हैं कि जब इस वफादार मसीही स्त्री को पता चला कि उसकी मरज़ी के खिलाफ उसके शरीर में खून चढ़ा दिया गया है तो उस पर क्या गुज़री होगी। उसने डॉक्टरों पर भरोसा किया था और यकीन किया था कि वे उसके धार्मिक विश्वासों का लिहाज़ करने का अपना वादा निभाएँगे। लेकिन जब डॉक्टर पर मरीज़ के ऐसे विश्वास का विश्वासघात हुआ तो उसके दिल को बहुत भारी सदमा पहुँचा। वह चाहती थी कि उसके साथ जो बदसलूकी हुई वह किसी दूसरे के साथ न हो, इसलिए वह यह मामला अदालत के सामने ले गई।
समाज के दस्तूर और परमेश्वर के स्तर
टोक्यो डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के तीन जजों के सामने इस मुकद्दमे की सुनवाई हुई और उन्होंने डॉक्टरों के पक्ष में फैसला सुनाया और जान-समझकर चुनाव करने के हक का समर्थन नहीं किया। मार्च १२, १९९७ को अदालत के फैसले में उन्होंने कहा कि ऐसा समझौता-पत्र कोई मायने नहीं रखता जिसमें खून का इस्तेमाल किए बिना इलाज करने के लिए कहा जाए। उन्होंने यह दलील दी कि अगर डॉक्टर मरीज़ के साथ खास समझौता कर लेता है कि वह उसे नाज़ुक हालत में भी खून न चढ़ाएगा तो यह कोजोर्योज़ोकुa या समाज के दस्तूरों के खिलाफ होगा। उनका मानना था कि डॉक्टर का पहला फर्ज़ है मरीज़ की जान बचाने की पूरी-पूरी कोशिश करना इसलिए ऐसा समझौता करना ही बेमाने है चाहे फिर मरीज़ के धार्मिक विश्वास जो भी हों। उन्होंने यह फैसला सुनाया कि मरीज़ ने इलाज से पहले चाहे कोई भी अनुरोध क्यों न किया हो पर इलाज करते वक्त सिर्फ डॉक्टर की मरज़ी ही चलेगी।
जजों ने आगे कहा कि इन्हीं वज़हों से मरीज़ को ऑपरेशन के तरीके, उसके नतीजे और उससे होनेवाले खतरों के बारे में बताते वक्त डॉक्टर के लिए “यह बताना ज़रूरी नहीं है कि वह खून चढ़ाएगा या नहीं।” उनका फैसला यह था: “जब डॉक्टरों ने मरीज़ को यकीन दिलाया कि वे उसकी बात समझ गए हैं और उसे किसी भी हालत में खून नहीं चढ़ाएँगे और इस तरह उसे इलाज के लिए राज़ी कर लिया तो यह साबित नहीं किया जा सकता कि उनका यह काम गैर-कानूनी या अनुचित था।” उनका यह मानना था कि अगर डॉक्टर मरीज़ को सच बता देते तो शायद मरीज़ ऑपरेशन करवाने से इंकार कर देती और अस्पताल छोड़कर चली जाती।
अदालत के इस फैसले से जान-समझकर चुनाव करने के हक का समर्थन करनेवालों को बहुत बड़ा धक्का लगा। प्रोफेसर ताकाओ यामाडा सिविल लॉ के एक बड़े विद्वान हैं। उन्होंने जापान में चुनाव करने के हक पर ताकेडा फैसले का क्या असर हो सकता है इसके बारे में बात करते हुए लिखा: “अगर इस फैसले की विचारधारा कायम रही तो फिर खून लेने से इंकार करने और जान-समझकर चुनाव करने के हक के लिए यह एक बहुत बड़ा खतरा साबित होगी।” (कानूनी अखबार होगाकु क्योशित्सू) प्रोफेसर यामाडा ने खून चढ़ाने में की गई ज़बरदस्ती की कड़े शब्दों में आलोचना करते हुए कहा कि यह “बहुत बड़ा विश्वासघात है वैसे ही जैसे किसी की पीठ में छुरा घोंपना।” प्रोफेसर यामाडा ने यह भी कहा कि भरोसा तोड़ देनेवाले ऐसे काम की “कभी भी इज़ाज़त नहीं दी जानी चाहिए।”
मीसाइ संकोची स्वभाव की थी इसलिए उसे लोगों के सामने आकर बात करने की हिम्मत नहीं होती थी। लेकिन जब उसे यह एहसास हुआ कि उसके सामने यहोवा के नाम को पवित्र करने में और खून की पवित्रता के बारे में उसके धर्मी स्तरों के लिए लड़ने का मौका है तो उसने हिम्मत जुटाई। उसने मन में ठान लिया कि वो अपना फर्ज़ पूरा करेगी। उसने अपने वकील को लिखा: “मैं तो धूल के समान हूँ, सच कहूँ तो उससे भी कम। मुझे यह सोचकर हैरानी होती है कि क्यों यहोवा मेरे जैसे कमज़ोर लोगों का इस्तेमाल करता है। वह चाहे तो पत्थरों से भी बात करवा सकता है। इसलिए जब मैं यहोवा के कहे अनुसार काम करूँगी तो वह ज़रूर मुझे शक्ति देगा।” (मत्ती १०:१८; लूका १९:४०) मुकद्दमे के दौरान गवाही देते वक्त उसने काँपती हुई आवाज़ में बताया कि इस धोखे की वज़ह से उसे कितना बड़ा सदमा पहुँचा और उसे कितना दर्द महसूस हुआ। “मैंने अपने आपको इतना गंदा महसूस किया मानो मेरा बलात्कार हुआ हो।” उसकी बात सुनकर अदालत में बैठे कई लोगों की आँखों में आँसू भर आये।
ऐसी अच्छी बात सुनना जिसकी उम्मीद नहीं थी
डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के इस फैसले की अपील तुरंत हाई कोर्ट में की गई। जुलाई १९९७ में अपील कोर्ट में बहस शुरू हुई और वहाँ मीसाइ भी मौज़ूद थी। उसका चेहरा बीमारी से पीला पड़ चुका था और वो व्हीलचेयर पर बैठी हुई थी मगर उसके इरादे अब भी मज़बूत थे। उसे फिर से कैंसर हो गया था इसलिए वह दिन-ब-दिन कमज़ोर होती जा रही थी। जब चीफ जज ने एक कार्यवाही की शुरूआत में यह ज़ाहिर किया कि कोर्ट किस तरह का फैसला लेने जा रहा है तो मीसाइ के दिल को बड़ी तसल्ली हुई। जज ने यह साफ-साफ बताया कि अपील कोर्ट, निचली अदालत के इस नतीजे से राज़ी नहीं है कि एक डॉक्टर मरीज़ की मरज़ी के खिलाफ जा सकता है और मन में कुछ और ठानकर बाहर से मरीज़ की मरज़ी पर चलने का ढोंग कर सकता है। चीफ जज ने कहा कि अदालत शीराशीमु बेकाराज़ु योराशीमु बशीb जैसे पीढ़ियों से चले आ रहे रिवाज़ को नहीं मानेगी, जिसका मतलब है, “लोगों को अनजान रखो और इस तरह [डॉक्टरों का] गुलाम बनाकर रखो।” मीसाइ ने बाद में कहा: “मैं जज की ईमानदारी से कही गई बात से बहुत खुश हूँ जो डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के फैसले से बिल्कुल अलग है।” उसने यह भी कहा: “मैं यहोवा से दुआ करती रही हूँ कि ऐसा ही हो।”
इसके अगले महीने मीसाइ चल बसी। उसकी मौत के वक्त उसके पास उसका परिवार था जो उसे बहुत प्यार करता था, साथ ही एक और अस्पताल का स्टाफ भी मौजूद था जहाँ उसके विश्वास को समझा गया और उसका लिहाज़ किया गया। उसके बेटे, मासामी और परिवार के बाकी सदस्यों को उसकी मौत से बहुत दुख हुआ मगर मीसाइ की ख्वाहिश के मुताबिक आखिर तक मुकद्दमा लड़ने का उनका इरादा अटल था।
फैसला
आखिरकार, फरवरी ९, १९९८ को हाई कोर्ट के तीन जजों ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए अपना फैसला सुनाया। वह छोटा सा कोर्टरूम उन पत्रकारों, विद्वानों और दूसरे लोगों से भरा हुआ था जिन्होंने शुरू से इस मुकद्दमे को सुना था। बड़े-बड़े अखबारों और टीवी केन्द्रों ने इस फैसले की रिपोर्ट दी। समाचारों के हैडलाइन में कहा गया: “अदालत का कहना है: मरीज़ इलाज से इंकार कर सकता है”; “हाई कोर्ट ने कहा: खून चढ़ाना अधिकारों का उल्लंघन है”; “ज़बरदस्ती खून चढ़ानेवाला डॉक्टर अदालत में हार गया” और “यहोवा की एक साक्षी को ज़बरदस्ती खून चढ़ाये जाने पर मुआवज़ा।”
इस फैसले के बारे में दी गई खबरें बिल्कुल सही और साक्षियों के पक्ष में थीं। द डेली योमीउरी ने यह रिपोर्ट दी: “जज ताकियो ईनाबा ने कहा कि मरीज़ इलाज के जिस तरीके से इंकार कर चुका है उसी तरीके से उसका इलाज करना बिल्कुल गलत है।” अखबार ने यह भी साफ-साफ बताया: “जिन डॉक्टरों ने [मीसाइ को खून चढ़ाया] उन्होंने, अपना इलाज खुद चुनने का मौका उससे छीन लिया।”
आसाही शीम्बुन ने बताया कि जहाँ तक इस मामले की बात है तो अदालत का यह मानना है कि इस बात के सबूत बहुत कम हैं कि डॉक्टर और मरीज़ के बीच एक ऐसा समझौता हुआ था जिसमें उन दोनों ने यह माना कि चाहे मरीज़ की जान खतरे में ही क्यों न हो उसे हरगिज़ खून नहीं चढ़ाया जाएगा। मगर जज, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट की इस बात से सहमत नहीं थे कि कानून की नज़र में ऐसे समझौते की कोई मान्यता नहीं होती: “अगर दोनों पक्ष सोच-समझकर समझौता करते हैं कि किसी भी हालत में खून नहीं चढ़ाया जाना चाहिए तो यह अदालत उसे समाज के दस्तूरों के खिलाफ नहीं मानती और इसलिए बेमाने नहीं समझती।” इस अखबार ने जजों का यह नज़रिया भी बताया कि “हर इंसान को किसी-न-किसी दिन मरना है और इसलिए उसके पास यह चुनाव करने का हक है कि उसकी मौत से पहले उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा।”
असल में यहोवा के साक्षियों ने खून के इस्तेमाल के बारे में काफी जाँच-पड़ताल की है और उन्हें पूरा यकीन है कि उन्होंने सबसे बेहतरीन जीने का तरीका चुना है। इसलिए वे खून के इस्तेमाल से और उससे होनेवाले खतरों से दूर रहते हैं। इसके बजाय वे ऐसा इलाज करवाते हैं जिसमें खून का इस्तेमाल नहीं होता। इस तरह के इलाज कई देशों में बड़े पैमाने पर किए जा रहे हैं और ये परमेश्वर के कानून के मुताबिक भी हैं। (प्रेरितों २१:२५) जापान के संवैधानिक कानून सिखानेवाले जाने-माने प्रोफेसर ने कहा: “दरअसल [खून चढ़ाये जाने] से इंकार करने का मतलब यह चुनाव करना नहीं है कि ‘कैसे मरना है’ पर इसका मतलब है कि कैसे जीना है।”
हाई कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है उससे डॉक्टरों को सावधान हो जाना चाहिए कि इलाज करने के मामले में उन्हें इतनी ज़्यादा आज़ादी नहीं है जितनी कुछ लोग सोचते हैं। और इस फैसले की वज़ह से बहुत से अस्पतालों को डाक्टरों के सही रवैये के बारे में उसूल बनाने चाहिए। अदालत के इस फैसले को एक तरफ सबने मान लिया है और इससे उन मरीज़ों का हौसला बढ़ा है जिनको अपने इलाज का चुनाव खुद करने का हक नहीं दिया जाता था। दूसरी तरफ कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इस फैसले से पूरी तरह राज़ी नहीं हैं। उस सरकारी अस्पताल ने और उन तीन डॉक्टरों ने इस फैसले की सुप्रीम कोर्ट से अपील की है। तो अब यह देखना बाकी है कि क्या जापान की सबसे बड़ी अदालत भी मरीज़ों के हक की हिफाज़त करती है या नहीं, वैसे ही जैसे इस विश्व का मालिक और महाराजा करता है।
[फुटनोट]
a यह एक ऐसा विचार है जिसकी कानून में कोई परिभाषा नहीं है पर इसे समझने और अमल करने का ज़िम्मा मजिस्ट्रेट पर छोड़ा जाता है।
b इसी सिद्धांत पर चलकर तोकुगावा काल के जागीरदार लोगों पर राज करते थे।