ज़िंदगी के हर दायरे में परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगिए
“यह परमेश्वर सदा सर्वदा हमारा परमेश्वर है, वह मृत्यु तक हमारी अगुवाई करेगा।”—भज. 48:14.
1, 2. हमें अपनी बुद्धि के बजाय यहोवा के मार्गदर्शन पर क्यों भरोसा करना चाहिए, और इस सिलसिले में कौन-से अहम सवाल खड़े होते हैं?
हम बड़ी आसानी से निरर्थक या नुकसानदेह बातों को अनमोल समझने की भूल कर सकते हैं। (नीति. 12:11, NHT) वह कैसे? जब हम कोई ऐसा काम करना चाहते हैं, जो मसीहियों के लिए सही नहीं है, तो हमारा मन किसी तरह हमें यह काम करने के लिए समझा-बुझा लेता है। (यिर्म. 17:5, 9) इसलिए भजनहार ने यहोवा से यह प्रार्थना करके बुद्धिमानी का काम किया: “अपने प्रकाश और अपनी सच्चाई को भेज; वे मेरी अगुवाई करें।” (भज. 43:3) भजनहार ने यहोवा पर भरोसा किया, ना कि अपनी बुद्धि पर, जो सीमित थी। और उसका ऐसा करना सही भी था, क्योंकि यहोवा ही सबसे बढ़िया मार्गदर्शक है। भजनहार की तरह, हमें भी यहोवा से मार्गदर्शन माँगना चाहिए।
2 लेकिन हमें यहोवा के मार्गदर्शन पर ही क्यों भरोसा करना चाहिए? हमें उसके मार्गदर्शन की कब ज़रूरत पड़ती है? आज यहोवा हमें कैसे मार्गदर्शन देता है और इससे फायदा पाने के लिए, हमें अपने अंदर कौन-से गुण पैदा करने की ज़रूरत है? इन अहम सवालों के जवाब इस लेख में दिए गए हैं।
यहोवा के मार्गदर्शन पर क्यों भरोसा करें?
3-5. यहोवा के मार्गदर्शन पर भरोसा करने की हमारे पास क्या वजहें हैं?
3 यहोवा स्वर्ग में रहनेवाला हमारा पिता है। (1 कुरि. 8:6) वह हममें से हरेक को अच्छी तरह जानता है और हमारा दिल भी पढ़ सकता है। (1 शमू. 16:7; नीति. 21:2) राजा दाऊद ने परमेश्वर से कहा: “तू मेरा उठना बैठना जानता है; और मेरे विचारों को दूर ही से समझ लेता है। हे यहोवा, मेरे मुंह में ऐसी कोई बात नहीं जिसे तू पूरी रीति से न जानता हो।” (भज. 139:2, 4) जब यहोवा हमें इतनी अच्छी तरह जानता है, तो क्या हमें इस बात पर शक करना चाहिए कि हमारे लिए सबसे बेहतर क्या है, यह सिर्फ उसे ही पता है? यहोवा के मार्गदर्शन पर भरोसा करने की एक और वजह यह है कि वही सबसे बुद्धिमान है। यह हम इसलिए कह सकते हैं, क्योंकि उससे कोई भी बात छिपी नहीं है और उसमें हर मामले की तह तक जाने की काबिलीयत है। यही नहीं, वह पहले से जान लेता है कि फलाँ काम का क्या अंजाम होगा। (यशा. 46:9-11; रोमि. 11:33) वह वाकई “अद्वैत बुद्धिमान परमेश्वर” है।—रोमि. 16:27.
4 इतना ही नहीं, यहोवा हमसे प्यार करता है और हमेशा वही चाहता है, जो हमारे लिए सबसे ज़्यादा फायदेमंद है। (यूह. 3:16; 1 यूह. 4:8) एक प्यार करनेवाला परमेश्वर होने के नाते, वह हमें दरियादिली दिखाता है। शिष्य याकूब ने लिखा: “हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान ऊपर ही से है, और ज्योतियों के पिता की ओर से मिलता है।” (याकू. 1:17) जो लोग परमेश्वर की दिखायी राह पर चलते हैं, उन्हें उसकी दरियादिली से बहुत फायदा होता है।
5 यहोवा के मार्गदर्शन पर भरोसा करने की आखिरी वजह यह है कि यहोवा सर्वशक्तिमान परमेश्वर है। इस बारे में भजनहार ने कहा: “जो परमप्रधान के छाए हुए स्थान में बैठा रहे, वह सर्वशक्तिमान की छाया में ठिकाना पाएगा। मैं यहोवा के विषय कहूंगा, कि वह मेरा शरणस्थान और गढ़ है; वह मेरा परमेश्वर है, मैं उस पर भरोसा रखूंगा।” (भज. 91:1, 2) जब हम यहोवा के मार्गदर्शन पर चलते हैं, तो हम उस परमेश्वर की शरण ले रहे होते हैं, जो हमारी हिफाज़त करने से कभी चूक नहीं सकता। यहाँ तक कि अगर हमें विरोध का भी सामना करना पड़े, तो यहोवा हमारी मदद ज़रूर करेगा। वह कभी हमारी उम्मीदों पर पानी नहीं फेरेगा। (भज. 71:4, 5. नीतिवचन 3:19-26 पढ़िए।) जी हाँ, यहोवा जानता है कि हमारी भलाई किस में है; वह हमेशा चाहता है कि हमारी भलाई हो; और उसमें हमारी भलाई करने की ताकत भी है। उसके मार्गदर्शन को ठुकराना कितनी बड़ी बेवकूफी होगी! मगर हमें उसके मार्गदर्शन की कब ज़रूरत पड़ती है?
हमें यहोवा के मार्गदर्शन की कब ज़रूरत पड़ती है?
6, 7. हमें यहोवा के मार्गदर्शन की कब ज़रूरत पड़ती है?
6 सच पूछिए तो हमें बचपन से लेकर बुढ़ापे तक, यानी उम्र-भर परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगते रहने की ज़रूरत है। भजनहार ने कहा: “यह परमेश्वर सदा सर्वदा हमारा परमेश्वर है, वह मृत्यु तक हमारी अगुवाई करेगा।” (भज. 48:14) भजनहार की तरह, बुद्धिमान मसीही भी परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगना कभी बंद नहीं करते।
7 लेकिन हमारी ज़िंदगी में कभी-कभी ऐसा वक्त आता है, जब हमें सबसे ज़्यादा मदद की ज़रूरत होती है। जैसे उस वक्त जब हम ज़ुल्म का सामना करने, किसी गंभीर बीमारी के शिकार होने या फिर नौकरी छूट जाने की वजह से भारी “संकट” में पड़ते हैं। (भज. 69:16, 17) इन हालात में अच्छा होगा अगर हम मदद के लिए यहोवा के पास जाएँ। ऐसा करते वक्त इस बात का यकीन रखने से हमें काफी दिलासा मिल सकता है कि वह हमें धीरज धरने की ताकत और सही फैसले करने में मदद देगा। (भजन 102:17 पढ़िए।) हमें दूसरे मौकों पर भी यहोवा की मदद की ज़रूरत पड़ती है। मिसाल के लिए, जब हम अपने पड़ोसियों को राज्य की खुशखबरी सुनाते हैं, तब उन्हें असरदार तरीके से गवाही देने के लिए हमें यहोवा के मार्गदर्शन की ज़रूरत है। इसके अलावा, मनोरंजन, पहनावा, बनाव-श्रृंगार, संगति, नौकरी-पेशा और शिक्षा जैसे मामलों में हम सही फैसले तभी ले पाएँगे, जब हम यहोवा के निर्देशनों को मानेंगे। वाकई, ज़िंदगी का ऐसा कोई दायरा नहीं जिसमें हमें यहोवा के मार्गदर्शन की ज़रूरत न हो।
परमेश्वर से मार्गदर्शन न माँगने के खतरे
8. हव्वा ने मना किया हुआ फल खाकर क्या ज़ाहिर किया?
8 लेकिन यहोवा के मार्गदर्शन पर चलने के लिए ज़रूरी है कि हममें इसकी इच्छा हो। क्योंकि यहोवा किसी के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं करता। जिस पहले इंसान ने यहोवा की दिखायी राह पर चलने से इनकार किया, वह थी हव्वा। उसकी मिसाल दिखाती है कि यहोवा की हिदायतें न मानने का क्या ही बुरा अंजाम होता है! इसके अलावा, गौर कीजिए कि हव्वा ने अपने फैसले से क्या ज़ाहिर किया। उसने मना किया हुआ फल खाकर दिखाया कि वह “भले बुरे का ज्ञान पाकर परमेश्वर के तुल्य” होना चाहती थी। (उत्प. 3:5) यहोवा के निर्देशनों को मानने के बजाय, उसने भले-बुरे के बारे में खुद फैसला किया। ऐसा करके उसने यहोवा के अधिकार को हथियाने की कोशिश की। इस तरह, उसने यहोवा की हुकूमत को ठुकरा दिया। वह अपनी मरज़ी के मुताबिक जीना चाहती थी। उसकी तरह उसके पति, आदम ने भी यहोवा के खिलाफ बगावत की।—रोमि. 5:12.
9. अगर हम यहोवा के मार्गदर्शन पर नहीं चलते तो हम क्या दिखाते हैं, और यह सबसे बड़ी मूर्खता का काम क्यों है?
9 उसी तरह, अगर हम यहोवा के मार्गदर्शन पर नहीं चलते, तो हम भी उसकी हुकूमत को ठुकराते हैं। उदाहरण के लिए, ज़रा एक ऐसे शख्स के बारे में सोचिए, जिसने अश्लील तसवीरें देखने की आदत बना ली है। अगर वह एक मसीही कलीसिया के साथ संगति करता है, तो लाज़िमी है कि वह यहोवा का यह निर्देशन जानता है कि अश्लील तसवीरें देखना तो दूर, इस तरह की अशुद्ध बातों की चर्चा तक नहीं की जानी चाहिए। (इफि. 5:3) यह जानने के बाद भी अगर वह यहोवा के इस निर्देशन को नहीं मानता, तो वह यहोवा की हुकूमत और उसके मुखियापन को ठुकराता है। (1 कुरि. 11:3) इससे बड़ी मूर्खता का काम और क्या हो सकता है! क्योंकि जैसे यिर्मयाह ने कहा था: “मनुष्य चलता तो है, परन्तु उसके डग उसके अधीन नहीं हैं।”—यिर्म. 10:23.
10. हमें अपनी आज़ाद मरज़ी का ज़िम्मेदाराना तरीके से क्यों इस्तेमाल करना चाहिए?
10 कुछ लोग शायद यिर्मयाह की बात पर यह सवाल उठाएँ: जब खुद यहोवा ने हमें आज़ाद मरज़ी दी है, तो हम इसका चाहे जैसे भी इस्तेमाल करें, इसमें भला उसे क्या एतराज़ होगा? यह सच है कि उसने हमें आज़ाद मरज़ी तोहफे में दी है, मगर याद रखिए इसके साथ-साथ हम पर एक ज़िम्मेदारी भी आती है। वह यह कि हम जो कहते और करते हैं, उसके लिए हम परमेश्वर को जवाबदेह हैं। (रोमि. 14:10) यीशु ने कहा: “जो मन में भरा है, वही मुंह पर आता है।” उसने यह भी कहा: “कुचिन्ता, हत्या, परस्त्रीगमन, व्यभिचार, चोरी, झूठी गवाही और निन्दा मन ही से निकलती हैं।” (मत्ती 12:34; 15:19) जी हाँ, हमारी बातें और काम ज़ाहिर करते हैं कि हमारे दिल में क्या है। वे दिखाते हैं कि हम अंदर से कैसे इंसान हैं। यही वजह है कि क्यों एक बुद्धिमान मसीही ज़िंदगी के हर दायरे में यहोवा से मार्गदर्शन माँगता है। और जब वह ऐसा करता है, तो यहोवा उसे ‘सीधे मनवाला’ समझता है और उसका ‘भला करता’ है।—भज. 125:4.
11. इस्राएलियों की कहानी से हम क्या सीखते हैं?
11 अब ज़रा इस्राएलियों के इतिहास पर एक नज़र डालिए। जब-जब उन्होंने यहोवा की आज्ञाओं को मानते हुए सही फैसले किए, तब-तब यहोवा ने उनकी हिफाज़त की। (यहो. 24:15, 21, 31) मगर अकसर उन्होंने अपनी आज़ाद मरज़ी का गलत इस्तेमाल किया। यिर्मयाह के दिनों में यहोवा ने उनके बारे में कहा: “उन्हों ने मेरी न सुनी और न मेरी बातों पर कान लगाया; वे अपनी ही युक्तियों और अपने बुरे मन के हठ पर चलते रहे और पीछे हट गए पर आगे न बढ़े।” (यिर्म. 7:24-26) कितने अफसोस की बात है! ऐसा हो कि हम कभी अपनी ज़िद या इच्छाओं को पूरा करने में इस कदर डूब न जाएँ कि यहोवा के मार्गदर्शन को ठुकराकर हम अपनी ही मरज़ी के मुताबिक चलने लगें। वरना इसका नतीजा यह होगा कि हम ‘पीछे हट जाएँगे पर आगे न बढ़ेंगे।’
परमेश्वर की सलाह मानने के लिए किन गुणों की ज़रूरत है?
12, 13. (क) यहोवा के मार्गदर्शन पर चलने के लिए, प्यार के अलावा हमें और कौन-से गुण की ज़रूरत है? (ख) विश्वास क्यों ज़रूरी है?
12 यहोवा के लिए हमारा प्यार हमें उकसाता है कि हम उसके मार्गदर्शन पर चलें। (1 यूह. 5:3) इसके अलावा, हमें एक और गुण की ज़रूरत है। इस गुण के बारे में पौलुस ने कहा: “हम रूप को देखकर नहीं, पर विश्वास से चलते हैं।” (2 कुरि. 5:6, 7) विश्वास क्यों इतना ज़रूरी है? क्योंकि यहोवा हमें “धार्मिकता के [जिन] मार्गों” पर ले चलता है, उन पर चलने से हमें न तो धन-दौलत मिलती है और ना ही नामो-शोहरत। (भज. 23:3, NHT) इसलिए हमें अपने विश्वास की आँखों को उन अनोखी आध्यात्मिक आशीषों पर लगाना चाहिए, जो यहोवा की सेवा करने से मिलती हैं। (2 कुरिन्थियों 4:17, 18 पढ़िए।) विश्वास हमें अपनी बुनियादी चीज़ों में संतुष्ट रहने में भी मदद देता है।—1 तीमु. 6:8.
13 यीशु ने बताया था कि सच्ची उपासना के लिए हममें त्याग की भावना होनी चाहिए। (लूका 9:23, 24) और इसके लिए विश्वास का होना निहायत ज़रूरी है। कुछ वफादार उपासकों ने सच्ची उपासना की खातिर बड़े-बड़े त्याग किए। जैसे, उन्होंने गरीबी, ज़ुल्म और भेदभाव का सामना किया, यहाँ तक कि दुश्मनों के हाथों अत्याचार भी सहा। (2 कुरि. 11:23-27; प्रका. 3:8-10) यह सब उन्होंने खुशी-खुशी झेला और इसकी वजह थी, उनका मज़बूत विश्वास। (याकू. 1:2, 3) मज़बूत विश्वास की वजह से ही हमें इस बात का पक्का यकीन होता कि यहोवा का मार्गदर्शन हमेशा सबसे बढ़िया होता है। इस पर चलने से हमारी हमेशा भलाई होती है। हमें पूरा विश्वास है कि वफादारी के साथ धीरज धरनेवालों के आगे जो इनाम धरा है, उसके मुकाबले आज की पल-भर की दुःख-तकलीफें कुछ भी नहीं।—इब्रा. 11:6.
14. हाजिरा को नम्रता क्यों दिखानी पड़ी?
14 परमेश्वर के मार्गदर्शन पर चलने के लिए हमें नम्रता के गुण की भी ज़रूरत है। यह हमें सारा की दासी हाजिरा की मिसाल से देखने को मिलता है। जब सारा को एहसास हुआ कि उसे कोई बच्चा नहीं हो सकता, तो उसने हाजिरा को इब्राहीम के पास भेजा और हाजिरा गर्भवती हुई। इसके बाद हाजिरा घमंड से फूल उठी और अपनी बेऔलाद मालकिन को तुच्छ समझने लगी। नतीजा, सारा “उसको दुःख देने लगी” और हाजिरा वहाँ से भाग गयी। तब यहोवा का एक स्वर्गदूत हाजिरा से मिला और उसने उससे कहा: “अपनी स्वामिनी के पास लौट जा और उसके वश में रह।” (उत्प. 16:2, 6, 8, 9) हाजिरा को अगर स्वर्गदूत ने कोई और हिदायत दी होती, तो वह शायद उसे खुशी-खुशी कबूल कर लेती। मगर अपनी मालकिन के पास लौट जाने की हिदायत मानना उसके लिए मुश्किल था, क्योंकि इसके लिए उसे अपना घमंडी रवैया छोड़ना पड़ता। इसके बावजूद, उसने नम्रता दिखायी और स्वर्गदूत का कहा माना। इससे उसका बेटा इश्माएल अपने पिता के साए में पैदा हुआ।
15. कुछ ऐसे हालात के बारे में बताइए, जिनमें यहोवा के निर्देशनों को मानने के लिए हमें नम्रता की ज़रूरत है।
15 यहोवा के कुछ निर्देशनों को मानने के लिए शायद हमें भी नम्र होना पड़े। जैसे, कुछेक को शायद कबूल करना पड़े कि वे जिस तरह के मनोरंजन का आनंद लेते हैं, वह यहोवा को मंज़ूर नहीं। हो सकता है, एक मसीही ने किसी को ठेस पहुँचायी हो और उसे माफी माँगनी पड़े। या शायद उसने कोई गलती की हो और उसे कबूल करना पड़े। लेकिन तब क्या, जब कोई गंभीर पाप करता है? ऐसे में उसे खुद को नम्र करने और प्राचीनों के सामने अपने पाप को कबूल करने की ज़रूरत है। लेकिन अगर एक मसीही ऐसा नहीं करता, तो उसे कलीसिया से बहिष्कृत किया जाता है। बहिष्कृत होने के बाद अगर वह कलीसिया में वापस आना चाहता है, तो उसे नम्र होकर पश्चाताप करने और पाप का रास्ता छोड़ने की ज़रूरत है। इन और ऐसे दूसरे हालात में नीतिवचन 29:23 में दर्ज़ शब्दों से काफी दिलासा मिलता है: “मनुष्य गर्व के कारण नीचा खाता है, परन्तु नम्र आत्मावाला महिमा का अधिकारी होता है।”
यहोवा हमें कैसे मार्गदर्शन देता है?
16, 17. हम बाइबल से, जो कि परमेश्वर से मार्गदर्शन पाने का एक ज़रिया है, पूरा-पूरा फायदा कैसे पा सकते हैं?
16 परमेश्वर से मार्गदर्शन पाने का सबसे अहम ज़रिया है, उसका प्रेरित वचन बाइबल। (2 तीमुथियुस 3:16, 17 पढ़िए।) अगर हम बाइबल से पूरा-पूरा फायदा पाना चाहते हैं, तो बुद्धिमानी इसी में होगी कि हम उससे मददगार सलाह पाने के लिए मुश्किल हालात के आने तक का इंतज़ार न करें। इसके बजाय, हमें हर दिन बाइबल पढ़ने की आदत डालनी चाहिए। (भज. 1:1-3) इस तरह हम परमेश्वर के वचन से अच्छी तरह वाकिफ हो पाएँगे। और हम वैसा ही सोचने लगेंगे, जैसा परमेश्वर सोचता है। साथ ही, हम अचानक आनेवाली हर मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार होंगे।
17 बाइबल पढ़ने के अलावा, हमें पढ़ी हुई बातों पर मनन करना चाहिए और उस सिलसिले में प्रार्थना भी करनी चाहिए। जब हम बाइबल की आयतों पर मनन करते हैं, तो हम इस बारे में गहराई से सोचते हैं कि ये आयतें फलाँ हालात में कैसे लागू हो सकती हैं। (1 तीमु. 4:15) जब हम पर कोई बड़ी समस्या आती है, तो हम यहोवा से प्रार्थना करते हैं और ज़रूरी मार्गदर्शन के लिए उससे मदद माँगते हैं। इस पर यहोवा की आत्मा हमें बाइबल के वे सिद्धांत याद दिलाती है, जो हमने बाइबल या बाइबल पर आधारित साहित्य में पहले पढ़े थे।—भजन 25:4, 5 पढ़िए।
18. यहोवा मसीही भाईचारे के ज़रिए हमें कैसे मार्गदर्शन देता है?
18 परमेश्वर से मार्गदर्शन पाने का एक और अनमोल ज़रिया है, हमारा मसीही भाईचारा। इस भाईचारे का खास हिस्सा है, “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” और उसका नुमाइंदा, शासी निकाय। शासी निकाय हमें किताबों-पत्रिकाओं, सभाओं और सम्मेलनों के ज़रिए लगातार आध्यात्मिक भोजन मुहैया कराता है। (मत्ती 24:45-47. प्रेरितों 15:6, 22-31 से तुलना कीजिए।) इसके अलावा, मसीही भाईचारे में आध्यात्मिक रूप से प्रौढ़ भाई-बहन, खासकर प्राचीन शामिल हैं। ये मसीही इस लायक हैं कि हमें निजी तौर से मदद और बाइबल पर आधारित सलाहें दे सकते हैं। (यशा. 32:1) मसीही परिवारों में बच्चों और जवानों के लिए एक और बढ़िया मदद हाज़िर है। वह है, उनके माता-पिता। माता-पिताओं को अपने बच्चों को सिखाने की ज़िम्मेदारी परमेश्वर ने दी है। इसलिए बच्चों और जवानों को बढ़ावा दिया जाता है कि वे उनसे मार्गदर्शन लें।—इफि. 6:1-3
19. यहोवा से लगातार मार्गदर्शन माँगते रहने से हमें क्या आशीषें मिलती हैं?
19 जी हाँ, यहोवा कई तरीकों से हमें मार्गदर्शन देता है और हमें उनका पूरा-पूरा फायदा उठाना चाहिए। जिस वक्त इस्राएल जाति परमेश्वर की वफादार थी, उस वक्त के बारे में राजा दाऊद ने कहा: “हमारे पुरखा तुझी पर भरोसा रखते थे; वे भरोसा रखते थे, और तू उन्हें छुड़ाता था। उन्हों ने तेरी दोहाई दी और तू ने उनको छुड़ाया वे तुझी पर भरोसा रखते थे और कभी लज्जित न हुए।” (भज. 22:3-5) अगर हम यहोवा के मार्गदर्शन पर पूरा भरोसा रखते हुए उस पर चलें, तो हम भी ‘कभी लज्जित नहीं होंगे।’ यानी हमारी आशा ज़रूर पूरी होगी। अगर हम अपनी बुद्धि पर भरोसा करने के बजाय, ‘अपने मार्गों की चिन्ता यहोवा पर छोड़ दें,’ तो हमें आज भी बेशुमार आशीषें मिलेंगी। (भज. 37:5) और अगर हम पूरी वफादारी के साथ ऐसा करते रहें, तो ये आशीषें हमें हमेशा-हमेशा तक मिलती रहेंगी। राजा दाऊद ने लिखा: “यहोवा न्याय से प्रीति रखता; और अपने भक्तों को न तजेगा। उनकी तो रक्षा सदा होती है, . . . धर्मी लोग पृथ्वी के अधिकारी होंगे, और उस में सदा बसे रहेंगे।”—भज. 37:28, 29.
क्या आप समझा सकते हैं?
• हम यहोवा के मार्गदर्शन पर भरोसा क्यों करते हैं?
• अगर हम यहोवा के मार्गदर्शन को ठुकरा दें, तो इससे क्या ज़ाहिर होगा?
• किन हालात में एक मसीही को नम्रता के गुण की ज़रूरत पड़ती है?
• आज यहोवा हमें कैसे मार्गदर्शन देता है?
[पेज 8 पर तसवीरें]
क्या आप ज़िंदगी के हर दायरे में यहोवा से मार्गदर्शन माँगते हैं?
[पेज 9 पर तसवीर]
हव्वा ने यहोवा की हुकूमत को ठुकरा दिया
[पेज 10 पर तसवीर]
स्वर्गदूत का निर्देशन मानने के लिए हाजिरा को किस गुण की ज़रूरत थी?