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  • मिशनरी सफर में आड़े नहीं आया मेरा शर्मीला स्वभाव

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  • मिशनरी सफर में आड़े नहीं आया मेरा शर्मीला स्वभाव
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w25 अगस्त पेज 26-30
मारीआना वर्टहोल्ज़।

जीवन कहानी

मिशनरी सफर में आड़े नहीं आया मेरा शर्मीला स्वभाव

मारीआना वर्टहोल्ज़ की ज़ुबानी

बचपन में मैं बहुत शर्मीले स्वभाव की थी और लोगों से डरती थी। लेकिन फिर जैसे-जैसे वक्‍त गुज़रा यहोवा ने मुझे लोगों से प्यार करना सिखाया और मुझे मिशनरी बनने में मदद की। कैसे? सबसे पहले उसने मेरे पापा के ज़रिए ऐसा किया। फिर एक नौजवान बहन की बढ़िया मिसाल से सिखाया। और बाद में मेरे पति के ज़रिए, जिन्होंने मुझे प्यार से बढ़िया सलाह दी। चलिए मैं आपको अपने सफर के बारे में थोड़ा और बताती हूँ।

मेरा जन्म 1951 में ऑस्ट्रिया के वीएना शहर में हुआ था। मेरे मम्मी-पापा कैथोलिक थे। मैं बहुत शर्मीले स्वभाव की थी, लेकिन मैं ईश्‍वर को मानती थी और अकसर उससे प्रार्थना करती थी। जब मैं 9 साल की हुई, तो मेरे पापा ने यहोवा के साक्षियों के साथ अध्ययन करना शुरू कर दिया। बाद में मेरी मम्मी भी उनके साथ अध्ययन करने लगीं।

अपनी बहन एलीज़ाबेथ के साथ (बायीं तरफ)

जल्द ही हम वीएना की डॉबलिंग मंडली का हिस्सा बन गए। हमारे परिवार ने साथ मिलकर बहुत कुछ किया। हम साथ में बाइबल पढ़ते थे, अध्ययन करते थे, सभा में जाते थे और सम्मेलनों में स्वयंसेवक के तौर पर भी काम करते थे। बचपन से ही मेरे पापा ने जिस तरह मुझे सिखाया, उस वजह से मैं यहोवा से बहुत प्यार करने लगी। मेरे पापा तो यह प्रार्थना भी करते थे कि मैं और मेरी बहन पायनियर सेवा करें। लेकिन उस वक्‍त मैं पायनियर सेवा नहीं करना चाहती थी।

पूरे समय की सेवा

1965 में 14 साल की उम्र में मैंने बपतिस्मा ले लिया। लेकिन अब भी अजनबियों से बात करने के नाम से ही मेरे पसीने छूट जाते थे। जब मैं अपनी उम्र के दूसरे नौजवान बच्चों को देखती थी, तो मैं सोचती थी कि काश, मैं भी इनकी तरह होती और सब मुझे पसंद करते। इसलिए बपतिस्मे के कुछ ही वक्‍त बाद मैं ऐसे लोगों से मिलने-जुलने लगी, जो यहोवा के साक्षी नहीं थे। मुझे उनके साथ रहना अच्छा लगता था। लेकिन मेरा मन मुझसे कहता था कि मैं सही नहीं कर रही हूँ, क्योंकि मैं उनके साथ बहुत ज़्यादा वक्‍त बिताती थी। मेरे अंदर खुद को बदलने की हिम्मत नहीं थी। फिर मुझे किस बात से मदद मिली?

मारीआना और डॉरथी।

मैंने डॉरथी से बहुत कुछ सीखा (बायीं तरफ)

उस दौरान 16 साल की एक बहन हमारी मंडली में आयी। उसका नाम डॉरथी था। वह बहुत जोश से घर-घर का प्रचार करती थी और यह देखकर मैं हैरान रह गयी। मैं उम्र में उससे थोड़ी बड़ी थी, पर मेरे अंदर उसके जैसा जोश नहीं था। मैं सोचती थी, ‘मेरे मम्मी-पापा तो यहोवा के साक्षी हैं, लेकिन डॉरथी के परिवार में तो कोई भी सच्चाई में नहीं है। वह अपनी बीमार माँ की देखभाल भी करती है, लेकिन तब भी वह हमेशा प्रचार में आती है।’ उसके बारे में सोचकर मेरा भी मन करने लगा कि मुझे भी यहोवा के लिए कुछ और करना चाहिए। जल्द ही डॉरथी और मैं साथ मिलकर पायनियर सेवा करने लगे। पहले हमने सहयोगी पायनियर सेवा की (जिसे उस वक्‍त “वैकेशन पायनियर” सेवा कहा जाता था) और फिर हम रेगुलर पायनियर के तौर पर सेवा करने लगे। डॉरथी का जोश देखकर मैं भी जोश से भर गयी। उसकी मदद से मैं अपना पहला बाइबल अध्ययन शुरू कर पायी। कुछ समय बाद घर-घर के प्रचार में, सड़क पर गवाही देते वक्‍त या दूसरे मौकों पर अजनबियों से बात करना मेरे लिए आसान होने लगा।

मेरी पायनियर सेवा के पहले साल के दौरान ही ऑस्ट्रिया से एक भाई हमारी मंडली में आया। उसका नाम हीन्ट्‌ज़ था। एक बार जब वह अपने भाई से मिलने कनाडा गया, जो यहोवा का एक साक्षी था, तो उसने भी वहाँ सच्चाई सीखी। हीन्ट्‌ज़ को वीएना में हमारी मंडली में खास पायनियर के तौर पर सेवा करने भेजा गया था। मुझे वह शुरू से ही पसंद था। पर वह भाई एक मिशनरी बनना चाहता था और मेरा मिशनरी बनने का कोई इरादा नहीं था। इसलिए शुरू-शुरू में मैंने उसे ऐसा कोई इशारा नहीं दिया कि मैं उसे पसंद करती हूँ। लेकिन कुछ समय बाद हम दोनों डेटिंग करने लगे और हमने शादी कर ली। उसके बाद हमने साथ मिलकर ऑस्ट्रिया में पायनियर सेवा की।

मिशनरी सेवा का लक्ष्य

हीन्ट्‌ज़ की दिली इच्छा थी कि वे मिशनरी सेवा करें और वे इस बारे में अकसर मुझसे बात करते थे। उन्होंने मुझ पर कभी-भी दबाव नहीं डाला। लेकिन वे मुझसे कभी-कभी कुछ ऐसे सवाल पूछते थे, जिसकी वजह से मैं सोचने पर मजबूर हो जाती थी। जैसे, ‘हमारे बच्चे नहीं हैं, तो क्या हम यहोवा की सेवा और ज़्यादा कर सकते हैं? जैसे मैंने पहले बताया था, मैं बहुत शर्मीले स्वभाव की हूँ, इस वजह से मुझे मिशनरी सेवा के नाम से ही डर लगता था। यह सच है कि मैं पायनियर थी, लेकिन जब भी मैं मिशनरी सेवा के बारे में सोचती थी, तो मेरा सिर चकरा जाता था। लेकिन हीन्ट्‌ज़ ने हार नहीं मानी। वे मुझसे मिशनरी सेवा के बारे में बात करते रहते थे। उन्होंने मुझे यह भी बढ़ावा दिया कि मैं खुद के बारे में सोचने के बजाय लोगों के बारे में सोचूँ। उनकी इस सलाह से मुझे बहुत फायदा हुआ।

1974 में हीन्ट्‌ज़ ऑस्ट्रिया के सॉल्ज़बर्ग में सर्बो-क्रोएशियन बोलनेवाली मंडली में प्रहरीदुर्ग अध्ययन चलाते हुए

धीरे-धीरे मेरा भी मिशनरी सेवा करने का मन करने लगा। इसलिए हमने गिलियड स्कूल के लिए अर्ज़ी भर दी। लेकिन फिर उस वक्‍त शाखा दफ्तर की ज़िम्मेदारी सँभालनेवाले भाई ने मुझे सुझाव दिया कि मैं अपनी अँग्रेज़ी में थोड़ा सुधार करूँ। तीन साल तक मैंने अँग्रेज़ी भाषा अच्छी तरह सीखने के लिए बहुत मेहनत की। लेकिन फिर अचानक हमसे कहा गया कि हम ऑस्ट्रिया के सॉल्ज़बर्ग शहर जाएँ और वहाँ सर्बो-क्रोएशियन भाषा की एक मंडली में सेवा करें। हमने वहाँ सात साल तक सेवा की, जिसमें से एक साल के लिए हमें सर्किट काम करने का भी मौका मिला। सर्बो-क्रोएशियन भाषा सीखना आसान नहीं था, लेकिन हमें कई बाइबल अध्ययन मिले।

1979 में शाखा दफ्तर में निगरानी करनेवाले भाइयों ने हमसे कहा कि हम कुछ समय के लिए बुल्गारिया जाएँ। वहाँ हमारे प्रचार काम पर रोक लगी थी। इसलिए उन्होंने हमसे कहा कि हम इस तरह जाएँ मानो हम छुट्टियाँ मनाने के लिए गए हैं। हमसे कहा गया कि हमें वहाँ प्रचार काम नहीं करना है। पर हमें चोरी-छिपे अपने साथ छोटे-छोटे आकार में बनायी गयी किताबें-पत्रिकाएँ लेकर जानी हैं और उन्हें उस देश की राजधानी सोफिया में रहनेवाली हमारी पाँच बहनों तक पहुँचाना है। मैं बहुत डरी हुई थी। लेकिन यहोवा की मदद से हम यह काम पूरा कर पाए। उन पाँच बहनों को अपने विश्‍वास की वजह से कभी-भी जेल हो सकती थी। लेकिन उनकी हिम्मत और उनकी खुशी देखकर मेरा भी हौसला बढ़ा कि यहोवा का संगठन मुझे जो भी करने के लिए कहता है, उसे मैं पूरे दिलो-जान से करूँ।

उसी दौरान हमने फिर से गिलियड के लिए अर्ज़ी भरी। और इस बार हमारी अर्ज़ी मंज़ूर हो गयी। हमने सोचा कि हमें अमरीका में अँग्रेज़ी में इस क्लास में हाज़िर होने का मौका मिलेगा। लेकिन नवंबर 1981 में जर्मनी के बीसवेडन शहर में ‘गिलियड एक्सटेंशन स्कूल’ की शुरूआत हुई। इसलिए हमें जर्मन भाषा में स्कूल में हाज़िर होने का मौका मिला। और यह अच्छा भी था क्योंकि जर्मन भाषा में मैं सबकुछ अच्छे-से समझ पायी। अब इसके बाद हमें कहाँ भेजा जाता?

ऐसे देश में सेवा करना जहाँ युद्ध-पर-युद्ध हो रहे थे

हमें केन्या में सेवा करने के लिए भेजा गया। लेकिन केन्या के शाखा दफ्तर के भाइयों ने हमसे पूछा कि क्या हम पड़ोसी देश युगांडा में सेवा करने के लिए जा सकते हैं। करीब 10 साल पहले युगांडा में एक सेना अफसर जनरल ईडी आमीन ने वहाँ की सत्ता अपने हाथों में ले ली थी। वो बहुत ही तानाशाह था, इसलिए अगले कुछ सालों तक उसने हज़ारों लोगों की जान ले ली और लाखों लोगों का जीना मुश्‍किल कर दिया। लेकिन फिर 1979 में जनरल ईडी आमीन के विरोधियों ने उसके खिलाफ आवाज़ उठायी और उसे सत्ता छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इसलिए अब आप समझ सकते हैं कि एक ऐसे देश में जाकर सेवा करने से शुरू-शुरू में मुझे क्यों डर लग रहा था। लेकिन गिलियड में हमने सीखा कि हमें यहोवा पर भरोसा रखना है। इसलिए हमने वहाँ जाने के लिए हाँ बोल दिया।

युगांडा के हालात बहुत मुश्‍किल थे। इस बारे में हीन्ट्‌ज़ ने 2010 की सालाना किताब में कुछ इस तरह समझाया: ‘कई ज़रूरी सुविधाएँ बंद हो गयी थीं, जैसे पानी और टेलीफोन की व्यवस्था। जगह-जगह गोलियाँ चलना और लूटमार होना बहुत आम हो गया था और रात में यह और भी ज़्यादा होता था। अँधेरा होते ही सब अपने घर में दुबककर बैठ जाते थे। वे प्रार्थना करते और यह उम्मीद करते कि बस उनकी आज की रात कट जाए और उनके घर कोई बिन बुलाया मेहमान ना आ जाए। इन सब मुश्‍किल हालात के बावजूद वहाँ के भाई-बहन खुशी-खुशी यहोवा की सेवा कर रहे थे!

वाइस्वा परिवार के घर पर खाना बनाते हुए

1982 में, मैं और हीन्ट्‌ज़ युगांडा की राजधानी कंपाला आ गए। शुरू के पाँच महीने हम भाई सैम और बहन क्रिस्टीना वाइस्वा के साथ रुके। उनके परिवार में उनके पाँच बच्चे और चार रिश्‍तेदार भी थे। भाई और बहन वाइस्वा का परिवार अकसर दिन में सिर्फ एक ही बार खाना खा पाता था। उसके बाद भी उन्होंने हमारे लिए जो दरियादिली दिखायी वह लाजवाब थी। उनके परिवार के साथ रहकर मैंने और हीन्ट्‌ज़ ने बहुत-सी अच्छी बातें सीखीं, जो हमारी मिशनरी सेवा में बहुत काम आयीं। जैसे हमने सीखा कि हम कैसे पानी को बचा सकते हैं। हम कुछ ही लीटर पानी में नहा सकते हैं और गंदे पानी को टॉयलेट में इस्तेमाल कर सकते हैं। फिर 1983 में हमें अपना एक घर मिल गया जो कंपाला में ही थोड़ा सुरक्षित इलाके में था।

कंपाला में सेवा करना बहुत मज़ेदार था। मुझे याद है कि हमने एक महीने में करीब 4,000 से भी ज़्यादा पत्रिकाएँ पेश कीं! लेकिन सबसे अच्छी बात यह थी कि वहाँ के लोगों को ईश्‍वर और बाइबल के बारे में बात करना बहुत अच्छा लगता था। हीन्ट्‌ज़ और मैं अकसर 10-10, 15-15 बाइबल अध्ययन कराते थे। हमने अपने विद्यार्थियों से भी बहुत कुछ सीखा। जैसे उन्हें सभाओं में पैदल चलकर आना-जाना पड़ता था, लेकिन वे हमेशा मुसकुराते रहते थे और उन्होंने कभी कोई शिकायत नहीं की। उनका जज़्बा देखकर हमें बहुत अच्छा लगता था।

1985 और 1986 में युगांडा में दो और युद्ध हुए। हम अकसर देखते थे कि छोटे बच्चे बंदूक लिए घूम रहे हैं और उन्हें सड़कों पर नाकाबंदी की जगह तैनात किया गया है। उस वक्‍त हम प्रार्थना करते थे कि हम शांत रह पाएँ, सूझबूझ से काम ले पाएँ और प्रचार करते वक्‍त दिलचस्पी रखनेवालों को ढूँढ़ पाएँ। यहोवा ने हमारी प्रार्थना का जवाब दिया। अकसर ऐसा होता था कि जैसे ही हमें कोई ऐसा व्यक्‍ति मिलता था जिसे हमारे संदेश में दिलचस्पी हो, तो हम अपना सारा डर भूल जाते थे।

हीन्ट्‌ज़ और मैं तत्याना के साथ (तत्याना बीच में)

हमें दूसरे देश के लोगों को प्रचार करने में भी मज़ा आता था। जैसे हम मूरत और दिलबर इबातुलिन नाम के एक पति-पत्नी से मिले जो तातारस्तान (मध्य रूस) से थे। मूरत एक डॉक्टर था। उन दोनों ने सच्चाई सीखी और उसके बाद से वे जोश से यहोवा की सेवा करने लगे। फिर कुछ समय बाद मैं तत्याना विलेस्का नाम की एक औरत से मिली जो यूक्रेन से थी। उस समय वह बहुत निराश थी और अपनी जान लेने की सोच रही थी। लेकिन फिर उसने सच्चाई सीखी और बपतिस्मा लिया। और उसके बाद वह यूक्रेन चली गयी और वहाँ जाकर उसने हमारे प्रकाशनों का अनुवाद करने में मदद की।a

कुछ और मुश्‍किलें

1991 में जब हम छुट्टियों में ऑस्ट्रिया गए थे तो वहाँ की शाखा दफ्तर ने हमें बताया कि अब हमें एक दूसरी जगह भेजा जा रहा है: बुल्गारिया। पूर्वी यूरोप में जब साम्यवाद खत्म हो गया, तब बुल्गारिया में यहोवा के साक्षियों के काम को कानूनी मान्यता मिल गयी। आपको याद होगा कि हम वहाँ पहले भी जा चुके हैं। उस वक्‍त बुल्गारिया में हमारे काम पर रोक लगी थी और हम चोरी-छिपे किताबें-पत्रिकाएँ लेकर गए थे। लेकिन अब हमें वहाँ प्रचार करने के लिए भेजा जा रहा था।

हमसे कहा गया कि हम युगांडा वापस ना जाएँ। तो कम्पाला में अपने मिशनरी घर जाने और वहाँ अपने दोस्तों से मिलने के बजाय हम सीधा जर्मनी बेथेल गए। वहाँ से हमने एक गाड़ी ली और बुल्गारिया चले गए। हमें सोफिया शहर में एक समूह में सेवा करने के लिए भेजा गया। वहाँ उस वक्‍त 20 प्रचारक थे।

बुल्गारिया में भी हमारे सामने कुछ मुश्‍किलें आयीं। एक मुश्‍किल तो यह थी कि हमें वहाँ की भाषा नहीं आती थी। इसके अलावा बल्गेरियन भाषा में सिर्फ दो किताबें थीं: सत्य जो अनंत जीवन की ओर ले जाता है और बाइबल कहानियों की मेरी मनपसंद किताब। और वहाँ हमारे लिए बाइबल अध्ययन शुरू करना भी बहुत मुश्‍किल था। इन सब मुश्‍किलों के बाद भी सोफिया के हमारे छोटे-से समूह में तरक्की हो रही थी। वहाँ के भाई-बहन बहुत जोशीले थे। लेकिन जब वहाँ के ऑर्थोडॉक्स चर्च के पादरियों का हमारे काम पर ध्यान गया, तब हमारे सामने कुछ बड़ी मुश्‍किलें खड़ी हो गयीं।

1994 में वहाँ साक्षियों की मान्यता रद्द कर दी गयी और वहाँ के बहुत-से लोग सोचते थे कि यहोवा के साक्षी बहुत खतरनाक पंथ के लोग हैं। कुछ भाइयों को जेल हो गयी। मीडिया ने भी हमारे बारे में बहुत ही बुरी खबरें फैला दी थीं, जो सरासर झूठ थीं। जैसे, उन्होंने बताया कि यहोवा के साक्षी अपने बच्चों को मरने के लिए छोड़ देते हैं और दूसरों को अपनी जान लेने के लिए मजबूर करते हैं। हम दोनों के लिए यहाँ प्रचार करना बहुत ही मुश्‍किल था। हमें अकसर प्रचार में ऐसे लोग मिलते थे जो हम पर चीखते-चिल्लाते थे, हम पर कुछ-न-कुछ फेंकने लगते थे और कभी-कभी पुलिस को बुला देते थे। उस देश में किताबें-पत्रिकाएँ पहुँचाना मुमकिन नहीं था और सभाओं के लिए कोई जगह किराए पर लेना भी बहुत मुश्‍किल हो गया था। एक बार हमारा अधिवेशन चल रहा था कि तभी वहाँ पुलिस आ गयी और हमारा कार्यक्रम रोक दिया। इन सब बातों की हमें आदत नहीं थी। यहाँ के लोग युगांडा के लोगों से बिलकुल अलग थे। युगांडा के लोग बहुत मिलनसार थे और हमारा संदेश ध्यान से सुनते थे। इसलिए यहाँ के खूँखार लोगों का सामना करना हमारे लिए बहुत मुश्‍किल था। तो फिर किस वजह से हम इस नए माहौल में खुशी से यहोवा की सेवा कर पाए?

बुल्गारिया के भाई-बहनों के साथ वक्‍त बिताकर हमें बहुत अच्छा लगता था। हम देख पाए कि वे सच्चाई सीखकर कितने खुश हैं और वे इस बात के लिए भी बहुत एहसानमंद थे कि हम वहाँ उनका साथ दे पा रहे हैं। सब लोग एक दूसरे की बहुत परवाह करते थे और हमेशा एक दूसरे की मदद करते थे। इन सब बातों से हमने सीखा कि हम चाहे जहाँ भी यहोवा की सेवा कर रहे हों, अगर हम लोगों से प्यार करते रहें, तो हम खुश रह सकते हैं।

मारीआना और हीन्ट्‌ज़ वर्टहोल्ज़।

2007 में बुल्गारिया शाखा दफ्तर में

लेकिन कुछ समय बाद वहाँ हालात सुधर गए। 1998 में हमें फिर से कानूनी मान्यता मिल गयी। और जल्द ही बल्गेरियन भाषा में कई सारी किताबें-पत्रिकाएँ भी आ गयीं। फिर 2004 में नया शाखा दफ्तर बनाया गया। आज बुल्गारिया में 57 मंडलियाँ हैं, जिनमें कुल मिलाकर 2,953 प्रचारक हैं। पिछले सेवा साल में वहाँ स्मारक में 6,475 लोग हाज़िर हुए। सोफिया शहर में जहाँ एक वक्‍त पर सिर्फ पाँच बहनें थीं, वहाँ आज नौ मंडलियाँ हैं। हम दोनों ने वहाँ यशायाह 60:22 में दी भविष्यवाणी को अपनी आँखों से सच होते देखा है जहाँ लिखा है, “थोड़े-से-थोड़ा, एक हज़ार हो जाएगा।”

सेहत से जुड़ी और दूसरी समस्याएँ

मेरी सेहत अकसर खराब रहने लगी। सालों के चलते डॉक्टरों ने मुझे बताया कि मेरे शरीर में कई ट्‌यूमर हैं, यहाँ तक कि मेरे सिर में भी। मेरी रेडिएशन थेरेपी हुई और आगे का इलाज करवाने के लिए मैं भारत गयी जहाँ मेरा एक ऑपरेशन 12 घंटों तक चला। उस ऑपरेशन में काफी हद तक मेरे सिर का ट्‌यूमर निकाल दिया गया। ऑपरेशन के बाद मैं कुछ वक्‍त तक भारत के बेथेल में ही रही ताकि मैं पूरी तरह ठीक हो सकूँ। फिर मैं वापस बुल्गारिया चली गयी।

उसी दौरान हीन्ट्‌ज़ को हंटिंगटन नाम की एक मानसिक बीमारी हो गयी जो बहुत कम लोगों में पायी जाती है। यह बीमारी अकसर माता-पिता से बच्चों के अंदर आती है। इस बीमारी की वजह से हीन्ट्‌ज़ के लिए चलना, बात करना या दूसरे छोटे-छोटे काम करना बहुत मुश्‍किल हो गया था। जैसे-जैसे यह बीमारी बढ़ती गयी, हीन्ट्‌ज़ मुझ पर और भी ज़्यादा निर्भर रहने लगे। कभी-कभी मैं बहुत थक जाती थी और मुझे ये चिंता सताने लगती थी कि मैं इनको कैसे सँभाल पाऊँगी। एक जवान भाई, जिसका नाम बॉबी था, अकसर हमारे घर आ जाया करता था और हीन्ट्‌ज़ को अपने साथ प्रचार के लिए ले जाता था। बॉबी को यह चिंता नहीं रहती थी कि जब हीन्ट्‌ज़ ठीक से बात नहीं कर पाएँगे या वे अपने हाथ-पैरों को काबू में नहीं रख पाएँगे, तो लोग क्या सोचेंगे। मुझे इस बात का पूरा यकीन रहता था कि अगर मैं हीन्ट्‌ज़ के साथ नहीं हूँ, तो भी बॉबी उनका अच्छे से खयाल रख सकता है। हालाँकि मैंने और हीन्ट्‌ज़ ने यह सोचा था कि हम इस दुनिया में बच्चे नहीं करेंगे, लेकिन हमें ऐसा लगता था कि यहोवा ने बॉबी के रूप में हमें एक बेटा दे दिया है!—मर. 10:29, 30.

हीन्ट्‌ज़ को कैंसर भी हो गया था। दुख की बात है कि 2015 में मौत ने मेरे हीन्ट्‌ज़ को मुझसे छीन लिया। हीन्ट्‌ज़ के जाने के बाद मैं बहुत बेबस महसूस करने लगी। मुझे यकीन ही नहीं होता था कि अब वे नहीं रहे। लेकिन मेरी यादों में वे अब भी ज़िंदा हैं। (लूका 20:38) वे मुझसे जो प्यार-भरी बातें करते थे, मुझे जो बढ़िया सलाह देते थे, वह मैं हमेशा याद करती हूँ। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब मुझे उनकी याद ना आती हो। मैं बहुत खुश हूँ कि इतने सालों तक हम साथ मिलकर वफादारी से यहोवा की सेवा कर पाए।

यहोवा ने हर कदम पर साथ दिया

यहोवा ने हमेशा मेरी मुश्‍किलों के दौरान मुझे सँभाला। उसकी मदद से ही मैं शर्मीला स्वभाव होने के बाद भी एक मिशनरी बन पायी और लोगों से प्यार करना सीख पायी। (2 तीमु. 1:7) यहोवा का बहुत-बहुत शुक्रिया कि आज मैं और मेरी छोटी बहन पूरे समय की सेवा कर पा रहे हैं। वह और उसका पति यूरोप के सरबियन भाषा बोलनेवाले सर्किट में सेवा कर रहे हैं। सालों पहले मेरे पिता ने जो प्रार्थनाएँ की थीं, उन सब का जवाब मिल गया!

बाइबल का अध्ययन करने से मुझे मन की शांति और सुकून मिलता है। मैंने सीखा है कि मुश्‍किलों के दौरान मुझे “और ज़्यादा गिड़गिड़ाकर प्रार्थना” करनी चाहिए, जैसे यीशु ने की थी। (लूका 22:44) यहोवा ने भाई-बहनों के ज़रिए भी मेरी प्रार्थनाओं का जवाब दिया है। सोफिया में नडेज़्डा मंडली के मेरे प्यारे भाई-बहन मुझसे बहुत प्यार करते हैं और मेरी मदद करते हैं। वे मुझे अपने घर बुलाते हैं, ताकि मेरे साथ वक्‍त बिता सकें और अकसर मेरी तारीफ करते हैं। इस सबसे मुझे बहुत खुशी मिलती है।

मैं अकसर अपनी मन की आँखों से अपने परिवार को फिरदौस में देखती हूँ। मैं देखती हूँ कि मेरे मम्मी-पापा मेरे घर के बाहर खड़े हैं और वे उतने ही खूबसूरत दिख रहे हैं जितने वे अपनी शादी के वक्‍त दिखते थे। मेरी बहन खाना बना रही है। और हीन्ट्‌ज़ अपने घोड़े के साथ खड़े हैं। इन सब बातों के बारे में सोचने से मेरा ध्यान निराश करनेवाली बातों से हट जाता है और मेरा दिल यहोवा के लिए एहसान से भर जाता है।

जब मैं अपने बीते दिनों को याद करती हूँ और भविष्य के बारे में सोचती हूँ तो बिलकुल वैसा ही महसूस करती हूँ जैसा दाविद ने किया। उसने कहा, “अगर मुझे विश्‍वास न होता कि यहोवा मेरे जीते-जी भलाई करेगा, तो न जाने मेरा क्या होता! यहोवा पर आशा रख, हिम्मत से काम ले, अपना दिल मज़बूत रख। हाँ, यहोवा पर आशा रख।”—भज. 27:13, 14.

a तत्याना विलेस्का की जीवन कहानी 22 दिसंबर, 2000 की अँग्रेज़ी सजग होइए! के पेज 20-24 पर पढ़ें।

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