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मैट्‌स और आन-काटरीन एक गाँव में हैं और अपनी गाड़ी के पास खड़े हैं।

जीवन कहानी

यहोवा की मदद से ‘हमें जहाँ भी लगाया गया, हम खिलते रहे’

मैट्‌स और आन-काटरीन कासहोल्म की ज़ुबानी

“जहाँ लगाए गए हो वहाँ खिलते रहो।” शायद यह सुनने में थोड़ा अजीब लगे, लेकिन आइए देखें कि स्वीडन के रहनेवाले मैट्‌स और आन-काटरीन ने कैसे यह सलाह मानी और इससे उन्हें क्या फायदा हुआ।

मैट्‌स और आन-काटरीन 1979 में गिलियड गए थे। वहाँ भाई जैक रेडफर्ड ने, जो गिलियड के इंस्ट्रक्टर थे, उन्हें यह सलाह दी थी। आनेवाले सालों के दौरान उन्हें ईरान, मॉरीशस, म्यानमार, तंज़ानिया, युगांडा और ज़ाएर भेजा गया। वे एक ऐसे पौधे की तरह थे जिसे कई बार एक जगह से निकालकर दूसरी जगह लगाया गया। और उन्हें जहाँ कहीं लगाया गया वहाँ वे खिलते रहे। आइए उनसे उनकी कहानी सुनते हैं।

प्लीज़ हमें बताइए कि आप दोनों को सच्चाई कैसे मिली।

मैट्‌स: दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान हम पोलैंड में रह रहे थे। उस वक्‍त मेरे पापा कैथोलिक चर्च जाया करते थे। वहाँ उन्होंने देखा कि लोगों को सिखाया कुछ और जाता है, लेकिन वे करते कुछ और हैं। फिर भी उन्हें लगता था कि कहीं-न-कहीं तो सच्चाई है। और कुछ ही वक्‍त बाद मुझे यकीन हो गया कि पापा सही कह रहे थे। एक बार मैं बहुत-सी पुरानी किताबें पढ़ने के लिए खरीद लाया। उनमें से एक नीले रंग की किताब थी, जिसका नाम था,“सत्य जो अनंत जीवन की ओर ले जाता है।” उस किताब का नाम मुझे बहुत दिलचस्प लगा। जिस दिन मुझे वह किताब मिली, मैंने उसी रात वह पूरी पढ़ ली। सुबह होने तक मुझे यकीन हो गया कि यही सच्चाई है।

अप्रैल 1972 के बाद मैंने यहोवा के साक्षियों की कई किताबें-पत्रिकाएँ पढ़ीं। मेरे मन में बाइबल के बारे में जो भी सवाल थे, उन सब के जवाब मुझे मिल गए। मैंने यीशु की मिसाल में बताए उस व्यापारी की तरह महसूस किया जो एक बेशकीमती मोती की तलाश में था। जब उसे वह मोती मिल गया तो उसने अपना सबकुछ बेच दिया और उसे खरीद लिया। मुझे भी जब सच्चाई का मोती मिला, तो मैंने विश्‍व विद्यालय में पढ़ाई करने और डॉक्टर बनने का अपना करियर मानो बेच दिया और वह “मोती” खरीद लिया। (मत्ती 13:45, 46) 10 दिसंबर, 1972 में मैंने बपतिस्मा ले लिया।

एक साल के अंदर मेरे मम्मी-पापा और छोटा भाई भी अध्ययन करने लगे और उन्होंने भी बपतिस्मा ले लिया। जुलाई 1973 में मैंने पूरे समय की सेवा शुरू कर दी। हमारी मंडली में कई जोशीले पायनियर भाई-बहन थे। उनमें से एक थी बहन आन-काटरीन। उसका स्वभाव बहुत अच्छा था और उसे यहोवा से बहुत प्यार था। हम दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे। फिर 1975 में हमने शादी कर ली। अगले चार साल तक हमने स्वीडन के स्ट्रोमसंड शहर में सेवा की। वह बहुत खूबसूरत जगह थी और वहाँ बहुत-से लोग बाइबल का संदेश सुनते थे।

आन-काटरीन: जब मेरे पापा स्टॉकहोम में विश्‍व विद्यालय की अपनी पढ़ाई पूरी ही करनेवाले थे, तभी उन्होंने सच्चाई सीखी। उस वक्‍त मैं बस तीन महीने की थी, फिर भी मेरे पापा मुझे अपने साथ सभाओं में और प्रचार में ले जाते थे। मेरी मम्मी को यह सब पसंद नहीं था और वे साक्षियों को गलत साबित करने की कोशिश करती थीं। लेकिन इसके कुछ उलट ही हो गया। कुछ वक्‍त बाद उन्होंने भी सच्चाई सीखी और बपतिस्मा ले लिया। फिर 13 साल की उम्र में मैंने भी बपतिस्मा ले लिया और 16 साल की उम्र में मैं पायनियर सेवा करने लगी। फिर मैं उमाओ नाम की एक जगह सेवा करने गयी जहाँ प्रचारकों की ज़्यादा ज़रूरत थी। उसके बाद मुझे खास पायनियर सेवा करने का मौका मिला।

शादी के बाद मुझे और मैट्‌स को कई लोगों को सच्चाई सिखाने का मौका मिला। उनमें से एक थी नौजवान लड़की मीवर। उसने स्पोर्ट्‌स में अपना करियर बनाने के बजाय पायनियर सेवा करने का फैसला किया। वह और मेरी छोटी बहन साथ मिलकर पायनियर सेवा करती थीं। 1984 में उन दोनों को गिलियड स्कूल जाने का मौका मिला और अब वे इक्वाडोर में मिशनरी के तौर पर सेवा कर रही हैं।

आपने कई अलग-अलग देशों में मिशनरी के तौर पर सेवा की, उस दौरान आपने इस सलाह को कैसे माना कि “जहाँ लगाए गए हो वहीं खिलते रहो”?

मैट्‌स: हमें बार-बार एक जगह से दूसरी जगह लगाया गया यानी हमें कई अलग-अलग जगह जाकर सेवा करने के लिए कहा गया। लेकिन हमने कोशिश की कि हम यीशु में “जड़ पकड़े” रहें यानी उसकी तरह बनने की पूरी कोशिश करें, खासकर उसकी तरह नम्र बनने की। (कुलु. 2:6, 7) जैसे, हमने वहाँ के भाई-बहनों से यह उम्मीद नहीं की कि वे हमारे तरीके से काम करें। इसके बजाय हमने उनके और उनकी संस्कृति के बारे में जानने की कोशिश की, जैसे वह किस तरह सोचते हैं, किस तरह काम करते हैं और उसके पीछे क्या वजह होती है। यह सब करने से हमें बहुत फायदा हुआ। हमें बिलकुल ऐसा महसूस होता था जैसे हमें बहते पानी के पास लगाया गया हो। इस वजह से हमें जहाँ भी भेजा गया वहाँ हम खुशी-खुशी सेवा कर पाए।—भज. 1:2, 3.

मैट्‌स और आन-काटरीन ने अपना समान और खाने-पीने की कुछ चीज़ें लेकर जा रहे हैं।

मंडलियों का दौरा करते वक्‍त हम अकसर एक जगह से दूसरी जगह सफर करते थे

आन-काटरीन: जब एक पौधे को किसी दूसरी जगह लगाया जाता है तो उसके बढ़ते रहने के लिए सूरज की रौशनी भी ज़रूरी है। यहोवा ने हमेशा हमारे लिए एक “सूरज” की तरह काम किया। (भज. 84:11) उसने भाई-बहनों के ज़रिए हमें जो प्यार दिया, वह हमारे लिए सूरज की रौशनी जैसा था। जैसे ईरान की एक छोटी-सी मंडली तेहरान के भाई-बहनों ने हमारी बहुत अच्छी खातिरदारी की। यह देखकर हमें बाइबल में बताए उन लोगों की याद आयी, जो मेहमान-नवाज़ी के लिए जाने जाते हैं। हमारा दिल तो कह रहा था कि हम ईरान में रहकर ही सेवा करें। लेकिन जुलाई 1980 में वहाँ की सरकार ने यहोवा के साक्षियों के काम पर रोक लगा दी और हमसे कहा गया कि हम 48 घंटों के अंदर वहाँ से चले जाएँ। उसके बाद हमें अफ्रीका के ज़ाएर देश भेजा गया जो आज कांगो के नाम से जाना जाता है।

ज़ाएर के एक गाँव में एक छोटा-सा घर।

1982 में ज़ाएर की कुछ मीठी यादें

जब मैंने पहली बार सुना कि हमें अफ्रीका में सेवा करने के लिए जाना है, तो मुझे रोना आ गया। वहाँ के साँपों और वहाँ होनेवाली बीमारियों के बारे में मैंने जो सुना था, उस वजह से मैं बहुत डर गयी। लेकिन हमारे दो अच्छे दोस्त थे, जो काफी समय से वहाँ सेवा कर रहे थे, उन्होंने हमसे कहा, “आप अभी तक अफ्रीका आए नहीं हैं। एक बार यहाँ आकर तो देखिए, आपको अफ्रीका से प्यार हो जाएगा!” और बिलकुल ऐसा ही हुआ! वहाँ के भाई-बहनों ने हमें बहुत प्यार दिया। असल में जब छ: साल बाद ज़ाएर में हमारे काम पर रोक लग गयी और हमें वहाँ से जाने के लिए कहा गया, तो मैं खुद पर हँस रही थी। क्योंकि अब मैं यहोवा से प्रार्थना कर रही थी कि प्लीज़ हमें यहाँ से मत भेजिए, हम यहीं रहना चाहते हैं।

इतने सालों की सेवा के दौरान आपको कौन-सी आशीषें मिलीं?

आन-काटरीन अपनी वॉक्सवैगन कॉम्बी वैन के सामने एक कुर्सी पर बैठी हैं।

1988 में तंज़ानिया में हमारा छोटा-सा “घर”

मैट्‌स: मिशनरी सेवा की वजह से हम कई अच्छे दोस्त बना पाए। हम अलग-अलग देश और संस्कृति के मिशनरियों के साथ काफी वक्‍त बिता पाए। कुछ जगहों पर हमें कई लोगों के साथ बाइबल अध्ययन करने का मौका मिला। कभी-कभी तो हम दोनों के पास 20-20 अध्ययन होते थे। इससे हमें इतनी खुशी मिलती थी कि बता नहीं सकते। अफ्रीका के भाई-बहनों ने हमें जो प्यार दिया, हमारी मेहमान-नवाज़ी की, वह हम कभी नहीं भूल सकते। जब हम तंज़ानिया की मंडलियों का दौरा करने के लिए जाते थे, तो वहाँ के हमारे दोस्त ‘अपनी हैसियत से भी ज़्यादा’ हमारे लिए करते थे। (2 कुरिं. 8:3) और जब हम उनके घर के पास अपनी वॉक्सवैगन कॉम्बी वैन खड़ी करते थे, जिसमें हम सोते थे, तो वे इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि हमें किसी चीज़ की कोई कमी ना हो। एक और चीज़ जो हम दोनों के लिए बहुत खास थी, वह था शाम का हमारा वक्‍त जिसे हम “स्टोरी टाइम” कहते थे। उस वक्‍त हम साथ बैठते थे और पूरे दिन हमने क्या-क्या किया, उस बारे में बात करते थे और साथ में यहोवा को भी शुक्रिया कहते थे कि उसने पूरा दिन हमारा खयाल रखा।

आन-काटरीन: हम बहुत सारे अलग-अलग देशों के भाई-बहनों के साथ रह पाए। यह मेरे लिए बहुत खुशी की बात थी। हमने कई भाषाएँ भी सीखीं, जैसे फारसी, फ्रेंच, लुगांडा और स्वाहिली। और हम अलग-अलग संस्कृति के बारे में बहुत कुछ जान पाए। हम कई लोगों को यीशु का चेला बनने में मदद कर पाए। हमने कई अच्छे दोस्त बनाए और उनके साथ “कंधे-से-कंधा मिलाकर” यहोवा की सेवा की।—सप. 3:9.

हमने यहोवा की सृष्टि में भी बहुत-सी खूबसूरत चीज़ें देखीं। जब भी हमें यहोवा की सेवा करने के लिए किसी दूसरी जगह भेजा गया, तो हमें ऐसा लगता था जैसे यहोवा हमारा गाइड है और हमारे साथ-साथ सफर कर रहा है। इस वजह से हम ऐसी चीज़ों का अनुभव कर पाए जो शायद हम खुद से कभी नहीं कर पाते।

तसवीरें: 1. मैट्‌स और आन-काटरीन एक औरत और उसके बच्चों को प्रचार कर रहे हैं। 2. आन-काटरीन मसाई जाति के एक लड़के को प्रचार कर रही हैं।

तंज़ानिया के अलग-अलग इलाकों में प्रचार करते हुए

आपके सामने कौन-सी मुश्‍किलें आयीं और उनका आपने कैसे सामना किया?

मैट्‌स: इन सालों के दौरान हमें कई बीमारियों से जूझना पड़ा, जैसे मलेरिया। और आन-काटरीन को अचानक कई सर्जरी करानी पड़ीं। हमें हमारे मम्मी-पापा की भी चिंता लगी रहती थी। क्योंकि उनकी उम्र ढल रही थी। लेकिन खुशी की बात है कि मेरे छोटे भाई और आन-काटरीन के भाई-बहनों ने उनका बहुत अच्छे-से खयाल रखा। उन्होंने हमेशा बहुत सब्र रखा और वे खुशी-खुशी और प्यार से उनकी देखभाल करते थे। (1 तीमु. 5:4) फिर भी कभी-कभी हमें बहुत बुरा लगता था। हम सोचते थे, काश! हम उनके पास होते और उनके साथ रहकर उनकी और भी अच्छे-से देखभाल कर पाते।

आन-काटरीन: 1983 में जब हम ज़ाएर में सेवा कर रहे थे, तभी एक बार मुझे भयंकर कॉलरा हो गया। जब मैट्‌स ने मुझे डॉक्टर को दिखाया तो उसने कहा, “अच्छा रहेगा कि तुम इन्हें लेकर आज ही इस देश से निकल जाओ!” अगले ही दिन हम एक कार्गो प्लेन में बैठ गए क्योंकि उस वक्‍त वहाँ वही एक हवाई जहाज़ था। हम तुरंत स्वीडन के लिए निकल पड़े।

मैट्‌स: हमने सोचा कि हमारी मिशनरी सेवा यहीं खत्म हो जाएगी, इसलिए हम बहुत रोए। डॉक्टर को तो लगा था कि आन का ठीक होना मुश्‍किल है, पर वह धीरे-धीरे ठीक हो गयी। फिर एक साल बाद हम ज़ाएर वापस गए। और इस बार हम लुबुम्बाशी शहर की स्वाहिली भाषा बोलनेवाली एक छोटी-सी मंडली में गए।

आन-काटरीन: जब हम लुबुम्बाशी में थे तो हमें पता चला कि मैं माँ बननेवाली हूँ, लेकिन दुख की बात है कि मैंने अपने बच्चे को पैदा होने से पहले ही खो दिया। हालाँकि हमने बच्चा करने के बारे में सोचा नहीं था, लेकिन जब मैंने उसे खोया तो उसका दुख सहना मेरे लिए बहुत मुश्‍किल था। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे शरीर में जान ही नहीं रह गयी। लेकिन उसी दौरान यहोवा ने मुझे ऐसी आशीष दी जिसकी मैंने उम्मीद भी नहीं की थी। हमें अचानक इतने सारे बाइबल अध्ययन मिलने लगे, जितने पहले कभी नहीं मिले। एक साल के अंदर मंडली में प्रचारकों की गिनती 35 से बढ़कर 70 हो गयी और सभाओं की हाज़िरी 40 से बढ़कर 220 हो गयी। हम प्रचार करने और अध्ययन कराने में बहुत व्यस्त हो गए। सच में यह यहोवा की तरफ से एक ऐसी आशीष थी जिससे हमें बहुत दिलासा मिला। हम अब भी कभी-कभी अपनी उस नन्ही-सी जान के बारे में सोचते हैं और उसके बारे में बात करते हैं। हम उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं जब यहोवा हमारे दिल पर लगे ज़ख्म पूरी तरह भर देगा।

मैट्‌स: एक वक्‍त ऐसा आया जब आन बहुत कमज़ोर महसूस करने लगी और बहुत जल्दी थक जाती थी। और मुझे भी फोर्थ स्टेज कोलोन कैंसर (बड़ी आँत का कैंसर) हो गया। इसके लिए मुझे बहुत बड़ा ऑपरेशन करवाना पड़ा। लेकिन अब मैं बिलकुल ठीक हूँ और आन भी यहोवा की सेवा बहुत अच्छे-से कर पा रही है।

लेकिन हम ही अकेले नहीं थे जो इतनी परेशानियों का सामना कर रहे थे बल्कि हमारे और भी भाई-बहन तकलीफें झेल रहे थे। 1994 में युगांडा में जो कत्लेआम हुआ, उसके बाद हम अपने कुछ दोस्तों से शरणार्थी शिविरों में मिलने गए। हमने देखा कि उनमें कितना विश्‍वास है, वे कैसे धीरज से सब सह रहे हैं और इतने मुश्‍किल हालात में भी मेहमान-नवाज़ी कर रहे हैं। यह सब देखकर हमें यकीन हो गया कि यहोवा मुश्‍किल-से-मुश्‍किल हालात में भी अपने लोगों को सँभाल सकता है।—भज. 55:22.

आन-काटरीन: 2007 में हमें एक और मुश्‍किल हालात का सामना करना पड़ा। हम युगांडा शाखा दफ्तर के समर्पण के लिए गए हुए थे। कार्यक्रम खत्म होने के बाद हम केन्या के नैरोबी शहर जा रहे थे। हम करीब 25 भाई-बहन थे जिसमें से कुछ बेथल के भाई-बहन और कुछ मिशनरी थे। लेकिन केन्या बॉर्डर पर पहुँचने से पहले ही हमारे साथ एक हादसा हो गया। सामने से एक ट्रक आ रहा था, जो अचानक हमारी लाइन में आ गया और हमारी बस में टक्कर मार दी। ड्राइवर और हमारे पाँच भाई-बहनों की उसी वक्‍त मौत हो गयी। और फिर बाद में एक और बहन की अस्पताल में मौत हो गयी। हम उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं जब हम इन भाई-बहनों को दोबारा देखेंगे।—अय्यू. 14:13-15.

उस हादसे में मुझे जो चोट लगी थी वह तो धीरे-धीरे ठीक हो गयी, लेकिन मुझे, मैट्‌स और दूसरे भाई-बहनों को उस हादसे के बाद एक तरह की मानसिक समस्या से जूझना पड़ा। मुझे रात में अचानक बेचैनी होने लगती थी। मैं उठकर बैठ जाती थी। ऐसा लगता था जैसे मुझे दिल का दौरा पड़नेवाला है। मैं बहुत घबरा जाती थी। लेकिन फिर हम गिड़गिड़ाकर यहोवा से प्रार्थना करते थे और अपनी मनपसंद आयतें याद करते थे। इससे हमें बहुत दिलासा मिलता था। हमने डॉक्टरों की भी मदद ली और उससे हमें बहुत फायदा हुआ। अब हम पहले से काफी बेहतर महसूस करते हैं और हम यहोवा से उन लोगों के लिए प्रार्थना करते हैं जो हमारे जैसे हालात से गुज़र रहे हैं।

जब आप यह बता रहे थे कि आपने कैसे मुश्‍किल हालात का सामना किया, तो आपने कहा कि यहोवा ने आपको इस तरह सँभाला जैसे कोई कच्चे अंडों को सँभालकर उठाता है। क्या आप खुलकर बताएँगे आप क्या कहना चाहते थे?

मैट्‌स: स्वाहिली भाषा में एक कहावत है, जिसका मतलब है, ‘हमें कच्चे अंडों की तरह उठाया गया।’ जैसे कोई कच्चे अंडों को बहुत सँभालकर उठाता है, ताकि वे टूट ना जाएँ उसी तरह यहोवा ने भी बड़े प्यार से हमें सँभाला। हम जिस भी जगह सेवा करने के लिए गए वहाँ यहोवा ने हमारा बहुत अच्छे से खयाल रखा। उसने हमेशा हमारी ज़रूरतें पूरी कीं, यहाँ तक कि हमें ज़रूरत से बढ़कर दिया। शासी निकाय ने जिस तरह हमसे हमदर्दी रखी और हमारी मदद की उससे हम महसूस कर पाए कि यहोवा हमारे साथ है और हमसे बहुत प्यार करता है।

आन-काटरीन: मैं एक और मौके के बारे में बताना चाहती हूँ जब यहोवा ने प्यार से हमें सँभाला। एक दिन स्वीडन से मेरे पास एक फोन आया और मुझे पता चला कि मेरे पापा बीमार हैं। वे अस्पताल में हैं और उनकी हालत बहुत खराब है। मैट्‌स को मलेरिया हुआ था और वे अभी-अभी ठीक हुए थे। हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि हम घर जाने के लिए फ्लाइट की टिकट खरीद सकें। इसलिए हमने सोचा कि हम अपनी कार बेच देंगे। तभी हमारे पास दो और फोन आए। एक पति-पत्नी को जब हमारे हालात के बारे में पता चला तो उन्होंने हमें फोन किया और हमसे कहा कि हमारी एक टिकट का पैसा वे दे देंगे। दूसरा फोन एक बुज़ुर्ग बहन का था जिसने हमें बताया कि उसने एक बॉक्स में कुछ पैसे जमा करके रखे हैं और उस पर लिखा है, “किसी ज़रूरतमंद के लिए।” इस तरह कुछ ही मिनटों में यहोवा ने हमें इस मुश्‍किल हालात से बाहर निकाल लिया।—इब्रा. 13:6.

आपको पूरे समय की सेवा करते हुए 50 साल हो गए, इतने सालों के दौरान आपने क्या सीखा?

मैट्‌स और आन-काटरीन एक साथ खड़े हैं और दोनों बहुत खुश हैं।

म्यानमार बेथेल में सेवा करते हुए

आन-काटरीन: मैंने सीखा कि जब हम ‘शांत रहते हैं और यहोवा पर भरोसा रखते हैं,’ तो वह हमें मुश्‍किलों से लड़ने की ताकत देता है। असल में, जब हम उस पर भरोसा रखते हैं तो वह मानो हमारी तरफ से मुश्‍किलों से लड़ता है। (यशा. 30:15; 2 इति. 20:15, 17) हम जहाँ भी गए, हमने दिलो-जान से यहोवा की सेवा की। इस वजह से हमें इतनी सारी आशीषें मिलीं, जितनी शायद कुछ और करने से नहीं मिल पातीं।

मैट्‌स: एक ज़रूरी बात जो मैंने सीखी वह यह कि चाहे जैसे भी हालात हों, हमें सबकुछ यहोवा पर छोड़ देना है और फिर देखना है कि वह कैसे हमारी खातिर कदम उठाएगा। (भज. 37:5) उसने वादा किया है कि वह हमेशा हमारा खयाल रखेगा और उसने कभी-भी अपना यह वादा नहीं तोड़ा। आज भी जब हम म्यानमार के बेथेल में सेवा कर रहे हैं, तो हम देख सकते हैं कि वह कैसे अपना यह वादा पूरा कर रहा है।

हमें उम्मीद है कि जो भी नौजवान यहोवा की सेवा में और ज़्यादा करना चाहते हैं, वे यहोवा का अटल प्यार महसूस कर पाएँगे जैसा हमने किया। हमें यकीन है कि अगर वे यहोवा की मदद कबूल करें, तो उन्हें जहाँ कहीं भी लगाया जाएगा वे खिलते रहेंगे।

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